वायु / बालकृष्ण भट्ट
जगदीश जगदाधार पाँच तत्वों में वायु जो सबों में प्रधान है हमारे शरीर में सन्निवेशित कर हमें प्राणवान् किए हैं। वायु पाँचों तत्वों में प्रधान है। इसके प्रमाण में तैत्तरीय उपनिषद् की यह श्रुति है -
'तस्मादेतस्मादात्मन: आकाश: सम्भूत आकाशाद् वायुर्वायोरग्निरग्नेराप: अदम्य पृथिवी।'
'उस परमात्मा की सत्ता से पहले आकाश हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथिवी हुई। अग्नि, वायु, जल इन तीनों में वायु सबों में प्रधान है। शरीर के एक-एक अवयव हाथ, पाँव, नाक, कान, आँख इत्यादि में किसी एक के न रहने से भी हम जी सकते हैं। पर शरीर में वायु न रहे तो न जिएँगे। हमारे हाथ-पाँव इस और माँस तथा मेदा के बने हैं। विशेष कर जल और पृथ्वी इन्हीं दो तत्वों से इनका निर्माण है, ये न भी हों तो मनुष्य लूला और लँगड़ा ही जी सकता है। ऐसा ही हमारे दोनों नेत्र तैजस पदार्थ हैं न भी हों तो हम अंधे हो जीते रहेंगे। किंतु एक मिनट भी मुँह और नाक बंद कर वायु का गमनागमन बंद कर दिया जाय तो तत्क्षण हम मूर्छित हो जाएँगे। प्राणी-मात्र के लिए वायु तो जीवन हुई है वरन उदभिज पेड़-पालव भी हवा न लगने से हरे-भरे नहीं रह सकते।
वायु क्या पदार्थ है उसे हम नेत्र से नहीं देख सकते किंतु विचित्र शक्ति अद्भुत कल्पनाशाली सर्वेश्वर उसके ज्ञान के लिए त्वगिंद्रिय हमें दी है और किसी दूसरी इंद्रिय से वायु को हम प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। नैयायिकों के मत के अनुसार शब्द और स्पर्श यह दो इसके विषय हैं। दार्शनिकों ने शब्द गुण आकाश माना है। मछली आदि जल-चर जंतु जिस तरह अनंत अगाध समुद्र में रहते हैं वैसे ही हम विपुल वसुंधरा के ऊपर इसी विशाल वायु सागर में रहते हैं। मृदु-मंद गामी समीरन वृक्षों के पत्तों को कँपाता थके-माँदे मनुष्य की शीतल और पुलकित गात्र करता हुआ चलता है तब हम उसकी गति का अनुमान करते हैं किंतु प्रत्यक्ष नहीं कर सकते कि वायु क्या पदार्थ हैं? जब यह घोर गंभीर गर्जन से दिग्मंडल को पूरित करता अपने प्रबल आघात से ऊँचे-ऊँचे पेड़ों को उखाड़ डालता है उस समय हम वायु के केवल अस्तित्व मात्र से नहीं वरन इसकी असाधारण शक्ति से परिचित होते हैं। संस्कृत दर्शनकार शब्द, गुण आकाश माने गए हैं। किंतु यूरोप के विज्ञान-वेत्ताओं ने परीक्षा द्वारा प्रमाणित कर दिया है कि शब्द आकाश का गुण नहीं है किंतु शब्द भी वायु का गुण है। एक बोतल जिसकी हवा वायु निष्कासन यंत्र द्वारा निकाल ली गई है उसमें कंकड़ भर हिलाओं तो शब्द न होगा। इससे यह बात स्पष्ट है कि बोतल के भीतर आकाश के होते भी जो शब्द नहीं होता तो शब्द वायु का गुण है।
केवल इतना ही नहीं कि वायु जगत का प्राण प्रद है, अमर में 'जगत्प्राण समीरण:' ऐसा वायु का नाम लिखा है अपिच इसमें और अनेक गुण हैं। यह ओदे को सूखा कर देता है, उत्तम गंध वहन कर घ्राण इंद्रिय को तृप्त करता है 'सुरभिर्घ्राणतर्पण:' वह सुगंधि का नाम वायु ही के कारण पड़ा है। इस भू-पृष्ठ पर ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ वायु न हो, अतल स्पर्श सागर, अंधकार पूरति शून्य गुफा अत्युच्च पर्वत श्रृंग सब ठौर इसका अस्तित्व है। भू-पृष्ठ से चालीस मील ऊपर तक वायु का संचार अच्छी तरह अनुभव किया गया। ज्यों-ज्यों ऊँचे स्थान में जाइये त्यों-त्यों वायु पतला होता जायगा वहाँ तक कि बहुत ऊँचे स्थान में जैसे हिमालय के अत्युच्च शिखर पर इतनी कम हवा है कि हम वहाँ श्वास नहीं ले सकते। सूर्य-सिद्धांत में लिखा है समस्त राशि-चक्र प्रवह वायु द्वारा आकृष्ट हो अपनी-अपनी कक्षा में निरंतर भ्रमण करता है। उसी राशि-चक्र में बँधे हुए सूर्यादिग्रह अपनी-अपनी नियमित कक्षा पर नियमित चाल से चला करते हैं।
'भूचक्रं ध्रुवयोर्नद्व माक्षित्पं प्रवहानिलै:।
पर्यात्यजस्त्रं तंत्रद्धाग्रहकक्षा यथा क्रम:।।'
सिद्धांत शिरोमणि में लिखा है पृथ्वी के बारह-बारह योजन तक जो वायु है उसी में मेघ और विद्युत रहते हैं। उपरांत प्रवह नाम का वायु है और उसकी गति सदा पश्चिमाभिमुख रहती है उसी में ग्रह और नक्षत्र सब हैं। वामन पुराण में सात प्रकार का वायु लिखा है वही मरुत् के गण हैं। जिनके नाम ये हैं प्रवह, निवह, उद्वह, संवह, विवह, सुवह, परिवह। इंद्र ने इन सातों वायु का आकाश में पथ-विभाग निश्चित कर दिया है। पुराण में वे ही मरुत् के गण कहे गए हैं। ये मरुत्-गण क्या हैं सो फिर भी लिखेंगे।