वारिस, वसीयत और माटी का कर्ज / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 25 मई 2020
मनुष्य पचास पार करने के बाद अपनी वसीयत बनाने के विषय में सोचता है, परंतु कोरोना काल में युवा भी अपनी वसीयत बनाना चाहते हैं। हालात सुधरते ही वकीलों को काम मिल जाएगा। वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर का पहला चरण कोविड है। क्या वसीयत में यह लिखा जाएगा कि परिवार का कौन सा सदस्य पिता का कितना कर्ज चुकाएगा? अजय देवगन की ‘तान्हाजी’ में भी संवाद है कि वसीयत में मिट्टी का कर्ज भी चुकाना पड़ता है। व्यवस्था तो भावी पीढ़ियों को भी गिरवी रख चुकी है। समय के स्टाम्प पेपर पर यह गिरवीनामा लिखा जा चुका है। पुत्रियों को भी कर्ज चुकाना होगा, क्योंकि पिता की संपत्ति में उन्हें भी उत्तराधिकार मिल चुका है। इनमें से कुछ नेहरू को कोस रही हैं, जिसने संविधान संशोधन द्वारा पुत्रियों को पुत्रों के समान अधिकार दिलाए। वर्तमान अपनी कमतरी का ठीकरा नेहरू के चौड़े माथे पर पटक देता है।
वसीयत आधारित किताबें लिखी गई हैं और फिल्में बनी हैं। स्मिता पाटिल अभिनीत अंतिम फिल्म ‘वारिस’ सोहन सिंह हंस के उपन्यास ‘कोरा’ से प्रेरित है। बलदेव सिंह गिल ने पटकथा लिखी है। पूना फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित मनमोहन सिंह ने फिल्म को फोटोग्राफ किया और गीत भी लिखे। मनमोहन सिंह की किताब भारतीय फिल्म उद्योग के इतिहास का विवरण प्रस्तुत करती है। ‘वारिस’ में कुलभूषण खरबंदा अभिनीत पात्र के भाई की भूमिका अमरीश पुरी ने की है। पंजाब के क्षेत्र मालवा की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में सबसे अधिक सफल रही। जाने कौन से अदृश्य धागे क्षेत्रों को बांधते हैं। दक्षिण भारत में भी जितेंद्र और मेहमूद अभिनीत फिल्म ‘वारिस’ बनी थी। जॉन अब्राहम और नाना पाटेकर अभिनीत ‘टैक्सी नं. 9211’ भी वसीयत आधारित फिल्म थी। विजय आनंद की फिल्म ‘नौ दो ग्यारह’ में भी वसीयत कथा केंद्र में रही है। वफादार माली वसीयत को जमीन में गाड़ देता है। कुछ समय बाद वह गाड़ा हुआ स्थान भूल जाता है। एक स्थान पर खोदने से कुछ नहीं मिलता है तो वह कहता है कि मिट्टी धोखा दे गई। मनुष्य की स्मृति धोखा देती है और वह मिट्टी को दोष देता है। किस को मुजरिम समझते हैं और किस को दोष लगाते हैं? साहिर लुधियानवी फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ के लिए लिखते हैं- ‘दो कलियां सावन की हाय दो कलियां, एक बालों में गूंथी जाए और इतराए, दूसरी अर्थी की भेंट चढ़ाई जाए…’। दूरदर्शन पर जासूस ब्योमकेश बक्शी का एक मित्र उन्हें पत्र लिखता है और पत्र के दूसरी ओर प्याज के रस में कलम डुबोकर अपनी वसीयत लिखता है। अक्षर पढ़ने के लिए पत्र को ताप दिखाना पड़ता है। उम्रदराज व्यक्ति के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों में उम्र का हिसाब-किताब दर्ज होता है। वह पढ़कर भी अनपढ़ रह जाता है। ‘मदर इंडिया’ के लिए प्रसिद्ध फिल्मकार मेहबूब खान कभी स्कूल नहीं गए थे। फिल्म बनाने में प्रवीण इस व्यक्ति ने सफल होने के बाद पढ़ना सीखा ताकि वह प्रशंसकों को आॅटोग्राफ दे सके। इस पारंपरिक पढ़ाई से अपरिचित ‘अनपढ़’ फिल्मकार ने अपनी वसीयत में यह दर्ज किया कि उनके वंशज उनकी फिल्मों और स्टूडियो से प्राप्त आय का उपयोग तो कर सकते हैं, परंतु, कुछ बेच नहीं सकते। यही कारण है कि मेहबूब स्टूडियो आज भी चल रहा है। यदि राज कपूर ने भी इसी तरह की वसीयत की होती तो आरके स्टूडियो बिकता नहीं। उनकी एक फिल्म का गीत है- ‘एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल, जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल..’।
वसीयत लिखना आसान नहीं होता। अगर सभी सदस्यों को बराबर दें, तो अधिक मेहनत करने वाले के साथ अन्याय होता है। मेहनत और प्रतिभा के अनुरूप दिया जाए तो कमजोर को शिकायत होती है। न्यायपूर्ण वसीयत बनाना बड़ा कठिन कार्य है। याद आता है उमराव जान अदा का गीत ‘तमाम उम्र का हिसाब मांगती है जिंदगी, मेरा दिल कहे तो क्या, वह खुद से शर्मसार है..’। पंडित जवाहरलाल नेहरू की वसीयत में वे गंगा को आदरांजलि देते हैं और अपनी अस्थियों का भाग खेतों में बिखेर देने की बात लिखते हैं। कार्ल मार्क्स के राजनीतिक आदर्श में संपत्ति पर एक व्यक्ति का मालिकाना हक अधिकार नहीं है, इसलिए वसीयत का झमेला भी नहीं है। सारी संपत्ति पर सामूहिक अधिकार है।
रवींद्र पीपट की ‘वारिस’ में स्मिता पाटिल अपनी छोटी बहन का विवाह अपने श्वसुर से कराती है, ताकि वारिस का जन्म हो और दुष्ट चाचा संपत्ति हड़प न सके। इस अजीब रिश्ते को यह गीत रेखांकित करता है- ‘आरे मुझे तारे मुझे विच तलम तलियां, छोड़ के न जाना सैयां कभी मेरी गलियां, तेरा-मेरा क्या नाता, सजनी, भाभी, मौसी, माता, तू जब वारिस बनकर आया, बदली मेरे घर की काया, अपनी मांं के पैर छू, ये जन्नत की हैं गलियां..’।