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डॉ0 मधु संधु (1) कुमारिका गृह

जब से इस शहर में कुमारिका गृह खुला था, वह यहाँ आना तो चाहती थी, किन्तु अपने को पारिवारिक दायित्वों के कारण आर्थिक आधार पर असमर्थ पाती थी। पुण्या को नौकरी करते बीस वर्ष हो गए थे। पिता की आतंकवादियों द्वारा हत्या पर उसकी नियुक्ति ’अनुकम्पा नियुक्ति‘ के अंतर्गत उसी सरकारी संस्थान में हुई थी। अब छोटे भाई पुनीत और बहन पारूल की शादी के बाद वह उन्मुक्त रहना चाहती थी। पुनीत का वैवाहिक जीवन उसकी पत्नी की ननद विरोधी प्रदूषित जीवन-शैली पर चल रहा था। यहाँ उसने अपने लिए एक क्षीण सा स्थान बनाने का यत्न तो कई बार किया, पर लगा कि सब व्यर्थ है। प्रथम बार ऋतिका उसे लाई थी यहाँ। कुमारिका गृह का प्रत्येक कक्ष इतना व्यवस्थित सजा-सँवरा, स्वच्छ, सुरुचिपूर्ण, कलात्मक एवं आकर्षक था कि लगा कि उसने किसी अंतर्राष्ट्रीय कला भवन में प्रवेश किया है। एक बार वृद्धाश्रम देखा था, हर कमरे से आ रही दवाइयों, सड़े फलों, पसीने की गंध, धूल-मिट्टी से सना। उसका मन क्लान्त और विरक्त हो आया था। यहाँ सब अलग था। न वृद्धाश्रम की कड़वी कसैली गंध थी और न वर्किंग वुमैन होस्टल की आत्मकेंद्रित मानसिकता, न अपने घर जाने की हलचल, न डेट के लिए उन्माद। दूर दृष्टि डाली। उधर लॉन में बैठी, टहलती प्रौढ़ कुमारिकाएँ अपनी देह यष्टि के कारण स्मार्ट युवतियाँ लग रही थी। रंग-बिरंगी वेश भूषा में सभी इतनी जीवन्त, अभिजात, वैल मैनरड थी कि पुण्या को लगा कि वह अब तक इतनी दूर क्यों रही - अपनी इस जात-बिरादरी से। कहाँ यह चिन्तनशील, हँसौड़, चुलबुली, स्वाधीन, सुखी कुमारिकाएँ और कहाँ अब तक भाई के यहाँ घिसट रही वह। जिसे नित्य और भी अकेला, निर्बल, असहाय कर दिया जाता था। जिसने पारिवारिक उपेक्षाओं और अपेक्षाओं के दुर्वासीय शाप को झेला था। युवावस्था को होम करने के बदले उसे व्यंग्य बाणों की सजा सुनाई गई थी। ऋतिका ने उसे मुक्ति दिलाई और वह हिम्मत करके यहाँ चली आई। आज तक वह इसके खर्च से घबरा रही थी। पर क्यों? सिर्फ़ अपने लिए जीने का संकल्प करते उसने सेक्युरिटी के एक लाख रुपए जमा करवाए और ज़रूरत की चीजें ऋतिका के साथ जाकर ले आई। गौर से देखा तो लगा, उसका कमरा वी. आई. पी. रूम लग रहा था। कुमारिका गृह की निवासिनें मुख्यतः चालीस के बाद की उम्र की थी, वहाँ की निम्न आयु सीमा यही थी। उनके जीवन स्तर, खान-पान, वेशभूषा- सभी से सम्पन्नता, मानसिक प्रौढ़ता और प्रगतिशीलता झलकती थी। सभी के व्यक्तित्व में संतुलन कुछ ऐसा था जैसे बत्तीस दाँतों के बीच जीभ का रहता है। उसने देखा सभी कुमारिकाओं के हाथ में अर्थ की जादुई छड़ी और मन में जीवन को जी भर कर जीने की ललक है। उनके पास साँस लेने के लिए ढेर सारी ब्रीथिंग स्पेस है। नीतू को सुबह-शाम पार्टियों का इन्तज़ार रहता है। वह किचन में जब-तब इसीलिए तांक-झाँक करती रहती है कि वहाँ बने चार्ट से किसी जन्म दिन पार्टी का अन्दाज़ा हो सके । पुण्या यह सब नहीं जानती थी, ऐसे ही एक शाम लौटती है तो देखा डायनिंग हाल जलते-बुझते बल्बों से जगमगा रहा है। बीच की मेज पर केक पड़ा हैं। आज माग्ररेट का जन्मदिन है। ओह ! घर में कभी किसी को उसका जन्म दिन याद नहीं आया था। हसी के सैलाब नीतू के कमरे में फैले रहते । नित्य साँझ को वह चुटकलों के साथ लौटती। आते ही किचन में झाँक कर फूलन से कहती है- “दस्तरखान हाजिर हो। शहज़ादी जहानआरा आ चुकी है।“ क्रिकेट के दिनों में टी. वी. में कुछ ऐसा रम जाती कि हर चौके छक्के पर उसका आह्लाद गूँज अनुगूँज बन पूरे कुमारिका गृह को चौंका देता। कालेज में दुर्वासा बने प्रिंसिपल ने एक दोपहर उसे बुलाया-पेशी के लिए। वह झटके से उठी। क्या कर लेगा मेरा? सरकारी नौकरी है। क्या नौकरी से निकाल देगा। बाहर बैठे चपरासी को उसने कॉफी रिफरैशमेंट के लिए कहा और अंदर जाकर कुर्सी पर डट गई। मन गालियाँ उगल रहा था। बुद्धिजीवी होकर सियासत करता है। खुद कुछ करेगा नहीं और दूसरे कुछ करें तो बकवास। ऊपर से नम्र बनी रही। चपरासी ट्रे लेकर उपस्थित हुआ। साथ ही बातचीत का विषय बदल गया। वह मुस्काती बाहर आ गई। नीतू जानती थी कि इस सरकारी कालेज को किन-किन लोगों ने पहलवानी का अखाड़ा बनाया हुआ है। तमाशा देखना उसे आता है, पर बंदर की बला छछूंदर के सिर न पड़ जाए, इसके लिए कुछ चालें चलनी ही होती हैं। मकड़जाल से अपने को बचाने के लिए क्षमता और शक्ति संजोनी उसे आती है। सुरक्षा और संरक्षा के अर्थ वह जानती है। वह गुमसुम विभा के मन में भी गुदगुदी और चेहरे पर मुस्कान पैदा करने के ढंग खोजती रहती है। उस दिन भरे-पूरे डाइनिंग हाल में वह विभा के साथ खाने का इंतज़ार करते-करते अचानक खड़ी हो बोल दी- ओह विभा ! कुछ तो बोलो, वरना मैं पागल हो जाऊॅंगी और बैठ गई। सभी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। कर्मण्यता विभा को कभी उदास नहीं होने देती। हालाँकि उसके पास उदास रहने का कारण था। ममा पापा की विमान दुर्घटना में आकस्मिक मृत्यु और दायित्व सँभालने का अनैच्छिक बोझ- जिसे वर्षों उसने निभाया। अब भी वह स्वभाव से संकोचशील एवं अंतर्मुखी है। खाली समय में बंद कमरे में टी. वी. चैनल्ज बदलती रहती है या फिर किचन गार्डन की तरफ़ जा रम जाती है। उसका कमरा भी पिछली तरफ़ है, जिसका नाम साथिनों ने वैसे भी साइलेंट ज़ोन रखा हुआ है। कुमारिका गृह में आते ही कोई वी. आई. पी. नहीं रहती। कामकाजी जीवन के सभी मुखौटे उतार निर्द्वंद्व हो जाती हैं। फूलन! इतने गौरे-चिट्टे पैर। झाँवें से घिसती हो या फेयर एण्ड लवली लगाती हो- नीतू होंठों में मुस्काती है। पूनम सर्जन है। बहुत संवेदनशील है। हर रोगी को अंतिम साँस तक बचाने का यत्न करने वाली। न उसका लहजा क्लिनिकल है और न स्वर। फिर भी इन्द्राणी उसे छेड़ देती है- आपरेशन थियेटर में डाक्टर सर्जन कम दर्जी ज्यादा लगता है। जब देखो सीने-पिरोने, काटने-उधेड़ने में व्यस्त। पूनम पहले अकेली रहती थी। एक नौकरानी पानी सी दाल और बिन फूली चपातियाँ सेंक देती। न खाने का मज़ा था, न साफ-सफाई उससे हो पाती थी। जबसे पूनम यहाँ आई है, उसमें जान आ गई है। कायाकल्प हो गया है। इन्द्राणी पिछले वर्ष अट्ठावन की हो रिटायर हो गई है। उसी पेंशन इतनी है कि कुमारिका आश्रम का खर्च निभा सकती है। वैसे जिजीविषा उसकी अभी उतनी ही प्रबल है। सुबह दस से एक तक कम्प्यूटर की कक्षाएँ अटैंड करती और उसके बाद कम्प्यूटर सेंटर बनाने की योजना बनाती रहती। फैंसी अकमोडेशन, कम्प्यूटरज़, एयर कन्डीशन्ज, पंखे, प्लास्टिक की कुर्सियाँ, काउण्टर, कम्प्यूटर टीचरज़, इंटरनेट आपरेटर, फीस, स्कूलों, संस्थाओं, कारखानों के कंट्रेक्ट्स, विज्ञापन आदि। लगता वह जीवन शुरू कर रही है। न उसे कोई मानसिक थकान है, न शारीरिक। कुमारिका गृह की यह संरक्षक रह चुकी महिलाएँ हैं, जिन्हें किसी संरक्षण की आवश्यकता नहीं। किचन का काम करने वाली फूलन के भी मजे हैं। नित्य नए कपड़े पहनती है। आज पुण्या ने सूट दिया है, तो कल इन्द्राणी ने साड़ी, परसों पूनम ने जीन्स तो तरसों मारग्रेट ने मैक्सी। उसके लिए तो यहाँ स्वर्ग जुटा है। यहाँ आ सभी ने अपने खोए आत्मविश्वास को पा लिया है। इन प्रौढ़ कुमारिकाओं में भक्ति की लत है ही नहीं। वे न कभी मन्दिर चर्च जाती है, न कथा-कीर्तन में। न जाने क्यों इन्होंने इश्वरीय भक्ति को मैटाफ़िजिकल आत्महत्या मान लिया हैं। हाँ ! समय निकाल कर पन्द्रह दिनों में एक चक्कर ब्यूटी पार्लर का अवश्य लगा लेती हैं। वे मानवी हैं। हव्वा की उन्होंने बहुत पहले हत्या कर दी थी। ________________________________________

(2)

इंटेलैक्चुअल

- "अनिरुद्ध !" "यस सर" "क्या कर रहे थे ?" "कहिए सर" "विभागीय पुस्तकालय तक जाना" "यस सर" "वहां से 'रिफयूज़ी एण्ड पोलिटिक्स' पर मनीष सारावगी का थीसिस अपने नाम इशू करवा लेना"


"कब लौटे सर ?" "बस, रात को ही आ गया था अच्छा ! तुम ऐसे करो, यह थीसिस ले जाओ इसका तृतीय अध्याय टाइपिस्ट से कहो डेढ़ दो घंटे में टाइप कर दे" "ऊपर का शीर्षक यह रहा, यहाँ मेरा नाम, यह मेरा सम्पर्क. उसे कहना कि इस अध्याय का कोई शीर्षक या उपशीर्षक टाइप न करें, सिर्फ गद्यांश ही बदलें" "सर ! वे तो आज विभागीय एजेंडा टाइप कर रहे हैं। बहुत व्यस्त है" "कोई बात नहीं, वह इन्कार नहीं कर सकता उसके कई काम करवाता रहता हूँ"


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"लिंक पत्रिका ने 'भूमण्डलीकरण का विश्व राजनीति पर प्रभाव' के तीन अंक निकाले हैं पुस्तकालय से लेते आना" "सर !" "कल मेरा रिफरैशर में भूमण्डलीकरण को लेकर लेक्चर है" और फिर कभी न खत्म होने वाला सिलसिला. "फ्रिज का ट्रांसफारमर खराब हो गया है" "टी0 वी0 की पिक्चर के कलर ठीक नहीं आ रहे" .... "अनिरुद्ध ! चार सौ पचपन पेपर आए हैं, दस दिन में वापिस करने हैं. देखकर चेकिंग असिस्टैंट की जगह साइन कर देना" .... "अनिरुद्ध ! यह दो पेपर सैट करने हैं 'बुक्स लवर' से मेरा नाम लेकर तीन चार सहायक पुस्तकें लेकर सेट कर देना" .... "अनिरुद्ध ! यह पी एच0 -डी0 के थीसिस की मास्टर रिपोर्ट है इसमें इस थीसिस का नाम भरकर टाइप करवा देना।" .... "अगले सप्ताह पटना विश्वविद्यालय में लेक्चर है। 'रिसर्च' पत्रिका का मई 2006 का अंक ले आना. उसमें उत्तर भारत की पटियाला यूनिवर्सिटी के किसी प्रो0 का एक अच्छा आर्टिकल है दिल्ली से कलकत्ता की फ़्लाइट पर मैंने रास्ते में देखा था उसे शीर्षक और लेखक के नाम पर सफेद पेपर रख या फ़्लूइड लगाकर फोटोस्टेट करवा लाना"

सर की वाणी में जोश और आत्मविश्वास है। उन्हें हर बात को अपना बनाकर कहना आता है हर पंक्ति के साथ जोड़ देते हैं- मैं तो कहता हूँ, मेरी अवधारणा है, मुझे तो लगता है, मैंने देखा है, मेरे विचार में, मैं मानता हूँ. सर जी तोड़ मेहनत इसलिए नहीं करते कि उनमें मज़दूरों के संस्कार नहीं हैं लेकिन वे आलसी भी नहीं हैं कर्मठ एवं उद्योगी पुरुष हैं, भले ही उनकी कर्मठता की लाइन भिन्न है वे आठ-नौ घण्टे की गहरी नींद लेते हैं। सुबह-8शाम सैर को जाते हैं जमकर पीते और गपियाते हैं अपनी और परिवार की सुख-समृद्धि एवं मित्रों की उन्नति में जुटे रहते हैं बहुत पहले ही उन्होंने जान लिया था कि विश्व विद्यालयीन शिक्षा जगत में परिश्रम का कोई महत्व नहीं शोध करने वाले वर्षों लगे रहते हैं। ये आत्मकेंद्रित अध्यापक प्राध्यापक इस गलत फहमी से जूझते रहते हैं कि उन्होंने सोलह साल में चालीस पेपर लिख लिए या उनकी छह किताबें प्रकाशित हो गई उन्हें हर समय इस या उस काम का तनाव रहता है जबकि सच्चाई यह है कि इन विश्वविद्यालयों में उन आचार्यों का प्रभुत्व रहता है, जो एक ओर भिन्न पत्रा-पत्रिकाओं के सम्पर्क में रहते हैं और दूसरी ओर रोज रात को सम्पादकों प्रकाशकों से दो घण्टे चुटीली भाषा में बतियाते हैं.

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अनिरुद्ध को लगता कि कहीं वह डिप्रैशन में तो नहीं चला जाएगा इतने बड़े देश में उसके लिए कहीं कोई नौकरी नहीं, कोई धंधा नहीं, रोटी-रोजी का कोई बंदोबस्त नहीं , जीने का कोई आर्थिक आधार नहीं पिछले एक वर्ष से वह पाकेट से पैसे खर्च करके चाकरी कर रहा है अंदर के खाते से पता चला कि सर का रेट भले ही उसकी पाकेट से बाहर हो, पर सर वायदे के पक्के हैं वे किश्तों में नहीं लेते पीएच0 डी0 के बीस, कच्ची नौकरी के दस, पक्की नौकरी के तीस अगर कोई साल दो साल सर के पर्सनल काम कर दे तो उसे रिडक्शन भी मिल सकता है पर हिम्मत जवाब दे चुकी थी उन दिनों सर सिलीगुड़ी के फ्लैट की चर्चा किया करते थे जब तक माँ थी, गांव के घर का मतलब था न उसे वहां रहना था, न जाना था औने-पौने यानी पच्यासी हजार का घर बेच उसने पचास हजार का सर की ओर से ड्राफ़्ट बनवा उन्हें गदगद कर दिया और साथ ही सर के आशीर्वादों की पिटारी खुल गई.

"अनिरुद्ध! यह रही तुम्हारी अनुक्रमणिका" यानी चार पंक्तियों के चार अध्याय- कोई उपशीर्षक नहीं. "नोट करो - प्रथम अध्याय- 1979 में सबमिट डॉ0 पुरी के थीसिस के पृ0से पृ0 तक टाइप करवा लो द्वितीय अध्याय- डॉ0 चैटर्जी ने अभी-अभी एक छात्रा को पी0 एच0 डी0 करवाई है उससे देखने के लिए सी0 डी0 ले लो और चौथा अध्याय अपनी हार्ड डिस्क में डाउनलोड कर लो" "सर" "अरे ! करोड़ों रुपए की फिल्में बनती हैं और उनके रिलीज़ होने से पहले ही उनकी सी0 डी0 चोरी हो जाती है यह तो माइनर बात है" .... तृतीय अध्याय- विभागाध्यक्ष के पच्चीस वर्ष पुराने थीसिस का अन्तिम अध्याय चतुर्थ अध्याय और तो और प्रीफेस, एपीलॉग, सहायक ग्रंथ सूची, कृतज्ञता ज्ञापन, मौलिकता संबंधी सर्टिफिकेटों की तो वे सी0 डी0 ही पकड़ा देते हैं.

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देखते-देखते थीसिस सबमिट होता है वायवा होता है डिग्री मिलती है और इसी बीच पन्द्रह हजार में सर दो पुस्तकें भी छपवा देते हैं नौकरी भी सीधी प्रोबेशन पर मिलती है समय आराम से कटने लगता है.

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इसी बीच पता नहीं कैसे विभागाध्यक्ष को पता चल गया और सब गड़बड़ा गया लेकिन ऐसी भी आफत आ सकती है, यह तो अनिरुद्ध ने कभी सोचा भी न था जिसे गॉड फादर बना खरीदा था, वही साथ छोड़ गया होश तो उस दिन आया जिस दिन एक ओर विभागाध्यक्ष द्वारा वकील के जरिए नोटिस मिला और दूसरी ओर उसे प्रोबेशन की नौकरी पर कन्फर्म करने की बजाय टर्मिनेट कर दिया गया और तीसरी ओर पता चला कि जिस दलाल ने उससे पचासी हजार का मकान खरीदा था, उसने उसे पेंट करवाकर पौने तीन लाख में बेच दिया.

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केटेरेक्ट 

किसी सॉफ़्टवेयर की तरह बचपन मेरे अंदर पूरी तरह से फीडिड है। स्वास्थ्य पापा की प्राथमिकता रही है। बचपन से उनके बैड साइड पर दो-चार-छह टॉनिक देखती आई हूँ। शौकीन तबीयत का होने के कारण घण्टों तैयार होने में लगाते थे। कहीं जाना हो तो सारा परिवार तैयार हो उनकी प्रतीक्षा में खड़ा रहता। उनके ग्लासेस और फ्रेम तो इतने महंगे होते कि ऑप्टीशियन - मिडल क्लास पापा को बड़ा बिज़नेस eSu समझने का धोखा खा जाते। वे उम्र ही नहीं समय को भी बांध लेने की युक्तियों में व्यस्त रहते। पिछले दिनों नज़र में फर्क आ जाने के कारण पापा ने बार-बार आंखों का चेक अप करवाया। वे पापा जिनके लिए घर का मतलब होम थियेटर था, जिनकी नजरें दिन में कम से कम सात- आठ घण्टे टी0 वी0 स्क्रीन से चिपकी रहती थी, अब टी0 वी0 लगाकर भी इधर-उधर के काम करते रहते। उस ओर कम ही देखते। मित्रों संबंधियों से बातचीत करके पता चला कि यह शहर आंख के रोगियों के लिए वरदान है। देश के विभिन्न हिस्सों से यहाँ तक कि राजधानी दिल्ली से भी लोग यहाँ आंख के आपरेशन के लिए आते हैं। कैटेरैक्स अब कोई बीमारी नहीं रही। इस अस्पताली सफर से नाइट-स्टे जैसी कोई चीज भी नहीं जुड़ी है। नजर में लगातार फर्क आने पर वे डाक्टरों के जाते रहे, कई तरह के आई ड्राप डालते रहे, काम पर जाते समय एक किट में दवा की शीशी एहतियात से रख लेते, वे पहचान चुके थे कि ऑंखें ही जीवन हैं। फर्क कोई नजर नहीं आ रहा था । उन्हें निर्णय लेना ही था, लेकिन मन में लगातार एक भय बैठा था। हर आत्मनिरीक्षण उन्हें आपरेशन नाम की चीज से और भी संत्रस्त कर जाता। आपरेशन शब्द ही ऐसा है। उन्होंने अपने बुजुर्गों की आंख के आपरेशन देखे थे। दिनों तक बिस्तर पर सीधा लेटना.... आंख पर पट्टी बंधना....लगातार सिर दर्द., कई तरह की तकलीफें- सोचकर ही वे सिहर उठते। इसी बीच कुछ एक परिचितों ने, पुराने मित्रवत आपटिशियन ने हौंसला दिया। बताया कि कैटेरेक्ट अब कोई बीमारी जाते थे। डॉक्टरों, नर्सों, अन्य कर्मचारी सब पहली नजर में एक जैसे ही लग रहे थे। उनके कोट उनके ओहदे के सूचक थे। डॉ0 सफेद कोटों में थे। प्रशासकीय स्टॉफ पिंक नहीं है और उन्होंने मन बना लिया। नेत्र चिकित्सालय का कार्ड बन गया। कई केबिनों में बैठे टेक्निशियंस और विशेषज्ञ डाक्टरों ने कई तरह के अत्याधुनिक यन्त्रों से आंख की जाँच की। अन्य सारे टेस्ट भी करवाए गए। ब्लड प्रेशर को छोड़ सब नार्मल था और दस -पन्द्रह दिन की दवा के बाद वह भी नार्मल हो गया। आई ड्राप दो एक दिन पहले ही शुरू हो गए। चिकित्सालय किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं था और उसका नक्शा भी किसी मुगलिया जंत्र-मंत्र से मेल खाता था। ऊपर से नीचे नज़र पड़ जाए तो कुतुबमीनार का भ्रम हो ही जाता था। पता ही नहीं चलता था कि यह लिफ्ट कहाँ जाएगी या सीढ़ियां किस मंजिल की किस लॉबी में खुलेंगी। वैसे यह जानने की जरूरत भी नहीं थी। हर सीट के पास खड़े अटेंडेंट रोगियों को अगले गन्तव्य की ओर ले कोट पहने था। नर्सों के कोट पिस्ता रंग के थे। पैरा-मेडिकल नीले कोट में थे और सभी सफाई-कर्मचारी हरे रंग का कोट पहने थे। मेडिकल स्टोर और केन्टीन वाले सामान्य कपड़ों में थे। सुबह पाँच बजे पापा आपरेशन के लिए पहुँच गए। साथ में मैं थी। सारी फार्मेलिटीज़ उन्होंने एक दिन पहले ही पूरी कर ली थी। पिंक कोट को पैसे जमा करवा, जैसे ही हम नीले कोट के साथ लिफ्ट में खड़े हो बड़े बड़े केबिन्ज में ऊपर पहुँचे, वहाँ पहले से ही काफी मरीज मौजूद थे। लकड़ी के फर्श और दीवारों वाला यह केबिन अपना आभिजात्य स्वयं बोल रहा था। चमकते -दमकते आर्टिफिशल खम्भे, गद्देदार सोफे, फूलों से सजा काउंटर, राजस्थानी किलों जैसे नकली- असली दरवाजे सब ध्यान आकर्षित कर रहे थे। सभी मरीजों को पुकारने का ढंग अत्यन्त सम्माननीय था। मि0 , मिसेज, जी, श्री आदि शब्दों का प्रयोग बड़ी सावधानी से किया जा रहा था। मरीज बारी-बारी से अपने नाम के सम्बोधन के अनुसार अंदर जाकर जूते कपड़े आदि बदलते। जिस तरफ की आंख का आपरेशन होना हो, उस कलई पर विशेष रंग का रबड़ बैण्ड डाल दिया जाता। चादर के उस तरफ खास निशान होता। किसी भी तरह की गलती को टालने के लिए ऐसे अनेक संकेत नियत थे। कोई एक घण्टे बाद बाहर के हाल का टी0 वी0 चल पड़ा। पहला नाम पापा का ही था। पापा की साफ-सुथरी आंख 29 इंची टी0 वी0 के पर्दे को घेरे डिस्कवरी चैनल का भ्रम दे रही थी। सुईयां भी चाकू-छुरियों सी बृहदाकार लग रही थी। जॉनसन बड सी कोई चीज चिमटी के आकार सी लग रही थी। पुतली के पर्दे को जैसे ही सुई जैसी चीज ने छुआ, रक्त की दो-चार लाल-लाल बूँदें आंख के पानी में बिखर गई, पर साथ ही आंख साफ की जा रही थी। आपरेशन के समय मरीजों से आत्मीय बातचीत की जा रही थी- शायद उन्हें रिलेक्सड फीलिंग देने के लिए। पापा ने इर्म्पोटेड लेंस डलवाया था। सबसे बढ़िया और महंगा। आधे घण्टे में पापा बाहर थे- बेहद उत्तेजित और उत्साहित। लगता था जंग जीत कर आए हों। दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेट्स बन गए हों। काला चश्मा अस्पताल के मेडिकल स्टोर से पहले ही खरीद लिया था और साथ ही लगा भी लिया था। लेंस नम्बरड था। इसीलिए पापा को अभी से सब बहुत साफ दिखाई दे रहा था। आई-ड्राप की कुछ शीशियां थी, जिन्हें सिर्फ जागते समय आंखों में डालना था- यह बूँदें पहले दिन घण्टे-घण्टे बाद यानि दिन में कोई अढ़तालीस बार, दूसरे दिन दो -दो घण्टे बाद यानि बत्तीस बार, तीसरे दिन तीन-तीन घण्टे बाद यानि कोई चौबीस बार। पापा तो इतने आह्लादित और आनन्दित थे कि अस्पताल से घर पहुँचने से पहले आसपास कहीं से पूड़ियां खाने का प्रस्ताव मेरे सामने रख रहे थे। यहाँ तक कि वे खुद दस किलोमीटर ड्राईव करके वापिसी पर घर आए। भले ही इसके मूल में उनका मेस्कुलिन ईगो, संस्कार या बुढ़ापे/बीमारी को ठेंगा दिखाने का भाव रहा हो। कुछ हिदायतें भी थी कि आंख को मलना बिल्कुल नहीं, पानी से पूरा परहेज चाहिए, रोशनी से बचाव करें, दवा डालते समय आंख को नीचे से पकड़ें, पलकों को कदाचित न छुए, छोटे बच्चों से दूर रहें कि कहीं वे हाथ न मार दें इत्यादि। शाम तक दो-एक बन्धु हाल पूछने भी आ धमके, पर पापा पूरे उत्साहित थे। कहते-मुझे ग्यारहवीं में जाकर ऐनक लगी थी, तब इससे ज्यादा नम्बर था और अब यह आंख इतनी बढ़िया हो गई है कि लगता है मैं आठवीं का छात्र हूँ। सभी बता रहे हैं कि यह लेंस असली से ज्यादा बढ़िया, नेचुरल, शक्तिशाली और स्थायी है। अभी दो महीने भी न बीते थे कि देखा टी0 वी0 के प्रति स्थायी अनुराग रखने वाले पापा फिर टी0 वी0 से ऑंखें चुराने लगे हैं। दस-पन्द्रह मिनट में सारे समाचार पत्र उनके कमरे से बाहर आ जाते। नाईट ड्राइविंग इग्नोर करने लगे। बता रहे थे कि दूसरी आंख पर असर पड़ रहा है। यह सब अब इत्तिफाक नहीं देवेच्छा सा लगने लगा था। एक दिन फिर उसी अस्पताल पहुँचे। एक और इर्म्पोटेड लेंस फिट करवाया, पर अब उत्साह का स्थान भय और आशंकाओं ने ले लिया था। पहले की तरह स्थिति को ग्लोरिफाई न कर वे मित्रों-परिचितों से छिपाना चाहने लगे थे। काली ऐनक उतारकर कमरे से बाहर आते। कभी लगी भी रह जाए तो पूछने वाले से वे एक विश्वसनीय सा झूठ बोल देते। दर्पण से बार-बार पूछते, 'बता तो भाई ! क्या मैं भी ढल सकता हूँ। रोशनी लौट आई थी, पर मन में एक भय घर कर गया था। अब न वे अखबार में माथा मारते थे, न टी0 वी0 में आंखें गढ़ाते थे। हां। सुबह और शाम का बहुत सा समय सैर में बिताते या कमरे की चिटखनी चढ़ा शवासन सा लगाए रखते। पापा अपने बारे में सदैव अत्यधिक सेंस्टिव रहे हैं। पूरा व्यक्तित्व झनझना गया था। सोचती हूँ कैसा लगा होगा जब पापा ने सिर में पहला सफेद बाल देखा होगा ? जब पहली बार डॉ0 ने बी0 पी0 की बात कही होगी ? जब टेस्ट में कैटेरेक्ट आया होगा ? वे अपने से कितना जूझे, कितना टूटे होंगे।

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मुन्ना कदम कदम चलना सीख गया है मुन्ना। नन्‍हें-नन्‍हें कदमों से भागता है तो सांस रोके देखती रह जाती हूँ। पक्षियों के पीछे जाएगा। तितलियों को देखेगा और कभी रात में अगर जुगनू दिखाई दे जाएं तो चांदी है मुन्ने की। पानी में तो उसके प्राण बसते हैं। एक दिन दरवाजे के पास जरा सा बरसात का पानी इकट्ठा हो गया। मुन्ने के मन में तो लड्‌डू फूट दिए। नन्‍हें-नन्‍हें पांवों से पानी में छप-छप करता छींटें उड़ाता खिलखिलाने लगा। गर्मियों का मौसम हो तो बात ही और है। पाइप पकड़ घास को नहला देता है। क्‍यारियों में बाढ़ ला देता है। पेड़ -पौधों की नख-शिख धुलाई कर देता है। पाइप के आगे जरा सी अंगुली अटका दूरगामी और ऊँची बौछार बनाते उसकी मुस्‍कान फूट-फूट पड़ती है। नहाने के लिए जब टब में बैठ जाए तो घंटों बीत जाते हैं और निकालना मुश्‍किल हो जाता है। मुन्ने ने रेसिंग साइकिल लिया है। उसका मन करता है कि इसे खूब तेज चलाए और घर से बाहर चलाए। घर चार सौ गज का हो या हजार गज का- उसे सदा छोटा ही लगता है। बाहर को भागता है। सबका ध्‍यान दरवाजे की चिटकनी लगाने में ही अटका रहता है। ममा पपा वाले घर की गली में हर पल कारें- स्‍कूटर आते-जाते रहते हैं और ममा की ममा यानी नानी यानी मॉम को भी वाहनों से, कुत्तों से डर लगता है। पर वह लाडला है। उसकी कोई भी आकांक्षा मॉम के यहां टाली नहीं जा सकती। मॉम साथ-साथ जाएंगी। यहां अपना तिपहिया वाहन चला कर मुन्ने को बहुत मज़ा आता है। दाएं मुड़ो तो आगे शापिंग काम्‍पलेक्‍स है। वह मनपसंद खरीददारी करने के बाद अपनी चीज़ें डिक्‍की में रख लेता है। बाएं मुड़ो तो पार्क है। मुन्ना सीसा लेता है, रेलिंग लेता है, मेरी- गो- राउंड पर मजे करता है, लटकने का यत्‍न करता है, झूले पर धीरे-धीरे झूलता है और फिर संतुष्‍ट मन से लौट आता है। मुन्ना आग से खेलने वाला बहादुर बच्‍चा है। अग्‍नि देवता की उपस्‍थिति में उसके तेवर ही बदल जाते हैं। मंदिर उसे अच्‍छा लगता है, क्‍योंकि वहां उसे माचिस या लाइटर मिल जाते हैं। वहां धूप या अगरबत्ती होती है, ज्‍योति होती है। हवन उसे अच्‍छा लगता है, क्‍योंकि जैसे ही उसमें सामग्री या आहूति डालो, अग्‍नि तेज होने लगती है। जन्‍म दिन उसे भाते हैं, क्‍योंकि किसी का भी जन्‍म दिन हो, वर्षगांठ हो-केक की मोमबत्तियाँ जलाने का काम मुन्ने के सुपुर्द ही रहता है। उसकी दीपावली महीनों चलती है। उसके लिए कुछ शुर्लियां, कुछ फुलझड़ियां, कुछ चक्रियां, कुछ अनार बचा कर रखने ही पड़ते हैं। मुन्ना आता है तो मेरे घर में, मन में उत्‍सव सा उन्‍माद छा जाता है। मुन्ना बोलता है तो ठंडी बौछारें पड़ने लगती हैं, खिले-खिले फूलों की सुगंध हर ओर फैलने लगती है। मुन्ने के मॉम में प्राण बसते हैं। क्‍यों ? ममी-पापा दिन में पच्‍चास बार कहेंगें - यह मत करो, यहां मत जाओ, इसे मत छेड़ो। बहुधा घूरना और थप्‍पड़ दिखाना उनके सारे लाड पर पानी फेर देता है। पर मॉम है कि मुन्ने के मन की हर बात पहले ही जान लेगी। वह उन्‍हें डोमिनेट कर सकता है। अपने इशारों पर नचा सकता है। कर्त्ता होने का सुख भोग सकता है। खिलौनों के प्रति उसका स्‍वाभाविक आकर्षण है। अगर गुब्‍बारे वाले के यहां कुछ खास पसन्‍द आ जाए तो झट से बोल देगा, मैं अब बड़ा हो गया हूँ, गुब्‍बारों से नहीं खेलता। तीर-कमान से राम जी की तरह खेलूंगा। बैट बाल ठीक है। लॉन के किसी पेड़ की टहनी तोड़ मोड़ कर कंधे पर रखेगा और कहेगा- ‘मैं हनुमान जी बन गया हूं। लक्ष्‍मण जी के लिए संजीवनी बूटी लाया हूँ।' कुछ न पसंद आए तो यह भी बोल देगा- ‘यह तो लड़कियों वाला है।' उसके खेल नितान्‍त मौलिक हैं। मुन्ना चाकलेट बेचेगा, सब्‍जी बेचेगा, केले बेचेगा। पूछ कर देखें- ‘चाकलेट अंकल ! चाकलेट कितने का ?' ‘दो पैसे का।' ‘अंकल एक देना।' वह झूठमूठ का चाकलेट देगा, पैसे लेकर जेब में डालेगा और कहेगा- ‘यह लो बाकी पैसे।' उसकी सर्वाधिक प्रिय गेम है- कारीगर बनना, मेकैनिक बनना और सर्वाधिक प्रिय खिलौने हैं- स्‍कूटर या कार के औजार। इस तरह की मकैनो भी उसे पसंद है। अपने तिपहिया वाहन को उलटा करके घंटों लगा रहेगा। स्‍कूल-स्‍कूल खेलना और टीचर बनना उसे पसंद है। चादर में घर बनाना उसे भाता है। ‘ट्रिन ट्रिन।' ‘कौन है ? ' ‘मैं हूँ ! रक्षिता !' ‘आइए जी, आइए जी। बैठिए।' ‘नमस्‍ते जी।' ‘क्‍या हाल-चाल हैं ?' ‘हम तो ठीक हैं बस।' ‘आप कोक पिएंगे या चाय ?' मुन्ना बड़ों की तरह बोलता है। बाजार जाने का उसे विशेषतः रहता है। ‘मॉम चलो।' ‘कहाँ ?' ‘डाक्टर सैट लेना है।' और डाक्‍टर सैट उसे इतना पसंद आया कि पूछो न। चार दिन बाद लोहड़ी थी। कहा- ‘आज खेल लो, तब ले जाना।' पर डाक्‍टर सेट की सुरक्षा के लिए वह इतना सतर्क हो उठा कि उसे सिर के नीचे रखकर सोया। जाते समय अटैचीनुमा वह डिब्‍बा अपने हाथ में ही रखा। ऐसे मौकों पर किसी पर भी भरोसा करना उसे नहीं भाता। मुन्ने के कुछ रहस्‍य हैं, जिन्‍हें वह किसी से साझा नहीं करता और मन की सात परतों में छिपे रहस्‍य सिर्फ मॉम को बताएगा। घण्‍टों खेलने के बाद लॉन में छोटी कुर्सी पर बैठा मुन्ना गुरु गम्‍भीर स्‍वर में बोला- ‘ममा मुझे मारती है।' ‘पहले मारती है, फिर कहती है चौप्‍प।' उसने तुतलाती आवाज में अपने दुख सांझे किए। मॉम अंदर-बाहर तक हिल गई। पौने तीन साल के बच्‍चे के दुख। और फिर मुन्ने की ममा को समझाया गया। हिदायतें दी गई। कोमल मन पर खरोंच न पड़ जाए, ठीक-गलत का अंतर स्‍पष्‍ट किया गया। दिनों तक मॉम कभी मुन्ने से, कभी उसकी ममा से पूछ ताछ करती रही। स्‍कूल में कोई बच्‍चा परेशान करे तो छुट्टी तक उसके चेहरे पर परेशानी खुदी रहती है। हां ! ममा से बात करने के बाद उसका मन अवश्‍य हल्‍का हो जाता है। एक नम्‍बर का नकलची है मुन्ना। ‘मुन्ना ! गुप्‍ता अंकल कैसे हँसते हैं ?' दोनों हाथों से ताली बजा जोर-जोर से हँसेगा। ‘नानू क्‍या कहते हैं ?' ‘ओ तेरा भला हो जाए।' आपके आने पर दीदी (मौसी) क्‍या कहती है- ‘हैलो जीजू'। ‘जीजू कौन है ? ‘मैं हूँ।'- वह पूरे आत्‍म विश्‍वास से बोलता है। उसके रहस्‍यों की कई परतें हैं। आत्‍मीयता के क्षणों में बोला- ‘मुझे आपका घर ममा के घर से अच्‍छा लगता है, पर ममा को नहीं बताना।' अगर उसकी बात बता दो, तो गुस्‍से में डांट अवश्‍य जाएगा।' शरारतों से बाज न आने पर कभी मुन्ने को पुलिस अंकल से, कभी बोरी वाले बाबे से, कभी काक्रोच से, कभी छिपकली से डराया जाता था। पर जल्‍दी ही उसने इस झूठ को खेल में तबदील कर दिया। मोबाइल पकड़ पूरे रौब से बोलेगा- ‘पुलिस अंकल ममा को पकड़ कर ले जाओ। मुझे तंग कर रही हैं।' ‘मुझे पुलिस पकड़ कर ले जाए।' ममा ने रोने का नाटक किया।' पर मुन्ना पूरे रौब में था- ‘सॉरी बोलो।' 'सॉरी।' ‘पुलिस अंकल! मत आना , ममा ने सॉरी बोल दिया है।' कालोनी के सेक्‍योरिटी गार्ड से मुन्ने की दोस्‍ती हो गई है। उसके पास देर तक बैठा-खड़ा बतियाता रहता है। वह पूछेगा- ‘आपका बाईक कितने का है।' मुन्ना झट से जवाब देगा- ‘दो रूपए का।' ‘पेट्रोल डलवा लिया ?' ‘हां! दो हजार का पेट्रोल डलवा लिया।' मुन्ने के कानों में अतिरिक्‍त श्रवण शक्‍ति है। दूर से आ रही बेकरी वाले की आवाज़ उसे सुन जाती है। वह चौकन्ना हो उठता है। उठकर अंगुली पकड़ लेता है। बाहर तक ले आता है और फिर आंखें घुमा-धुमा कर संकेत देता है कि वैफर/ चिप्‍स वाले अंकल आ रहे हैं। तर्कशक्‍ति अकाट्‌य है मुन्ने की। ‘खाना ऐसे फेंकते हैं ? भगवान जी होते हैं इसमें'- ममा ने डांटा। चपाती की बाइट मुँह में डालते बोला- ‘क्‍या मैं भगवान जी को खा रहा हूँ ?' छिपकली और काक्रोच से मुन्ना डरता है और उसे स्‍पष्‍ट है कि इनसे डरना चाहिए। बाथरूम में एक छोटा सा छिपकली का बच्‍चा देख वह भयभीत हो गया। मैंने उसे बातों में लगाना चाहा- ‘छिपकली ने कपड़े ही नहीं पहने।' वह झट से बोला-‘छिपकली कपड़े नहीं पहनती।' 'छिपकली की ममा कहां है ?' 'छिपकली की ममा नहीं होती।' हर बात समझने और समझाने का उसका अपना तरीका है। ‘आप एरोप्‍लेन में श्रीनगर जाओगे, तो बड़ा मज़ा आएगा। एरोप्‍लेन में खाना भी आता है।' मैने उसका व्‍यावहारिक ज्ञान बढ़ाने के लिए कहा। ‘मैं ममा पापा के साथ छुक-छुक गाड़ी पर दिल्‍ली गया था, तो वहां भी खाना आता था।' चीज़ों और बातों में संगति बिठाना उसे आता भी है और भाता भी है। पास-पड़ोस में, नाते- रिश्‍ते में, जान-पहचान में अनेक नन्‍हें बच्‍चे हैं, लेकिन इस मन में मुन्ने की जगह अपनी है, अपनी और अद्वितीय। ……….