वार्ता:सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'

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आत्मा

विश्व अनेक सजीवों और निर्जीवों का मिश्रण है| सजीव चेतन हैं अर्थात स्वतः विभिन्न कार्य करने और समझने में सक्षम हैं जबकि निर्जीव जड़ हैं| वह क्या है जो सजीव और निर्जीव के मध्य यह अंतर उत्पन्न करता है? सजीवों के भौतिक स्वरुप की संरचनात्मक घटक भी अणुओं का समूह होता है और निर्जीवों का भी| तब इसमें एक अधिक उन्नत तथा दूसरा कम उन्नत क्यों है? निश्चित रूप से कोई शक्ति है जो जड़ परमाणुओं को संगठित कर चेतन का निर्माण करती है? कुछ जीव-विज्ञानवेत्ता कह सकते हैं कि चेतनता शरीर की कुछ भौतिक-रासायनिक क्रियायों का परिणाम है, परन्तु फिर इन क्रियायों का संचालन कौन करता है? ये स्वतः तो होंगी नही| चेतनता केवल कुछ भौतिक और रासायनिक क्रियायों का परिणाम नहीं हो सकती क्योंकि उक्त क्रियायों के संचालन के लिए भी कोई शक्ति आवश्यक है| यही शक्ति आत्मा है| हम जानते हैं कि आदिकाल से ही जीवों का शारीरिक एवं मानसिक विकास होता रहा है| हम भी जड़ों की भांति अणुओं से निर्मित हैं किन्तु हमारी चेतना का निरंतर विकास होता गया| हमारे भीतर से चेतनता की अभिव्यक्ति बढ़ती गयी, आखिर क्यों? हमारा विकास अत्यंत सूक्ष्म जीविसार (प्रोटोजोवा: जीव की प्रारंभिक अवस्था) से हुआ है| आखिर हमारी वो जीविसार की संरचना और चेतनता इतनी विकसित कैसे हुई? इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे भीतर जो सामर्थ्य आज है वो सब उसी आदिजीव में संग्रहित थी| उसी शक्ति ने उसे इतनी उच्च अवस्था में पहुंचा दिया| अब भी हममें वही शक्ति विद्यमान है जो करोड़ों वर्ष पूर्व उस जीविसार में थी और हमारे प्रत्येक कार्य के लिए उत्तरदायी है| यहीं से यह निष्कर्ष निकलता है कि चेतनता का कारण कोई शक्ति है और इसी शक्ति को भारतीय दर्शन में 'आत्मा' कहा गया है| इसका अर्थ ये हुआ कि हम सबमें एक आत्म-शक्ति है जो हमें संचालित करती है| तो क्या प्रत्येक जीव में अपनी-अपनी आत्मा है ? इस भांति तो बहुत सारी आत्माएं हो गयी !

क्या उर्जा के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह अमुक आकृति की है? नहीं| उर्जा निराकार है और जो निराकार है उसकी सीमायें निर्धारित नहीं की जा सकती| अगर आत्मा शरीर में है तब तो उसका एक निश्चित आकार होना चाहिए| किन्तु आकार वाली वस्तु उर्जा नही पदार्थ हो जाएगी| इसलिए आत्मा का कोई आकार नहीं है| कोई आकार ना होने के कारण वो देश (सीमा) से परे है अर्थात वो अनंत है| अब चूँकि अनंत कभी दो नही हो सकता (क्योंकि दो अनंत एक दुसरे को सीमित कर देंगे) इसलिए आत्मा तो बस एक ही है| अर्थात आत्मा सर्वत्र व्याप्त है| अतः आत्मा हममें नही हम आत्मा में स्थित हैं| हम सब तो उसकी अभिव्यक्तियाँ हैं| आत्मा अनंत है इसलिए सर्वव्यापी है| हर कण और हर जीव एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति है| आत्मा समुद्र की भांति है और सभी सजीव एवं निर्जीव उसमें उठने वाली लहरों की समान| परन्तु सामान्यतया लोग यही समझते हैं विश्व में जितने जीव हैं उतनी आत्मायें हैं|

विश्व की प्रत्येक वस्तु एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति है| यूँ समझना चाहिए कि आत्मा रूपी विद्युत् धारा विश्वरूपी धाराचालकों में प्रवाहित होती है किन्तु प्रकाश अर्थात अभिव्यक्ति केवल शरीररूपी बल्बों से होती है अर्थात आत्मा वहीं व्यक्त होती है जहाँ उसके व्यक्त होने की व्यवस्था हो| आत्मा में जाति या लिंग-भेद नहीं होता| उपरी स्तर पर जगत विविधतापुर्ण प्रतीत होता है किन्तु मूलतः ये एक ही आत्मा में स्थित है, उसी में विकसित होता है और उसी में नष्ट भी|

आत्मा

विश्व अनेक सजीवों और निर्जीवों का मिश्रण है| सजीव चेतन हैं अर्थात स्वतः विभिन्न कार्य करने और समझने में सक्षम हैं जबकि निर्जीव जड़ हैं| वह क्या है जो सजीव और निर्जीव के मध्य यह अंतर उत्पन्न करता है? सजीवों के भौतिक स्वरुप की संरचनात्मक घटक भी अणुओं का समूह होता है और निर्जीवों का भी| तब इसमें एक अधिक उन्नत तथा दूसरा कम उन्नत क्यों है? निश्चित रूप से कोई शक्ति है जो जड़ परमाणुओं को संगठित कर चेतन का निर्माण करती है? कुछ जीव-विज्ञानवेत्ता कह सकते हैं कि चेतनता शरीर की कुछ भौतिक-रासायनिक क्रियायों का परिणाम है, परन्तु फिर इन क्रियायों का संचालन कौन करता है? ये स्वतः तो होंगी नही| चेतनता केवल कुछ भौतिक और रासायनिक क्रियायों का परिणाम नहीं हो सकती क्योंकि उक्त क्रियायों के संचालन के लिए भी कोई शक्ति आवश्यक है| यही शक्ति आत्मा है| हम जानते हैं कि आदिकाल से ही जीवों का शारीरिक एवं मानसिक विकास होता रहा है| हम भी जड़ों की भांति अणुओं से निर्मित हैं किन्तु हमारी चेतना का निरंतर विकास होता गया| हमारे भीतर से चेतनता की अभिव्यक्ति बढ़ती गयी, आखिर क्यों? हमारा विकास अत्यंत सूक्ष्म जीविसार (प्रोटोजोवा: जीव की प्रारंभिक अवस्था) से हुआ है| आखिर हमारी वो जीविसार की संरचना और चेतनता इतनी विकसित कैसे हुई? इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे भीतर जो सामर्थ्य आज है वो सब उसी आदिजीव में संग्रहित थी| उसी शक्ति ने उसे इतनी उच्च अवस्था में पहुंचा दिया| अब भी हममें वही शक्ति विद्यमान है जो करोड़ों वर्ष पूर्व उस जीविसार में थी और हमारे प्रत्येक कार्य के लिए उत्तरदायी है| यहीं से यह निष्कर्ष निकलता है कि चेतनता का कारण कोई शक्ति है और इसी शक्ति को भारतीय दर्शन में 'आत्मा' कहा गया है| इसका अर्थ ये हुआ कि हम सबमें एक आत्म-शक्ति है जो हमें संचालित करती है| तो क्या प्रत्येक जीव में अपनी-अपनी आत्मा है ? इस भांति तो बहुत सारी आत्माएं हो गयी !

क्या उर्जा के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह अमुक आकृति की है? नहीं| उर्जा निराकार है और जो निराकार है उसकी सीमायें निर्धारित नहीं की जा सकती| अगर आत्मा शरीर में है तब तो उसका एक निश्चित आकार होना चाहिए| किन्तु आकार वाली वस्तु उर्जा नही पदार्थ हो जाएगी| इसलिए आत्मा का कोई आकार नहीं है| कोई आकार ना होने के कारण वो देश (सीमा) से परे है अर्थात वो अनंत है| अब चूँकि अनंत कभी दो नही हो सकता (क्योंकि दो अनंत एक दुसरे को सीमित कर देंगे) इसलिए आत्मा तो बस एक ही है| अर्थात आत्मा सर्वत्र व्याप्त है| अतः आत्मा हममें नही हम आत्मा में स्थित हैं| हम सब तो उसकी अभिव्यक्तियाँ हैं| आत्मा अनंत है इसलिए सर्वव्यापी है| हर कण और हर जीव एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति है| आत्मा समुद्र की भांति है और सभी सजीव एवं निर्जीव उसमें उठने वाली लहरों की समान| परन्तु सामान्यतया लोग यही समझते हैं विश्व में जितने जीव हैं उतनी आत्मायें हैं|

विश्व की प्रत्येक वस्तु एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति है| यूँ समझना चाहिए कि आत्मा रूपी विद्युत् धारा विश्वरूपी धाराचालकों में प्रवाहित होती है किन्तु प्रकाश अर्थात अभिव्यक्ति केवल शरीररूपी बल्बों से होती है अर्थात आत्मा वहीं व्यक्त होती है जहाँ उसके व्यक्त होने की व्यवस्था हो| आत्मा में जाति या लिंग-भेद नहीं होता| उपरी स्तर पर जगत विविधतापुर्ण प्रतीत होता है किन्तु मूलतः ये एक ही आत्मा में स्थित है, उसी में विकसित होता है और उसी में नष्ट भी|