वाल्या / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1

वाल्या बच्चों की कहानियों की किताब मेज़ पर रखकर पढ़ रहा था। किताब में तस्वीरें भी बनी हुई थीं। उसमें कहानियाँ बड़े-बड़े और गहरे काले शब्दों में छपी हुई थीं। कहानियों की इस किताब का आकार इतना बड़ा था कि वाल्या को हर नए पन्ने पर पहुँचकर उसकी पहली लाइन पढ़ने के लिए कुर्सी पर घुटनों के बल खड़े होकर, मेज़ पर बहुत आगे की ओर झुकना पड़ता था। वाल्या ने अभी-अभी पढ़ना सीखा था, इसलिए वह हर शब्द पर अपनी उँगली रख-रखकर पढ़ रहा था। किताब थी तो बहुत दिलचस्प पर, उसका साइज़ इतना बड़ा था कि वह वाल्या के लिए मुसीबत बन गई थी और वह उसे बहुत धीरे-धीरे पढ़ पा रहा था। यह कहानी बोवा नाम के एक बेहद ताकतवर राजकुमार के बारे में थी। इसमें बोवा दूसरे लड़कों के हाथ-पाँव कसकर पकड़ लेता है और वे लड़के उससे अपने हाथ-पैर छुड़वाते हैं। वाल्या को यह पढ़ने और जानने में बड़ा मज़ा आ रहा था कि बच्चे बोवा से अपने हाथ-पैर छुड़वाने के लिए क्या-क्या करते हैं । कहानी में डर और रोमांच के साथ-साथ ख़ूब हँसी-मज़ाक भी था, इसलिए वाल्या उसमें पूरी तरह से डूब गया था। उसने पढ़ते-पढ़ते अचानक सर ऊपर उठाकर एक लम्बी साँस ली। इस दिलचस्प कहानी को पढ़कर उसका चेहरा खिला हुआ था। उसके चेहरे पर ये भाव देखकर यह अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि अब तक की कहानी में कशिश के साथ-साथ ख़ौफ़ भी मिला हुआ था। उसे लग रहा था कि आगे यह क़िस्सा और भी बेहद दिलकश होने वाला है। परन्तु वाल्या को पढ़ते-पढ़ते अचानक रुक जाना पड़ा। हुआ यह कि उसकी माँ एक दूसरी महिला के साथ उस कमरे में आ गई थीं। माँ ने कमरे में घुसते ही कहा — यह रहा मेरा वाल्या !

वाल्या की माँ की आँखें लाल थीं। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था मानो वे रोकर उठी हों। क्योंकि उनका चेहरा भी उदास लग रहा था। उनके हाथ में क्रोशिये की एक शाल थी, जिसे वे बार-बार एक हाथ से दूसरे में ले रही थीं और कभी-कभी अपनी गोरी उँगलियों से उसे धीरे-धीरे सहला रही थीं।

माँ के साथ जो औरत अंदर आई, वाल्या को देखते ही वह बासों उछल पड़ी और चिल्लाकर बोली — वाल्या, मेरी जान !

उस औरत ने बड़े प्यार से अपने दोनों हाथों से वाल्या का सिर सहलाया। पहले उसने उसके गाल चूमे, फिर कई बार उसकी आँखें चूमी। उसके होंठ पतले और सूखे-से थे। वह बहुत देर तक वाल्या के चुम्बन लेती रही। वाल्या को उसके चुम्बनों में उतना मज़ा नहीं आया, जैसा मज़ा तब आता था जब माँ उसे चूमती थी। वाल्या को माँ के इत्र की खुशबू बहुत पसंद थी। जब माँ उसे दुलारा करती थी, तब वह अपने नरम होंठ हौले से कभी उसके माथे पर तो कभी गाल पर रखती, जबकि इस औरत का चूमना चूसने जैसा था। बच्चे को उस पराई औरत का, जिसकी हड्डीनुमा उँगलियों में एक भी अँगूठी नहीं थी, इस तरह से लाड़-प्यार जताना कतई रास न आया। इसके अलावा उस औरत से ऐसी महक आ रही थी मानो कोई चीज़ सील गई हो या सड़ गई हो। वाल्या को वह औरत ज़रा भी नहीं सुहाई। पढ़ते-पढ़ते उसे कहानी को यूँ ही छोड़ देना पड़ा। सबसे दिलचस्प जगह पर कहानी को बीच में छोड़कर उठना उसे ज़रा नहीं सुहाया। लेकिन वह चुपचाप सब कुछ सहता रहा।

कुछ समय बाद वह औरत वाल्या के पास से उठ गई। वाल्या जब उसके चुम्बनों के बाद अपना मुँह पोंछ रहा था, तब भी उस औरत की निगाहें बच्चे पर गड़ी हुई थी। वह मानो उस एक पल में उसकी पूरी छवि अपने दिल में उतारना चाहती थी। उस औरत को उसका छुटपन याद आने लगा — एकदम छोटा-सा था वो, पिद्दी सा। उसकी नाक भी नन्ही-सी थी। अब तो इस नक्कू की नाक बहुत अच्छी तरह उभर आई है, गोरे चेहरे पर काली आँखें बहुत दिलकश लग रही हैं। वैसे देखने में काफ़ी गम्भीर लगता है। और कुछ याद करके उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। हालाँकि उसका रोना एकदम दूसरी तरह का था। वह माँ की तरह नहीं रो रही थी। उसके चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी और आँखों से आँसू जल्दी-जल्दी टपक रहे थे। जैसे यकायक वह रोने लगी थी, वैसे ही चुप भी हो गई । फिर उसने वाल्या से पूछा — रे छुटकू, क्या तू मुझे पहचानता है ?

— नहीं, मैं आपको नहीं जानता।

— जब तू नन्हा-सा था, तब मैं तुझे देखने आई थी। खासतौर पर तुझसे मिलने। दो बार आई थी। अब तुझे याद नहीं।

वह अजनबी औरत बचपन में वाल्या से मिलने आई थी या नहीं आई थी, इससे उसे क्या लेना-देना। असली बात तो यह थी कि उसकी इन बातों की वजह से वाल्या का कहानी पढ़ना छूट गया था और वाल्या आगे कहानी पढ़ने के लिए बेचैन था।

तभी अचानक उस औरत ने कहा — सुन वाल्या, मैं तेरी माँ हूँ।

यह सुनकर बच्चे को बेहद हैरानी हुई। उसने पीछे मुड़कर अपनी माँ की तरफ़ देखा, पर तब तक वह कमरे के बाहर चली गई थी।

वाल्या ने उससे कहा — आप क्या कह रही हैं ! क्या किसी के दो माँ हो सकती हैं ?

इस बात पर वह औरत धीमे से हँसी। वाल्या को उसका हँसना अजीब-सा लगा। हालाँकि उस औरत ने जानबूझकर, बस, दिखावे के लिए ऐसा किया था। कुछ देर दोनों चुप रहे। फिर उस औरत ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा — अरे ! तुम्हें तो पढ़ना भी आता है। वाह बेटा, शाबाश !

वाल्या यह सुनकर चुप रहा।

— तुम कौनसी कहानी पढ़ रहे हो ?

— राजकुमार बोवा की बहादुरी के कारनामे। बोवा और उस किताब के लिए अपना लगाव दिखाते हुए वाल्या ने बड़े फ़ख़्र से कहा।

— ओह ! अच्छा ! तो तुम लोक-कथा पढ़ रहे हो ! यह तो बेहद दिलचस्प कहानी होगी ! मुझे भी सुनाओ न।

उस औरत ने थोड़ी ख़ुशामद के भाव से मुस्कुराते हुए कहा।

उस औरत ने यह बात वाल्या की माँ की तरह प्यार से कहने कोशिश तो की थी, परन्तु उसकी आवाज़ में माँ वाली सहजता बिलकुल नहीं थी। उसकी आवाज़ बहुत तीखी थी और कानों में चुभ रही थी। वाल्या से कहानी सुनने के लिए उसने अपनी कुर्सी थोड़ी आगे खिसकाकर, सर भी थोड़ा आगे कर लिया ताकि वह ध्यान से उसकी बात सुन सके। पर वाल्या को ऐसा लग रहा था कि वह यों ही झूठमूठ दिखावा कर रही है। जैसे ही वाल्या ने बेमन से क़िस्सा पढ़ना शुरू किया, वह औरत अपने भीतर गुम हो गई। वाल्या ने जल्दी-जल्दी उल्टा-सीधा पढ़कर कहानी आखिर तक सुनाई। और फिर आखिर में बोला — कहानी ख़तम, पैसा हजम।

वह औरत कुछ और देर उसके पास बैठी रही, फिर उसने वाल्या से कहा — ठीक है। बेटू जी ! अब मैं चलती हूँ। जल्दी ही फिर आऊँगी। इतना कहकर उसने वाल्या को एक बार फिर चूमा और जाने से पहले उससे पूछा — अगली बार तुम्हारे लिए मैं क्या लेकर आऊँ ? मेरे आने से तुम ख़ुश होगे ना ?

वाल्या ने सहजता से कहा — हाँ, आप ज़रूर आइएगा। और उसने उससे जल्दी से पीछा छुड़ाने के लिए आख़िर में यह भी जोड़ दिया कि उसके आने से वह बहुत ख़ुश होगा।

उस औरत के जाते ही वाल्या अपनी कहानी में वह जगह ढूँढ़ने लगा, जहाँ पर उसे रुकना पड़ा था। उसे वह जगह मिली ही थी कि उसकी माँ कमरे में आ घुसी और धीमे-धीमे रोने लगी।

माँ को रोता देख वाल्या को अजीब लगा। उसे उस दूसरी औरत के रोने की वजह का थोड़ा-सा तो अंदाज़ था। वह सोच रहा था कि उस औरत को इस बात का एहसास था कि वह कितनी नीरस और उबाऊ है और यही उसके दुखी होने और रोने का कारण था। पर, माँ का इस तरह से आँसू बहाना वाल्या की समझ से परे था।

वाल्या ने कुछ सोच-समझकर माँ से कहा — माँ, ये कौन थी ? मैं उससे परेशान हो गया ! मुझसे कह रही थी कि वो मेरी माँ है। भला, किसी के दो माँ हो सकती हैं ?

— नहीं बेटा, दो माएँ तो नहीं हो सकती, पर वो झूठ नहीं बोल रही थी। वो सच कह रही थी। वो तुम्हारी माँ ही है।

— तो फिर तुम कौन हो ?

— मैं तुम्हारी आंटी हूँ।

वाल्या को एकाएक माँ की बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने इस बात पर ज़्यादा ज़ोर देना ठीक नहीं समझा। उसने सोचा — माँ, भला, कैसे आंटी हो सकती है। लेकिन ठीक है, आंटी बनना चाहती है तो आंटी बन जाए। इससे भला क्या फ़र्क पड़ता है। अब मैं माँ को माँ नहीं आंटी कहूँगा। लेकिन वाल्या की माँ ने उसे यह समझाना शुरू किया कि कैसे वह अब तक उसकी माँ थी और क्यूँ अब आंटी बन जाएगी :

— बहुत पहले जब तुम एकदम छोटे थे…

— तब मैं कितना छोटा था, माँ ? — उसने अपने छोटे-से हाथ को मेज़ पर फैलाया और अँगूठे से छोटी उँगली तक बित्ता बनाकर दिखाया और पूछा — इतना ?

— नहीं, तब तुम इससे भी छोटे थे।

— तो क्या तब मैं बिल्ली के बच्चे जितना था ?

वाल्या का मुँह ख़ुशी से चमक रहा था। वह बहुत उत्सुक था। उसके होंठ खुले हुए थे और आँखें आश्चर्य से फैली हुई थीं। उसने अपने नन्हे-सफ़ेद बिल्ली के बच्चे की तरफ़ इशारा किया, जो उसे कुछ दिन पहले ही किसी ने दिया था। बिल्ली का वह बच्चा इतना छोटा था कि चाय की प्लेट जितनी जगह में आराम से सोता रहता था।

— हाँ, तब तुम इतने नन्हे-से थे।

यह सुन वाल्या पहले तो ज़ोर-ज़ोर से हँसा, मग़र फौरन ही वैसा ही संजीदा हो गया जैसा वह आमतौर पर रहता था। जैसे कोई बड़ा-बूढा आदमी अपनी जवानी के दिनों की कोई ग़लती याद करके कहता है, वैसे ही वह बोला :

— मैं जब छोटा था, कितना मज़ेदार था।

— तब तुम बिल्ली के बच्चे की तरह छोटे थे और वो औरत तुम्हें हमारे पास लेकर आई। फिर तुम्हें हमेशा के लिए हमें देकर चली गई। और अब, जब तुम बड़े और समझदार हो गए हो, वो तुम्हें हमसे वापस लेकर अपने साथ रखना चाहती है। क्या तुम उसके साथ नहीं रहना चाहोगे ?

— नहीं, वो मुझे बिलकुल पसंद नहीं। यह कहकर उसने अपनी किताब फिर से उठा ली और कहानी आगे पढ़ने लगा।

बेटे का ऐसा सख़्त जवाब सुनकर उसकी माँ को बहुत ख़ुशी हुई।

वाल्या को लगा कि उस औरत वाली बात अब आई-गई हो गई, पर हक़ीक़त में ऐसा नहीं था। वह देवी जी उसका पीछा छोड़ने वाली नहीं थीं। न जाने कब, वे अचानक कहाँ से आ टपकतीं और जैसे आती थीं, वैसे ही ग़ायब भी हो जाती थीं। उनका चेहरा ऐसा बेजान और सफ़ेद दीखता था मानो किसी ने उनका सारा ख़ून चूस लिया हो। उनके आने से पूरा घर तितर-बितर हो जाता था और घर की शान्ति भंग हो जाती थी। वाल्या की माँ बात-बेबात अक्सर रोने लगती और रोते हुए वह वाल्या से एक बात कहती — क्या वह वास्तव में उसे छोड़कर चला जाएगा ! उसके बापू भी कुछ बड़बड़ाते रहते और अपने गंजे सिर पर हाथ फेरते रहते। सिर पर बार-बार हाथ फेरने से उनके सफ़ेद बाल एंटीना की तरह खड़े हो गए थे। बापू जब वाल्या के साथ कमरे में अकेले होते, तो वे भी उससे वही बात कहते कि अब वाल्या उनके साथ नहीं रहेगा। एक रात जब वाल्या सोने के लिए बिस्तर में लेट गया था, पर उसे नींद नहीं आई थी, तो उसने सुना कि रसोई में बैठकर उसकी माँ और बापू उस औरत के बारे में ही बातें कर रहे हैं। बापू बहुत ग़ुस्से में थे। वे इतनी ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे थे कि कमरे में लगे फानूस की लड़ियाँ ऐसे हिल रही थीं मानो वे उनके ग़ुस्से की वजह से थरथरा रही हैं। उन पर पड़ रही रौशनी की झलक कभी नीली तो कभी लाल हो रही थी। बापू माँ पर चीख़ रहे थे :

— नास्च्या ! तुम बेवकूफ़ों वाली बात क्यों कर रही हो। वाल्या हमारा बेटा है। हमने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया है। अब हम उसे कैसे किसी को दे देंगे ! हम तो यह भी नहीं जानते कि वो कुछ कमाती-धमाती भी है या, बस, यों ही… ? जब से उसके खसम ने उसे छोड़ा है, न जाने वो कैसे रहती है ? किसके भरोसे ? मेरी बात मानो अगर वाल्या उसके साथ गया तो वहाँ जाकर बरबाद हो जाएगा।

2

— वाल्या के बापू ! मेरी बात सुनो ! वो वाल्या को बेहद चाहती है।

— अच्छा ! तो तुम कहना क्या चाहती हो कि हम उसे नहीं चाहते या वो हमारा बच्चा नहीं है ! तुम्हारा सोचने का ढंग भी अजीब है। ऐसा लगता है जैसे वाल्या को तुम उसे सौंपकर उससे छुटकारा पाना चाहती हो…।

— अरे वाल्या के बापू, कितने बेहया हो तुम। तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आ रही ऐसी बात कहते हुए !

— ठीक है ! ठीक है ! नाराज़ मत हो। तुम, ज़रा, ख़ुद ठण्डे दिमाग़ से सोचकर देखो। छोटी उम्र में लड़कियाँ बेहद लापरवाह और चोंचलेबाज होती हैं। हर लड़की तो घरेलू नहीं होती। कुछ लड़कियाँ आवारागर्दी भी करती हैं। उसके साथ मौज-मस्ती करने के बाद जब उसके पैर भारी हो गए और जब उसका यार उसे छोड़कर चला गया है तो उसने बच्चा पैदा करके हमारे सिर डाल दिया और दस साल के लिए अपने बच्चे को भूल गई। अब जब उसका ख़सम भी उसे छोड़ गया है तब उसे बच्चा वापस चाहिए। क्यों चाहिए, भई, जिसे तुम छोड़ चुकी थी, भूल चुकी थी, अब वही बच्चा तुम्हें वापस क्यों चाहिए ? उसकी शक़्ल देखकर ही लगता है, उसके पास आवारागर्दी करने के लिए भी पैसे नहीं है। अब ये बच्चा उसका मन बहलाएगा। मन बहलाव के लिए उसे एक खिलौना चाहिए, बच्चा नहीं। मैडम, ऐसे काम नहीं चलेगा।

— वाल्या के बापू, तुम ठीक नहीं कर रहे हो। वो आवारागर्द नहीं है। तुम्हें क्या मालूम कि वो इस दुनिया में कितनी तनहा है और कितनी बीमार रहती है…।

— हे भगवान, तुम क्या कह रही हो, तुम्हारी बातें सुनकर तो किसी फ़कीर का भी सब्र का बाँध टूट जाएगा। तुम ऐसी कैसे हो गई ? वाल्या हमें कोई भीख में नहीं मिला है। दस साल तक उसका गू-मूत किया है, तब वो इतना बड़ा हुआ है। अब वाल्या को उसे दे दें ? बड़ी दातार हो तुम। वाल्या कोई खिलौना है कि अब हमारा मन भर गया, लो तुम इससे खेलो। तुम बच्चे के बारे में एकदम भूल जाती हो कि वो भी हाड़-मांस का है, वो भी सोचता-समझता है। ऐसे कैसे चला जाएगा वो किसी दूसरे के साथ, जिसे वो जानता नहीं, पहचानता नहीं ? तुम्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वाल्या बड़ा होकर क्या बनेगा… वो एक नेक इनसान बनेगा या बदमाश और लुच्चा-लफँगा ? मैं तुम्हें लिखकर दे सकता हूँ कि उसके साथ रहकर लड़का बिगड़ जाएगा और गुंडागर्दी ही सीखेगा।

— उफ़… तुम यह सब क्या बक रहे हो !

— हे भागवान, मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूँ ! मैं पहले ही बहुत परेशान हूँ, अब तुम तो मुझे तंग मत करो ! अपना बच्चा किसी दूसरे को सौंप दो, यह अक़्ल तुम्हें कहाँ से मिली ? “वह बेचारी एकदम अकेली है” और हम… हम क्या अकेले नहीं हो जाएँगे ? नास्च्या, कितनी जालिम हो तुम। न जाने मैंने तुमसे कैसे शादी कर ली ! अगर मुझे पता होता कि तुम ऐसी कसाई हो तो मैं तुम्हारे हाथ में अँगूठी नहीं पहनाता।

नास्च्या कुछ और कहने की हालत में नहीं थी। उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। उसके पति ग्रीशा ने ग़ुस्से में आकर अब तक उसे जो कुछ भी भला-बुरा कहा था उसके लिए उसने नास्च्या से माफ़ी माँग ली और कहा — नास्च्या, मैंने अब तक जो कुछ भी तुमसे कहा है, वो ग़ुस्से में कहा है, इसलिए मेरी बातों पर विश्वास मत करना। मैं तो बेवकूफ़ हूँ। तुम्हारी जैसी अक़्लमंद बीवी को पाठ पढ़ाने लगा। बस, मैं वाल्या को बेहद प्यार करता हूँ। उतना ही, जितना तुम्हें। मैं तुम दोनों से ही अलग नहीं रह सकता। मेरी जान, मुझे माफ़ कर दो। धीरे-धीरे नास्च्या शांत हो गई उसने पूछा :

— हमारे वकील तलोंस्कि का इस बारे में क्या कहना है ?

ग्रीशा फिर से भड़क उठा। — तुम्हारे दिमाग़ में यह बात आई कहाँ से कि वो अक़्ल का दुश्मन नहीं है। उसने तो यही कहा कि अदालत सब कुछ तय करेगी …। भला, यह भी कोई कहने वाली बात है ! यह तो हमें उसके बिना ही मालूम है कि अदालत जो तय करेगी वही होगा। सबसे बड़ी बात यह कि अदालत इस मामले को किस निग़ाह से देखती है। तलोंस्कि का क्या जाता है ! वह तो वहाँ बक-बक करेगा और भूल जाएगा। अगर मेरा बस चले न तो मैं तो इन फालतू की बकवास करने वालों को…

इतने में नास्च्या ने रसोई का दरवाज़ा बन्द कर दिया, इसलिए वाल्या उनकी बातचीत का आख़िरी हिस्सा नहीं सुन पाया। इसके बाद उसे बहुत देर तक नींद नहीं आई। आँखें मूँदकर वह ऐसे ही बिस्तर में पड़ा रहा और यह समझने की कोशिश करता रहा कि वह कैसी औरत है, जो उसे अपने साथ रखकर बरबाद करना चाहती है।

अगले दिन वाल्या सुबह से ही यह इंतज़ार कर रहा था कि माँ उससे कब यह पूछेगी कि क्या वह ‘नई माँ’ के पास जाएगा और वहाँ रहेगा ? पर न तो माँ ने और न ही बापू ने उससे कोई सवाल किया। वे दोनों तो वाल्या को इतने लाड़ से देख रहे थे कि जैसे उसकी तबियत ख़राब हो गई। वे उसे दुलार रहे थे और उसे बहलाने के लिए उन्होंने उसके सामने उसकी सब किताबों का ढेर लगा दिया। वह औरत फिर दुबारा नहीं आई, लेकिन वाल्या के मन में एक डर-सा रह गया था और उसे ऐसा लग रहा था - जैसे वह घर के दरवाज़े के पास खड़ी उसकी निगरानी कर रही है। वाल्या जैसे ही अपने घर की देहलीज़ पार करेगा, वह उसे पकड़ लेगी और कहीं दूर अँधेरी-डरावनी जगह पर ले जाएगी।

शाम के समय ग्रीशा अपने कमरे में काम किया करते थे। नास्च्या या तो बुनाई का कोई काम करती थी या फिर अकेले ही ताश खेला करती थी और पढ़ाकू वाल्या अपनी किताबें पढ़ा करता था। अब वह ज़्यादा बेहतर ढंग से पढ़ने लगा था। मौसम बदल गया था। पतझड़ आ गया था। बाहर तेज़ हवाएँ चला करती थीं, लेकिन घर में एकदम शांति थी। कभी-कभी ग्रीशा के कमरे से पन्ने पलटने और गिनतारा पर लकड़ी के छल्ले सरकाने की आवाज़ आती थी। मेज़ पर एक लालटेन रखी हुई थी। ख़ूबसूरत नीले रंग की इस लालटेन की रौशनी मेज़ पर बिछे रंगीन-मखमली मेज़पोश पर पड़ रही थी। वाल्या अपने कमरे में बैठा कहानियों की नई किताब पढ़ रहा था। जो कहानी वह पढ़ रहा था, कुछ ऐसी थी कि उसके मन में कभी दुख, कभी सुन्दरता तो कभी डरावने भाव आ रहे थे। वाल्या को कहानी की मुख्य पात्र बेचारी जलपरी पर बेहद दया आ रही थी। वह धरती पर रहने वाले राजकुमार से इतनी मोहब्बत करने लगी थी कि उसकी ख़ातिर वह अपनी माँ-बहनों और गहरे-शान्त महासागर के अपने विशाल जल-परिवार को छोड़ने के लिए तैयार थी। लेकिन राजकुमार जलपरी की भाषा नहीं समझता था और उसे इस बात का ज़रा भी अंदाज़ न था कि जलपरी उससे बेइन्ताह मोहब्बत करती है। अपने माँ-बाप की पसंद पर उसे एक राजकुमारी से ब्याह करना पड़ता है। एक बार एक समारोह के दौरान जब राजकुमार के जहाज़ में गीत-संगीत चल रहा था और जहाज़ की सब खिड़कियाँ रौशन थीं, वह जलपरी राजकुमार से मिलने आई। उसने देखा कि राजकुमार अपनी बीवी के साथ बैठा है और मौज़-मस्ती कर रहा है। उस पर जैसे बिजली-सी गिरी और वह वापस महासागर की काली-अँधेरी लहरों में कूद पड़ी। वह छोटी और प्यारी-सी जलपरी बेहद उदास और ख़ामोश थी ! वाल्या को उस पर तरस आ रहा था।

वाल्या को परियों की कहानियों से ज़्यादा भूत-प्रेतों और चुड़ैलों की रहस्यमयी और डरावनी कहानियाँ पसंद थीं। उनकी हँसी पैनी छुरी की तरह चुभती है। लोग उनसे डरते हैं और लम्बी-लम्बी दयनीय चीखें निकालते हैं। चुड़ैलें चमगादड़ की तरह टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानें भरतीं हैं और धुएँ के लाल-लाल बादलों में अपनी लम्बी-लम्बी जीभ निकालती हैं। मशालों की तेज़ चमकती हुई रौशनी में भूतप्रेत अजीब जंगली तरीकों से नाचते हैं। इन काल्पनिक बाल-कहानियों में खौफ़नाक, रहस्मयी भूत और चुड़ैल इतने ताक़तवर थे कि वे मनुष्य को नष्ट कर सकते थे। ऐसी कहानियाँ पढ़ने के बाद वाल्या ऐसे ही सपने भी देखता था, जिनमें चुड़ैलें हवा में तैरती-मँडराती वाल्या के कमरे में चली आतीं और ज़ोर-ज़ोर से ही-ही करती हुई अपनी हड्डी-उँगलियों से वाल्या की ओर इशारा करतीं मानो उसे मारना चाहती हों।

इस तरह के सपने देखने के बाद वाल्या डर से अधमरा हो जाता था, लेकिन वह उन ख़ौफ़नाक किताबों को पढ़ना नहीं छोड़ता था। उन चुड़ैलों के कंकालों और भूतप्रेतों से ही उसे रोमांच होता था और मज़ा आता था। ये चुड़ैलें उसे उस 'नई माँ' की तरह लगती थीं, जिसे वह अपने मन में ‘हड्डी-औरत’ कहा करता था।

उसका चेहरा वाल्या को किसी मरगिल्ली औरत की तरह लगता था, जो अपने चेहरे पर नक़ली और चालाकी से भरी मुस्कान चिपका लेती है। जब वह हँसती है तो उसके होठों के दोनों तरफ़ दो गहरी-गहरी लकीरें-सी बन जाती हैं। वाल्या यह सोचने लगा था कि यदि वह भयंकर औरत उसे अपने साथ ले जाएगी तो वह मर जाएगा।

एक बार वाल्या ने कहानी पढ़ते-पढ़ते रुककर, माँ की आँखों में आँखें डालकर, सहज आवाज़ में कहा :

— सुनो अम्मा ! तुम मेरी माँ हो ना ! तो तुम्ही मेरी माँ हो। यह 'नई माँ' कहाँ से आ गई ! मैं उसे 'नई माँ' नहीं कहूँगा। अम्मा, मैं तो तुम्हे ही माँ कहूँगा। तुम जो कहती हो न कि वह औरत मेरी 'नई माँ' है, यह सब बकवास है। तुम ही मेरी माँ हो, अम्मा।

उसकी बात सुनकर नास्च्या बेहद ख़ुश हो गई। उसे लगा कि बच्चे भी इस बात को समझते हैं कि 'नई माँ' जैसी कोई चीज़ नहीं होती। माँ तो माँ होती है। लेकिन अगले ही पल वह बेहद संजीदा हो गई। वह वाल्या को लेकर चिंतित थी। पिछले कुछ समय से वह अजीब-अजीब हरकतें करने लगा और डरपोक भी हो गया है। रात में वह माँ के साथ ही सोने की जिद करने लगा है, अकेला सोने से डरता है। कभी-कभी नींद में बड़बड़ाने और रोने लगा है।

नास्च्या ने पलटकर वाल्या से पूछा :

— क्यों? तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि वो तुम्हारी माँ नहीं है।

— ये मैं नहीं बता सकता नहीं है… शायद बापू जानते हों, उनसे पूछ लो। लेकिन सब बच्चों की एक ही माँ होती है। क्या तुमने कभी देखा कि किसी बच्चे की दो-दो माँ हों। माँ और बापू तो सबके एक ही होते हैं।

— सुनो वाल्या, सच यही है कि वो तुम्हारी माँ है।

वाल्या ने कुछ सोचकर बापू की तरह माँ पर नाराज़ होते हुए कहा :

— माँ, मैं तुम्हरो बातें सुनकर हैरान हो जाता हूँ ! कहाँ से आई तुममें ये अक़्ल !

नास्च्या मुस्कुराई और उसके सिर पर हाथ फेरने लगी। वह बड़ी देर तक उसे दुलराती रही और मन ही मन कुछ सोचती रही। रात को जब वह सोने के लिए लेटी तो उसे देर तक नींद नहीं आई। मियाँ-बीवी दोनों देर तक बात करते रहे। ग्रीशा पहले की तरह उस पर नाराज़ होता रहा। उसने वकीलों को ढपोरशंख, सिर फिरे और न जाने क्या-क्या बताया। उसके बाद उन्होंने मोमबत्ती जलाई और वे दोनों सोते हुए वाल्या को देखने गए। मोमबत्ती की रौशनी में वे लोग देर तक वाल्या को निहारते रहे। मोमबत्ती की लौ काँप रही थी। उसकी रौशनी वाल्या के चेहरे पर धूप-छाँव की तरह पड़ रही थी। वाल्या के चेहरे पर एक दर्द का भाव था। अचानक उसके चेहरे पर हँसी खेलने लगी और फिर उसका चेहरा इतना भयानक हो उठा मानो वो किसी को डरा रहा हो।

सोते हुए बेटे के चेहरे पर लगातार बदलते भावों को देखकर नास्च्या बुरी तरह से डर गई। उसने उसे कई आवाजें दीं, लेकिन वाल्या गहरी नींद में था। माँ की आवाज़ सुनकर उसने ज़ोर से साँस ली, पर वह ज़रा भी नहीं हिला। शायद वह कोई सपना देख रहा था और सपने में किसी राक्षस से लड़ रहा था।

वाल्या की यह हालत देखकर उसके माँ-बाप घबरा गए थे। ग्रीशा को समझ नहीं आ रहा या कि इस हालत में वह क्या करे। इसलिए उसने उसे जगाने का फ़ैसला किया। और दोनों मियाँ-बीवी मिलकर ‘वाल्या ! वाल्या’ पुकारने लगा। इस पर जब वह नहीं उठा तो नास्च्या ने उसके दोनों हाथ पकड़कर उसे झंझोड़ दिया।

वाल्या ने आँखें खोल दी। डर से उसका चेहरा सफ़ेद हो गया था। वह एक झटके से अपने घुटनों पर खड़ा हुआ और उसने नास्च्या को अपनी बाँहों में भर लिया। वह अपनी माँ से पूरी तरह चिपट गया और उसके सीने में अपना मुँह छिपाने लगा। उसने आँखें फैलाकर अपनी माँ को देखा और धीमे से कहा :

— माँ, मुझे डर लग रहा है ! मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा !

वह रात उस परिवार के लिए कहर की रात थी। थोड़ी देर बाद जब वाल्या फिर से सो गया तो ग्रीशा को साँस लेने में दिक़्क़त होने लगी। उसे साँस की बीमारी थी, उसकी छाती धौंकनी की तरह ऊपर-नीचे हो रही थी। पूरी रात वह बहुत परेशान रहा। सुबह जाकर उसे थोड़ा आराम मिला। तब तक नास्च्या बेहद थक गई थी। जब नींद से उसकी आँखें बंद होने लगी तब उसे लगने लगा कि ग्रीशा वाल्या से जुदा होने का ग़म नहीं सह पाएगा।

ग्रीशा और नास्च्या ने यह फ़ैसला किया कि अब वे वाल्या के साथ ज़्यादा समय बिताएँगे और यह कोशिश करेँगे कि वाल्या दूसरे बच्चों के साथ हिले-मिले और खेले। इसलिए वाल्या को उसके हमउम्र बच्चों के साथ मिलवाया जाने लगा। वे लोग ऐसी जगहों पर घूमने के लिए जाने लगे, जहाँ ढेर सारे बच्चे होते थे। लेकिन वाल्या तो किताबें पढ़नेवाला संजीदा बच्चा था, इसलिए उसे दूसरे बच्चों का साथ बिलकुल नहीं भाया। वे बच्चे उसे बहुत शरारती लगे। वे बच्चे पिंजरे से निकले बंदरों की भाँति कूदते-फाँदते और आपस में झगड़ते। लापरवाह इतने थे कि गमलों के ऊपर चढ़ जाते, किताबें फाड़ देते तो कभी कुर्सियों पर चढ़ते-उतरते। उनकी उछल-कूद देखकर वाल्या दुखी हो जाता और अपनी माँ के पास जाकर कहता :

— माँ, मैं इनसे बहुत तंग आ गया हूँ। इनके साथ खेलने से तो बेहतर है कि मैं तुम्हारे पास बैठा रहूँ और कहानियाँ पढ़ता रहूँ।

अब वह कहीं भी जाने से कतराता।

कुछ दिन ऐसे ही गुज़र गए। इसके बाद वाल्या फिर से कहानियों की किताबें पढ़ने लगा। लेकिन ग्रीशा को यह पसंद नहीं था कि वो एक ही जगह पर बैठा रहता है और दिन-रात उसकी आँखें किताबों में गड़ी रहती हैं। वह उसे प्यार से समझाने की कोशिश करता — तुम तो हिलते-डुलते ही नहीं हो। अब तुम बड़े हो गए हो, तुम्हें कुछ कसरत-वसरत करनी चाहिए। ये क्या, एक ही जगह पर पड़े रहते हो। अब किताबों का पीछा छोड़ो, कुछ काम-धाम किया करो, थोड़ा घूमा-फिरा करो। जाओ, ज़रा बाहर घूम-फिर आओ। — यह कहकर ग्रीशा उससे किताब वापस लेने की कोशिश करता तो वाल्या चुपचाप किताब को अपने सीने से चिपकाने लगता। ग्रीशा को उससे किताब न ले पाने की वजह से शर्मिंदगी महसूस होती। तब वह अपना ग़ुस्सा नास्च्या पर निकालता हुआ उसे उलाहने देता और ताने कसता :

— अच्छा ! तो तुम बच्चे की ऐसे परवरिश कर रही हो ! ऐसे सिखाती हो तमीज़ ! मैं देख चुका हूँ तुम वाल्या का पालन-पोषण करने की जगह बिल्ली के बच्चों के साथ ज़्यादा मसरूफ़ रहती हो। तुमने वाल्या की लगाम इतनी ढीली छोड़ रखी है कि उससे हम किताब तक नहीं ले सकते ! और अब मैं तुम्हें क्या कहूँ ! तुम तो…।

एक दिन सुबह, जब वाल्या नास्च्या के साथ बैठा नाश्ता खा रहा था, ग्रीशा दौड़ता हुआ आया। उसका चेहरा पसीने से तर था और टोपी सिर के पीछे सरकी हुई थी। वह दरवाज़े पर से ही ख़ुशी से चिल्लाया :

— मना कर दिया ! अदालत ने मना कर दिया !

यह सुनकर नास्च्या के कानों में लटकी झुमकियों के नग चमक उठे और हाथ में पकड़ा चम्मच टन से प्लेट पर जा टकराया। उसे इतनी अच्छी ख़बर पर विश्वास नहीं हुआ इसलिए उसने पूछा :

— तुम सच बोल रहे हो न ?

ग्रीशा ने यह भरोसा दिलाने के लिए कि वह सच बोल रहा है, पहले तो अपने चेहरे पर गंभीरता ओढ़ ली, मग़र अगले ही पल वह अपनी गंभीरता के इरादे के बारे में भूल गया और उसका चेहरा खिल उठा। वह हँस रहा था और उसके चेहरे पर झुर्रियाँ गहरा गई थीं। फिर अचानक उसे यह एहसास हुआ कि इतनी बड़ी ख़बर सुनाने के लिए जो गंभीरता होनी चाहिए, वह नहीं है। तब ग्रीशा ने भौहें चढ़ा लीं और एक कुर्सी मेज़ के पास खींचकर, उस पर अपना हैट रखा। फिर उसने उन दोनों की तरफ़ आँख मारी और बोला :

—  मैं हमेशा कहता था न कि तलोंस्कि बहुत समझदार और चतुर आदमी है। जो होना होता है वह होकर रहता है। नास्च्या, तुम अब कोई दूसरी कोशिश मत करो। 

3

— इसलिए कि यह सच है?

— तुम हमेशा ख़ामाख़ाह ही शक करती रहती हो। निचली अदालत में तो हम जीत गए हैं। अदालत ने उस औरत के दावे को रद्द कर दिया है।

“तलोंस्कि बहुत तेज़-तर्रार है”। ग्रीशा ने वाल्या की ओर मुड़कर तेज़-तर्रार शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा। तलोंस्कि ने तो अदालत में यह माँग भी की है कि इस मुकदमे का पूरा ख़र्च उसी औरत से लिया जाए।

— वह 'नई माँ' अब मुझे नहीं ले जाएगी ?

— नहीं ले जाएगी। नहीं ले जाएगी, मेरे बच्चे ! मैं तो भूल ही गया ! मैं तुम्हारे लिए कुछ नई किताबें लाया हूँ !


ग्रीशा वाल्या की किताबें लाने के लिए अहाते की ओर बढ़ा ही था कि वह नास्च्या की चीख़ सुनकर रुक गया। हुआ यह था कि कुर्सी पर बैठा वाल्या अचानक बेहोश हो गया और उसका सिर कुर्सी के हत्थे पर टिक गया।

जैसे घर के किसी आदमी की बीमारी ठीक हो जाती है और वह फिर से तन्दुरुस्त हो जाता है और पूरा घर चैन की साँस लेने लगता है, ठीक वैसा ही इस घर में भी हुआ। वहाँ खुशियाँ फिर से लौट आईं। सर पर मँडराने वाली डायन से अब वाल्या का पीछा छूट गया था। जो बच्चे पहले उसे बंदरों की तरह कूदते-फाँदते से दिखते थे, अब उसे उनके साथ खेलने में मज़ा आने लगा। इतना ही नहीं हर छोटे-से-छोटे खेल में वह कुछ नया और अलग कर दिखाता। वाल्या की एक सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि हर खेल वह गंभीरता से खेलता था और हर खेल में उसकी मौलिकता दिखाई देती थी। सारे बच्चे मिलकर जब ‘रेड-इंडियन’ खेल खेलते, जिसमें उन्हें अपने बदन को रंगना होता था, तब वाल्या को लगता कि उन्हें पूरे कपड़े उतारकर ही बदन पर रंग लगाना चाहिए। ग्रीशा भी बच्चों के खेलों में ख़ुशी-ख़ुशी शामिल होता था। भालू की भूमिका में वह अपना पूरा कौशल न दिखा सका, परन्तु जब उसकी भारत का हाथी बनने की बारी आई तो उसमें उसे बड़ी सफलता हासिल हुई। जब शांत और सख़्त वाल्या काली देवी के सच्चे पुत्र की भाँति अपने पिता के कन्धों पर बैठा उनकी खोपड़ी पर धीरे-धीरे हथौड़ी मार रहा था तो वह एशिया के किसी देश का तानाशाह शासक लगता, जिसके लिए उस मुल्क की जनता भी जानवरों की तरह थी।

तलोंस्कि ने कई दफ़ा ग्रीशा का ध्यान इस बात की ओर दिलाने की कोशिश की कि ऐसा भी मुमकिन है कि निचली अदालत के फ़ैसले को ऊपर वाली अदालत पलट दे। पर ग्रीशा ने उसकी बात सुनकर भी अनसुनी कर दी थी। उसका मानना था कि जब सबके लिए कानून एक ही है तो निचली अदालत के तीन जजों के फ़ैसले को ऊपरी अदालत के तीन जज कैसे नकार सकते हैं ! जब वकील उससे बार-बार यही बात कहता तो ग्रीशा नाराज़ हो जाता और अपनी दलील पेश करता :

— ऊपरी अदालत में जब इस सवाल पर अगली बहस होगी, तब वकील साहब, आप भी तो वहाँ मौज़ूद रहोगे। मुझे तो मालूम नहीं है कि इस मामले में और क्या करना चाहिए ! लेकिन आप तो इस बात को समझते ही होंगे।

तलोंस्कि ग्रीशा की यह बात सुनकर मुस्कुराकर रह जाता। नास्च्या ने अदालती मामले को लेकर ख़ामाख़ाह शक करने की बात को लेकर उसे हलका-सा झिड़का। इसके बाद वे दोनों जब कभी उस औरत के बारे में बात करते तो हर बार उस पर तरस खाते और पुचकारकर उसे ‘बेचारी’ या ‘दुखिया’ कहकर बुलाते।

जब से निचली अदालत ने उस औरत से यह हक़ छीना था कि वह वाल्या को अपने साथ ले जा सकती है, वाल्या के मन में उसको लेकर जो डर बैठा हुआ था, वह छू-मंतर हो गया था। पहले वाल्या को ‘नई माँ' के सर के चारों तरफ़ एक धुंध-सी दिखाई देती थी और उसका दुबला-पतला चेहरा पीला और बिगड़ा हुआ-सा लगता था, परन्तु अब वह उसे दूसरे लोगों की तरह सहज और सामान्य लगने लगी। उसने अपने आसपास के लोगों को कई बार यह कहते हुए सुना कि वह बेचारी बड़ी दुखिया है, परन्तु उसकी समझ में यह नहीं आता था कि वह ऐसी क्यों है। वह उसे दिलचस्प लगने लगी। कहानियों में उसने दुखिया औरतों के बारे में कई बार पढ़ा था। उन सबको याद करते हुए उसके मन में इस औरत के लिए भी कोमल भावनाएँ और दया पैदा हो गई। उसे लगा कि वह बेचारी डरकर, किसी अँधेरे कमरे में, अकेली बैठी, वैसे ही रोती रहती होगी, जैसे वह तब रो रही थी जब उसके पास आई थी। वाल्या को यह याद करके अफ़सोस हो रहा था कि जब वह उसके पास आई थी तब उसने उसे बोवा राजकुमार वाली कहानी क्यों ठीक से नहीं सुनाई !

....मालूम हुआ कि ऊपरी अदालत ने निचली अदालत के फ़ैसले को रद्द कर दिया है। और पुराने फ़ैसले को पलटते हुए यह नया फ़ैसला सुनाया है कि बच्चे पर उसी माँ का हक़ ज़्यादा है, जिसने उसे पैदा किया है। इसलिए बच्चा 'नई माँ' को दे दिया जाए। इस फ़ैसले के अनुसार वाल्या को अब 'नई माँ' के साथ रहना है। इस नए फ़ैसले पर ग्रीशा और नास्च्या की अपील को अदालत ने रद्द कर दिया।

जब ‘नई माँ' वाल्या को अपने साथ ले जाने के लिए आई, तब ग्रीशा अपने वकील तलोंस्कि के घर में औंधे मुँह पड़ा हुआ था। बस, सफ़ेद तकियों के बीच उसकी गंजी खोपड़ी झलक रही थी। उधर नास्च्या अपने घर में अपने कमरे में थी। वाल्या की आया ने वाल्या को कपड़े पहनाकर तैयार कर दिया था। उसने फ़रकोट और ऊँचे तल्ले के गरम जूते पहन रखे थे। भेड़ की खाल से बनी गरम टोपी के नीचे से उसका पीला चेहरा झाँक रहा था। वह संजीदा निगाहों से एक ही दिशा में ताक रहा था। वाल्या ने अपनी बग़ल में कहानियों की एक किताब दबा रखी थी, जिसमें जलपरी वाली वह दुखद कहानी भी थी, जो उसे बहुत पसंद थी। 'नई माँ' उसे लेने के लिए आईं। उन्होंने पुराना मोटा ऊनी ओवरकोट पहन रखा था। जैसे ही वाल्या की आया वाल्या को उनके पास लेकर आई, 'नई माँ' ने दोनों बाहों से वाल्या को अपनी छाती से चिपका लिया और उनकी आँखों से ज़ार-ज़ार ऑंसू बहने लगे। फिर वाल्या को सहज करने के लिए उन्होंने प्यार-दुलार के लहजे में उससे कहा :

— मेरा बेटू, मेरा मुन्ना ! कितना बड़ा हो गया है ! इसे तो पहचानना भी मुश्किल है।

वाल्या चुपचाप खड़ा रहा। उसने अपनी टोपी सीधी की। आमतौर पर वह सामने वाले की आँखों में आँखें डालकर बात किया करता था, पर इस समय वह अपनी आदत के विपरीत 'नई माँ' के होठों की तरफ़ देख रहा था। उनका चेहरा काफ़ी बड़ा था और उनके दाँत छोटे-छोटे मोतियों की तरह एक माला में पिरोये से लग रहे थे। होठों के दोनों ओर झलकने वाली झुर्रियाँ, जिन्हें वाल्या ने पहले भी देखा था, अब और साफ, और गहरी हो गई थीं।

'नई माँ' ने पूछा :

बेटा, तुम मुझसे नाराज़ तो नहीं हो ?

वाल्या ने इस सवाल का जवाब दिए बग़ैर कहा :

— चलिए, अब हम चलते हैं।

इतने में अंदर वाले कमरे से नास्च्या ने करुण आवाज़ में वाल्या को पुकारा और अगले ही पल वह ख़ुद दौड़कर बाहर वाल्या के पास आ गई। रो-रोकर उसकी आँखें लाल हो गई थीं। नास्च्या वाल्या के सामने घुटनों पर खड़ी हो गई, उसने वाल्या को अपने आलिंगन में भर लिया और उसके कंधे पर अपना सर टिका दिया। वह स्थिर खड़ी थी, पर उसकी तेज़-तेज़ साँसों से उसकी झुमकियाँ हिल रही थीं और उनमें जड़े नग जगमगा रहे थे। उसके बाद नास्च्या फफक-फफककर रो पड़ी और उसने वाल्या को छोड़ दिया।

'नई माँ' ने वाल्या का हाथ अपने हाथ में लेते हुए ज़रा नरमाई से कहा :

— चलो बेटा ! हम यहाँ से चलते हैं।

अचानक नास्च्या रोते-रोते बोली :

— आप इसका ध्यान रखिएगा।

वाल्या 'नई माँ' के साथ अपने अपने नए घर के लिए चला। उस दिन ख़ूब सर्दी थी। रास्तों पर बर्फ़ जमी हुई थी। ( रूस में आमतौर पर भारी हिमपात होता है और सड़कें, मैदान, घर सब कुछ बर्फ़ से लदा होता है। ऐसे मौसम में पहले आने-जाने के लिए घोड़ों वाली स्लेज़गाड़ी का इस्तेमाल होता था। — अनु०) दोनों को ले जाने के लिए एक स्लेजगाड़ी बाहर खड़ी थी। दोनों आकर उसमें बैठ गए। कहीं-कहीं गड्ढों पर दचके खाती स्लेजगाड़ी बर्फ़ पर फिसलने लगी।

जिस घर में वह अब तक रहा था, वह घर उसे याद आने लगा। सर्दियों में खिड़कियों पर लगे शीशों पर तेज़ ठण्ड और बर्फ़ की वजह से बन जाने वाले चित्र और बेल-बूटियाँ ऐसी लगती हैं जैसे क्रोशिये से कोई लेस बुन दी गई हो। स्लेजगाड़ी के हुड में लगे काँच पर ऐसी ही बेल-बूटियाँ और चित्र बन गये थे । वाल्या उनमें परियों की कहानियों की विस्तृत और रहस्यमयी दुनिया ढूँढ़ रहा था। स्लेजगाड़ी धीमी गति से आगे बढ़ रही थी। वाल्या को ऐसा लग रहा था जैसे वह नदी में तैर रही हो। नदी के दोनों किनारों पर बनी दुकानों में जल रही बत्तियाँ उसे मोतियों और सितारों की लड़ियाँ लग रही थीं। पर जब बस्ती पीछे छूट गई तो वे लड़ियाँ भी बिखर गईं। अब चारों तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा था। बस, स्लेजगाड़ी पर जल रहे ढिबरीनुमा लैम्प का ही सहारा था। वाल्या की कल्पना अपने पैर पसार रही थी। जो कुछ उसने अब तक किताबों में पढ़ा था वो परीकथाएँ उसे जीवंत-सी लग रही थीं। 'नई माँ' ने हाथ बढ़ाकर अचानक उसे अपने से चिपका लिया। उसे लगा कि जैसे किसी कंकाल के हड्डीनुमा हाथ ने उसे घेर लिया हो। डर से उसके रोंगटे खड़े हो गए। उसने अपना हाथ हिलाकर कंकालों की इस दुनिया से बाहर निकलने की कोशिश की। लेकिन उसने देखा कि उसका वह हाथ सर्दी से जम गया था, जिसमें उसने किताब पकड़ रखी थी। धीरे-धीरे उसे नींद आ गई।

जब उसकी नींद खुली तो 'नई माँ' उसे जगा रही थी। वे लोग घर पहुँच चुके थे। गाड़ीवान को भुगतान करके वे दोनों घर में घुसे।

जिस घर में वाल्या रहने के लिए आया था वह बहुत गन्दा और पुराना-सा था। घर में आतिशदान जल रहा था। और घर इतना ज़्यादा गरम हो गया था कि गर्मी लग रही थी। बड़े पलंग के सामने एक कोने में वाल्या के लिए एक छोटा-सा पलंग रखा हुआ था। अपने पुराने घर में तो वाल्या न जाने कब ऐसे छोटे बिस्तर पर सोना छोड़ चुका था।

वाल्या की 'नई माँ' जब हँसती थी तो ऐसा लगता था कि जैसे कोई डंडा मार-मारकर उसे ज़बरदस्ती हँसने के लिए मज़बूर कर रहा हो। ऐसी ही नकली हँसी के साथ उसने वाल्या से कहा :

— मुन्ने, तुम तो सर्दी से पूरी तरह जम गए हो ! मारे ठण्ड के तुम्हारे हाथ लाल हो गए हैं। कुछ देर अलाव के पास बैठ जाओ। थोड़ा गरम हो लो। फिर हम नाश्ता करेंगे। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। अब तुम अपनी माँ के पास आ गए हो। ख़ुश तो हो ना ?

वाल्या को हर बात सीधे-सीधे कहने की आदत थी, पर उसने थोड़ा झिझककर कहा :

— नहीं।

— तुम खुश नहीं हो, बेटा। तुम्हें नया घर नहीं भाया ! परेशान मत होओ, धीरे-धीरे तुम इसके भी आदी हो जाओगे। मैंने तुम्हारे लिए कुछ खिलौने ख़रीदे हैं। वहाँ खिड़की पर रखे हैं। जाओ उन्हें देख लो।

वाल्या खिड़की के पास जाकर खिलौने देखने लगा। लुगदी के बने वे खिलौने उसे ज़रा भी पसंद नहीं आए। घोड़े के पाँव बहुत मोटे-मोटे थे और उनके घुटने तो थे ही नहीं। रूसी लोक-कथाओं का लाल टोपी पहनने वाला मज़ाकिया इवान भी बहुत भद्दा था। इनके लावा टिन के बने कुछ मरियल से लगने वाले सिपाही भी बहुत अजीब से लग रहे थे। वाल्या तो खिलौनों से खेलना कब का छोड़ चुका था। अब वह किताबें पढ़ता था। इन खिलौनों में उसकी ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी, पर वह 'नई माँ' को यह नहीं जतलाना चाहता था। इसलिए उसने तमीज़ दिखाते हुए कहा :

— हाँ, खिलौने अच्छे हैं।

पर वाल्या के अंदाज़ से माँ को मालूम हो गया कि वे खिलौने उसे ज़रा भी रास नहीं आए हैं। माँ ने थोड़ी नाराज़गी से पर ख़ुशामदी अंदाज़ में कहा :

— बेटू, मुझे तुम्हारी पसन्द और नापसन्द के बारे में कुछ भी पता नहीं था। और वैसे भी मैंने ये खिलौने बहुत पहले ख़रीदे थे।

वाल्या चुप रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहे तो क्या कहे। — बेटा, मैं इस दुनिया में एकदम तनहा हूँ ! तुम्हारे अलावा मेरा और कोई नहीं है। मुझे यह बात कौन बताता कि ये खिलौने अच्छे हैं या नहीं ! मुझे लगा कि ये खिलौने तुम्हें पसन्द आएँगे, इसलिए ख़रीद लिए थे। इस बीच तुम इतने बड़े हो गए कि किताबें पढ़ने लगे।

वाल्या ख़ामोश रहा। वह कहता भी तो क्या कहता। अचानक 'नई माँ' की आँखों से आँसू टपकने लगे और वह परेशान होकर वाल्या से बिना कुछ कहे बिस्तर पर जाकर लेट गई। वाल्या उनकी परेशानी समझ गया था और वह भी बेचैन हो गया था। 'नई माँ' देर तक बिस्तर पर पड़ी रही और आँसू बहाती रही।

वाल्या आतिशदान में जल रहे अलाव की तरफ़ ताकता रहा। वह संजीदा चेहरा बनाए कुछ सोच रहा था। अलाव सेकने से उसके हाथों की लाली कम हो गई थी। अचानक वह अपनी जगह से उठा और 'नई माँ' के पास पहुँचा। उसने अपना हाथ माँ के बड़े-से माथे पर रख दिया और पूरी संजीदगी से बोला :

— माँ, तुम रोओ मत ! मैं तुम्हें भी बेहद प्यार करूँगा। अब मेरा मन खिलौनों से खेलने का नहीं होता। अब मैं किताबें पढ़ता हूँ। अब तुम खिलौने नहीं ख़रीदना, बल्कि किताबें ख़रीदना। और मैं तुम्हें वे किताबें पढ़कर सुनाऊँगा। मैं तुम्हें वैसे ही प्यार करूँगा जैसे तुम मुझसे करती हो। अच्छा, अब चुप हो जाओ और मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। जलपरी वाली कहानी सुनोगी। लो, सुनो…

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’वाल्या’ (Леонид Андреев — Валя)