विकराल समस्याएं और विरल फिल्म मोह / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 22 मई 2019
पत्रकार चिदानंद दासगुप्ता और सत्यजीत रे ने कोलकाता में एक संस्था निर्मित की थी, जो अपने सदस्यों के लिए देश-विदेश की सार्थक फिल्मों का प्रदर्शन करती थी। पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा आयोजित प्रथम अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह द्वारा हमारे फिल्मकार और दर्शकों को विश्व सिनेमा से परिचय प्राप्त हुआ था। इंदौर में श्रीराम ताम्रकर ने इस तरह की संस्था का निर्माण किया था, जिसका दफ्तर महात्मा गांधी रोड के निकट बने 'महाराजा' नामक सिनेमाघर में बनाया गया था। कुछ वर्ष पश्चात संस्था बंद हो गई। भारत के अनेक नगरों में इस तरह की संस्थाएं बनती और मिटती रही हैं। सदस्यों की कम संख्या ही इसके लिए जवाबदेह है।
राकेश मित्तल ने इंदौर में सिने विजन नामक संस्था की स्थापना की और अब संस्था 10 वर्ष पूरे कर चुकी है। उसके तत्वावधान में 26 मई से फिल्म प्रदर्शन प्रारंभ होगा। राकेश मित्तल पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं और यूरोप की कुछ संस्थाओं के लेखा-जोखा विशेषज्ञ होने के कारण हर वर्ष कुछ महीने यूरोप में रहते हुए विश्व सिनेमा की हलचल का निरीक्षण करते हैं। प्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल ने सिने विजन संस्था का शुभारंभ किया था। वे गोविंद निहलानी, केतन मेहता, दीपा साही, सई परांजपे, सईद मिर्जा, प्रकाश झा, मानव कौल, नितिन भारद्वाज और पीयूष मिश्रा जैसे प्रसिद्ध लोगों को आमंत्रित कर चुके हैं। फिल्म प्रदर्शन के बाद इन मेहमानों ने संस्था के सदस्यों से बातचीत की और प्रश्नों के उत्तर भी दिए। आज तक किसी भी फिल्मकार और कलाकार ने कभी कोई धनराशि की मांग नहीं की। उनकी यात्रा का प्रबंध राकेश मित्तल ने किया। इंदौर में इसी तरह की अन्य संस्था का नाम सूत्रधार है।
इस तरह की संस्था की शक्ति सदस्यों पर निर्भर करती है और उनकी उदासीनता से संस्थाएं बंद हो जाती हैं। इस वर्ष तिग्मांशु धूलिया अपने साथ नई फिल्म लेकर आ रहे हैं, जिसका प्रदर्शन अभी तक नहीं हुआ है। ज्ञातव्य है कि तिग्मांशु धूलिया की 'साहब, बीबी और गैंगस्टर' तथा 'पानसिंह तोमर' चर्चित फिल्में रही हैं। उन्होंने अनुराग कश्यप की 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में खलनायक की भूमिका बहुत प्रभावोत्पादक ढंग से अभिनीत की थी। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। इस सत्र में बिमल राय की 'बंदिनी' दिखाई जाएगी और उस पर चर्चा भी होगी।
दरअसल, बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों के परे सिनेमा का बड़ा संसार है और इस तरह की संस्थाएं विरल फिल्मों का प्रदर्शन करती हैं। प्राय: विदेशी दूतावास अपने देश की फिल्में संस्थाओं को उपलब्ध कराते हैं। क्या हमारे दूतावास भी भारतीय फिल्में विदेश में उपलब्ध कराते हैं? प्राय: दूतावास में राजनीतिक हितों की रक्षा करने वाले लोगों को नियुक्त किया जाता है। हमारी सरकारें फिल्मों के प्रति उदासीन रही हैं और यही रवैया दूतावास में भी नजर आता है।
गौरतलब यह है कि देश विकराल समस्याओं से जूझ रहा है। बेरोजगारी, किसानों और छात्रों की आत्महत्या तथा कानून-व्यवस्था के टूट जाने जैसी गंभीर समस्याओं के साथ ही प्रदूषण से गंभीर बीमारियां फैल रही हैं। इन हालात में फिल्म देखना क्यों जरूरी है? विरल फिल्मों के प्रति उत्साह की क्या आवश्यकता है? इन सब सवालों के उत्तर फिल्म के पहले प्रदर्शन के बाद ही हमें मिल भी गए थे परंतु हम जानकर अनजान बने रहने की कला में निपुण हैं। सदियों का अनुभव हमें प्राप्त है। फिल्मों को मूवी इसलिए नहीं कहा जाता कि प्रोजेक्शन रूम में रीलें घूमती हैं या लूमियर बंधुओं ने चलते-फिरते मनुष्यों के चित्र लेने वाले कैमरे का आविष्कार कर लिया था वरन इसे मूवी इसलिए कहते हैं कि सिनेमाघर में बैठे स्थिर दर्शक के मन में यह संवेदना का संचार करती हैं। पेरिस के बाद लुमियर बंधुओं ने फिल्म का दूसरा प्रदर्शन रूस में किया। प्रदर्शन के समय महान लेखक मैक्सिम गोर्की दर्शक दीर्घा में मौजूद थे। अगले दिन उन्होंने अपने कॉलम में इस आशय की बात लिखी कि कल रात वे चलती-फिरती छायाओं के रहस्यमय संसार में विचरण कर रहे थे। एक दृश्य में माली बगीचे में पानी दे रहा है। एक शरारती बच्चा रबर की नली पर पैर रख देता है। पानी का प्रवाह रुक जाता है। माली फव्वारे को देखता है, बच्चा पैर हटा देता है। पानी माली के मुंह पर गिरता है। मैक्सिम गोर्की लिखते हैं कि इस दृश्य को देखते समय वे नीचे झुक गए ताकि पानी उनके मुंह पर नहीं आए। दरअसल, पानी दर्शक के मुंह पर नहीं पड़ता परंतु वह हृदय में आर्द्रता महसूस करता है और यही आर्द्रता फिल्म देखने का सार है। इसलिए विकराल समस्याओं के चलते हुए भी फिल्म देखना जरूरी है। सदस्यों को फीस देनी चाहिए।