विकल्प / पद्मजा शर्मा
जयप्रकाश चौकसे कह रहे हैं विवेकशील भीड़ देश की राजनीति की पटकथा बदल सकती है। शरद जोशी के 'लापतागंज' (टी.वी. धारावाहिक) में नेता को जनता जूते-चप्पलों से पीटती है। क्योंकि नेताओं की कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अन्तर है। वे अव्वल नम्बर के छिछोरे और छंटेल होते हैं। ढंग के लोग राजनीति में भाग्य आजमाना नहीं चाहते। ईमानदार और विवेकशील लोग राजनीति से परहेज करते हैं।
वे कहते हैं, यह दलदल है। पास गए तो फँस जाएंगे। फंसते चले जाएंगे। बच नहीं पाएंगे। कहते हैं, यह काजल की कोठरी है। भीतर गए तो कालिख पुत जाएगी। हम ईमानदारी को रोएँगे और ईमानदारी हमें रोएगी। पर वे यह नहीं जानते कि रोशनी इन्हीं राजनेताओं और राजनीति के पास कैद है। रोशनी थामने वाले हाथ जब तक बदलेंगे नहीं तब तक देश के हालात कैसे बदलेंगे?
ढंग के आदमी इस तरफ नहीं आते। इस कारण आदमी के पास ऑप्शन नहीं है। वह कभी कम भ्रष्ट को चुनता है तो कभी ज़्यादा भ्रष्ट को। कभी चारा चोर को लाता है तो कभी घूसखोर को। वह सिवाय अदल-बदल के कुछ नहीं कर सकता।
फिर भी यह मानना पड़ेगा कि आम आदमी जब अपनी वाली पर उतरता है तब किसी को नहीं बख्शता। ऐसी पटखनी देता है कि व्यक्ति कई दिन तक उठने के बारे में सोचते हुए भी काँपता है। पर उसके पास विकल्प कहाँ हैं?