विकल्प / राजेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
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रविवार को एक दोस्त से मिलने सवेरे क़रीब ग्यारह बजे मैं स्कूटर से जा रहा था। जिस मोहल्ले में जाना था उसकी प्रवेश-गली में कुछ बच्चे लुका-छिपी का खेल, खेल रहे थे। अचानक पाँच-छह साल का एक लड़का गली में से दौड़ता हुआ निकला और स्कूटर से टकरा गया। स्कूटर वैसे धीमा था, फिर भी वह न सँभला और गिर गया।

मैं तो दूर गिरा, लेकिन लड़का स्कूटर के नीचे दब गया। मैंने लपककर स्कूटर उठाना चाहा, पर खड़े होते ही गिर पड़ा। हिम्मत कर फिर उठने की कोशिश की, पर फिर गिरा। मेरे पैर में मोच आ गयी थी। ...

पलक झपकते ही लोग इकट्ठे हो गये। पहले मुझे चार-छह थप्पड़ और लातें मिलीं, फिर एक बुज़ुर्ग के हस्तक्षेप से स्कूटर खड़ा किया गया। लड़के को गोद में उठाया गया-वह अचेत था, शायद उसके सिर में अन्दरूनी चोट आयी थी। बाहर कोई ज़ख़्म नहीं दिख रहा था।

मेरे ही स्कूटर पर एक नवयुवक मुझे तथा बच्चे को नज़दीक के नर्सिंग होम लाया गया। डॉक्टर ने 'मेडिको लीगल' केस कहकर हाथ लगाने से इन्कार कर दिया।

हम लोग के.जी.एम.सी. पहुँचे।

पुलिस को फ़ोन पर बुलाकर लड़के को भर्ती कर लिया गया। इलाज़ शुरू हुआ।

ब्रेन हैमरेज था। चौबीस घंटे आब्ज़र्वेशन के सिवाय कोई चारा न था। मेरी टाँग का एक्स-रे हुआ-फ़्रैक्चर निकला। मुझे भी भर्ती होना पड़ा। प्लास्टर चढ़ा। उसके मज़बूत होने का इंतज़ार कर रहा था। दर्द की दवाई खाने पर जब आराम मिला तो मैंने डॉक्टर से घर जाने की अनुमति माँगी। उसने पुलिस चौकी से अनुमति लेकर जाने को कह दिया।

पुलिस चौकी संदेश भिजवाया गया। एक कांस्टेबिल आया। मेरी बातें सुन उसने मुझ पर यक़ीन किया और स्कूटर के काग़ज़ात और दो सौ रुपये नक़द अपने पास रख मुझे जाने दिया। लड़के की माँ मुझे कै़द करके रखना चाहती थी, पर कांस्टेबिल ने उसे डाँट दिया। लड़के के पिता को मेरे घर आने पर कोई ऐतराज़ न था।

रात आठ बजे के क़रीब रिक्शे से घर पहुँचा। स्कूटर वहीं रोक लिया गया था। वैसे भी चाहकर मैं उसे नहीं ला सकता था।

अस्पताल से लौटने तक लड़का बेहोश था। मेरा मन उसी में लगा हुआ था। उसका शान्त चेहरा कभी प्यारा लगता, कभी डरावना। मन चिन्तित था—कहीं मर-मरा गया, तो क्या होगा?

लड़के के पिताजी एक नज़र में सुलझे हुए आदमी लगे। वे चिन्तित तो थे, पर लड़के की माँ की तरह अधीर नहीं। आक्रोश में नहीं। ...मैंने पत्नी से कहा कि अस्पताल जाकर लड़के को देख आये, पर उसने मना कर दिया। बेटा अभी छोटा था-उसे भेजने का प्रश्न ही न था। घर में और कोई था नहीं कि उसे भेज पाता। मेरे पैर का दर्द बढ़ गया था, इसलिए दुबारा रिक्शे पर लद कर मेरे जाने का सवाल ही नहीं था।

किसी तरह रात कटी। सवेरे के आठ बजे होंगे कि एक आदमी मेरा घर पूछते-पूछते आ गया। मैं समझ गया कि वह अस्पताल से आया होगा। मेरी धुकधुकी बढ़ गयी।

आशंका सच निकली-लड़के को बचाया न जा सका। पोस्टमार्टम से पहले पुलिस ने मुझे बुलाया था। मैं उसके साथ अस्पताल चल पड़ा। पंचनामा तैयार हुआ। मृतक के पिताजी ने अपने बयान में कहा कि दु़र्घटना में मेरी कोई ग़लती नहीं थी। फिर भी पुलिस वाले मुझसे खाने-पीने के चक्कर में थे। मृतक के पिता ने उनसे कुछ बात की। मैं डरा कि आगे का कोई षड्यन्त्र होगा, पर मैंने जी कड़ा किया, 'जो होगा, देखा जायेगा।'

पोस्ट-मार्टम हुआ। ...लड़के को अंन्तिम संस्कार के लिए ले जाने तक मैं वहीं रहा, फिर घर आ गया।

मैं दुखी था, पर क्या कर सकता था!

बीस-पच्चीस दिन बीते। मेरा प्लास्टर कट चुका था। दुर्घटना से भी उबर चुका था। धीरे-धीरे चलने लगा था, पर अभी घर पर ही था।

उस दिन भी रविवार था। बेटे ने बताया कि उसके नये टीचर आये हैं। मैंने उन्हें ससम्मान बुलाने के लिए कहा। वे अन्दर आये। उन्हें देख मैं हतप्रभ रह गया। वे मृतक के पिता थे।

मैंने दुख प्रकट किया। उन्होंने शांत भाव से कहा-होनी को कौन टाल सकता है! लेकिन एक प्रार्थना है।

-आदेश करें!–मैंने कहा।

-पता नहीं क्यों आपके बेटे में मुझे अपना बेटा दिखता है। ...कभी-कभार यदि इसे मेरे साथ घूमने-फिरने का अवसर दें, तो मैं समझूँगा कि कुछ समय के लिए मुझे बेटा मिल गया है!

उनकी बात सुन मैं हतप्रभ रह गया। पता नहीं क्यों, मेरा अपराधी मन सशंकित था। मैंने बेटे से पूछ कर उन्हें जवाब देने को कहा। उन्होंने कहा, "ठीक है, लेकिन अगर बेटा तैयार हो, तो प्लीज़ मना मत कीजिएगा!" उनके स्वर में मनुहार था।

दरअसल, मैं इस बारे में पत्नी से सलाह कर 'हाँ' या 'न' करना चाहता था। वे अभी वे किचन में थीं और हम लोगों के लिए चाय बना रही थीं।

पाँच-छह मिनट तक उनसे घर-परिवार के बारे में बातें हुईं।

हम लोगों की बातें अभी चल ही रही थीं कि बेटा चाय की ट्रे लेकर आया। मैंने ट्रे पकड़कर मेज़ पर रख दी। मेज़ के नीचे रखे कोस्टर निकलते हुए बेटे ने टीचर की ओर देखते हुए कहा, "सर! मैं आपके साथ ज़रूर चलूँगा!" परदे की आड़ में उसने शायद हम लोगों की बातें सुन ली थीं।

दोनों को साथ-साथ जाते हुए मैं देर तक देखता रहा।