विकसित होती लघुकथा इससे भी आगे बढ़ेगी / विष्णु प्रभाकर

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मित्रो! लघुकथा के बारे में इतना कुछ कह दिया गया है कि वह लघु नहीं रह गया और मेरे पास उससे ज्यादा कहने के लिए कुछ है नहीं। मेरा काम इतना ही था कि पुरस्कार दूँ। वह दे दिया गया। लेकिन लघुकथा के ऊपर इतनी चर्चा हुई और मैं तो पुराने युग का, पुराने जमाने का आदमी हूँ। मैंने शायद सन् 1939–40 में लघुकथा लिखीं। तब वह दार्शनिक अंदाज की भी थीं,साधारण भी थीं। लेकिन अब जो लोगों ने कहा कि मेरी एक किताब है लघुकथा–संग्रह, उसकी समीक्षा करते हुए ‘सारिका’में एक समीक्षक ने लिखा था कि रचनाएँ बड़ी सुंदर है। कुछ तो बहुत ही सुंदर है, लेकिन ये लघुकथाएँ नहीं है। थीं सब लघु...लेकिन फिर जो उन्होंने नई लघु की व्याख्या की वह यह बताया कि भाषा कैसी होनी चाहिए। वह सब मैं नहीं कहूँगा। हाँ, एक बात उन्होंने कही कि जो बात लघुकथा में कही गई है, उसी के आधार पर कोई बड़ी कहानी न लिखी जा सके, वह लघुकथा है। तो खैर...हम जब लिखने लगे थे तो हमारे सामने तो कोई उसकी व्याख्या थी नहीं। मुझसे पहले भी लघुकथा लिखने वाले थे। मेरे समकालीन, अग्रज भी। चतुरसेन शास्त्री लिखते थे, कन्हैयालाल मित्र प्रभाकर ने तो बहुत ही लिखी है। कई उनके संग्रह हैं। मुझे याद हैं बहुत सारी। सुनाई जा सकती है। जैसे मैंने एक लिखी कहानी। एक लेखक थे। वह लिख रहे थे अपने कमरे में बैठे हुए। पास में पत्नी बैठी हुई थी। वह पढ़ रही थी। अचानक घड़ी की ओर देखा, 12 बज रहे थे। पत्नी ने सोचा, खाने का वक्त हो गया है। चलो, रसोई में चलते है। रसोई की ओर बढ़ी, लेकिन फिर एक खयाल आया। मुड़ी और पति से बोली, सुनिए जी, मैं खाना पकाने जा रही हूँ। बताइए, आपके लिए क्या बनाऊँ? पति ने एकदम झुँझलाकर जवाब दिया, तुम्हें मेरे साथ रहते हुए तीस साल हो गए। तुम इतना भी नहीं जान पाई कि मुझे क्या पसंद है! तो पत्नी एकदम बोलीं, आपको कलम घिसते हुए चालीस साल हो गए हैं, लेकिन आप इतना भी नहीं जा पाए कि पूछने का भी एक सुख होता है।!
...तो यह ठीक है। बड़ी अच्छी रचना है, लेकिन लघुकथा नहीं है। अब पता नहीं लघुकथा नहीं है। अब पता नहीं लघुकथा क्या होती है? उसकी डेफिनिशन मैं इसमें ढूँढ़ूँ। अब इन कहानियों के बारे में मैं क्या कहूँ। सोचा था कि मैं भी एक कहानी सुनाऊँ। फ्लैग लगाने लगा तो आप देखिए, सारी कहानियों पर फ्लैग लगा हुआ है। अब कौन–सी सुनाऊँ? मुझे सारी कहानियाँ ठीक लगीं....उदाहरण के तौर पर बताने के लिए....तो वे बता दी गई हैं, लेकिन फिर भी मैं अपनी तो नहीं सुनाऊँगा, लेकिन....लघुकथा के जो प्रसिद्ध दार्शनिक खलील जिब्रान हुए हैं, उन्होंने बहुत लघुकथाएँ लिखी है। लेकिन कुछ लघुकथाओं को देखकर तो लोग आजकल कह सकते हैं कि कुछ नहीं, चुटकुले है...वगैरह। जैसे : चाँदनी रात थी। चारों ओर धवल ज्योत्स्ना बिखरी हुई थी। अचानक शाम को एक गली से कुछ कुत्ते आए और उन्होंने देखा चाँदनी को। चाँद को देखा और जैसा कि उनकी आदत थी, भौंकना शुरू कर दिया। भौंकते रहे...तो एक बुद्धिमान कुत्ता भी था। पीछे गली से आ रहा था। बोला, ‘‘कैसे मूर्ख हैं, भौंक रहे है।’’ पास आकर उनसे कहा, ‘‘तुम बड़े मूर्ख हो। कैसी सुंदर धवल ज्योत्स्ना बिखरी हुई है। कैसी शांति है और तुम भौंक–भौंककर उसे भंग कर रहे हो।’’ यह सुनकर वे कुत्ते तो चुप होने लगे, लेकिन यह बात कहने के लिए वह बुद्धिमान कुत्ता सारी रात भौंकता रहा।

तो आपसे क्या कहेंगे? लघुकथा नहीं है....तो जिब्रान की लघुकथाएँ इस तरह की हैं। उनकी एक और सुनाऊँगा :

वह भी चाँदनी रात थी। नदी का किनारा था। चार मेढक थे। वे बाहर निकले टर्र–टर्र करते हुए। किनारे पर आए तो देखा, नाव खड़ी है। एक कूदकर नाव पर चढ़ गया। चौथा भी। चारों चढ़ गए तो नाव जो थी चल पड़ी। एक मेढक बोला, ‘‘देखो–देखो, कैसा आश्चर्य है, नाव चल रही है!’’ दूसरे ने कहा, ‘‘बड़ा मूर्ख है तू! नव कहाँ चल रही है? यह तो नदी बह रही है। नाव उसके साथ बह रही है।’’ तीसरा बोला, ‘‘तू भी कम मूर्ख नहीं है। अरे, न तो नाव चल रही है, न नदी चल रही है। यह तो गति है। गति के सहारे सब गति हो रही है।’’ अब तीनों बहस करने लगे, कौन ठीक है। अचानक देखा कि वह चौथा मेढक जो है, सुनता नहीं हमारी बात। अब तीनों ने एक होकर कहा कि चलो, उससे पूछा जाए कि हममें से कौन ठीक है। पहुँचे उसके पास। पहले तो उसने देखा नहीं। फिर उसको बताया कि भाई, हमारे यहाँ एक बहस हो गई है। तुम जरा–सा फैसला कर दो। यह कहता है कि नाव चल रही है। यह कहता है कि नदी बह रही है। यह कहता है कि गति के सहारे सब गति हो रही है। चौथे मेढक ने, जो चाँदनी रात का आनंद ले रहा था, मुड़कर कहा कि तुम तीनों ने सोचा–ठीक है तो हम कैसे मूर्ख! हम तीनों कैसे ठीक हो सकते हैं? ठीक तो एक ही होगा। तीनों कह सकते । और यह कहते हुए उन्होंने सलाह की और उस चौथे मेढक को पकड़कर उसका सिर काटकर नदी में डाल दिया।

आज की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। लेकिन परंपरा होती है। परंपरा तो जब शुरू होती है, वह विकसित हुई चली जाती है। नए–नए विचार आते हैं। भाषा भी बनती है। देखिए, बाबू हरिश्चंद्र ने लिखा कि खड़ी बोली में कविता नहीं हो सकती। चुनौती दे दी उन्होंने। तो अब उस वक्त...उसके बाद मैथिलीशरण गुप्त और श्रीधर पाठक जैसे दो ऐसे कवि थे जिन्होंने कहा, कैसे नहीं हो सकती और उन्होंने कविता करने का प्रयत्न किया। उनका प्रयत्न....आज हम मैथिलीशरण गुप्त जी को कवि नहीं मानते? लेकिन वह आदमी तो पहला था, जिसने खड़ी बोली में कविता करने...जैसे श्रीधर पाठक ने कविता करने कोशिश की और धीरे–धीरे वह कविता की भाषा सर्वेश्वरदयाल तक आ गई....और उसके बाद अब कहाँ पहुँच गई। तो यह तो निरंतर विकसित होता रहता है। हमेशा चीज विकसित होती है। जो मैंने अपनी लघुकथा लिखी थी 1939–40 में....और बाद में मैेने अब लिखी–उनमें बड़ा अंतर है। भाषा का भी, भाव का भी। सब अंतर आता जाता है। लेकिन सही अंतर अब देखिए न विकसित होते–होते....चैतन्य जी की इस पुस्तक में अब ऐसी गहरी दार्शनिकता भाव–भंगिमाओं के साथ लिखी है। इसमें पुराने प्रतीक भी आ गए। पुराणकथाएँ....युधिष्ठिर भी है। युधिष्ठिर का यक्ष भी है। रानी रूपमती भी आती है। और हर लघुकथा, जैसा मैंने कहा कि मैं एक लघुकथा,जैसा मैंने कहा कि मैं एक लघुकथा पर निशान लगाऊँ जिसे पढ़कर सुनाऊँगा और निशान लगा लिया तो सारी किताब में निशान ही लगाता रहा।.....इससे पता लगता है कि इन लघुकथाओं का क्या मूल्य है।.......तो आज जो विकसित होती हुई लघुकथा यहाँ पहुँच गई है, चैतन्य जी तक और इससे भी आगे बढ़ेगी।

तो मेरे मित्रो! मैं और कुछ नहीं कहना चाहता इस बारे में। यही कि मुझे किताब पढ़कर के जैसा आप समझ गए होंगे कि मैं निशान लगाने लगा तो सब पर ही निशान लगा गया। तो समझ लीजिए कि मेरे लिए......इसमें मुझे क्या आनंद मिला। कितना सुख मुझे मिला इनको पढ़ करके।.....मेरी लघुकथाएँ ठीक है। वह कैसी चीज थी, कोई बात नहीं है, कैसी भी हों, लेकिन हम उस क्रम में थे। तो क्रम बढ़ते–बढ़ते आज कहाँ पहुँच गया है और आगे कहाँ पहुँचेगा। यह निरंतर प्रवाह आगे बढ़ते रहना सबसे बड़ी खूबी यही है। कौन अच्छा लिखता है, कौन बुरा लिखता है–इन सब बातों को एक क्षण के लिए भूल जाएँ और यही ध्यान रखें कि जो व्यवस्था है उसके साथ लघुकथा उस जमाने की....उसके पहले वैदिक पीरिएड में भी आपको दृष्टांत के रूप में मिलेगी। पहले जो दृष्टांत दिए जाते थे उदाहरण के तौर से.....वहीं से ही लघुकथा.....तो कहते हैं कि वे लघुकथाएँ नहीं थीं, ठीक है, वे नहीं थीं लघुकथाएँ। निश्चय ही नहीं थीं, लेकिन लघुकथा का बीज था न उनमें। तो खैर....मैं आज केलिए सत्यव्रत जी और किताबघर...मेरे प्रकाशक भी हैं वे....मेरी लघुकथा भी छापी है उन्होंने....तो उन्होंने यह जो क्रम किया है किताब छापने का साथ में, पुरस्कार देने का। पुरस्कार आजकल वैसे बहुत मिलने लगे हैं। वह एक अलग बात है। उसको मैं नहीं छेड़ूँगा। लेकिन यह एक अच्छा सार्थक प्रयत्न है। मैं उनको बधाई देता हूँ। उसके बाद हमारे लिए आज जो बड़ी खुशी की बात है यह कि हिंदी साहित्य के सारे दिग्गज आज मौजूद हैं। नई कहानी के पुरोधा देखिए–दोनों वे हैं, अजित जी है, वित्रा जी हैं। सारे ही आ गए हैं। मैं तो पुराने युग का आदमी, बीते युग का आदमी हूँ। तेा कहाँ–कहाँ से इन्होंने इकट्ठा कर लिया सबको एक मंच पर। यह बड़ी खुशी की बात है और साहित्य में आगे बढ़ने का अब तो क्रम इसी तरह से चलता है कि हम पूर्ववर्ती लोगों को भी भूलें नहीं।

इन शब्दों के साथ मैं एक बार फिर अपने चैतन्य जी को बहुत–बहुत साधुवाद और प्रकाशक महोदय को भी बहुत–बहु धन्यवाद...और हमारे जो मित्र आज मेरे साथ इकट्ठे हुए....साथ ही बड़ी खुशी हुई मुझे यहाँ आ करके। उसके लिए भी सबको धन्यवाद देता हूँ।

देवियों और सज्जनों! टाप इतनी देर तक इतनी रुचि के साथ, इतने धैर्य के साथ हमारे साथ रहे, इसके लिए हम आभारी है। आपको विधिवत् आभार दे रहे हे किताबघर के लेखक परिवार के एक सदस्य श्री शेरजंग गर्ग।