विकास कुएं में कालीचाट / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :30 सितम्बर 2016
इंदौर के क्षेत्र बिचौली मर्दाना में कुछ वर्ष पूर्व तक फसलें लहलहाती थीं, अब वहां इमारतें बन गई हैं और बालकनी पर सुखाने के लिए बांधे गए तारों पर कपड़े लहलहाते हैं, जिनमें से कोई एक हरा दुपट्टा उन फसलों की याद दिलाता है। यही परिवर्तन कमोबेश सभी शहरों और कस्बों में हुआ है। बहरहाल, इसी क्षेत्र में कई शिक्षण संस्थाएं खुल गई हैं और एक इमारत में एक छोटा-सा प्रीव्यू थियेटर है, जिसमें सुधांशु शर्मा की कथा फिल्म 'कालीचाट' देखने का अवसर मिला। कुएं की खुदाई के समय कालीचाट उस पत्थर को कहते हैं, जो इंसानी परिश्रम से तोड़ा नहीं जा सकता और यह मान्यता भी है कि इस पत्थर के नीचे पानी का अनंत भंडार होता है। ड्रिलिंग मशीन से यह पत्थर बमुश्किल ही तोड़ा जा सकता है।
दरअसल, बिचौली मर्दाना में फिल्म 'कालीचाट' देखने पर पहला विचार यह आया कि इस फिल्म को संसद और विधानसभाओं में दिखाना चाहिए ताकि हमारे हुक्मरान किसान की वेदना को समझ सकें। फिल्म का समग्र प्रभाव इस कदर झकझोर देने वाला है कि हमें शर्म आती है कि हम सब उसी व्यवस्था के हिस्से हैं, जिसके नागपाश में किसान जकड़ा है और धरती भी कसमसा रही है। अगर उच्चतम न्यायालय फिल्म देख सकता है, तो संसद में क्यों नहीं दिखाई जा सकती? ज्ञातव्य है कि गोविंद निहलानी की 'तमस' को जज महोदय ने इतवार के दिन देखा था, ताकि उसका अबाध प्रदर्शन हो सके। मुंशी प्रेमचंद किसान वेदना के पहले गायक थे और उनकी 'गोदान' महान रचना है। उनकी कहानियां भी विश्वस्तर की रही हैं। मुंशी प्रेमचंद की 'गोदान' और 'गबन' फिल्में बन चुकी हैं और 'दो बैलों की कथा' पर बनी 'हीरा मोती' अविस्मरणीय फिल्म है। सुनील चतुर्वेदी के उपन्यास 'कालीचाट' पर यह फिल्म आधारित है और निर्देशक सुधांशु शर्मा ने कथा के मर्म को परदे पर साकार कर दिया है। हमारे सारे नेता सब कुछ जानते हैं, परंतु कुछ करना नहीं चाहते। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसान का दर्द इसलिए अनदेखा किया जा रहा है कि हुक्मरान अमेरिका से खाद्यान्न आयात करना चाहते हैं और खेती की जमीन पर कल-कारखाने खड़े करना चाहते हैं। हम अपने राष्ट्रीय बजट के बेहतर हिस्से से शस्त्र आयात करते हैं और अब अनाज भी आयात करना चाहते हैं। गुजश्ता सदी में उपनिवेशवाद जिस रास्ते से आया था, उससे अलग रास्ते से अब आ रहा है और उसके इस संस्करण को कोई गांधी अपने नए अवतार में तोड़ नहीं पाएगा, क्योंकि उपनिवेशवादी शक्तियों ने आम भारतीय की विचार प्रक्रिया में ही अपना स्थान बना लिया है। अब हम अपनी मौलिकता को खारिज करके उनकी तरह सोचने लगे हैं। यह विचित्र 'काया प्रवेश' है। शैलेन्द्र ने लिखा था- 'मेरा जूता है जापानी, पतलून इंग्लिस्तानी… फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी' परंतु अब दिलो-दिमाग ही हिन्दुस्तानी नहीं रहे, विचार प्रक्रिया पर सिर्फ व्यापार का कब्जा है। आज फिल्म उद्योग में कोई फिल्मकार भारतीय ग्रामीण परिवेश की कथा सुनना ही नहीं चाहता। यह हमारी हिमाकत है कि महानगरीय सोच की फिल्में ग्रामीण क्षेत्र या वैसे ही मानसिकता वाले दर्शक को दिखाना चाहते हैं।
सआदत हुसैन मंटो ने 'किसान कन्या' लिखी थी, मेहबूब खान ने 1939 की अपनी फिल्म 'औरत' को 1957 में मदर इंडिया के नाम से बनाया, किशन चोपड़ा ने प्रेमचंद लिखित 'दो बैलों की कहानी' को 'हीरामोती' के नाम से बनाया, मनोज कुमार ने 'उपकार' बनाई परन्तु आज के फिल्मकारों को इस तरह की कहानियों से परहेज है और इस सारे खेल का उद्गम वही विचार है कि अब 'भारत बनाम इंडिया' ही एकमात्र द्वन्द रह गया है। कोई आश्चर्य नहीं होगा कि किसान का हल, लेखक की कलम और बच्चों की मासूमियत केवल संग्रहालय में ही देखी जा सकेगी। इस फिल्म के निर्माण से जुड़े सारे लोग गांवों में सामाजिक सोद्देश्यता के काम करते हैं। फिल्म यूनिट की ही सोनल की कविता 'ओ किसान' इस तरह है- 'खेत खेत उचक कर चारों ओर, देख रही हैं टापरियां, हर खेत में बोए गए हैं कई मन, और कई इच्छाएं, दादा का ऑपरेशन, गुड्डी की शादी, खेद में बोने को अंगली फसल के बीच पुकार रहा है कोई, इस खेत से उस खेत, ुनो रे इस बार लगाओ पूरी ताकत, अन्न से भर दो घर आंगन ओसार और बैंक का पूरा कर्जा।'