विकेश निझावन की कहानी-कला / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा 'लाला देशबन्धु गुप्त सम्मान' (2017) से अभिनंदित, बहुमुखी व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी, कविताकार और कथाकार, लघुकथाकार और बालसाहित्यकार, चित्रकार और समीक्षाकार तथा 'पुष्पगंधा' पत्रिका के यशस्वी सम्पादक और प्रकाशक श्रीयुत विकेश निझावन (07.10.1950) को मैं, एक समर्थ कहानीकार के रूप में, सन् 1973 से जानता हूँ, जब 'सारिका' (सितम्बर, 1973) में उनकी पहली कहानी 'जाने और लौट आने के बीच' प्रकाशित हुई थी। इसके बाद उनकी कहानियाँ, 'सारिका' सहित, 'धर्मयुग' , 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' , 'कहानी' , 'कहानीकार' , 'नई कहानियाँ' , 'वागर्थ' , 'वर्तमान साहित्य' , 'हंस' , 'आजकल' , 'कादम्बिनी' , 'कथादेश' , 'कथाबिम्ब' , 'कथाक्रम' , 'हिन्दी चेतना' और 'विभोम स्वर' आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं तथा प्रायः-सभी राष्ट्रीय हिन्दी-दैनिक समाचारपत्रों में लगातार प्रकाशित होती रही हैं। अब तक विकेश निझावन द्वारा लिखित / प्रकाशित कहानियाँ 200 का आँकड़ा पार कर चुकी हैं और 'हर छत का अपना दुःख' (1982) , 'महादान' (1983) , 'अब दिन नहीं निकलेगा' (1984) , 'आखिरी पड़ाव तथा अन्य कहानियाँ' (1986) , 'महासागर' (1990) , 'मेरी चुनिंदा कहानियाँ' (1994) , 'गठरी' (1999) , 'कोई एक कोना' (2003) , 'कथापर्व' (2006) , 'छुअन तथा अन्य कहानियाँ' और 'सिलवटें' (2020) कहानी-संग्रहों के रूप में उपलब्ध हैं। विकेश की कई कहानियों का अंगरेज़ी, मराठी, मलयालम, तेलुगु, पंजाबी व उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। आपकी आधा दर्ज़न कहानियाँ राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत भी हुई हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से तो आपकी कहानियाँ, नियमित रूप से, प्रसारित होती ही रहती हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा आपके दो कहानी-संग्रह 'अब दिन नहीं निकलेगा' और 'छुअन तथा अन्य कहानियाँ' क्रमशः 1984 और 2015 में पुरस्कृत हो चुके हैं। अब तक विकेश अपनी 'साहित्य, कला एवं संस्कृति की त्रैमासिकी पत्रिका' 'पुष्पगंधा' के दो कहानी-विशेषांक (नवम्बर 2012-जनवरी 2013 तथा फरवरी 2013-अप्रैल 2013) भी निकाल चुके हैं, जो राष्ट्रीय स्तर पर अत्यन्त चर्चित एवं प्रशंसित रहे हैं।

मैं इस तथ्य की ओर आपका विशेष ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा कि सन् 2020 में विकेश निझावन ने, अपनी स्वर्गीय पत्नी (श्रीमती विजया निझावन) की स्मृति में, एक विश्वस्तरीय हिन्दी-कहानी प्रतियोगिता का आयोजन किया था, जिसमें दुनिया-भर से आयीं सभी 150 कहानियों का मूल्यांकन किया-कराया गया था और निर्णायक-मण्डल की सर्वसम्मति से, पाँच श्रेष्ठ कहानियों के रचनाकारों को हज़ारों रुपये की सम्मान-राशि भी भेंट की गई थी। इस प्रकार, कहानी पढ़ना, कहानी लिखना, अच्छी कहानी की खोज करना, यथावश्यकता कहानी पर टिप्पणी / समीक्षा करना और स्तरीय कहानियों को 'पुष्पगंधा' में प्रकाशित करके अपने पाठकों का मनोरंजन करना, कुल मिलाकर, हर समय कहानी-केन्द्रित रहना विकेश निझावन का जन्मजात शौक रहा है। इस दृष्टि से उनका एक शोधात्मक ग्रन्थ-'संवेदनाओं के चितेरे: मोहन राकेश'-भी पठनीय एवं मननीय है।

उपर्युक्त तथ्यात्मक जानकारी देने के बाद, मैं अपने पाठकों से यह बात भी, सहर्ष, साझा करना चाहता हूँ कि मैंने विकेश निझावन की प्रायः सभी कहानियों का पारायण किया है, कभी-कभार उन पर लिखा भी है, उन्हें अपने शोध-कर्म में सम्मिलित भी किया है तथा इन पर विभिन्न-स्तरीय शोधकार्य भी करवाया है। अपने इसी अनुभव के आधार पर, मैंने विकेश निझावन की ऐसी, कुल ग्यारह, कहानियों का चयन किया है, जिन्हें भारतीय कथा-साहित्य में तो स्थान मिलना सुनिश्चित है ही, विश्वस्तरीय कथा-साहित्य भी यदि इन्हें अंगीकार कर ले, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। ये ग्यारह कहानियाँ हैं-पुनर्जन्म, जाने और लौट आने के बीच, अँधेरे, न चाहते हुए, सिलवटें, गाँठ, महादान, जीवन का दर्द, एक टुकड़ा ज़िन्दगी, गुल्लक, एक और इबारत। संक्षेप में बताना चाहूँगा कि 'पुनर्जन्म' में एक पुत्र के पिता बनते हुए चरित्र में, पिता के स्वभाव और आदतों का रूपान्तरण होते दिखाया गया है। 'जाने और लौट आने के बीच' में हमारे सांस्कृतिक-सामाजिक ताने-बाने और रीति-रिवाजों पर मार्मिक चोट की गई है। 'अँधेरे' में पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों की ऐसी कथा कही गयी है, जिसमें समाज के चेहरे पर लगी कालिख और सम्बन्धों के छल-फरेब का दिग्दर्शन हुआ है। 'न चाहते हुए' कहानी में पारिवारिक सम्बन्धों को बचाए रखने की उत्कट अभिलाषा और सफल कोशिश चित्रित हुई है। 'सिलवटें' पति-पत्नी के अविश्वास-भरे और लिजलिजे सम्बन्धों की एक आकर्षक कहानी है। 'गाँठ' एक मनोवैज्ञानिक कहानी है, जिसमें तन और मन की संदेहास्पद गाँठ का, वर्णन करते हुए यह प्रदर्शित किया गया है कि तन की गाँठ भले ही ठीक हो जाय, लेकिन, संदेह के रहते, मन की गाँठ बनी ही रहती है। 'महादान' रिश्तों को, येन-केन-प्रकारेण, जोड़े रखने की एक सार्थक कहानी है। 'जीवन का दर्द' में दिखाया गया है कि व्यक्ति दुःख तो झेल लेता है, लेकिन आतंक उसे हमेशा सताता रहता है। 'एक टुकड़ा ज़िन्दगी' हमारे उन सामाजिक रिश्तों की कहानी है, जिसमें अभिलाषाओं के समाप्त हो जाने और जीवन से विरत हो जाने की कथा कही गयी है। 'गुल्लक' पति-पत्नी के बीच पकते-उबलते सम्बन्धों की कहानी है। 'एक और इबारत' में आर्थिक अभावग्रस्त लेखक की उस मानसिकता का निरूपण हुआ है, जिसमें वह आर्थिक रूप से सम्पन्न होकर भी संतुष्ट नहीं है। पाठकबन्धु! अब उठिये और ध्यानस्थ होकर इन कहानियों को पढ़ जाइये, ताकि आप एक श्रेष्ठ हिन्दी-कहानीकार के व्यक्तित्व और कृतित्व से रू-ब-रू हो सकें।

विकेश निझावन की कहानियों की कथ्य एवं शिल्प सम्बन्धी विशिष्टताओं की पहचान और परख करने से पहले उनकी कहानी-विषयक अवधारणा पर दृष्टिपात करना अनिवार्य है, जो उनके 'गठरी' कहानी-संग्रह (1999) के प्रथम फ्लैप पर, इन शब्दों में, व्यक्त हुई है-"कहानी एक यात्रा है, बाहर से भीतर तक की, फिर भीतर से बाहर तक की। निरन्तर एक खोज चलती रहती है। कुछ मिलता भी है, लेकिन फिर लगता है, कुछ था, जो पीछे छूट गया। कुछ और है, जो अभी पाना है। यह तो एक पड़ाव था, जहाँ मैं रुका था—गठरी लिये। यात्रा फिर शुरू हो जाती है ... और कोई नयी कहानी जन्म लेने लगती है। यह एक सत्य की खोज है, एक यथार्थ की खोज है। वह सत्य, जो हमारे मन-मस्तिष्क में घुमड़ रहा है। जो हो रहा है, जो हम देख रहे हैं, सत्य केवल वही नहीं। पल-भर में कितने बिन्दु, कितने शब्द, कितने विचार, कितनी तस्वीरें, कितना द्वन्द्व पूरे शरीर को मथ देता है। यही सब, पूरे शरीर में फैली धमनियों में दौड़ते हुए खून की तरह, एक संजीदगी प्रदान कर जाता है। धमनियों में दौड़ते खून का रुक जाना या यूँ कहूँ कि चिन्तन का रुक जाना, तो मृत्यु होगा! कहानी, जो हमें हँसाती है, जो हमें रुलाती है, जो हमें भावशून्य भी कर देती है। संवेदना का ऐसा धरातल पूरी तरह से अभिभूत कर देता है, प्रसव-पीड़ा की वेदना भी देता है। फिर एक ऐसा झोंका आता है कि हम तरोताज़ा हो उठते हैं। इस ताज़गी को लेखक भी पहचानता है, पाठक भी। इन्हीं संवेदनाओं से अभिभूत होता रहूँ, तरोताज़ा होता रहूँ; यथार्थ के वे तमाम बिन्दु, जो अभी मेरी पकड़ में नहीं आये, उन्हें छू सकूँ; बस, यही चाहता हूँ।"

प्रस्तुत सैद्धान्तिकी के आलोक में जब हम विकेश निझावन की कहानियों में प्रवेश करते हैं, तो हमें एक ऐसे विस्तृत अनुभव-संसार के दर्शन होते हैं, जिसमें जीवन-जगत् की मानसिक संरचना के विविध आयामों को अत्यन्त जीवन्तता एवं सूक्ष्मता के साथ पकड़कर उजागर-उद्घाटित किया गया है। आज के राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय व्यापक संदर्भों और सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों का, 'भोगा हुआ यथार्थ' की पद्धति पर, सटीक चित्रण करने में विकेश निझावन माहिर हैं। इसीलिए कुमार नरेन्द्र का कहना है कि "विकेश निझावन की कहानियाँ पढ़ना एक सुखद और ताज़गीभरा अनुभव देता है। व्यक्ति की भावनाओं और संवेदनाओं का बहुत ही सहज चित्रण होता है इनकी कहानियों में। यथार्थ के धरातल पर सत्य की खोज हैं इनकी कहानियाँ।" इसी संदर्भ में, विकेश निझावन की कथा सम्बन्धी मानसिक संरचना की गहराई और ऊँंचाई को नापने की कोशिश करते हुए प्रख्यात त्रिभाषी साहित्यकार विनोद खन्ना लिखते हैं-"विकेश निझावन की कहानियाँ मात्र-कोरी कल्पनाएँ न होकर ज़िन्दगी के अलग-अलग पहलुओं से जुड़ीं तमाम ऐसी घटनाएँ हैं, जिन्हें हर कोई अपने आस-पास घटता हुआ पाता है। इतना सजीव और मार्मिक चित्रण तो वही कर सकता है, जो स्वयं जीवन के ज्वार-भाटे के साथ उठता या गिरता रहा हो या फिर जिसने किसी किश्ती में बैठकर, बल्कि लहरों की सवारी करके, संसार रूपी सागर को पार करने की जु़र्रत की हो। ... विकेश सरीखे कहानीकार को भी कितने प्रश्न परेशान करते होंगे, जो उसने अनेकानेक कहानियों को जन्म दिया।" प्रख्यात कथाकार हिमांशु जोशी के इस कथन से भी यही सिद्ध होता है कि "इन कहानियों की विशेषता है कि ये पाठक को अपनी रौ में बहा ले जाती हैं। शब्दों के आल-जाल से दूर, सरल-सहज पृष्ठभूमि की इन कहानियों में आपको अपनापन भी लगेगा। ... आपको अपने आस-पास के परिवेश की झलक मिलती है-खासकर छोटे शहरों और कस्बई जीवन की आपाधापी, कठिनाइयाँ और जीवटता देखने को मिलेगी कि किस तरह व्यक्ति संघर्षों-समस्याओं से हारता नहीं, बल्कि सहज ढंग से समाधान करता हुआ बाहर आता है और आगे बढ़ता है।"

विकेश निझावन मध्यवर्गीय घर-परिवारों के अनुपम-अद्वितीय और अद्भुत-विरल कहानीकार हैं। वास्तव में, उनकी कहानियों को इसी रूप में याद किया जाना चाहिए। यहाँ मध्यवर्गीय परिवारों में पुरुष-मानसिकता, नारी-शोषण, पीढ़ियों का संघर्ष, दहेज-प्रथा, आर्थिक समस्याओं से जूझते पारिवारिकों की द्वन्द्वात्मकता, विभिन्न-विविध कारणों से आए साम्बन्धिक बदलावों की त्रासद स्थितियाँ, सम्बन्धहीनता, खोखलापन-दिखावटीपन, झूठा-सच्चा प्रेम, पति-पत्नी के बहुमुखी सम्बन्धों की टूटती सीमाएँ और बाल-किशोर मनों पर पड़े दुष्प्रभावों आदि-आदि के साथ-साथ पात्रों-चरित्रों की जिजीविषा, संघर्षशीलता, सक्रियता और जीवन्तता का ऐसा सर्वांग-सम्पूर्ण चित्रण-विश्लेषण हुआ है कि विकेश निझावन की कलम को दाद देनी ही पड़ती है। स्वामी वाहिद काज़मी ने सर्वथा उचित ही लिखा है कि "विकेश ने एक विषय अपने लिये चुना-घर-परिवार। फिर कलमनुमा अपना कैमरा उठाकर उसने अपने विषय को कै़द करने के लिए बड़ी खूबी से 'क्लिक' करना शुरू कर दिया। इस प्रक्रिया में उसने सैंकड़ों 'एंगिल' ढूँढे। न जाने कितने 'रिजेक्ट' और बहुत-से 'सिलैक्ट' किए। इसके लिए जो सबसे उपयुक्त 'लाइट एण्ड शेड' होना चाहिए, उसने 'एडजस्ट' किया। हैरानी यह है कि विकेश ने अपने एक ही विषय के लिए ढेरों 'एंगिल' कैसे खोज लिये और प्रत्येक 'एंगिल' के इतने बारीक पहलू उसने पकड़ कैसे लिये, जिन पर उसका कैमरा फोकस रहा।" विकेश निझावन के अद्यतन कहानी-संग्र्रह 'सिलवटें' (2020) की पीठ पर 'प्रकाशक की ओर से' भी, यह कहते हुए, वाहिद काज़मी के उक्त वक्तव्य की परिपुष्टि की गयी है-"ये कहानियाँ मनुष्य के मन के आकाश में घिरे काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार के अँधेरों को उकेरतीं, अँधेरे मन की तलहटियों में पड़ीं, अनेक ऐसी गुफाओं से परिचय कराती हैं, जहाँ केवल लेखक की लेखनी का प्रकाश ही इन्हें प्रकाशित कर समाज का मार्गदर्शन करता है और कीचड़ में खिले कमल होने की कला का संदेश देता है।"

शैली-शिल्प की दृष्टि से भी विकेश निझावन की कहानियाँ बेजोड़ हैं। प्रायः सभी आलोचकों और कथाकारों ने, एक स्वर में, उनकी शिल्पगत सहजता और जटिलता की संयुक्ति को रेखांकित किया है। रामकुमार आत्रेय का मानना है-"सहजता इनका एक अनोखा गुण है। इनमें सब-कुछ सहजता से घटता है। जैसे धूप उतरती है आँगन में—जो तपाती भी है, प्रकाश भी देती है, जिसकी बेहद ज़रूरत भी होती है और जिससे बचने को मन चाहता है। इन कहानियों में न तो बिम्बों एवं प्रतीकों का आडम्बर है और न ही घटनाओं का संजाल। बनावटी भाषा के माध्यम से विद्वत्ता दिखाने की ललक भी नहीं है।" अमृतलाल मदान भी उक्त मान्यता का समर्थन करते नज़र आ रहे हैं-"ऊपर से देखने पर विकेश की कहानियों का शिल्प और भाषा सीधी व सहज, किन्तु भीतर कितनी ही गुत्थियाँ और गुँजल, बाप रे! अधिकतर कहानियों में तो व्यक्ति-मन की रहस्यमयता के झीने परदे ही पाठकों को कुछ सोचते जाने पर विवश करते हैं। लगता है कि विकेश विविध पात्रों की विविध मनःस्थितियों एवं अनकही अभिव्यक्तियों का कुशल चितेरा है-वैसे भी वह चित्रांकन तथा रेखांकन की कला में निपुण है।" बकौल राजी सेठ "...विकेश की कथा-कला धमनियों में अदेखे रक्त की तरह खामोश, प्रशांत, निरुद्वेग बहती आ रही है, जिसे अटकाव के स्थल पर खड़े होकर हमें पुनर्व्याख्यायित करना है या कथा का पुनर्पाठ करना है। याद नहीं पड़ता, ऐसी सहजता और ऐसी जटिलता के संगम की ऐसी कोई मिसाल हमारे पास है या नहीं। ... वे अपने सृजन-कर्म में स्थिरचित्त और जीवन्त हैं। मेरी शुभकामनाएँ!"

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