विक्षिप्त / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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स्वामी अजयानन्द का प्रवचन हो रहा था। श्रोतागण मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे–"मनुष्य का चोला न जाने कितनी योनियों में चक्कर काटकर मिला है। परमात्मा का दिया हुआ यह शरीर परोपकार में ही लगाना चाहिए. जैसा भोजन होगा, वैसा ही हमारा मन होगा। तामसिक पदार्थों से हमें दूर रहना चाहिए. हाथी जैसा जानवर शाकाहारी होता है जिसके बल का कोई ठिकाना नहीं। सुरापान और मांसाहार करने वाले लोगों के समान अधम इस धरती पर कोई नहीं। ऐसे लोग रौरव नरक का कष्ट भोगते हैं। सात्विक व्यक्ति सपने में भी परनारी का चिन्तन नहीं करते। ऐसे व्यक्तियों के परिवार में नारियों की पूजा होती है। उनके घर में देवता वास करते हैं।"

स्वामीजी बोल ही रहे थे कि कोने में बैठा एक श्रोता अपने को नियंत्रित न कर सका। वह आग्नेय नेत्रों से घूरता हुआ स्वामीजी के निकट पहुँचा–"क्यों भाई मेलाराम, ये गेरुआ बाना पहनकर क्या नाटक रचा रखा है? तुमने दिल्ली में शराब की दूकान का ठेका अब तक ले रखा है। अपनी साध्वी पत्नी विमला को तुमने मिट्टी का तेल छिड़ककर जला दिया था। यही है नारी की पूजा! रही बात परनारी की, अपनी पुत्रवधू को भी तुम रखैल बनाकर रखे हुए हो।"

स्वामीजी की आँखों में तनिक भयमिश्रित क्रोध झलका। पर वे तुरन्त ही सँभल गए–"लगता है बच्चा तुम्हे कोई भ्रम हुआ है। तुम्हें मानसिक रोग भी हो सकता है। प्रभु पर आस्था रखो, तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओगे।"

"मुझे कुछ नहीं हुआ। मैं राजे हूँ, जिसके साथ तुम पढ़ते थे। कहो तो तुम्हारी जाँघ का वह निशान भी दिखा दूँ, जो तुम्हारे साले द्वारा गोली मारने से हुआ था।" भक्तगण ब‍र्रे की तरह चारों तरफ एकत्र हो गए. स्वामीजी मुस्करा रहे थे–"भक्तो, यह कोई विक्षिप्त व्यक्ति है। बेचारे को ईश्वर ने क्या सजा दी है! इसकी सोचने की शक्ति ही चली गई।"

उपस्थित समुदाय क्रुद्ध हो उठा। स्वामीजी ने हाथ उठाकर सबको मना किया। तब भी सबने लातों और घूँसों से उसको अधमरा करके बाहर सड़क के किनारे फेंक दिया।

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