विगत के कंकाल और जन्म की नाल / जयप्रकाश चौकसे

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विगत के कंकाल और जन्म की नाल
प्रकाशन तिथि : 15 जुलाई 2013


राकेश ओमप्रकाश मेहरा, प्रसून जोशी, कैमरामैन विनोदप्रधान और फरहान अख्तर के आपसी सहयोग से 'भाग मिल्खा भाग' एक महान फिल्म बनी है, जिसे 'चक दे इंडिया', 'लगान', 'रंग दे बसंती' और 'पानसिंह तोमर' की श्रेणी में उच्च स्थान प्राप्त होगा। फिल्म का प्रारंभ १९६० में रोम में आयोजित ओलिंपिक से होता है, जिसमें विजय-रेखा से मात्र कुछ फीट दूर मिल्खा पीछे पलटकर देखते हैं और इस एक क्षण की चूक से ऐतिहासिक विजय से वंचित रह जाते हैं, परंतु अपने गौरव के क्षणों में एक अनुभवी धावक का पीछे पलटकर देखना उसके बचपन की एक कटु स्मृति से जुड़ा है, जब विभाजन की त्रासदी के समय उसके पिता उसे उन्मादी भीड़ से बचाने के लिए आदेश देते हैं कि वह भागे और पलटकर न देखे, परंतु पुत्र ने जिस क्षण पलटकर देखा, उसी क्षण उन्मादी भीड़ ने उसके पिता को मारा था। अत: रोम में उस क्षण उसका पलटकर देखना उसके अति संवेदनशील व्यक्ति होने का प्रमाण है। मानवीय संवेदनाएं विजय और पराजय के परे आपके चरित्र की परिचायक हैं।

बहरहाल, पटकथा इतने अच्छे ढंग से लिखी है कि 'पलटकर देखने' के रहस्य को फिल्मकार ने अंत में ही प्रगट किया। परत-दर-परत कथा के रहस्य और रिश्तों की महीन बुनावट उजागर करके जबर्दस्त सिनेमाई प्रभाव पैदा किया गया है और सच्चे अर्थ में यह एक महाकाव्य की तरह बनाई गई है। इसमें अनेक दृश्य ऐसे हैं कि बरबस आंसू बहने लगते हैं और अनेक जगह दर्शक ठहाके भी लगाता है, मसलन, मिल्खा अपनी पहली हवाई यात्रा में बादलों के ऊपर उड़ते हवाई जहाज में अपने कोच से कहता है कि पायलट ठोंक देगा। अगर पहले हवाई सफर में यह हास्य दृश्य है तो एक और हवाई सफर में पराजित मिल्खा अपने कोच से कहता है कि चार सौ मीटर का विश्व रिकॉर्ड कागज पर लिखकर दें और उस कागज का भरपूर नाटकीय प्रयोग भी फिल्म में किया गया है। जो युवा लेखक पटकथा लेखन का कोर्स करना चाहते हैं, उन्हें यह फिल्म दृश्य-दर-दृश्य बार-बार देखनी चाहिए। किस तरह से पहले भाग में कुछ विचार बीज डाले गए हैं और बाद में भावना की फसल काटी है। मसलन, मिल्खा को अपनी प्रेमिका से ज्ञात होता है कि महान कार्य पर राष्ट्रीय छुट्टी होती है। वह कहता है कि एक दिन वह भी राष्ट्रीय छुट्टी कराएगा। घटनाक्रम में बताया गया है कि भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू मिल्खा को पाकिस्तान में आयोजित स्पद्र्धा में जाने के लिए प्रेरित करते हैं। ज्ञातव्य है कि मिल्खा के माता-पिता विभाजन के समय पाकिस्तान में मारे गए थे, जिस कारण वह वहां नहीं जाना चाहता। बहरहाल, नेहरूजी पूछते हैं कि वे मिल्खा के लिए क्या कर सकते हैं, तो मिल्खा कहता है कि पाकिस्तान में विजय प्राप्त करूं तो छुट्टी घोषित कीजिए और ऐसा करते दिखाया गया है। काश! फिल्मकार मात्र एक शॉट में कहीं और जबरन ब्याही नायिका को अखबार में यह खबर पढ़ते दिखाता।

इस भावनाप्रधान फिल्म के किरदार सिनेमाघर के बाहर आपके साथ आपके घर आते हैं और आपके दिल में बस जाते हैं। मिल्खा सिंह की बड़ी बहन ने एक बार उसे जेल से छुड़ाने के लिए अपनी सोने की बालियां बेच दी थीं। जब मिल्खा सिंह धावक के रूप में चुन लिया जाता है, तब वह सगर्व खिलाड़ी का ब्लेजर पहने घर आता है और बहन को अपना ब्लेजर पहनाकर कहता है कि जेब में हाथ डाले, जिसमें उसने सोने की बालियां रखी हैं। किसकी आंखें नम नहीं होंगी? इसी तरह सफल मिल्खा सिंह अपने सोने का मेडल अपने गुरु के गले में डालकर चरण छूता है। पाकिस्तान में आयोजित पत्रकार परिषद में मिल्खा सिंह की कुर्सी खाली है और सब हैरान हैं कि वह कहां गया। वह अपने पुश्तैनी गांव जाता है और उसकी स्मृति में कौंध जाता है उसका उस समय लौटकर आना और अपनी मां के शव से लिपटकर रोना। वहां एक बालक उसकी तस्वीर लेकर आता है और दिखाकर कहता है, यह मिल्खा सिंह आप ही हो ना। बालक का पिता, मिल्खा सिंह के बचपन का मित्र वहां आता है और उन बिछड़ों का मिलना सरहदों को अदृश्य कर देता है, उन्हें मिटा देता है। मानवीय संवेदनाओं के पंख होते हैं, वह सरहदों के ऊपर उड़ती हैं और एक इंद्रधनुष बनाती हैं- प्रेम और भाईचारे का इंद्रधनुष। अब ऐसे सपने देखना भी गुनाह है।

इस फिल्म में आनंद, निर्मल आनंद के क्षण भी बहुत हैं, मसलन बैरक के रंगरूटों का नाचना-गाना, उनकी आपस की दोस्ती और युवा मिल्खा सिंह का प्रेम-प्रसंग, पूरी पे्रम कहानी ही बहुत मधुर और दिलकश अंदाज में प्रस्तुत की गई है। ऑस्ट्रेलिया में फिरंगन के साथ का रोमांस भी बकमाल प्रस्तुत हुआ है। प्रसून जोशी और राकेश ओमप्रकाश मेहरा की पटकथा फिल्म का मेरुदंड है। साे तकनीकी पक्ष उच्चस्तर के हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने 'रंग दे बसंती' में प्रतिभा की जो झलक दिखाई है, वह अपने पूरे ओज और ताप के साथ इस फिल्म में दिखाई पड़ती है। इसके साथ 'वायकॉम स्टूडियो १८', जिन्होंने दिल खोलकर इसमें पूंजी लगाई, उन्हें भी इस राष्ट्रीय गर्व की फिल्म को संभव करने की बधाई देनी चाहिए, क्योंकि यह सिताराविहीन होते हुए भी बहुत लागत से बनी है।

सारे कलाकारों ने अद्भुत अभिनय किया है। दिव्या दत्ता और पवन मल्होत्रा जैसे दृश्य में जान फूंकने वाले महान कलाकारों को अधिक अवसर क्यों नहीं मिलते, यह आश्चर्य की बात है। फरहान अख्तर ने इस फिल्म के लिए एक वर्ष तक विशेषज्ञों की देखरेख में घंटों पसीना बहाया है। शायद फिल्म में मिल्खा सिंह के द्वारा बाल्टी भर पसीने का दृश्य फरहान की कसरत से ही प्रेरित है। उसकी हर मांसपेशी एक धावक के भीतरी संघर्ष को अभिव्यक्त करती है। उसकी हल्की-सी भाव-भंगिमा भी उसकी आत्मा के ताप को बयां करती है। उसकी चाल में आप पहाड़ चढऩे की थकान देख सकते हैं। उसकी आंखों में भावनाओं की बाढ़ पर आई नदी को आप महसूस कर सकते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि चंद दशकों बाद उसकी तस्वीर को ही लोग महान मिल्खा सिंह की तस्वीर समझने लगें, जैसे आज बेन किंग्सले की तस्वीर को गांधीजी मान लेते हैं। पाकिस्तान में विजय-रेखा के बाद भी मिल्खा ङ्क्षसह दौड़ते रहते हैं और एक क्षण के लिए उनका बाल स्वरूप भी उनके साथ दौड़ता नजर आता है। यह महान दृश्य है। बचपन में देखी त्रासदी के साथ कुछ नकली भूत-प्रेत भी जुड़ जाते हैं। उनसे मुक्ति का यह महान दृश्य फिल्म को आध्यात्मिक ऊंचाई देता है और इस आशय का गीत भी है - विगत के कंकाल और नाल अर्थात अम्बिलिकल कॉर्ड।