विजयदान देथा लौट आएंगे / जयप्रकाश चौकसे

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विजयदान देथा लौट आएंगे
प्रकाशन तिथि : 13 नवम्बर 2013


महान विजयदान देथा की मृत्यु पर भारत के सारे साहित्य प्रेमी दु:खी हैं और चुनाव की सरगर्मी में डूबे राजस्थान में शोक की लहर चुनावी लहर के ऊपर होनी चाहिए क्योंकि चुनाव तो पांच वर्षीय तमाशा है परन्तु विजयदान सी विरल प्रतिभा कभी-कभी ही जन्म लेती है। चारण जाति में जन्मे विजयदान के पिता, दादा लेखक थे और उनके पुत्र ने भी लिखा है तथा राजस्थानी भाषा में लिखी उनकी कहानियों का अनुवाद भी किया है। हर क्षेत्र में कुछ दादा नुमा लोग होते हैं जिसका दखल उस क्षेत्र में भी होता है जिनका उन्हें ज्ञान नहीं। ऐेसे ही माफियानुमा लोगों ने विजयदान की राजस्थानी में लिखी रचनाओं को हिन्दी साहित्य का मानने से इनकार किया, परन्तु मानव करुणा से ओतप्रोत रचनाएं कालातीत होती हैं और पूरी मानवता का उन पर अधिकार होता है। संजय चौहान ने डॉ. नामवर सिंह के मार्गदर्शन में विजयदान पर शोध किया है।

यह सच है कि विजयदान ने राजस्थान की लोक कथाओं को ही लिखा है परन्तु उनकी मौलिक दृष्टि ने शताब्दियों से सुनी-सुनाई कथाओं को नया अर्थ प्रदान किया तथा वर्तमान से गुजश्ता सदियों को जोड़ दिया। मौलिकता मात्र एक दृष्टिकोण है और विजयदान का यह दृष्टिकोण ही राजस्थान की मिट्टी और रेत को पूरे संसार में ले जाता है, उनसे बड़ा राजस्थान का सांस्कृतिक राजदूत कोई नही हुआ। राजस्थान में प्रांतीय शोक घोषित किया जाना था और झंडे झुकाए जाने चाहिए थे।

सबसे पहल हबीब तनवीर ने 'चरणदास चोर' का मंचन बस्तर के लोक कलाकारों के साथ किया, बाद में श्याम बेनेगल ने विजयदान की इस कथा पर फिल्म बनाई। इसी तरह मणिकौल ने उनकी 'दुविधा' बनाई और बाद में इसी कथा पर अमोल पालेकर ने शाहरुख खान और रानी मुखर्जी को लेकर 'पहेली' फिल्म बनाई। अगर विजयदान की एक ही कहानी पर कई बार फिल्में बनीं है तो स्वयं विजयदान ने भी अपनी लिखी कुछ कथाओं को दोबारा लिखा है और यह दोबारा लिखा जाना महज जुगाली नहीं थी वरन, नए दृष्टिकोण से लिखा जाना था जो यह सिद्ध करता है कि उनकी विचार प्रक्रिया सतत प्रवाहित थी और वे कभी मुतमइन नहीं थे कि उन्होंने अंतिम शब्द लिख दिया है- इसे मैं उनकी सबसे बड़ी विशेषता मानता हूं।

प्रकाश झा की 'परिणति' को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और फिल्म देखकर राजकपूर इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने प्रकाश झा को अपने घर आमंत्रित किया तथा विजयदान की कुछ कथाएं सुनी। युवा पत्रकार उमाशंकर सिंह जो आजकल मुंबई में अरबाज खान के लिए फिल्म लिख रहे हैं भी विजयदान के मुरीद हैं और उनकी दिली इच्छा है कि विजयदान की 'बैंडमास्टर इब्राहिम' पर फिल्म बनाएं। हजारों शादियों में बैंड बजाने वाले इब्राहिम स्वयं कुंआरे ही रह गए और अगर उनकी शादी होती तो शायद वे स्वयं ही दूल्हा भी होते और बैंडवाला भी। जैसे कि केए अब्बास की महान 'चार दिल चार राहों' में नायक राजकपूर चांवली चमारन से शादी करने जा रहा है तो कोई बराती साथ जाने को तैयार नहीं है, वह स्वयं हाथ में मशाल लिए गाता हुआ शादी करने जाता है। यह बात गौरतलब है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों के वे ही गीत कालजयी हुए हैं जिन्हें बैंडमास्टर शादियों में बजाते हैं और वे केवल सरल हृदय को छूने वाले गीत ही बजा पाते हैं जबकि आज संगीत में कंप्यूटर जनित अजीबोगरीब ध्वनियों के कारण यह संभव नहीं है।

विजयदान देथा की 'सिकंदर और कौआ' कहानी में अमर हो जाने की लालसा के खोखलेपन को उजागर किया गया है और उदयप्रकाश इस पर फिल्म बना चुके हैं। 'महाभारत' में मोक्ष की अवधारणा पर यह बात कही गई है कि अपने निजत्व को क्यों किसी विराट में मिलाकर उसे शून्य करें और स्मृति पटल के बिना स्वर्ग जाने या पुन: जन्मे जाने का क्या अर्थ है। अब इसी तरह अगर विजयदान देथा के कपड़़ों से राजस्थान की मिट्टी और रेत झटकने का आदेश ईश्वर दें तो संभव है विजयदान देथा इनकार कर दें और लौट आएं क्योंकि उनके लिए कण-कण रेत ही अपने अस्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा है या कहें कि युधिष्ठिर के कुत्ते की तरह है।