विजयनी / सूर्यबाला

Gadya Kosh से
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बातचीत आंगन में हो रही थी न इसलिए जाहिर था कि आवाज आंगन के चारों तरफ बने हर कमरे में पहुंचती और किसी न किसी कमरे में वह होती ही है... सचमुच वह रसोईं से चाय की ट्रे लिये पहुंच गई थीं।

बुआ जी वैसे ही सहज लहजे में कहे जा रही थीं... 'कहो तो मैं ले जाकर दिखा दूं... वह मेरे बड़े वाले दामाद के साले हैं न यहाँ के बड़े अस्पताल मैं...'

'हाँ... हाँ... यह तो बहुत अच्छा हो... लो बहु भी आ गई. इससे पूछ लो...'

'क्या चीज बुआ जी...' उसने पूरी तरह अनजान लहजे में पूछा था...'

' अरे अब शरद बड़ा हो गया... घर मैं एक छोटा मुन्ना आना चाहिए न... बूआ जी ने बड़े वत्सल मुख से घिसी पिटी जुमला दुहरा दिया...

उसने बड़ी सावधानी से एक हल्की नजर माँ जी पर डाली थी...

' बाप रे मेरे ये तीन ही बच्चे बहुत है बुआ जी... मुझे नहीं जाना किसी डॉक्टर-वॉक्टर के पास... आप भी बुआ जी...

'क्या' बूआ जी का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया था और वह एक भरभूर विजयी दृष्टि माँ जी पर डालती ट्रे उठा रसोई में वापस चली गई थी।

जीत-जीत... शायद जीत... या विध्वंस... तहस-नहस... वे आवाज हाहाकार!

एक दो दिन बाद वह विमल किशोर ने बड़ी रूढ़ भद्रता और सहानुभूति के साथ पूछा था... तुम कहो तो... तुम्हें किसी डॉक्टर के पास ले चलूं... (मतलब...? आवाज खुब सचमुच आंगन से हर कमरे में पहुंच गई थी।)

'तुम कहो तोऽऽ' उसे लगा था एक ज्वाला सिर से पांव तक लहक जाने के बाद ठंडी, वैसे ही ठंडी लुश बर्फ की तरह उसे अंदर से खरौच रही है... उसे खरौच से उबर कर, सहज होने में थोड़ा समय लगा था... क्यों?

' क्योंकि तुम्हें भी तो बच्चे... विमल किशोर का वाक्य लटपटा गया था...

'तो आप क्या समझते हैं... शरद, बसंत और स्नेहल मेरे बच्चे नहीं...'

आश्चर्य? कितनी सहजता से हंस गई थी वह! ... विमल किशोर के चेहरे पर फैली हुई वह राहत कभी भूल नहीं पाई, वह आज तक, राहत...

बेटी, बेटों, पत्नी, प्रिया, प्रेमिका और अंत में एक 'संरक्षिका' से मिली सुरक्षा की राहत!

विजय का एक नया कीर्तिमान! उन्मादिनी-सी मुस्कुरा पड़ी थी वह!


'मम्मी, मुझे मेरी पोलिस्टर वाली शर्ट अभी निकाल कर दो... पापा के साथ होटल वाले का एडवांस देने जाना है...' शरद ने युं ही आदत के मुताबिक उसकी कमर पर हल्के-हल्के दो मुक्के जड़े थे लेकिन मिसरानी को देने के लिए जांतिके अंदर जाता उसका हाथ हिला था और काफी सारा आंटा फर्श पर बिखर गया था। इसके पहले वह शरद को समझा चुकी थी कि होलट वाले को एडवांस देने जाने के लिए पोलिस्टर वाली नई शर्ट निकालने की ज़रूरत नहीं, पर शरद जिद्द पर अड़ा मिन-मिन किये जा रहा था। फर्श पर बिखरा आंटा देखकर दिल तो यही किया था कि दांये हाथ की आंटे भरी हथेली से लगाए एक भरपूर थप्पड़ कि पचास दफे कह दिया कि हाथ खाली नहीं... पोलिस्टर की नई बुशर्ट नहीं पहन कर जायेगा तो होटल वाला एडवांस लौटा देगा क्या... पर जिद्द बन गई तो बन गई...

लेकिन वह जानती है आंटा निकलवाती मिसरानी, चाय सुड़कती वृंदा चाची जी और सब्जी काटती तीनों बुआओं... सबकी आंखों में एक जबरदस्त सस्पैंस हैं... कि देखें अब क्या होगा...

उसका हाथ आंटा झाड़ते हुए धीरे-धीरे नीचे अपनी औकात में आ गया और मुस्कराते हुए वह मिसरानी से बोली थी 'तुम तब तक अंदाजों, मैं ज़रा इस नटखट की नई बुशर्ट निकालती जाऊ...'

गुप्तचरी करती आंखों में एक हुगस भरी हुक उठी थी, लेकिन मुंह से तो वाहवाही ही निकली। खैर, वाहवाही ऐसे भी कहते-सुनते के मुंह से निकल रही थी। नीम अंधेरे नहाने-धोने के बाद जो बड़ी बहु चकरचिन्नी-सी जुटती है तो सुबह सात बजे की चाय से लेकर सारे दिन आंटे, चावल, सब्जी से लेकर शमियाने, क्रांकरी तक का हिसाब-किताब करती, रात के खाने तक रहे मेहमानों को पूछ-पूछ कर खिलाती, बीच-बीच में चाबी के गुच्छे खनखनाती, कभी माँ जी का बटुआ, कभी विमल किशोर के सिल्क का कुर्ता, कभी श्यामल का सूट तक निकालने, देने का काम चलता रहता, लेकिन सस्पैंस वाली स्थितियाँ तब आतीं जब बसंत का एक मोजा नहीं मिल रहा होता और उसे गीता के बीचे उठ कर आना होता था फिर ठीक चार घंटे पहले मालूम होता कि स्नेहल की मैक्सी में टॉकी जाने वाली लेस मंजू से खो गई है जिसे मंजू ने बड़ी ठसक से कहा था... अरे मैं टांक दूंगी भाभी, आप फिकर न कीजिये, अब कहने का फर्ज तो यही बनता है कि टांकती न सही, लेस तो कहीं याद से रखी होती, अब उसी एक लैसे के लिये पूरी तीन रूपये रिक्शे के देकर जरी टोला जाना और टांकने की मेहनत अलग से...

लेकिन कहा तो सिर्फ़ यही था... चौबारे की देवी प्रतिमा की तरह मुस्कराते हुए... अरे तो क्या हुआ... तुम कौन-सी बड़ी दादी अम्मा हो गई हो... रहने दो मैं टांक देती हूँ... जाओ, तुम मेहंदी लगवाओ।

मीना को अपने सबसे छोटे वाले पिनपिने बच्चे को थपकी देते हुए ही सब कुछ सूझता है। इस समय भी उन्हें एकाएक इलहाम हुआ... अरे बड़ी भाभी, सुनिए... गजरे मंगाना तो आप भूल ही गई...'

अब सबूत तो वह मांग नहीं सकती न कि क्या सबूत कि मैं ही भूल गई. आप लोग नहीं... लेकिन उसे आश्चर्य भी हुआ।

'गजरे?'

' हां-हाँ... शाम को श्यामल मइया छोटी मामी को विदा कराके उतरेंगे न, तो नई दुल्हन के लिये गजरे चाहिए न... उनके स्वागत के लिये...

'नहीं भूलने की बात नहीं... मैं समझी थी, यहाँ नहीं होता...'

'अरे होता क्यों नहीं... हमने बड़ी मामी को भी पहनाये थे... वो... पहली वाली को...'

' हाऽआ... हांऽऽ... मंगवाये देती हूँ... सचमुच मैं तो भूल ही गई थी, अच्छा किया, याद दिला दिया...

हांऽऽ अच्छा करती हो याद दिला किया करती हो...

यह कहना शायद ज़्यादा ठीक हो... और शाम को उसने याद करके ढेर सारी फूलों की लड़ियाँ मंगवा लीं। ज़रूर पहली वाली की फ्लंग पर लगाई गई होगी। उसने खुद ही ढेर सारे ऐसे सवाल इक्कठे कर खुद ही उसके जवाब देने-लेने शुरू कर दिये थे। ... हाँ, नई बहू के उतरने पर गोद में कोई छोटा बच्चा देना चाहिये... ज़रूर होता होगा यहाँ... हाँ उसकी बार लोग भूल गए होंगे... और फिर उसके जो दो-दो बेटे पहले से ही इस घर में मौजूद थे... नई बहू के उतरने पर गजरे पहना दिये जाते हैं और गोद में बच्चा दिया जाता है... कमरे में बिठा कर हम उम्र ननदौ, लड़कियों के साथ हंसी, ठिठोली और छेड़खानी की जाती है... उसकी वाल लोग भूल गये होंगे...

मीना की तो शादी भी हो गई थी... काफी नई नवेली ही थीं...

शायद पहला वाला बच्चा पेट में था भूल ही गई होगी। और क्या?

अंदर चलती घमासानों की सारी भूल सुधार करने के बाद रात एक डेढ़ बजे कहीं किसी बूआ, चाची की रजाई मैं दुबक कर सो गई थी। नींद आखिर कब तक न आती!

शादी के चौथे दिन ही माँ जी के माथे पर सिलवटे उभर आई. नई बहू तो सिर पर आंचल भी नहीं धरती, रिश्तेदार चले गये तो क्या, घर के बड़े बूढ़े तो हैं न... उसे तुम्ही सिखाओ बड़ी बहू...

वह गौरवान्वित होती हुई हंसी थी... अभी छोटी है माँ जी. धीरे-धीरे बता दिया जायेगा।

अरे बताया क्या जायेगा... यह सुख तो पहले से ही मायके की बहन, मामी को समझा कर भेजना चाहिए. मंजू! तू उसे समझा कर कह दे, हमारे यहाँ से बड़े बूढ़ों का लिहाजा और पर्दा अभी उठ नहीं गया है...

'मैं क्या समझाऊँ... वह कहती हैं, उन्होंने कभी देखा ही नहीं...'

' अरे देखा वैसे नहीं... माँ जी गुस्से से भभक पड़ी... और कहीं नहीं तो सिनेमा तो देखा होगा... मीना! तु समझा दे...

' ना बाबा... मुझे दो दिन में जाना है, मैं क्यों बुरी बनूं? तुम्हारा घर, तुम्हीं लोग जानो...

अपनी बात को सही साबित करती मीना तीसरे दिन चली गई थी।

खाने के समय मंजू बोली... नई भाभी नहीं आतीं... कहती हैं उन्हें नहीं खाना?

' नहीं खाना? माँ जी आसमान से गिरीं... और पूरी तरह भभक पड़ी।

'मतलब'

'मतलब मैं क्या जानू...?' मंजू झल्ला है, 'श्यामल भइया में और उनमें सुबह से ही चल रही है कुछ... जो कहा, तुमसे कह दिया' ...

' वाह भाई वाह... दो दिन पहले आई बहू की ये मजाल... जा उससे कह दे मैं बुलाती हूँ...

लेकिन मंजू को जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी... उसके पहले ही श्यामल की कड़कदार आवाज कमरे में गूंजी, गेट आउटऽऽऽ!

जैसे बिजली-सी फट पड़ी हो सबके ऊपर... एक झनाके से सबके सब आंगन मैं... गुस्से से बलबलाती माँ जी तक सन्न रह गई. होश आया तो सारे डायलॉग बदल गए. बहू को जो कुछ कहना था, सीन बदल जाने से, श्यामल को कहना शुरू किया।

'अरे अरे... क्या बोल रहा है... बड़े बूढ़ों के सामने ऐसी भी इस घर में किसी की मजाल हुई है कभी... कि नई आई बहू के सामने...'

गुस्से से पैर पटकता श्यामल चीख उठा... 'मजाल किसी बहू की भी पड़ी थी कमी ऐसी... इसकी जबान नहीं सुनी तुमने...'

और वह होठ चबाता हुआ बाहर चला गय।

'बहूऽऽ' माँ जी सधी आवाज में पुकारते ही, अंदर से हिलक-हिलक कर रोती-सी आकर नई बहू उनसे लिपट गई... और मम्मी-मम्मी कह कर रोने लगी।

मां जी के सामने सिवा चुप कराने के कोई चारा न थी।

सत्या फटी-फटी आंखों से देखे जा रही थी... कोई बहू माँ जी से ऐसी बिठ लिपट कर रो भी सकती है क्या...!

'चलो-चलो... इसे खना दो बड़ी बहू... मंजू इसका मुंह धुला दो।'

खाना खा लिया तो स्नेहल, बसंत से कहा गया कि जाकर उसके साथ ताश, लुडो खेलो मन बहनलेगा। उसका... अरे कलंक भाभी तो डर है पहली बार आई है, मायके जाकर क्या जाने क्या लगाए.

थोड़ी देर बाद माँ जी ने जाकर झांका तो सारा कांड भूल सिर उघाड़े, पल्ला कमर में खांसे हंसती हुई लुडो का डाइस खनकाये जा रही थी।

बसंत चीख रहा था... बाप रे आंटी आप कितनी चीटिंग करती हैं...

वाह रे अरबल! 'मां जी झुनझुनाई थी। फिर आवाज दी थी...' स्नेहल! बसंत! चलो अब चाची को सोने दो...'

'एई बसंत! जाते समय दरवाजा पूरा बंद कर दे। नहीं मैं अंदर से सिटकनी चढ़ाये लेती हूँ... तुम्हारे श्यामल चाचा को मेरे कमरे में नहीं घुसना है।'

' उफ हद हो गई, अब तो लगाम कसनी ही पड़ेगी...

' तीसरे दिन से ही समझाया जाना शुरू हो गया... देखो सिर उघाड़ कर नहीं रहते... समझी...

लेकिन वह सिर झुका कर सुनने के बजाय माँ जी से ठुनक कर बोली मैं क्या करूं मम्मी जी... मुझसे सिर पर पल्लू संभलता ही नहीं...

'कैसे नहीं संभलता, बहू हो न...'

'बहूऽ बाप रे... मम्मी जी बहू सुनने के साथ ही मेरा दम घुटने लगता है...' सुनिये, मैं जो बहू हूँ ही नहीं... आप मुझे बेटी बना कर क्यों नहीं रख लेतीं... एै?

मां जी का ऊफ बोलता मुंह पुनः सनाके मैं आ गया... ऐसी किसी डायलॉग की उन्हें उम्मीद ही नहीं थी। क्या जवाब दे, लेकिन उन्हें जवाब देने की ज़रूरत ही नहीं पड़ीं, उससे पहले ही—' बोलिये न मम्मी ज दखिये, आप बेटी और बहू में... यानी आप मंजू दीदी मैं और मुझमें फर्क करेगी क्या? ...

नहीं न!

मां जी अजीब पेशोपेश की हालत में खड़ी थीं। कुछ न सुझा तो किसी तरह बोली... ' पुरानी रीति है बेटा, नहीं तो फर्क की क्या बात।

' रीति बीती नहीं मम्मी जी, बस मैं तो ऐसे ही रहूंगी और उसने माँ जी की एक जोरदार बलैया ले ली।

मंजू दूर खड़ी खिलखिला कर हंस पड़ी।

मां जी संकोच से उसे हल्के से हटाते हुए... अच्छा-अच्छा पर ज़रा सिर पर आंचल डाल लिया करो... जाने कौन आ जाये...

' लीजिये, डाले लेती हूँ, बस न!

शायद समूचे कथोपकथन बैठक खाने तक पहुंच गए थे वहीं से मुस्कराते हुए दरवाजे के पास जाकर विमल किशोर ने पूछा था... ' क्या भई शरद आइसक्रीम खानी है क्या?

'आइसक्रीम?' शरद से नई बहू ही उछल पड़ी थी... ज़रूर-ज़रूर बड़े भइया...

विमल किशोर भौचका देखते रह गया। फिर जल्दी से मुस्कुराए... हाँ-हाँ ज़रूर... बसंत... आठ आइसक्रीम लेते आओ...

' आठ! माँ जी ने हैरानी से कहा... आठ किसके लिये... मैं थोड़ी खाउंगी...

फिर से, इसके पहले कि विमल किशोर बोलते, नई बहू ही चहकी ' वाह, क्यों नहीं खाएंगी मम्मी जी आप... नहीं बड़े भइया, आप आठ ही मंगवाइए... देखे कैसे नहीं खाती हैं मम्मी जी... मैं खिलाऊंगी न इन्हें...

आइसक्रीम आ गई...

सबके साथ-साथ एक आइसक्रीम सत्या को भी पकड़ा दी बसंत ने सत्या, न 'हां' कह सकी, न 'ना' ... काठ की तरह आंचल में आइसक्रीम थामें बैठी रही। आज तक उसने कभी सबके सामने इस तरह लाया ही नहीं था।

सबका ध्यान इस तरफ नई बहू और माँ जी के आइसक्रीम पर था। माँ जी न... न। करती आतीं... नई बहू हंसती हुई उनके मुंह से लगाती जाती... विमल किशोर से शरद तक सब मजा ले रहे थे।

सत्या ने धीमे से हाथ में पकड़ी आइसक्रीम गर्दन झुका कर धीमे से मुंह में लगाई पर उससे खायी ही न गई... सब आंगन में चल रहे शगल में मशगूल थे...

सत्या चुपचाप सबकी नजर बचा कर कमरे में जा गई. आइसक्रीम का एक जोर का कश खींचा और हिलक कर रो पड़ी।