विजय–जुलूस / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
नेताजी का विजय–जुलूस निकल रहा था। ‘जिन्दाबाद’ और ‘जय हो, जय हो’ के नारे लगाती हुई भीड़ आगे बढ़ी। जुलूस के आगे–आगे चलने वाला युवक सड़क के बीचों_बीच पड़ी लाश को देखकर झपटा। उसने टाँग पकड़कर लाश को घसीटा और एक किनारे कर दिया।
‘‘इसे भी आज ही मरना था।’’
‘‘जीकर क्या करता?’’
‘‘अपने देश में भिखारियों की संख्या बढ़ती जा रही है।’’
पास से गुज़रता एक भिखारी ठिठक गया–‘‘अरे! ये तो जोद्धा है।’’
‘‘जोद्धा! किस लड़ाई का जोद्धा?’’ किसी ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा।
‘‘आज़ादी की लड़ाई में गोलियाँ खाई थीं इसने साहब। हाथ–पैर छलनी हो गए थे। न किसी ने रोटी दी न काम दिया। भीख माँगकर पेट भरता था.....’’ भिखारी बोला।
उसने पास में मैली–कुचैली झोली उलट दी। कई बदरंग चिट्ठियाँ इधर–उधर बिखर गईं–जोद्धा को बड़े–बड़े नेताओं के हाथ की लिखी चिट्ठियाँ।
विजय–जुलूस आगे निकल चुका था।