विज्ञान, फंतासी और कवि / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 03 जुलाई 2019
वर्ष 1895 में लूमियर बंधुओं ने अपने मूवी कैमरे का प्रदर्शन किया। यह कैमरा चलते-फिरते मनुष्यों के चित्र भी ले सकता था और उन्हें प्रदर्शित भी कर सकता था। इस अवसर पर जादूगर मेबल वहां मौजूद थे और उन्होंने कहा कि इस कैमरे से वे अपनी जादू की ट्रिक्स को रोचक बना देंगे और अपनी ट्रिक्स को फिल्माकर फिल्म विधा में नए आयाम जोड़ देंगे। उन्होंने फिल्म बनाई 'जर्नी टू मून' जिसे पहली विज्ञान फंतासी माना जाता है परंतु विज्ञान फंतासी का सुनहरा दौर 1967 से शुरू हुआ, जब स्टीवन स्पिलबर्ग और उनके युवा साथियों ने विज्ञान फंतासी फिल्मों में दार्शनिकता को जोड़ दिया। उनकी फिल्म 'ई.टी.' एक क्लासिक है, जिसमें अंतरिक्ष से आए प्राणी की आंखों में आंसू हैं, जब वह जन्म स्थान पर लौट रहा है। राकेश रोशन ने अंतरिक्ष यात्री के आगमन और विदा पर फिल्म बनाई। स्टीवन स्पिलबर्ग की फिल्म 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' में नन्हा रोबो अपनी मालकिन के कैंसरग्रस्त होने पर रोता है। ये फिल्में मशीनों में भावना का स्पंदन प्रस्तुत करती हैं, जबकि यथार्थ में भावना हाशिए पर धकेल दी गई है।
'मैट्रिक्स' फिल्म में जीवन को मायाजाल कहा गया है। इस फिल्म में भविष्य का भयावह चित्र प्रस्तुत किया गया है, जब कंप्यूटर मनुष्य को अपनी बैटरीज में बदल देगा। कंप्यूटर द्वारा उत्पन्न किए गए लोग विश्व की मौजूदगी के भ्रम में जीवित रहेंगे,जबकि प्रदूषण और आणविक विकिरण सब कुछ नष्ट कर चुका होगा। कंप्यूटर संसार की सीमा के परे कुछ मनुष्य धरती के गर्भ में छिपे बैठे हैं। इन लोगों को विश्वास है कि पृथ्वी को बचाने वाले साहसी व्यक्ति का जन्म हो चुका है परंतु होता यह है कि यह साहसी अपनी ताकत से अनजान है और तानाशाह की गुलामी कर रहा है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि असली शत्रु मोह है और मोह के मायाजाल से मुक्त होना आसान नहीं है। सच तो यह है कि हम मायाजाल से मुक्त होना ही नहीं चाहते। यह भी मान लें कि जीवन एक रंगमंच है और हम सभी अपनी भूमिकाओं में रम गए हैं और इस रम जाने से हम मुक्त होना ही नहीं चाहते। यह भूमिका में रम जाना ही हमारा असली आनंद है। नीरद चौधरी लिखते हैं कि पुनर्जन्म की अवधारणा पर हमारा विश्वास इसलिए है कि हम बार-बार जन्म लेकर स्वादिष्ट भोजन करना चाहते हैं, शारीरिकता का आनंद भी अध्यात्म है, क्योंकि वे क्षण हमें समय और स्थान को भुलाने में मदद करते हैं। वात्स्यायन ने इसी पर जोर दिया है। इसी विषय पर एक चीनी दार्शनिक ने भी जोर दिया है। रूस का यूरी गागरिन पहला अंतरिक्ष यात्री था और अमेरिकी नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर पहला कदम रखा था। कुछ अन्य देश भी अंतरिक्ष विज्ञान पर खरबों डॉलर का पूंजी निवेश कर रहे हैं। हाल ही में चंद्रयान ने चांद पर पानी के चिह्न पाए हैं परंतु अभी इसकी पुष्टि नहीं हुई है। अगर वहां जल है तो जीवन की संभावना बढ़ जाती है।
साहित्य में भी चांद पर बहुत कुछ लिखा गया है। गुलजार के काव्य का मोटिफ ही चांद है। एक गीत की पंक्ति है, 'रात भिखारन लिए चांद कटोरा, धरती पर घूमती है'। दरअसल, गजानन माधव मुक्तिबोध ने चांद को कवियों की रूमानियत से आज़ाद कराते हुए लिखा, 'चांद का मुंह टेढ़ा' है। फिल्म गीतों में भी चांद की महिमा का बखान किया गया है। ऋषिकेश मुखर्जी की राज कपूर और नूतन अभिनीत 'अनाड़ी' का गीत है '…हम खो चले, चांद है या कोई जादूगर है/या मदभरी ये तुम्हारी नज़र का असर है/सब कुछ हमारा, अब है तुम्हारा/ ये बात क्या है, ये राज क्या है, कोई हमें बता दें'। ये पंक्तियां मुझे याद दिलाती हैं कि सिने कैमरे की ईजाद के समय जादूगर मेबल वहां मौजूद थे। फिल्म 'अनाड़ी' में ही शैलेन्द्र लिखते हैं, 'वो चांद खिला, वो तारे हंसे यह रात अजब मतवाली है'।
हमारे वामपंथी शायर निदा फाज़ली का नज़रिया अलग है। वे लिखते हैं, 'चारों ओर चट्टानें हाहिल, बीच में काली रात, रात के मुंह में सूरज और सूरज में कैदी सब हारा, नंगे पैर अकीदे सारे, पग-पग लागे कांटा'।
एक शताब्दी पूर्व कवि राल्फ एमर्सन अपनी 'ब्रह्मा' नामक कविता में लिखते हैं, 'मैं शंका करता हूं और स्वयं भी शंका हूं और मैं वह स्तुतिगान हूं, जिसे ज्ञानी गाता है।' दरअसल, मनुष्य तर्क के कारण शंका करता है और विज्ञान किसी भी विचार को बार-बार प्रयोगशाला में सही पाने के बाद यकीन करता है। हम इस समय तर्कहीनता के महोत्सव में मस्त हुए जा रहे हैं। 2022 में वैश्विक आर्थिक मंदी ही हमें इस मस्ती से बाहर निकालेगी। अर्थशास्त्र के विद्वान यह भविष्यवाणी पहले ही कर चुके हैं।