विज्ञान की कसौटी पर कला / अशोक कुमार शुक्ला
आलेख: ज्ञान- विज्ञान
विज्ञान और कला के बगैर आधुनिक जीवन की कल्पना करना असंभव है। परन्तु विभिन्न कलाआंे में विज्ञान के योगदान को हम कितना याद रखते हैं ? शायद बिल्कुल भी नहीं । वास्तव में विज्ञान एकत्रित ज्ञान है जबकि कला समस्त उपलब्ध संसाधनों के आधार पर मनुष्य के मनोभावों का निरूपण । अर्थात कोई वैज्ञानिक कार्य चाहे कितना ही महान क्यों न हो समय के साथ उसके वैज्ञानिक ज्ञान का समकालीन ज्ञान में समावेश हो जाता है । सच में किसी वैज्ञानिक का कार्य तभी उपयोगी होता है जब उसके समकक्ष वैज्ञानिकेां के द्वारा उसे स्वीकार किया जाता है । परन्तु विडंवना है कि शीध्र ही उस कार्य को पीछे छोडकर नया कार्य प्रारंभ कर दिया जाता है ।
विज्ञान मे ज्ञान की केवल सम सामयिक स्थिति ही महत्व्पूर्ण होती है क्यों कि भूत वर्तमान में समा चुका होता है । उदाहरण के लिये हम लोग संगीत के क्षेत्र में महान संगीतकारों बडे गंलाम अली खां या उस्ताद फैयाज खंा जैसे के संगीत को आज भी सुनते और उसकी सरााहना करते हैं । लियोनार्दाे दी विंची की महान कृति मोनालिसा की अनुकृतियां संसार भर के कला प्रेमियों द्वारा आज भी बडे शौक से खरीदी जाती है । आज भी शैक्सपेयर की और कालिदास की कृतियां पढी जाती हैं। किन्तु न्यूटन के वैज्ञानिक ग्रंन्थ प्रिसिंपिया मैथेमैटिका और आइन्सटाइन के मूल विज्ञान शोध पत्रों कोे अब अधिकांश लोग पढने की आवश्यकता नही समझते। वास्तव में विज्ञान के लिये यह महत्वपूर्ण भी हैं ।
प्रागैतिहासिक मानव द्वारा बनाया गया गुफा चित्र
प्रत्येक कला के क्षेत्र में व्यक्ति केा उसके अपने विश्वासों और भावनाओं के कारण ही आकषर्ण मिलता है इसके विपरीत वैज्ञानिक क्रिया कलाप हमेंशा वैयक्तिकता के कम करने तथा वस्तुनिष्ठ आधार बनाने का प्रयास करते हैं । सही विज्ञान की सार्वंभौमिकता है । कला के क्षेत्र मे जिन महान कलाकार और उनकी उपलब्धियों की चर्चा होती है वह वास्तव में संबंधित कलाकारों की व्यक्तिगत उपलब्धियां होती हैं और उन मील के पत्थरो को पाने के लिये किसी भी नये कलाकार को अपनी यात्रा पुनः शून्य से ही प्रारंभ करनी होती है ,और निरन्तर अभ्यास ही उसे उन मानकों के समरूप या उससे भी उंचे स्थान पर पहंुचा सकता है ।
इसके विपरीत विज्ञान का आधार प्रेक्षण और प्रयोग है । प्रेक्षण और प्रयोग वैज्ञानिक संक्रियाओं के अनिवार्य अंग हैं । पूर्व के वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर ‘वस्तुओ के वर्तमान स्वरूप’ की व्याख्या हेतु एक सैद्धान्तिक परिकल्पना का निर्माण करने के उपरान्त कुछ अरिवर्तनीय नियम अवधारित होते हैं जो वैज्ञानिक युक्ति के ऐसे मील के पत्थर होते हैं जहां से नया वैज्ञानिक अपनी यात्रा आरंभ करता है । निश्चित रूप से इस स्टेशन से अपनी या़त्रा आरंभ करने वाले को कुछ नयी यात्राये करते हुये आने वाले नये वैज्ञानिको के लिये नये मानक स्थापित करने होते हैं।
ब्रहमांड के बारे में मिश्र की 2700 वर्ष पूर्व की धारणाओं का तत्कालीन निरूपण
कला के क्षेत्र में प्रत्येक महारथी की अपनी विधा और अपना अलग मार्ग होता है जबकि विज्ञान के क्षेत्र में आपको पूर्व से स्थापित मार्ग पर ही चलकर आगंे बढना होता है । चित्रकला की ही बात करें तो प्रागैतिहासिक मानव द्वारा बनाये गये गुफाा चित्रों में आदि मानव का समूह में शिकार करने का दृष्य हो अथवा ब्रम्हांड के बारे में मिश्र की प्राचीन धारणाओं पर निर्मित तत्कालीन चित्र इनमें मानव मन में बसी भावनाओं का ही निरूपण प्रतीत होता है । आज इनकी व्याख्या वर्तमान परिपेक्ष में करने पर आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आते हैं ।
पहले चित्र में शिकार के लिये भटकते मनुष्यों का संघर्ष और शिकार की मनोदशा न्यूनतम रेखाओं के माध्यम से प्रदर्शित होती है। आज भी कला के पारखी अपने मनोभावों को न्यूनतम रेखाओं के माध्यम से प्रदर्शित करने वाली कृति को ही को ही श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में परिभाषित करतें हैं तथा कला विद्यालयों में न्यूनतम रेखाओं के आधार पर विषय का भाव पकडने का अभ्यास कराया जाता है ।
इसी प्रकार ब्रम्हांड के बारे में मिश्र की प्राचीन धारणाओं पर निर्मित 2700 वर्ष पुराने तत्कालीन दूसरे चित्र में आकाश की देवी नूट का चित्र अंकित है तथा उसके नीचे अंकित पवन के देवता शू के हाथों में अमरत्व प्रतीेक और उसके चरणों में भूमि के देवता गेब की पत्तियों से ढकी आकृति और प्रतिदिन सूर्य को आकाश में ले जाती नावें प्रदशित हैं । इस चित्र को वर्तमान कला के रूप में देखने की स्थिति में हमको यह बिल्कुल भी कालबाधित प्रतीत नही होतीं ।
यह किसी वर्तमान कलाकार के द्वारा की गयी सारे वृहमांड की मौलिक कल्पना की अनुभूति जैसी प्रतीत होती है । जबकि यह वास्तव में उस समय तक सृष्ठि के संबंध में उपलब्ध पूर्व ज्ञान और प्रेक्षणों के आधार पर ‘ क्यों ’ प्रश्न का उत्तर देने के लिये सामान्यता निर्मित होने वाले सैद्धांतिक ढांचे का प्रतिरूप है।
विज्ञान में एक परिकल्पना को सही सिद्व करने के लिये अनेक प्रयोग किये जाते हैं और उसके परिणामेंा के आधार पर नियम एवं सिद्धांतों का निर्माण होता है। प्रत्येक नियम कुछ विशिष्ट दशाओं में तथा एक निश्चित सीमाओं में ही सत्य होता है। नया प्रयोग नयी परिकल्पनायें देता है और नयी परिकल्पना वैज्ञानिक के मष्तिष्क में वैसा ही एक प्रतिरूप तैयार करता है जैसा किसी कलाकार के मन में उठे किसी विचार को कैनवास पर उतारने से पहले आता है । अन्तर केवल अभिब्यक्ति का होता है ।
जहां चित्रकार अपने विचार को दक्षता के साथ कैनवास पर उतार सकता है वहीं वैज्ञानिक उसे कैनवास पर उतारने की दक्षता नहीं रखता क्योेकि एक वैज्ञानिक का कैनवास दुनिया और समाज होता है जहां उसके अविष्कार सांसारिक बस्तियों में जाकर मनुष्य की जीवन शैलियों को प्रभावित करते हैं और उनके दैनिक क्रिया कलापों में उसका समावेश कुछ इस प्रकार होता है कि मानेा उन अविष्कारों के बगैर रहना कभी संभव ही न रहा हो। कला और विज्ञान