विज्ञान फंतासी ‘मां तुझे सलाम’ / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 जून 2020
विज्ञान की कोख से जन्मी फिल्म विद्या विज्ञान फंतासी फिल्में बनाकर अपनी कोख को आदरांजलि देती है। यह ‘मां तुझे सलाम’ माना जाना चाहिए। फिल्म बनने के प्रारंभिक काल से ही विज्ञान फंतासी फिल्में बनना प्रारंभ हो गया था। 1895 को लुमियर बंधुओं ने पेरिस के ‘इंडिया सलून’ नामक रेस्त्रां में अपने कैमरे का प्रदर्शन किया और कुछ फिल्में भी दिखाईं। वहां मौजूद मेबल जादू की ट्रिक्स दिखाने में दक्ष था। उसने कहा कि वह फिल्म विद्या का इस्तेमाल करके अपने तमाशे को नई धार देगा और तमाशे से फिल्में भी बनाएगा। उसकी विज्ञान फंतासी का नाम था ‘जर्नी टू मून’। नील ऑर्मस्ट्रांग के चांद पर कदम रखने के बहुत पहले फिल्म में आदमी चांद पर पहुंचा। कल्पना और विज्ञान का गहरा संबंध है। मनुष्य एक काल्पनिक विचार को बार-बार प्रयोग करके प्रमाणित करने का प्रयास करता है। प्रमाणित होने पर काल्पनिक विचार एक सिद्धांत में बदल जाता है। इसका संबंध शेख चिल्ली के ख्वाब या मुंगेरी लाल के सपने से नहीं है।
भारत में संस्कृत में लिखे महान ग्रंथों के अनुवाद से प्रेरित फिल्मों को ही विज्ञान फंतासी का एक रूप माना जा सकता है। अनुवाद करने वालों को भाषाओं का सतही ज्ञान था, जिस कारण हमारी मॉयथोलॉजी तर्कहीनता की मिसाल बन गई। इनसे प्रेरित फिल्में अत्यंत फूहड़ ढंग से बनाई गईं इस तरह भारत में मायथोलॉजी प्रेरित फिल्में विज्ञान फंतासी का पर्याय बन गईं। पश्चिम में विज्ञान फंतासी फिल्म भव्य बजट की होती हैं और आधुनिकतम उपकरणों से बनाई जाती हैं। एक विशिष्ट प्रकाशन संस्था ने इन कच्चे अनुवादों से प्रेरित सचित्र पत्रिकाओं और किताबों का प्रकाशन किया। इसका भयावह परिणाम यह हुआ कि तर्कहीनता और अतिरेक हमारी विचार प्रक्रिया का अविभाज्य अंग बन गया।
भारत में विज्ञान फंतासी बनती रही। अशोक कुमार अभिनात ‘मि. एक्स इन बॉम्बे’ ऐसी ही फिल्म थी। कालांतर में सलीम-जावेद की लिखी ‘मि. इंडिया’ को शेखर कपूर ने निर्माता बोनी कपूर के लिए बनाया। श्रीदेवी और अनिल कपूर अभिनीत इस फिल्म का बजट भव्य था। बोनी कपूर ने सुविचार करके अशोक कुमार को उस वैज्ञानिक की भूमिका दी, जिसने अपने परम मित्र और सहयगी के साथ अदृश्य होने के कीमिया पर काम किया था। इस तरह ‘मि. इंडिया’ भव्य पैमाने पर बनाई जाने वाली पहली भारतीय विज्ञान फंतासी फिल्म मानी जाती है। यह संभव है कि कोरोना प्रेरित विज्ञान फंतासी फिल्में बनाई जाएं। अगर हम पूरे विश्व में फैले वायरस को संग्रहित कर सकें तो उनका भार मुश्किल से दो ग्राम होगा, परंतु इसका दुष्प्रभाव आण्विक बम बिस्फोट की तरह हुआ है। आंकड़ों की हेराफेरी भी जादू का तमाशा है, परंतु सच छुपने वाला नहीं है। डॉ. शिवदत्त शुक्ला ने बताया कि भीषणतम गर्मी और निम्नतम टेम्परेचर में भी यह वायरस जीवित बना रह सकता है। ताप उसे मार नहीं सकता, गर्मी उसे पिघला नहीं सकती और अतिवृष्टि उसे बहा नहीं सकती। इस अर्थ में वायरस कमोबेश अनश्वर है। वायरस का जीवन इस पर निर्भर करता है कि उसे रहने के लिए मनुष्य शरीर प्राप्त होता रहे। अगर मनुष्य अनुशासित है और वह मेजबानी करने से इनकार कर दे तो मेहमान वायरस बेघरबार हो सकता है। वायरस के साथ भस्मासुर कथा दोहराई जा सकती है।
हम वायरस का आधार कार्ड छीन लें, तो वह चला जाएगा। राजकुमार हीरानी की ‘थ्री ईडियट्स’ में छात्र अपने सख्त मिजाज डीन को वायरस कहकर पुकारते हैं। हीरानी ने वायरस और केमिकल लोचा जैसे शब्दों को रोजाना जीवन की अलिखित डिक्शनरी में शामिल कर दिया है। साधनहीन मनुष्य असमान जीवन युद्ध का अपराजेय योद्धा रहा है और इस बार भी जीत उसी की होगी। राकेश रोशन ने बड़ी चतुराई से ‘ओम’ शब्द को विज्ञान फंतासी का कोड बनाकर उसे सीधा मायथोलॉजी से जोड़ दिया है। भारत में लोकप्रियता के रसायन में मायथोलॉजी का समावेश किया जाता है। तर्कहीनता को स्थापित करने का यह सोचा-समझा तरीका है। चुनाव में विजय का फॉर्मूला बना दिया गया है। हुक्मरान और अवाम दोनों ही इसमें रमे हुए हैं। बूढ़े कबीर के रोने का कोई सामाजिक अर्थ नहीं रहा। कबीर कहते हैं... "प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।"