विज्ञान भैरव तंत्र-28 / ओशो
अचानक रूकने की कुछ विधियां:
तंत्र-सूत्र—विधि—28 (ओशो)
अचानक रूकने की कुछ विधियां: विधि-4
चौथी विधि:
‘कल्पना करो कि तुम धीरे-धीरे शक्ति या ज्ञान से वंचित किए जा रहे हो। वंचित किए जाने के क्षण में अतिक्रमण करो।‘
इस विधि का प्रयोग किसी यथार्थ स्थिति में भी किया जो सकता है। और तुम ऐसी स्थिति की कल्पना भी कर सकते हो। उदाहरण के लिए लेट जाओ, शिथिल हो जाओ। और भाव करो कि तुम्हारा शरीर मर रहा है। आंखें बंद कर लो और भाव करो कि मैं मर रहा हूं। जल्दी ही तुम महसूस करोगे कि मेरा शरीर भारी हो रहा है। भाव करो: ‘मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं।‘
अगर भाव प्रामाणिक है तो तुम्हारा शरीर भारी होने लगेगा। तुम्हें महसूस होगा कि मेरा शरीर पत्थर जैसा हो गया है। तुम अपने हाथ हिलाना चाहोगे। लेकिन हिला नहीं पाओगे, क्योंकि वह इतना भारी और मुर्दा हो गया है। भाव किए जाओ कि मैं मर रहा हूं। मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं। और जब तुम्हें मालूम हो कि अब वह क्षण आ गया है, एक छलांग और कि मैं मर जाऊँगा। तब शरीर को भूल जाओ और अतिक्रमण करो।
‘कल्पना करो कि तुम धीरे-धीरे शक्ति या ज्ञान से वंचित किए जा रहे हो। वंचित किए जाने के क्षण में, अतिक्रमण करो।‘
जब तुम अनुभव करते हो कि शरीर मृत हो गया है, तब अतिक्रमण करने का क्या अर्थ है? शरीर को देखो। अब तक तुम भाव करते रहे थे कि मैं मर रहा हूं। अब शरीर मृत बोझ बन गया है। शरीर को देखा। भूल जाओ कि मर रहा हूं। अब द्रष्टा हो जाओ। शरीर मृत पडा है और तुम उसे देख रहे हो। अतिक्रमण घटित हो जाएगा। तुम अपने मन से बाहर निकल जाओ; क्योंकि मृत शरीर को मन की जरूरत नहीं होती। मृत शरीर इतना विश्राम में होता है कि मन की प्रक्रिया ही ठहर जाती है। तुम हो, शरीर भी है; लेकिन मन अनुपस्थित है।
स्मरण रहे, मन की जरूरत जीवन के लिए नहीं है। मृत्यु के लिए नहीं है। अगर तुम्हें अचानक पता चले कि मैं एक घंटे के अंदर मर जाऊँगा तो उस एक घंटे के अंदर तुम क्या करोगे। एक घंटा बचा है। और निश्चित है कि एक घंटे बाद, ठीक एक घंटे बाद तुम मर जाओगे। तो तुम क्या करोगे?
तुम्हारा विचार बिलकुल बंद हो जाएगा। क्योंकि सब विचारना अतीत से या भविष्य से संबंधित है। तुम एक घर खरीदने की सोच रहे थे। या एक कार खरीदना चाहते थे। या हो सकता है कि तुम किसी से विवाह की योजना बना रहे थे। या किसी को तलाक देना चाहते थे। तुम बहुत सी बातें सोच रहे थे। और वह सतत तुम्हारे मन पर भारी थी। अब जब कि सिर्फ एक घंटा हाथ में है तब न विवाह का कोई अर्थ है और न तलाक का। अब तुम सारी योजना उनके लिए छोड़ सकते हो जो जीने वाले है।
मृत्यु के साथ आयोजन समाप्त हो जाता है। मृत्यु के साथ चिंता समाप्त हो जाती है। क्योंकि हर आयोजन हर चिंता जीवन से संबधित है। कल तुम जीओगे, इसी कारण से चिंता होती है। और यही कारण है कि जो लोग ध्यान सिखते है वह सतत कहते है कि कल की मत सोचो। जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि कल की मत सोचो। क्योंकि कल की सोचोगे तो तुम ध्यान में नहीं उतर पाओगे। तुम चिंता में उतर जाओगे।
लेकिन हमें चिंताओं से इतना लगाव है कि हम कल की ही नहीं सोचते; आने वाले जन्म तक कि चिंता करते है। हम इस जीवन की ही नहीं सोचते आने वाले जीवन का भी आयोजन करते है। मृत्यु के बाद के जीवन की भी चिंता रहती है।
एक दिन मैं सड़क से गुजर रहा था कि किसी ने एक पुस्तिका मेरे हाथ में थमा दी। उसके मुख पृष्ठ पर एक बहुत ही सुंदर मकान का चित्र बना था। और उसके साथ ही एक सुंदर बग़ीचा भी था। वह सुंदर था। अद्भुत रूप से सुंदर था। और बड़े-बड़े अक्षरों में यह प्रश्न लिखा था; क्या तुम एकसा सुंदर घर और ऐसा सुंदर बग़ीचा चाहते हो? और वह भी बिना मूल्य के ‘’मुफ्त’’।
मैंने उस किताब को उलट-पुलट कर देखा; वह घर और बग़ीचा इस दुनियां के नहीं थे। वह ईसाइयों की पुस्तिका थी। उसमें लिखा था कि अगर तुम्हें ऐसे सुंदर घर और बग़ीचे की चाह है तो जीसस में विश्वास करो। जो लोग उनमें विश्वास करते है उन्हें प्रभु के राज्य में ऐसे घर मुफ्त में मिलते है।
मन कल की ही नहीं सोचता, वरन मृत्यु के बाद की भी सोचता है; वह अगले जन्मों के लिए भी व्यवस्था और आरक्षण करता रहता है। ऐसा मन धार्मिक नहीं हो सकता। धार्मिक मन कल की चिंता नहीं करता है। इसलिए जो लोग जन्मों की चिंता करते है वि सतत सोचते रहते है। कि परमात्मा उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा। चर्चिल मर रहा था और किसी ने उससे पूछा; ‘तुम स्वर्ग में परम पिता से मिलने को तैयार हो?’ चर्चिल ने कहा: ‘वह मेरी चिंता नहीं है; मुझे तो यह चिंता है कि परम पिता मुझसे मिलने को तैयार है?’ चाहे जो भी ढंग हो, तुम चिंता भविष्य की ही करते हो।
बुद्ध ने कहा है कि कोई स्वर्ग नहीं है और न कोई भावी जीवन है। और उन्होंने यह भी कहा है कि आत्मा नहीं है। और तुम्हारी मृत्यु समग्र ओर पूरी होगी। कुछ भी नहीं बचेगा।
इस पर लोगों ने सोचा कि बुद्ध नास्तिक है। वे नास्तिक नहीं थे। वे एक स्थिति पैदा कर रहे थे। जिसमें तुम कल को भूल जाओ और एक क्षण में, यहां और अभी जी सको। तब ध्यान बहुत सरल हो जाता है।
तो अगर तुम मृत्यु की सोच रहे हो—वह मृत्यु नहीं जो भविष्य में आएगी। तो जमीन पर लेट जाओ। मृतवत हो जाओ। शिथिल हो जाओ और भाव करो कि मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं। मैं मर रहा हूं। यह सिर्फ सोचो ही नहीं शरीर के एक-एक अंग में, शरीर के एक-एक तंतु में इसे अनुभव करो। मृत्यु को अपने भीतर सरकने दो यह एक अत्यंत सुंदर ध्यान –विधि है। और जब तुम समझो कि शरीर मृत बोझ हो गया है और जब तुम अपना हाथ या सिर भी नहीं हिला सकते, जब लगे कि सब कुछ मृतवत हो गया; तब एकाएक अपने शरीर को देखो तब मन वहां नहीं होगा। तब तुम देख सकते हो। तब सिर्फ तुम होगे चेतना होगी।
अपने शरीर को देखा। तुम्हें नहीं लगेगा कि यह तुम्हारा शरीर है। बस एक शरीर है। कोई शरीर, ऐसा लगेगा। अगर मन न हो, अनुपस्थिति हो, तो तुम नहीं कहोगे कि मैं शरीर हूं। या शरीर के बाहर हूं। तुम महज होगे। भीतर और बाहर नहीं होगे। भीतर और बाहर सापेक्ष शब्द खड़े होगे। तुम शरीर में नहीं होगे।
ध्यान रहे, मन के कारण ही अहं भाव उठता है कि मैं शरीर हूं। यह भाव कि मैं शरीर हूं मन के कारण है। अगर मन न हो, अनुपस्थित हो, तो तुम नहीं कहोगे। कि मैं शरीर हूं या शरीर के बाहर हूं। तुम महज होगे। भीतर और बाहर नहीं होगे। भीतर और बाहर सापेक्ष शब्द है। जो मन से संबंधित है। तब तुम मात्र साक्षी रहोगे। यही अतिक्रमण है।
तुम यह प्रयोग कई ढंगों से कर सकते हो। कभी-कभी वास्तविक स्थितियों में भी यह प्रयोग संभव है। तुम बीमार हो और तुम्हें लगता है कि अब कोई आशा न बची। मृत्यु निश्चित है। यह बहुत उपयोगी स्थिति है। ध्यान के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है।
और दूसरे ढंगों से भी इसका उपयोग कर सकते हो। कल्पना करो कि धीरे-धीरे तुम्हारी शक्ति क्षीण हो रही है। लेट जाओ और भाव करो कि समस्त अस्तित्व मेरी शक्ति को चूस रहा है। चारों और से मेरी शक्ति चूसी जा रही है। और शीध्र ही में नि: सत्व हो जाऊँगा। सर्वथा बलहीन हो जाऊँगा; मेरे भीतर कुछ भी नहीं बचेगा।
और जीवन ऐसा ही है। तुम चूसे जा रहे हो। तुम्हारे चारों और की चीजें तुम्हें चूस रही है। और एक दिन तुम मुर्दा हो जाओगे। सब कुछ चूस लिया जाएगा। जीवन तुम से जा चुकेगा और केवल शव पडा रह जायेगा।
इस क्षण भी तुम यह प्रयोग कर सकते हो। कल्पना कर सकते हो। लेट जाओ और भाव करो कि ऊर्जा चूसी जा रही है। थोड़े ही दिनों में तुम्हें साफ होने लगेगा। कि कैसे ऊर्जा बाहर जाती है। और जब तुम समझो कि सारी ऊर्जा बाहर निकल गई है, भीतर कुछ नहीं बची है, तब अतिक्रमण कर जाओ।
‘वंचित किए जाने के क्षण में, अतिक्रमण करो।‘
जब ऊर्जा का अंतिम कण तुम से बाहर जा रहा है। अतिक्रमण कर जाओ द्रष्टा हो जाओ मात्र साक्षी। तब यह जगत और यह शरीर दोनों तुम नहीं हो। तुम बस देखने वाले हो।
यह अतिक्रमण तुम्हें तुम्हारे मन के बाहर ले जाएगा। यह कुंजी है। और तुम अपनी पसंद के मुताबिक कई ढंगों से यह प्रयोग कर सकते हो। उदाहरण के लिए, हम लोग दौड़ने की बात कर रहे थे। उसमें ही अपने को थका दें। दौड़ते जाओ। खुद मत रुको। शरीर को अपने आप ही गिरने दो। जब शरीर का जर्रा-जर्रा थक जाएगा, तुम गिर पड़ोगे। और जब तुम गिर रह हो तभी सजग हो जाओ। सिर्फ देखो कि शरीर गिर रहा है।
कभी-कभी चमत्कारपूर्ण घटना घटती है। तुम खड़े रहते हो, शरीर गिर गया है, और तुम उसे देख सकते हो। तुम देख सकते हो, क्योंकि शरीर ही गिरा है और तुम खड़े हो। शरीर के साथ मत गिरो। चारों तरफ घूमों, दौड़ों, नाचो, शरीर को थका डालों। लेकिन ध्यान रहे, तुम्हें लेटना नहीं है। क्योंकि उस हालत में आंतरिक चेतना भी शरीर के साथ गति करके लेट जाती है। इसलिए लेटना नहीं है। तुम चलते ही चलो, जब तक कि शरीर अपने आप ही न गिर जाए। तब शरीर शव की तरह गिर जाता है। और तुरंत तुम्हें दिखाई देता है कि शरीर गिर रहा है और तुम कुछ नहीं कर सकते है।
उसी क्षण आँख खोलों, सजग हो जाओ। चूको मत। जागरूक होकर देखो कि क्या हो रहा है। हो सकता है। तुम खड़े हो और शरीर गिर पडा है। एक बार यह जान लो कि फिर तुम यह कभी न भूलोंगे कि मैं इस शरीर से पृथक हूं।
अंग्रेजी के शब्द ‘एक्स्टसी’ का यही अर्थ है। बाहर खड़ा होना। एक्स्टसी अर्थात बाहर खड़ा होना। अंग्रेजी में एक्स्टसी का प्रयोग समाधि के लिए होता है। और एक बार तुम समझ लो कि तुम शरीर के बाहर हो तो उस क्षण मन नहीं रह सकता। क्योंकि मन ही वह सेतु है जिससे यह भाव पैदा होता है कि मैं शरीर हूं। अगर तुम एक क्षण के लिए भी शरीर के बाहर हुए तो उस क्षण में मन नहीं रहेगा।
यह अतिक्रमण है। अब तुम शरीर में वापस हो सकते हो, मन में भी वापस हो सकते हो; लेकिन अब तुम इस अनुभव को नहीं भूल सकोगे। यह अनुभव तुम्हारे अस्तित्व का भाग बन गया है। यह सदा तुम्हारे साथ रहेगा।
इस प्रयोग को प्रतिदिन करो। और इस सरल प्रक्रिया से बहुत कुछ घटित होता है।
मन को लेकिन पश्चिम सदा चिंतित रहता है और उनके उपाय भी करता है। लेकिन अब तक कोई उपाय काम करता नजर नहीं आता। हरेक चीज फैशन बनकर समाप्त हो जाती है। मनोविश्लेषण अब एक मृत आंदोलन है। उसकी जगह नए आंदोलन आ गए है—एनकांउटर समूह है, समूह मनोविज्ञान है, कर्म मनोविज्ञान है—और भी ऐसी ही चीजें है। लेकिन वे फैशन की तरह आती है और चली जाती है। क्यो?
इसलिए कि मन के भीतर तुम ज्यादा से ज्यादा व्यवस्था ही बिठा सकते हो। आरे ये व्यवस्थाएं बार-बार उपद्रव में पड़ेगी। मन की व्यवस्था, उसके साथ समायोजन करना रेत पर घर बनाने जैसा है। ताश का घर बनाने जैसा है। वह घर सदा हिलता रहेगा। और यह डर सदा रहेगा कि अब गिरा तब गिरा। वह किसी भी क्षण गिर सकता है।
आंतरिक रूप से सुखी और स्वस्थ होने के लिए, संपूर्ण होने के लिए मन के पार जाना ही एकमात्र उपाय है। तब तुम मन में भी लौट सकते हो। और उसे उपयोग में भी ला सकते हो। तब मन यंत्र का काम करता है। और तुम उससे तादात्म्य नहीं रखते।
तो दो चीजें है। एक कि मन के साथ तुम्हारा तादात्म्य है। तंत्र के लिए यही रूग्णता है। दूसरे, मन के साथ तुम्हारा तादात्म्य नहीं रहा; तुम उसे यंत्र की तरह काम में लाते हो। तब तुम स्वस्थ और संपूर्ण हो।