विज्ञान व्रत: हिंदी का अलहदा ग़ज़लकार / हरेराम समीप
हिन्दी साहित्य में विज्ञान व्रत अपनी संवेदी, संवादी और प्रभावी ग़ज़लों के लिए मशहूर हैं। मुख्तसर औजान में शेर कहना और कहते चले जाना उनकी विशेषता है, अब यही उनकी पहचान बन गई है। वे हिन्दी ग़ज़ल को नयी शैली, नयी भंगिमा और नए तेवर प्रदान करने वाले एक विरले गज़लकार हैं। ख़ास बात यह भी है कि वे सबसे अधिक पढ़े और सुने जाने वाले ग़ज़लकार हैं। हिन्दी की लगभग सभी पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें प्रकाशित होती रहती हैं।
विज्ञान व्रत की रचनायात्रा दो धाराओं में बहती है ...एक ओर उनकी चित्रकारी और दूसरी ओर ग़ज़लकारी है। जहाँ वे राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक चित्र प्रदर्शनियाँ आयोजित कर चुके हैं और देश के उत्कृष्ट चित्रकार माने जाते हैं वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपने सात ग़ज़ल संग्रहों–बाहर धूप खड़ी है, चुप की आवाज, जैसे कोई लौटेगा, तब तक हूँ, मैं जहाँ हूँ, लेकिन गायब रोशनदान और मेरा चेहरा वापस दो' के जरिए हिन्दी ग़ज़ल को समृद्ध किया है।
हिंदी जगत में उनके लोकप्रिय शेरों की सदैव मांग रही है। कभी ग़ज़ल प्रेमियों द्वारा तो, कभी शोधकर्ताओं द्वारा।इसीलिए उनके चयनित अशआर एक पुस्तक में प्रकाशित करने का विचार बनाया गया है।
उनकी बेशुमार गजलों में से ये 600 श्रेष्ठ शेर चुनना बहुत कठिन काम था । किस शेर को छोड़ें किसे लें? ...सभी शेर एक से बढ़कर एक ... कुछेक की भाव सामर्थ्य तो किसी महाकाव्य या उपन्यास जितनी बृहत है तो गहराई किसी सागर-सी अनंत है...तात्पर्य यह कि संकलन में विज्ञान जी के उत्कृष्ट और अनूठे शेर रखे गए हैं।
विज्ञान व्रत के शेरों में छंद और भाषा की दृष्टि से मौलिकता है। 'मैं,' तुम 'और' वह' के सम्बोधनों के माध्यम से वे अपनी अनुभूतियों को सम्प्रेषित करते हैं। दूसरी बात कि वे शेर कहते हुए तात्कालिक या सामयिक सन्दर्भों से बचते हैं ...वे सामयिक घटनाओं को जज्ब कर उनको मानवीय प्रवृति से तौलते हैं हुए उन्हें शेर में रूपांतरित करते हैं।
घर को लेकर विज्ञान व्रत ने अनूठे और अनेकार्थी शेर लिखे हैं। उनके शेरों में 'घर' उपमान की आवृति अधिक है क्योंकि वे मानते हैं कि घर मनुष्य का सच है और यह 'सच' कैसे-कैसे तथा कहाँ-कहाँ हमें जीवनानुभूति प्रदान कर सकता है, यह देखने की बात है-
तुम हो तो यह घर लगता है
वरना इसमें डर लगता है
घर हो जाने की ख्वाहिश में
बस घर का सामान रहा हूँ
सारा जीवन घर बनवाया
लेकिन घर कितना रह पाया
यहाँ किसी आत्मीय की उपस्थिति घर का पर्याय बन गई है।
मैं कुछ बेहतर ढूँढ रहा हूँ
घर में हूँ घर ढूँढ रहा हूँ
और यह भी कि-
बाहर धूप खड़ी है कब से
खिड़की खोलो अपने घर की
धूप अर्थात् रोशनी यदि घर के बाहर खड़ी है तो तय है कि अँधेरा कहीं भीतर है, जिसे हटाने की बात विज्ञान कर रहे हैं। यह एक संश्लिष्ट बिम्ब है... यह शेर एक तरफ हमें नवता के अभिनंदन का संदेश दे रहा है। दूसरा उम्मीद
विज्ञान व्रत रिश्तों के पुंज को ही 'घर' शब्द से अभिहित करना चाहते हैं। घर, जिसमें वर्तमान में बिखरती जा रही सम्वेदनाओं से छीजते अहसास का स्पंदन मिलता है।
संवाद्धर्मिता शेर की तासीर होती है जैसे दो अन्तरंग बातचीत कर रहे हों। सम्बन्धों के बीच पसरी खामोशी को लेकर अह नायब शेर देखिये-
आ, चुप की आवाज सुनें
चल, गूँगे से बात करें
इस गूँगे होते समय में यह शेर और अधिक अर्थवान बन गया है। व्यक्ति से लेकर समाज और देश से पूरे विश्व में जो 'संवादहीनता' की विकराल समस्या पनप रही है। उसे खत्म करने का आह्वान करता शेर है। शेर दर शेर विज्ञान व्रत एक ऐसा मंजर रचते हैं कि पाठक खुद को एक उस वितान में रमा हुआ पाता है। उन्होंने आत्मसंवाद की शैली में भी ऐ शेर लिखे हैं-
मैंने खुद को ढूँढा है
खुद में गुम हो जाने तक
'ढूंढ़' शब्द की जो आवृति इनकी ग़ज़लों में बार-बार होती है, वह रचनाकार की शाश्वत तलाश का प्रमाण देती है। ...कभी घर ढूँढ़ते हैं, कभी बेहतर जीवन स्थिति की तलाश है, तो कभी अपने कद के साथ बढ़ती चादर खोजते मिलते हैं और इस मंजर में हमें अपने संग बहा ले जाते हैं ...एक शेर बानगी के रूप में देखें-
मेरे कद के साथ बढ़े जो
ऐसी चादर ढूँढ रहा हूँ
ऐसे शेर लम्बे अरसे तक पाठक के मन में बरकरार रहते हैं। ग़ज़लकार में जो अव्यक्तता मौजूद है, उसमें झांकने के लिए उनके ये शेर वे झरोखे हैं जहाँ से उनके अंतस को देखा, परखा, जाना और समझा जा सकता है। उनकी सोच और चिन्तन की व्यापकता का परिचय देते हुए स्वयं विज्ञान कहते हैं-
पल भर में क्या समझोगे
मैं सदियों में बिखरा हूँ
मैं था तन्हा एक तरफ
और ज़माना एक तरफ
विज्ञान की शायरी की जड़ें अपने गाँव में हैं। उनमें देशज संस्कार धड़कते हैं। नगर में रहकर भी वे नगर के नहीं हैं। उनमें उनका जनपद जीवित है-
देख शहर में रहना है तो
मन में रखना गाँव बचाकर
विज्ञान अपनी तरफ से यहाँ कोई बड़ी बात नहीं बोलते बल्कि किसी बड़ी बात का ऐसा सूत्र पाठक के पास छोड़ देते हैं कि पाठक शेर के आईने में अपनी जीवन-अनुभूतियों को याद करने लगता है और यही बात शेर की मूल्यवत्ता बन जाती है। उदाहरणार्थ समाज में बढ़ते सांप्रदायिक वातावरण पर वे यूँ शेर कहते हैं-
घर के आगे पूजाघर है
देखो उसको कितना डर है
तू घर भी खो बैठेगा
मंदिर-मस्जिद मत बनवा
विज्ञान अपने हुक्मरान को समझता है तभी कह उठता है-
ऊंचे लोग सयाने निकले
महलों में तहखाने निकले
यह शेर वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के नकलीपन का पर्दाफाश करता बेहद चुटीला है–
जिनको पकड़ा हाथ समझकर
वो केवल दस्ताने निकले
इतनी नफ़रत, अलगाव और जीवन की अनेक विद्रूपताओं के बीच आदमी की अस्मिता व पहचान के लिए विज्ञान व्रत की छटपटाहट साफ़ महसूस होती है। दरअसल विज्ञान दर्द का शायर है, संघर्ष का शायर है। वह जानता है संघर्ष ही जीवन का उत्स है-
तपेगा जो। गलेगा वह ।।
गलेगा वह। ढलेगा वह।
अध्यात्म, दर्शन और प्रेम का निरूपण करते उनके अनेक शेर लोकप्रिय हुए हैं । जो आम जन को वे अपने से लगते हैं, उन्हें राह दिखाते, मन में उजाला भरते हैं। तब वे हमें कबीर और भक्त कवियों के करीब जाते नजर हैं। अध्यात्म उनके ग़ज़ल सर्जन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष बन गया है। चूँकि उनका सान्निध्य संत मुरारी बापू के साथ रहता है अत: यहाँ अद्वैत का यह बोध उनके लेखन को निरंतर प्रभावित करता है। कुछ शेर देखें-
मैं खिड़की वह परदा है
देखो तो क्या रिश्ता है
ढूँढना क्या है तुझे
मैं जहाँ हूँ तू वहाँ है
जो तू मेरा हो जाता
मैं हो जाता एक तरफ
इस तरह तग़ज्जुल या ग़ज़लियत हर ग़ज़लकार में अपने ही ढंग से आती या यह कि–
बाकी सब कुछ खर्च हुआ
बस मैं अपने पास बचा
आशय यही है कि उनके शेरों की उत्कृष्टता ने विज्ञान व्रत के ग़ज़ल प्रेमियों को अपना मुरीद बना लिया था। विज्ञान उम्मीद के ग़ज़लकार हैं, संभावना के ग़ज़लकार हैं, मनुष्यता के ग़ज़लकार हैं...इनमें संवेदना के अनेक रंग मिलते हैं। इन शेरों में उनका शब्द और अर्थ वैभव अद्वितीय है। इसीलिये कहा जा सकता है कि विज्ञान व्रत हिन्दी ग़ज़ल यात्रा के एक मील के पत्थर हैं।
किसी रचनाकार की श्रेष्ठता की कसौटी भी यही होती है कि वह व्यष्टि से समष्टि तक की यात्रा किस तरीके से करता है। मैं, तू, हम और वह सम्बोधनों के माध्यम से विज्ञान व्रत ने `जिस तरह से भावाभिव्यक्ति की है वह अनूठी है। ऐसा लगता है जैसे यहाँ व्यष्टि का समष्टि में विसर्जन हो रहा है। इसी विसर्जन की ही उपादेयता है, समाज में उसका विलय हो जाना, स्वयं को समाज से मिला देना समाज को समृद्ध करता है, देश को सुदृढ़ करता है।
उनके अशआर तगज्जुल से भरे होते हैं। उनके अनेक शेर इस संदर्भ में रेखांकित किए जा सकते हैं। शिल्प की दृष्टि से विज्ञान व्रत की ग़ज़लें साफ सुथरी, निखरी और तराशी हुई होती हैं। विज्ञान व्रत अपनी गजलों की भाषा को धार देने में बहुत मेहनत करते हैं, इसीलिए उनके शेर इतने असरदार इतने टिकाऊ होते हैं। प्रत्येक शेर को तराशना और उसे नई चमक देना विज्ञान का हुनर है। विज्ञान व्रत हिन्दी–उर्दू के विवाद को भी बेबुनियाद मानते हैं। भाषा के प्रति उनमें खिन कोई संकीर्णता या कट्टरता नहीं है। वे जो आमफहम शब्द होता है वही प्रयोग करते हैं चाहे वह किसी भाषा से आया हो ...यही वजह है कि आज वे कलात्मकता के शिखर पर हैं ।हिंदी भाषा का जो अपना बोलचाल का मुहावरा है वह उनकी ग़ज़लों में बखूबी प्रयुक्त हुआ है। सिर्फ छोटी बहर में ही शेर कहना स्थायी शिल्प बन गया है। छोटी बहर के प्रति उनकी एकाग्रता चकित करती है। एक विशेष शिल्प में अपनी सम्पूर्ण रचनात्मकता को समेटना न केवल कठिन होता है बल्कि जोख़िम भरा भी होता है। रचनाकार में शैली वैशिष्टय के स्थान पर शैली–वैविध्य को वांछनीय माना जाता है। अर्थात उनके ये चुनिन्दा अशआर का संकलन न केवल पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी है।
विज्ञान व्रत के शेर बतियाते हुए शेर हैं। इनमें सार्थक बिम्ब और शब्द–योजना भी सीधी–सादी है। यह ग़ज़लकार अपने समय से सदैव बतियाता हुआ मिलता है। इसीलिए उनके शेरों में सूक्तियाँ हैं, संदेश हैं, मशविरे हैं, मूल्यवान सीख हैं-
मैं तो खुद को बाँट चुका हूँ
जाने किसने कितना रक्खा
वास्तव में ग़ज़ल तर्क की नहीं बल्कि संवेदना की मांग करती है और वह यहाँ भरपूर है ... अंतर्मन में जैसे कोई संवाद चल रहा हो। उन्होंने जीवन को इतना अधिक निकट लाने का प्रयास किया है। वे अपने कविकर्म के प्रति नितांत जागरूक हैं । विज्ञान ने पूरी तन्मयता और सम्पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ गजलें कही है। अत: निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि कहा जा सकता है कि विज्ञान की गजलें निर्विवाद रूप से हिन्दी की गजलें हैं, जो हिन्दी कविता में एक सार्थक गूँज बनकर उपस्थित रहेंगी और हिन्दी ग़ज़ल को निरन्तर समृद्ध करेंगी।
विज्ञान शेर कहते हुए सदैव अतिशय भावुकता से बचते हैं यह उनकी गजलें उनकी परिपक्वता और गंभीरता का परिचय देती हैं इन शेरो में मानवीय सरोकार के विविध रंग बिखरे पड़े हैं। विज्ञान की गजलों का-का कथ्य कहीं से कमजोर नहीं पड़ता।वास्तव में ग़ज़ल समकालीन विसंगतियों का दस्तावेज है।
उनके यहाँ जीवन पूरी समग्रता में आया है यहाँ मार्के की बात है कि व्यक्ति-व्यक्ति है न स्त्री न पुरुष यह मानवीय स्वर है न किसी तरह की क्षेत्रीयता न गाँव शहर का अंतर दिखाई देता है...विज्ञान के लिए ग़ज़ल एक महत्त्वपूर्ण विधा है, जिसके लिए वे ताउम्र समर्पित रहे हैं। विज्ञान ने हिन्दी ग़ज़ल को नए संस्कार दिए.
उनके लिए ग़ज़ल एक संजीदा और शालीन विधा है, जहाँ अपनी बात बड़े सलीके से कही जाती है ।कोई क्रोध, कोई आक्रोश कोई तनाव नहीं। वे न बचाव की मुद्रा में रहते हैं न कहीं आक्रामक मुद्रा में। उनके यहाँ न प्रतिबद्धता की छद्म घोषणाएँ मिलती हैं और न जीवन के फलसफे पर या आध्यात्मिकता पर शेर कहते हुए कोई सूफियाना लबादा ओढ़ा गया है। कथ्य के स्तर पर भी ये गजलें वर्तमान जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्तियाँ बनने का प्रयास करती लगती हैं, जो आत्मपरकता की राह पर चलते-चलते कभी आत्मनिष्ठता की परिधि में प्रवेश कर जाती हैं; लेकिन संवेदना की अँगुली कभी नहीं छोड़तीं हैं। भाव, भाषा और शिल्प के धरातल पर भी विज्ञान की ये ग़ज़लें परिपक्व और समृद्ध ग़ज़लें हैं, जो अपनी अलग पहचान बनाती हैं। मजाल है कहीं एक शेर भी बेबहर या आरोपित मिले। मुझे तो ये ग़ज़लें उर्दू की गुफ्तगू शैली और हिन्दी गीत की वाचिक शैली के बेहतरीन सामंजस्य का नमूना लगती हैं; इसीलिए मुझे विश्वास है कि विज्ञान जी के चुनिन्दा अशआर का यह संकलन हिन्दी ग़ज़ल के विकास में एक मील का पत्थर साबित होगा।