विज्ञापन का मुर्गा और सूर्य उदय / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :13 सितम्बर 2016
हुकूमते बरतानिया के प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल ने दूसरे विश्वयुद्ध के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उन्हें उसका नायक भी माना जा सकता है। ब्रिटेन के सामान्य नागरिक ने भी अपना दायित्व बखूबी निभाया। उस समय की एक घटना इस तरह है कि एक व्यक्ति मुंह में सिगरेट दबाए, हाथ में माचिस लिए उस समय तक इंतजार करता रहा जब तक दूसरा तलबगार नहीं आया, ताकि एक तीली से दोन-तीन लोग सिगरेट जला सकें। यह राष्ट्रीय साधनों की मितव्ययता के लिए किया गया। नागरिक का यह चरित्र ही देश की असली ताकत होता है। दूसरी घटना यह है कि चर्चिल खास ब्रैंड का चुरूट ही पीते थे और उस कंपनी ने उनसे गुजारिश की कि वे इसके विज्ञापन में उनके नाम को शामिल करने की आज्ञा दें तो चर्चिल ने विज्ञापन का हिस्सा होने से इनकार कर दिया। वे अपने प्रधानमंत्री पद की गरिमा के प्रति अंत्यंत सजग थे।
इसी तरह ब्रिटेन के रंगमंच और सिनेमा के महान कालाकार सर ऑलिवर ने उस ब्रांडी का विज्ञापन करने से इनकार किया, जिसका इस्तेमाल वे स्वयं करते थे। पांचवें-छठे दशकों में लोकप्रिय सितारे दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद ने भी विज्ञापन के लुभावने प्रस्ताव को अस्वीकार किया। वे सितारा पद की गरिमा को अक्षुण्ण रखना चाहते थे। एक बार नई दिल्ली के चुनाव में राजेश खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा एक-दूसरे के सामने थे। राजेश खन्ना ने शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा एक विज्ञापन में काम करने को अपने पक्ष में खूब भुनाया और चुनाव जीत गए।
हाल ही में भारत के सबसे धनाढ्य उद्योगपति ने अपने विज्ञापन में भारत के प्रधानमंत्री की तस्वीर प्रमुखता से शामिल की और इसके लिए वे प्रधानमंत्री के दफ्तर से विधिवत आज्ञा ले चुके थे। इस बात से यह संकेत मिलता है और पुरानी धारणा की पुष्टि भी होती है कि वर्तमान सरकार व्यापारियों की सरकार है। यह व्यापारियों द्वारा चुनी गई, व्यापारियों के लिए बनी सरकार है परंतु यथार्थ में कोई भी व्यापार सेक्टर प्रसन्न नहीं है। बड़े नगरों में इमारतें बनाने वाले इसलिए दु:खी हैं कि सरकारी दफ्तरों में रिश्वत अधिक मांगी जाती है और बिल्डर तो रिश्वत में दी गई राशि को अपनी लागत में शुमार कर लेता है परंतु इस तरह की बढ़ी हुई दरों के ग्राहक नहीं हैं। ये कैसे अच्छे दिन आए हैं कि हर क्षेत्र में व्यापारी और अवाम दु:खी है। प्रसिद्ध संस्थाएं विधिवत ढंग से नष्ट की जा रही हैं। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि फौज में सांप्रदायिकता का जहर धीरे-धीरे बढ़ाया जा रहा है। राहुल बोस अभिनीत 'शौर्य' के अंत में उन सब सच्ची घटनाओं का उल्लेख है, जो हो चुकी हैं। भारतीय समाज व सेना की बुनावट में सांप्रदायिकता का प्रवेश सबसे अधिक चिंता की बात है। एक धर्म विशेष के योग्य व्यक्ति को भी मेजर के पद के ऊपर तक जाने नहीं दिया जाता। अंग्रेजों ने अपनी बांटकर शासन की करने की नीति के तहत ही राजपूत रेजीमेंट, महार रेजीमेंट, गुरखा रेजीमेंट इत्यादि की रचना की थी। हमने उसी संरचना को उग्र बना दिया है गोयाकि हम भविष्य की ओर नहीं जाते हुए विभाजित अतीत में लौटने के लिए व्याकुल नजर आ रहे हैं। किसी भी देश के लिए अपने अतीत पर गर्व करना उचित है परंतु इसी भावना की अति कर देने से एक किस्म का संवेदना का आतंकवाद प्रारंभ हो जाता है। हमने अपने अतीत को बहुत गरिमा मंडित करते हुए रोमांटीसाइज कर लिया है। यह कड़वे यथार्थ से भागने की हमारी प्रवृत्ति है। विज्ञापन विधा का यह स्वर्ण काल है। केंद्र व प्रांतों की सरकारें विकास के आंकड़ें लगातार प्रकाशित कर रहे हैं, जबकि सच्चे विकास को किसी विज्ञापन की आवश्यकता नहीं है। सरकार ने यह हाल कर दिया है कि अगर विज्ञापन का सूर्य नहीं उगे तो सवेरा ही नहीं हो सकता। विज्ञापन शासित युग की अधिकारिक घोषणा प्रतीत होता है वह विज्ञापन। बाजार में खरीददार जाता है और विज्ञापन की अनुगूंज उसके मन में होती है।
यह बाजार शास्त्र इतना महत्वपूर्ण हो चुका है कि ऐसी किताबें भी लिखी जा रही हैं कि मल्टी बाजार में दुकानों की साज-सज्जा ऐसी हो कि ग्राहक बिना खरीदे नहीं लौटे गोयाकि माल से अधिक उसकी पैकिंग को आकर्षक बनाया जाता है। विज्ञापन संसार इतना शक्तिशाली है कि वह लोगों के निर्णय को प्रभावित करता है। विगत कुछ समय से एक चुनाव विशेषज्ञ बहुत बड़ा सितारा हो गया है।
उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश संसद में भारत में अंग्रेजी शिक्षा का बिल प्रस्तुत हुआ और विरोध यह था कि अंग्रेजी सीखकर ऑक्सफोर्ड में आने वाले भारतीय स्वतंत्रता की अलख अपने देश में जगाएंगे। बिल प्रस्तुत करने वाले लॉर्ड मैकाले का कथन था कि आप कभी किसी देश को हमेशा गुलाम नहीं रख सकते परंतु अंग्रेजी भाषा अौर शिक्षा व्यवस्था भारत में अंग्रेजियत को लंबे समय तक जिंदा रखेगी। आज भी लॉर्ड मैकाले ही सर्वत्र गूंज रहे हैं।