विज्ञापन फिल्म मे निहित अर्थ / जयप्रकाश चौकसे

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विज्ञापन फिल्म मे निहित अर्थ
प्रकाशन तिथि : 07 जनवरी 2013


आजकल टेलीविजन पर चॉकलेट का एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है, जिसमें रेखा ने अभिनय किया है। शायद पहली बार रेखा ने कोई विज्ञापन फिल्म की है। इसी फिल्म के आखिरी शॉट में उर्मिला मातोंडकर भी बहुत दिन बाद परदे पर नजर आई हैं। खबर है कि इस विज्ञापन फिल्म का आकल्पन और निर्देशन 'जब वी मेट' तथा 'रॉकस्टार' के लिए प्रसिद्ध फिल्मकार इम्तियाज अली ने किया है। विज्ञापन फिल्म में क्रिकेट खिलाड़ी मैच खेलने जा रहे हैं और पीछे की सीट पर रेखा बैठकर चिड़चिड़ाहट और नाराजगी प्रगट कर रही हैं तथा हैंड ग्लव्ज को पसीने की दुकान कहकर फेंक देती है। अगली सीट पर बैठा व्यक्ति रेखा को चॉकलेट देकर कहता है कि हमारा यह पुरुष खिलाड़ी भूख लगने पर ऐसा बर्ताव करता है और अगले ही शॉट में जहां रेखा बैठी थीं, वहां एक पुरुष बैठा चॉकलेट खा रहा है। इसी तरह मैदान पर पहुंचते ही कार से निकल उर्मिला चिढ़कर कहती हैं कि क्या उन्हें मात्र ड्राइवर समझा है, वह नहीं खेलेंगी। उन्हें भी चॉकलेट दी जाती है।

क्या इस विज्ञापन से यह जाहिर नहीं होता कि भूख को स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया गया है, गोयाकि भूख पुरुष को नहीं लगती। यह गौरतलब है कि जीवन के अधिकांश क्षेत्रों में कमतरी, कमजोरी इत्यादि को इसी तरह महिला रूप में प्रस्तुत करना हमारे पूरे पुरुषप्रधान सोच का द्योतक है। बातचीत में प्रयुक्त तमाम अपशब्द भी स्त्री को ही संबोधित किए जाते हैं। कोई भी अपशब्द पुरुषकेंद्रित नहीं है। अनकरीब सभी भारतीय भाषाओं में अपशब्द इसी तरह रचित हैं। अगर हम दैनिक क्रियाओं और सामाजिक जीवन को गौर से देखें तो स्त्रीविरोधी नजरिया आपको सभी जगह दिखता है। इस सोच की जड़ तक पहुंचने का प्रयास कीजिए, आपकी यात्रा पुरातन आख्यानों और किंवदंतियों के लोकप्रिय संस्करणों तक जाती है। इसके अतिरिक्त इतिहास की युद्ध गाथाओं का अध्ययन कीजिए कि पराजित राजाओं के साथ कैसा व्यवहार किया गया है? पराजित देश की स्त्रियों के प्रति कैसा व्यवहार किया गया है? गौर करें कि जमीन ज्यादा जोती गई है या स्त्रियां ज्यादा रौंदी गई हैं?

हमारे विवाह की रस्मों में दूल्हे को योद्धा की तरह सजाया जाता है और दुल्हन को विजित जमीन की तरह समझा जाता है। दो परिवार पावन रिश्ते में बंधने जा रहे हैं तो युद्धाचार क्यों अपनाया जाता है? सहज-साधारण ढंग से यह पावन काम क्यों नहीं किया जा सकता? क्यों बाराती स्वयं को घराती से अधिक महत्वपूर्ण समझता है? विवाह में 'कन्यादान' होता है, परंतु सप्तपदी में पत्नी को पुरुष के समकक्ष माना जाता है, जबकि दान वस्तुओं या वचन का होता है। युधिष्ठिर भी दान में प्राप्त वस्तु को ही दांव पर लगाकर हारे? लगता है कि 'कन्यादान' की विधि और सप्तपदी दो अलग-अलग लोगों ने रची हैं। सच तो यह है कि धर्म का मूल न्यायसंगत है, परंतु उसके लोकप्रिय संस्करण व उसकी व्याख्याएं स्वार्थवश रची गई हैं और विरोध इस व्याख्या का है, धर्म का नहीं। इन आख्यानों में जगह-जगह द्वंद्व दिखाई पड़ता है।

यह लोकप्रिय कहावत है कि युद्ध का कारण जर (धन), जोरू (पत्नी) और जमीन है, जबकि सच्चाई यह है कि सारे युद्ध उस समय लड़े गए, जब तर्क का लोप हुआ और मनुष्य ने सोचना बंद कर दिया। अनेक युद्ध अहंकार के कारण या भय के कारण हुए हैं, परंतु हर विवाद में 'औरत' को घसीट लिया जाता है। यह विचार-शैली ही घातक है। प्राय: घरों में बेटों को दूध पिलाते हैं, बेटी को नहीं देते कि वह जल्दी बड़ी हो जाएगी तो दहेज का प्रबंध करना होगा। घरों में बेटियों को पराया धन कहकर क्यों पाला जाता है? समाज के दैनंदिन व्यवहार में ही भेदभाव समाया हुआ है और छोटी-सी बातें कहकर उन्हें अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।

उस विज्ञापन फिल्म में कदाचित अनचाहे ही भूख और उससे उत्पन्न खीझ को स्त्री के साथ जोड़ दिया गया है। अकाल के अध्ययन और आंकड़ों से सिद्ध होता है कि लंबे समय तक भूख को सहन करके बचने वालों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक रही है। सारे तथ्य एवं आंकड़े हजारों वर्षों में बने पूर्वग्रह के सामने फीके पड़ जाते हैं। हरिवंशराय बच्चन जैसा विद्वान व्यक्ति भी लिखता है कि उनके व्यक्तित्व में प्रबल नारी ने उनसे कविता लिखाई है। उनकी बात छोड़ भी दें तो यह लोकप्रिय मान्यता है कि पुरुषों में विद्यमान नारीत्व सृजन कराता है। फिर इस महान जीवन ऊर्जा के साथ असमानता का व्यवहार क्यों किया जाता है? नदी और नारी के प्रति हमारे अन्याय की कहानी पहाड़ों से पुरानी है।