विज्ञापन शक्ति से संचालित सीरियल संसार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :29 मार्च 2018
छोटे परदे पर प्रस्तुत सीरियल में एक संवाद अदा होते ही विज्ञापन आ जाता है। यह माना जाता रहा है कि आधे घंटे के कार्यक्रम में 22 मिनट कथा कही जाएगी और आठ मिनट विज्ञापन के लिए आरक्षित होंगे। आज यह नियम टूट रहा है। इस तरह चैनल स्वयं अपने लोकप्रिय कार्यक्रम के प्रभाव को घटा रहे हैं। यह सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मारने जैसा है। यह कथा के अभाव के कारण किया जा रहा है, जबकि देश में कथाकारों का अभाव नहीं है परंतु व्यवस्था के लोह कपाट नए कलाकारों के लिए खोले नहीं जाते। कुछ प्रतिभाहीव परंतु जुगाड़ू लोग इस द्वार पर 'खुल जा सिम सिम' बोलने का रहस्य जानते हैं। मुंशी प्रेमचंद और सआदत हसन मंटो भी फिल्मों में लिखने का प्रयास कर चुके हैं परंतु वे वहां जम नहीं पाए। बाद में मुंशी प्रेमचंद की 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'सद्गति' पर सत्यजीत रे ने फिल्में बनाई और उनकी 'दो बैलों की कहानी' पर आधारित फिल्म 'हीरा-मोती' जेटली नामक एक फिल्मकार ने बनाई जिसका कोई रिश्ता मंत्री जेटली से संभव नहीं लगता। सआदत हसन मंटों के अफसानों पर फिल्म बनाने के लिए वयस्क होना जरूरी है परंतु फिल्मकार अपने बचपने से उबरना ही नहीं चाहते। बचपन का अर्थ बोतल द्वारा दूध पीना भी हो सकता है, जिसका यह लाभ है कि अन्य देशों की फिल्मों से विचार चुराने की छूट मिल जाए।
विज्ञापन कला अपने आप में पूरा संसार है। बहुत पहले की घटना है कि अमेरिका में एक विज्ञापन फिल्म पर अभद्रता का आरोप लगा। गहन छानबीन से यह बात सामने आई कि चतुर सुजान फिल्मकार ने हर पांचवीं फ्रेम में निर्वस्त्र महिला का शॉट शामिल किया था। परदे पर यह नज़र नहीं आता था परंतु दर्शक के अवचेतन में दर्ज होता था। ज्ञातव्य है कि एक सेकंड में 24 फ्रेम दिखाई जाती हैं। पांचवीं फ्रेम क्षणांश में गुजर जाती थी परंतु अवचेतन में दर्ज हो जाती थी और यही बात विज्ञापन देने वाला चाहता भी था। ज्ञातव्य है कि चलती-फिरती तस्वीरें लेने वाले कैमरे के ईजाद के कुछ समय पश्चात ही फ्रांस के दार्शनिक बर्गसन ने कहा था कि यह कैमरा मनुष्य मस्तिष्क की अनुकृति मात्र है। मनुष्य की आंख कैमरे के लेंस की तरह है जो चित्रों को मस्तिष्क में स्थिर चित्रों के रूप में जमा करता है और चित्र देखकर एक विचार पैदा होता है जो उन स्थिर चित्रों को चलायमान कर देता है।
क्या यह संभव है कि कोई उद्योगपति केवल एक विज्ञापन दे कि उसका उद्योग विज्ञापन पर खर्च नहीं करके, अपने प्रोडक्ट के दाम कम कर देगा। हमेशा उत्पादन व्यय, विज्ञापन व्यय और इन दोनों के जमा जोड़ पर मुनाफा जोड़ने के बाद कुल मूल्य पर वस्तुएं बेची जाती हैं। इसमें खेरची व्यापारी का कमीशन भी जोड़ दिया जाता है। श्याम बेनेगल, प्रसून जोशी, आर. बाल्की और उनकी पत्नी गौरी शिंदे विज्ञापन संसार से ही फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आए हैं। इन लोगों ने मनोरंजक सोद्देश्य फिल्में बनाई हैं। श्याम बेनेगल ने तो एक दुग्ध सहकारिता संस्था के लिए 'मंथन' बनाई थी। फिल्म का मुनाफा सदस्यों में ही बांटा गया और उन्होंने टिकट खरीदकर फिल्म भी देखी, क्योंकि वे जानते थे कि 'घी' उनकी कटोरी में ही आएगा।
छोटे परदे का बड़ा संसार 'टीआरपी' रेटिंग पर आधारित है। एक संस्था ने कोई 6 हजार टेलीविजन सेट्स पर एक यंत्र लगाया है और उन पर देखे जाने वाले कार्यक्रम लोकप्रियता का मानदंड हैं। यह एक दोषपूर्ण प्रणाली है। भारत जैसे बड़े एवं विविधता वाले देश में यह व्यवस्था सही परिणाम नहीं देती। लोकप्रियता मानदंड के मीटर ग्रामीण क्षेत्र में लगाए ही नहीं गए हैं। महानगरों में रुचियों के दोषपूर्ण आकलन को पूरे देश का आकलन नहीं माना जा सकता। प्राय: विज्ञापन फिल्म तीस या साठ सेकंड की होती है, अत: उन्हें गागर में सागर समाना होता है। विज्ञापन के सूत्र वाक्य पर बहुत मेहनत की जाती है। इस क्षेत्र में कार्यरत लोगों को महात्मा गांधी के भाषणों का अध्ययन करना चाहिए। गांधीजी द्वारा दिया गया सूत्र वाक्य 'भारत छोड़ो', 'क्विट इंडिया' अत्यंत प्रभावोत्पादक सिद्ध हुआ था।
गौरतलब है कि बच्चे विज्ञापन फिल्म में कहे गए संवाद प्राय: बोलते हैं। बच्चों पर यह असर कोई ऐसा प्रभाव नहीं है कि उसके आधार पर विज्ञापन प्रतिबंधित किया जा सके। आज सारा मीडिया विज्ञापन से अर्जित धन द्वारा संचालित है। राजनीतिक निर्णय पर भी विज्ञापन जगत का गहरा प्रभाव है। यह उनका कमाल है कि बात बच्चों की जबान से बयां हो रही है। सीरियल निर्माण में चैनल का विज्ञापन अधिकारी सृजन कार्य में दखलअंदाजी करता है। कभी-कभी उसके तर्कहीन आदेश पर सेट का रंग बदलना पड़ता है। सीरियल निर्माता जानता है कि इस अधिकारी को कैसे खुश करें। भ्रष्टाचार के अष्टपद से कोई क्षेत्र अछूता नहीं रह सकता। सीरियल का अर्थशास्त्र ऐसा है कि कथा को रबर की तरह खींचना पड़ता है। एपिसोड्स की अधिक संख्या होने पर सेट्स का निर्माण मूल्य प्रति एपिसोड कम हो जाता है। भड़कीली पोशाक और आभूषण का खर्च भी कम हो जाता है। सीरियल के स्त्री पात्र आभूषणों से लद-फदे चलायमान ज्वेलरी शॉप की तरह नज़र आते हैं। फिल्मों से अधिक फॉर्मूलाबद्ध है सीरियल का निर्माण।