विटामिन ज़िन्दगी / ललित कुमार / पूजा रागिनी
ललित कुमार की पुस्तक "विटामिन ज़िन्दगी" की पूजा रागिनी द्वारा समीक्षा
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पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी: http://lalitkumar.in/vitamin-zindagi
ललित जी को अपनी ज़िन्दगी की विटामिन विटामिन ज़िन्दगी लोगों तक पहुंचाने के लिए शुक्रिया।
विटामिन ज़िन्दगी की शुरुआत में ही लिखा है कि यह पुस्तक उन्हें समर्पित है जो भीड़ से अलग हैं या भीड़ से अलग होना चाहते हैं। लेकिन सही मायने में ये पुस्तक उनको समर्पित है, जो भीड़ से अलग (समाज के लिए) कुछ करना चाहते हैं। जो समाज को सही दिशा में प्रेरित कर सके.
'विटामिन ज़िंदगी' ललित जी के साहस और धैर्य की दास्ताँ है। ये कहानी उस बच्चे की है। जिसने पोलियो जैसी गम्भीर समस्या की चुनौती को स्वीकार किया। वो खुश रहा कि प्रकृति माँ ने उसे कष्ट के लिए चुना। बजाय उसके छोटे भाई बहन के प्रकृति ने उसे चुना क्योंकि किसी अपने को टूटते देखने की विवशता अत्यधिक पीड़ा देती है। ये कहानी उस परिवार की है जो आर्थिक रूप से कम समृद्ध रहा है लेकिन जुझारूपन उस परिवार की घुट्टी है। ये कहानी एक असंवेदनशील समाज की है। जिसमें ज्यादातर लोगों ने उस बच्चे के सपने तोड़ने की तरफ ही काम किया। ये कहानी मुट्ठी भर ही सही उन लोगों के प्यार की भी है जिन्होंने बच्चे के हौसले को देखकर गर्व महसूस किया।
एक स्वस्थ बच्चे की चाहत हर माता-पिता को होती है। लेकिन अगर प्रकृति, क़िस्मत या ईश्वर जो भी आप मान लें जिसके कारण स्वस्थ बच्चा अस्वस्थ हो जाए तो माँ-बाप, परिवार की चिंता की थाह ही नहीं होती। उस पर से माता-पिता की बेबसी ये की वह बच्चे का शारीरिक कष्ट कम करने में असमर्थ हों।
हर बच्चे की अपनी अलग पहचान होती है। लेकिन जब कमियाँ पहचान कराएँ तब ज़िंदगी की हक़ीक़त पल-पल रुलाती है। ऐसे ही एक बच्चे की हक़ीक़त, उसका साहस, उसका धैर्य है 'विटामिन ज़िन्दगी'।
चार साल का बच्चा जो वैष्णो देवी की यात्रा में उछलता कूदता चल रहा था। बालक की चंचलता से घरवाले हर्षित थे।
ये चार साल के बच्चे के ज़ेहन में अपने पैरों पर चलने की आखिरी धुँधली याद है शायद।
इसके बाद बच्चे की मुलाकात होती है पोलियो के वायरस से। ये सन 1980 की बात थी जब नन्हा बच्चा पोलियो की चपेट में आया। पहले बच्चे पर बुखार का हमला हुआ। तब आम भारतीय परिवार की तरह उसके परिवार वाले भी घरेलू इलाज से खुद ही बुखार का सामना करने लगे। लेकिन जब कई दिन बुखार नहीं उतरा तब शुरू हुआ डॉक्टर का न खत्म होने वाला चक्कर। जब डॉक्टर ने बताया कि बच्चे को पोलियो है तो घरवालों ने यही पूछा कि डॉक्टर साहब ये ठीक तो हो जाएगा ना। फिर डॉक्टर ने कहा इसका इलाज तो पूरी दुनिया में नहीं है। जब पोलियो से पूरा शरीर निष्क्रिय हो जाए और डॉक्टर बोले कि अब आपका बच्चा कभी अपने पैरों पर नहीं खड़ा हो पाएगा। उस समय माँ पिता, बाबा दादी, चाचा के दुख की कल्पना भी सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव है। ऐसे में फिर शुरू हुई परिवार की हिम्मत और जुझारूपन की परीक्षा।
इलाज के इस दौर को पुस्तक में जितना मुश्किल बताया गया है वह दौर उस बच्चे और उसके परिवार के लिए उससे भी ज़्यादा मुश्किल रहा होगा जिसे बताना नामुमकिन होगा स्वयं लेखक के लिए भी।
सफ़दरजंग अस्पताल, मच्छा की डेरी वाले वैद्य जी, हर सम्भव जड़ी-बूटी, तेल, दवाएँ, गरम पानी से सिंकाई ये ऐसी चीजें हैं जो हमको आपको आसान लगेगीं। लेकिन उस बालक के लिए अस्पताल की लाइन में लगना भी बहुत कठिन रहा है।
लेखक ने लिखा है कि 'मेरे जीवन से खेल-कूद, दौड़-भाग, इत्यादि सब विदा हो चुके थे।' कितना मुश्किल रहा होगा एक बच्चे के लिए आइस-पाइस और गेंद जैसा खेल भी सम्भव न रहना। एक मध्यमवर्गीय परिवार को रोजमर्रा की ज़रूरतें पूरी करने में ही मुश्किल होती है लेकिन पोलियो जैसी गम्भीर समस्या से लड़ना आर्थिक रूप से भी मुश्किल रहा होगा। ऐसे में धन्य हैं लेखक के परिवार वाले जिन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया। घर में सिलाई का काम, बल्ब, प्लास्टिक के पहिये इन छोटे-छोटे कामों से इलाज के साधन जुटाने का प्रयास करने लगे।
तमाम प्रयासों के बीच बच्चे की पढ़ाई पर ध्यान देना अद्भुत निर्णय रहा परिवार का। बाबा कंधे पर बिठा कर स्कूल ले गए. जिसके बाद कि पढ़ाई बच्चे ने कभी हाथ पैरों से चलकर या कभी चरण जैसे दोस्तों का अल्प सहारा या बैसाखियाँ लेकर पूरी की। प्राइमरी, मिडिल, कॉलेज हर बाधा को पार करना नियति मान लिया बच्चे ने। उस बच्चे के लिए बस यही कहा जा सकता है कि:
घातक है सपनों का पलना
उससे भी घातक है सपनों का मर जाना
लेकिन नियति कहाँ रुकती है
टूटें या दम तोड़े कितने भी सपने
नित नई हिम्मत पैदा कर ही देती है॥
लेखक ने अपने जीवन की इस यात्रा को आगे बढ़ाते हुए बताते है कि डॉ मैथ्यू द्वारा कई पोलियो करेक्टिव सर्जरीज़ नामक ऑपरेशन हुए. जिसमें इलिज़ारोव रिंग एपरेटस जैसे पीड़ादायी निदान के बारे में भी शामिल हैं। इलिज़ारोव एपरेटस लेखक के जीवन का वह इलाज रहा जिसने लेखक की सहनशक्ति की सीमा को पार कर दिया। लेकिन इस कष्ट के बाद लेखक ने पहली बार अपने को सीधा खड़ा पाया। लेखक के जीवन का ये अद्भुत पल था। लेकिन इस पल को देखने से पहले लेखक के 2 चहीते लोग बाबा-दादी दुनिया छोड़ चुके थे। लेकिन इस ऑपरेशन के बाद ललित जी अपने कैरियर को विस्तार देने में लग गए. उन्होंने जॉब की, संयुक्त राष्ट्र के स्वयंसेवक के रूप में कार्य किया, उसके बाद विदेश से MSc, रीसर्च आदि की डिग्री ली। ये कहानी यहीं पर खत्म नहीं होती है। ये कहानी अनवरत चलती रहेगी।
'विटामिन ज़िंदगी' पढ़ते समय लगा जैसे मुझे भी इस कहानी में होना चाहिए था। एक मास्टर के रूप में होना चाहिए था जो लेखक को चिड़ियाघर ले जाता जो कहता ललति तुम डगमगाते कदम से घूमना हम भी थोड़ा धीरे चल लेंगे॥ उस दोस्त के रूप में होना चाहिए था जो टॉयलेट लग जाने पर साथ चल देता। ताकि लेखक को पेशाब रोकने कि आदत न डालनी पड़ती। बस ड्राईवर के रूप में होना चाहिए था जो कहे कि तुम आराम से चढ़ो हमें जल्दी नहीं है। उस नल के रूप में होना चाहिए था जिससे लेखक प्यासभर पानी पीता। उस प्रार्थना सभा के रूप में उपस्थित होना चाहिए था जिसमें लेखक बैठकर प्रार्थना सभा का नेतृत्व करे। या किसी बच्चे के रूप में होती जो लेखक की बैसाखियाँ ढूंढने में मदद करे।
इस किताब में लेखक ने जिस असंवेदनशीलता का चित्रण किया है वह बेहद मार्मिक है। ऐसा लेखक के साथ ही नहीं बल्कि हर उन लोगों के साथ होता है जो शारीरिक रूप से अक्षम हैं। अक्सर लोग न जाने क्यों खुद को रचयिता (ईश्वर) से बड़ा समझकर ईश्वर की रचना पर नाक भौं सिकोड़ते हैं। उन्हें बार-बार ये अहसान दिलाते है कि तुम जीवित रहकर पाप कर रहे हो। जबकि सही मायने में ऐसे लोग मानसिक विकलांगता का शिकार होते हैं। न जाने क्यों शारीरिक रूप से फिट लोग खुद को महान समझते हैं। हम इतने असंवेदनशील समाज में जी रहे हैं कि लोग एक संघर्षशील बच्चे की मदद करने के बजाय उसे ये अहसास ही दिलाते रहते हैं कि तुम्हें नहीं पढ़ना चाहिए, तुम्हें चिड़ियाघर नहीं जाना चाहिए, तुम सिर्फ़ दया के पात्र हो, तुम कुछ नहीं कर सकते। जबकि इन्हीं सब बातों ने लेखक को मजबूत से मजबूत बनाती चली गईं। जिस बच्चे के लिए चिड़ियाघर के दरवाजे बंद थे उसने अपने हौसलों से चीन की दीवार फांद ली। जो क्षमतावान लोगों के लिए नामुमकिन-सी होती है।
इस किताब ने अपनी पूरी यात्रा में मुझे रुलाया और आश्चर्यचकित कर दिया। हिम्मत, हौसले, धैर्य, साहस और सहनशक्ति की नई परिभाषा गढ़ने में मदद की।
इस किताब को इसलिए पढ़ना चाहिए ताकि हम पोलियो ही नहीं किसी भी बीमारी से जूझ रहे लोगों के प्रति संवेदनशील हो सकें। उन्हें ये अहसास न होने दें कि ईश्वर ने उनके साथ नाइंसाफी की है, उन्हें घूरे नहीं बल्कि उनको देखकर गर्व महसूस करें। एक संवेदनशील समाज के निर्माण के लिए इस किताब को पढ़ना चाहिये। बाकी आपको किसी और उपन्यास जैसी रोचकता भले न मिले भाषा भले ही बांधे न। लेकिन जब भी आपने ज़िंदगी से जद्दोजहद करते व्यक्ति को घूरा होगा तो ये किताब आपको उस व्यक्ति की पीड़ा का अहसास कराएगी। ये किताब आपको सहज बनाएगी कि लोगों के प्रति ईमानदारी से सहज रहें और सीखें कि सामने वाला यदि कमजोर है तो सिर्फ़ दया या उपहास का पात्र नहीं है। जैसा यूरोपीय देशों में लोगों ने लेखक को स्वयं से कमतर नहीं आँका। किसी भी समस्या आने पर मुँह मोड़ लेना हारकर बैठ जाना आसान होता है लेकिन समस्या को चुनौती के रूप में लेना और डट जाना ही 'विटामिन ज़िन्दगी' है। एक स्वस्थ समाज की निर्माण के लिए इस किताब को पढ़ना चाहिए।
ये लेखक के व्यक्तिगत दस्तावेज हैं जो बहुतों की ज़िंदगी में आशा ला सकते हैं और बहुतों को अपने व्यवहार में सुधार लाने को प्रेरित कर सकते हैं। अंत में लेखक को ढेरों शुभकामनाएँ, जब भी स्वस्थ समाज के निर्माण की बात हो उसमें 'विटामिन ज़िन्दगी' का भी ज़िक्र आए।