विडम्बना / सुदर्शन रत्नाकर
एक हाथ से साइकिल का हैंडल पकड़े ,दूसरे हाथ से पीछे रखी लकड़ियों को सम्भालते,पाँवो को घसीटते हुए वह चल रहे थे। दो बार साइकिल पर बैठने की कोशिश की लेकिन लकड़ियाँ ढीली बँधी होने के कारण संतुलन नहीं रख पाए।गिरते गिरते बचे।घर पहुँचने में उन्हें बहुत देर हो गई । पत्नी प्रतीक्षा कर रही थी । उसे सुबह से ज्वर हो रहा था।साइकिल दीवार के सहारे खड़ी कर उन्होंने लकड़ियाँ उतारीं। कोठरी के दरवाज़े के पीछे रखा उपले का एक टुकड़ा उठाया। उस पर थोड़ा मिट्टी का तेल डाल कर चूल्हे में रखा। तीली लगाते ही उपला जल उठा। उस पर लकड़ियाँ रख दीं। आग पकड़ने में थोड़ी देर लगी।दाल- चावल धोकर पतीली में डाल कर चूल्हे पर चढ़ा दी।खिचड़ी बनने में थोड़ा समय था।उन्होंने पानी के दो गिलास भर कर एक पत्नी की चारपाई के पास रख दिया दूसरा अपने लिए ले लिया।
खिचड़ी तैयार हो गई तो पहले थाली में डाल कर पत्नी को दी।आग बुझा कर लकड़ियाँ चूल्हे से निकाल कर अलग रख दीं और फिर पतीली में ही बची खिचड़ी खाने लगे। कुछ फीकी लगी पर जैसे तैसे खा ली। पानी पी कर शेष पानी से कुल्ला कर वह उठ गए।चारपाई लेकर बाहर दालान में आ गए।दालान की दूसरी ओर बेटे का परिवार खा पीकर कब का सो गया था।