विदआउट मैन / गीता पंडित
हुआ यूँ कि जून का महीना और डी.यू. में एडमीशन की लम्बी लाइन, सुबह छ बजे से लगे हुए मैं पस्त हो चुकी थी इसलिए पीछे से आँधी की तरह तेजी से भागती हुई आयी और इधर-उधर देखे बिना सबसे आगे जाकर खडी हो गयी।
"हम क्या पागल हैं जो सुबह से लाइन में खड़े हैं।"
पीछे से आवाज़ आयी, जैसे किसी ने पत्थर उछाला और सीधे मेरे सर पर लगा हो।
वैसे भी धूप की तेजी से मेरा सर चकरा रहा था। मैं लड़खड़ाने लगी। सम्भलते-सम्भलते भी गिरने ही वाली थी कि तभी भागकर किसी ने मुझे यह कहते हुए संभाल लिया कि अरे, आप अभी गिर जातीं।
मैंने देखा झक सफेद शर्ट और ब्ल्यू जींस में काला चश्मा लगाए एक हेंडसम युवक मेरी तरफ देखकर मुस्करा रहा था।
ओह, हाँ, थैंक्स कहकर मैं फिर से लाइन में पीछे जाकर खडी हो गयी।
फार्म लेकर जैसे ही पलटी उसने कहा
"मुझे लगता है आप अभी भी स्वस्थ नहीं हैं अगर कहें तो मैं आपको कहीं ड्रॉप कर दूं।"
मुझे जरूरत तो थी ही और आईडिया भी बुरा नहीं था। मैंने कहा
"ओके"
रेड कलर की स्पोर्ट्स कार में आगे की सीट पर बैठी मैं कुछ और सोच पाती उससे पहले ही उसकी आवाज़ आयी।
"हाय! मी निखिल"
"हाय! मायसेल्फ निक्की"
"अरे, आपने मुझे पहचाना नहीं। फेसबुक, ट्वीटर और लिंकदिन पर हम फ्रेंड्स हैं।"
" सॉरी, काले चश्मे की वजह से ऐसा हुआ होगा। इसे उतारो जरा। ओह, हाँ, मैं तुम्हें जानती हूँ। अब मुझे याद आ रहा है कि हमारी एक बार ही चैट हुई थी और वह भी बहुत लम्बी 'आरक्षण के विषय पर'
एम आय राईट? "
" हाँ...
तुम असहमत थीं और मैं आरक्षण के पक्ष में। "
"यस।"
पहले मैं मन ही मन सोच रही थी कि लड़कों से दूर भागने वाली लडकी आज किसी अजनबी के साथ यूँ फ्रंट सीट पर बैठी है लेकिन यह तो फेसबुक फ्रेंड निकला। ख़ूबसूरत गाड़ी, ख़ूबसूरत व्यक्तित्व और बातें भी अच्छी करता है।
वाव।
लिफ्ट लेना दिल्ली जैसी जगह में नई बात नहीं। फेसबुक के माध्यम से तो उसे जानती ही थी लेकिन आज अचानक एक चुम्बकीय आकर्षण में मैं निखिल की तरफ खिंची जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि यह नानी की बचपन में सुनी कहानी वाला राजकुमार है जिसे मैं सदियों से जानती हूँ।
पहली मुलाक़ात में ऐसा अहसास बड़ी अजीब-सी बात थी जो इससे पहले कभी महसूस नहीं हुआ और जिसे शब्दों में कह पाना सम्भव नहीं।
'लव एट फर्स्ट साईट' शायद इसे ही कहते होंगे।
पता नहीं क्या था लेकिन कुछ तो था।
संयोगवश हम दोनों लिटरेचर के स्टयुडेंटस निकले तो किसी न किसी बहाने गाहे-बगाहे मिलने लगे। जिस दिन मैं कॉलिज नहीं जाती निखिल मुझे अपने नोट्स दे देता और जब भी समय मिलता हम देश दुनिया की अनगिनत बातों पर बहस करते, लड़ते-झगड़ते, रूठते और अगले ही पल फिर से बात करने लगते।
कभी शेक्सपियर पर वाद विवाद होता तो कभी कीट्स, वर्डस्वर्थ, ब्राउनिंग, शैले की कवितायें दोहराते। वह कविताएँ भी लिखता था इसलिए मैं उससे कविता सुनाने की जिद करती और वह मेरी बात मान लेता।
निखिल कभी कॉलिज नहीं आता तो बेचैनी होती।
फेसबुक व्हाट्सप पर निरंतर चैट होने लगी।
निखिल के नयन नक्श साधारण थे लेकिन उसकी मेच्योर सोच मुझे प्रभावित कर रही थी। फेसबुक पर तो हम दोस्त थे ही, अब यहाँ भी अच्छे दोस्त बन गये।
एक दिन एक अजीबो गरीब घटना घटी।
लगभग आठ बजे मैं क्लास रूम में प्रवेश करने ही वाली थी मैंने देखा कि देवेन्द्र जिसका नाम कॉलिज के गुंडों में शुमार था और जो हमारी ही क्लास का विधार्थी था, अपनी दोनों टाँगे एक के ऊपर एक टेबल पर रखे हुए अधलेटा-सा बेख़ौफ़ प्रोफेसर की चेयर पर पसरा हुआ था और उसके दो साथी उसके इर्द-गिर्द खड़े थे। अचानक उसने निखिल को आवाज़ दी जो अभी-अभी आया था।
"ओये। ज़रा यहाँ सुनियो, तू सूट-बूट पहनकर कॉलेज में क्यों आता है? अपने बाप का रौब दिखाने के लिए ... कल से सूट-बूट में ना देख लूँ।"
इससे पहले भी वह निखिल से कई बार उलझ चुका था।
क्यूंकि कोई भी लडकी देवेन्द्र से बात नहीं पसंद नहीं करती थी और लड़कियों का निखिल के साथ उठना-बैठना उसमें ईर्ष्या पैदा करता था इसलिए वह हमेशा उसके विरोध में खडा रहता था।
"क्यों नहीं पहनूँ? निखिल ने जवाब दिया"
"अच्छा...उलटा जवाब देता है। जानता नहीं मैं कौन हूँ ...चल तुझे बताता हूँ"
इसके बाद लात घूंसे चप्पल की अंधाधुंध बरसात निखिल पर होने लगी।
कोई भी उसे बचाने के लिए आगे नहीं आया। दरअसल। गुंडों से पंगा कौन लेता। मैं तो जैसे काठ हो गयी। कुछ नहीं सूझ रहा था। निखिल को बहुत चोट लगी थी। उसकी दायीं आँख सूज गयी थी। किसी तरह मैं और कुछ लड़के कॉलिज में ही फर्स्ट एड करवाकर उसे घर ड्रॉप करके आये। मैं बहुत घबराई हुई थी। सारी रात जागते हुए चिंता में कटी और सोचती रही-
जाने कैसा होगा निखिल? कितनी अंदरूनी चोट महसूस कर रहा होगा। भीतर एक टूटन-सी हो गयी होगी। वह क्या सोच रहा होगा?
मेरी बेचैनी को आराम नहीं आ रहा था।
सुबह होते ही मैं उसे देखने घर गयी लेकिन उससे मिलने की इजाजत नहीं मिली शायद, घरवाले नाराज़ थे और क्रोधित भी कि जब वह पिट रहा था तो किसी ने भी उसकी मदद नहीं की।
अब कैसे बताऊँ उन्हें कि पिटाई उसकी हो रही थी और दर्द मुझे हो रहा था।
मैं बेचैन थी और दुखी भी।
उससे मिलना चाहती थी।
उसे देखना चाहती थी।
मैं लगातार उसे फोन करती रही। उसका फोन हमेशा स्वीच्ड ऑफ आता रहा। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन उसके घर के दरवाजे नहीं खुले और ना ही कोई सम्पर्क सूत्र हाथ लगा।
इस घटना के बाद निखिल कभी कॉलेज नहीं आया। वह पहले से ही बाहर जाना चाहता था इसलिए आगे की स्टडीज के लिए ऑस्ट्रेलिया चला गया और फिर वहीं बस गया। मुझे मालूम हुआ कि उसका पूरा परिवार वहाँ शिफ्ट हो गया है।
उस घटना के बाद वह मुझे कभी नहीं मिला और कोई कान्टेक्ट भी नहीं हुआ।
मैं जानती थी कि निखिल बहुत सेंसिटिव है। वह इस घटना को झेल नहीं पायेगा।
लेकिन कैसा अज़ीब इत्तेफ़ाक था। मुझे पहली बार कोई बहुत अच्छा लगा और वही इस तरह गायब हो गया।
मेरे लिए उसका जाना छोटी घटना नहीं थी। मैं बहुत अकेला महसूस कर रही थी।
क्योंकि निखिल मेरा बहुत अच्छा दोस्त बन गया था और बात दोस्ती से आगे बढ़ गयी थी। यह बात मैं तब नहीं जान पायी और जब जाना तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
कई बार मैं स्वयं से प्रश्न करती
" क्या ये एक तरफा दोस्ती थी?
क्या उसे मेरी याद कभी नहीं आयी?
क्या वह फोन भी नहीं कर सकता था?
क्या कालिज में घटी एक घटना हमारी दोस्ती से इतनी बड़ी हो गयी कि बात भी न की जाए? "
फेसबुक एकाउंट भी उसने डीएक्टिवेट कर दिया।
आस्ट्रेलिया वाला नया नं मेरे पास नहीं था।
उसके इमेल पर भी मेल नहीं हो पा रहा था।
मैं घंटों अकेली बैठी सोचती रहती। निखिल मेरी आदत बन गया था जिसके बिना सब कुछ बेमानी लगने लगा।
मेरा मन पढ़ाई में भी नहीं लग रहा था। जैसे तैसे पोस्ट ग्रेजुएशन की पढाई पूरी की और फिर अपने डैड के बिजनेस में दिन रात झोंक दिए यह सोचकर कि व्यस्तता सब कुछ भुला देगी।
लेकिन भूलना क्या इतना आसान होता है।
दिन महीने साल बीतते गए। जितना मैं भूलने की कोशिश करती निखिल की स्मृति उतना ही परेशान करती। मैं चुपचाप अपने में खोई रहती और अपने आपसे पूछती
कहीं यह प्रेम तो नहीं?
प्रेम?
नहीं ...नहीं यह नहीं हो सकता।
मैं अपनी विवशता को गहराई से महसूस करते हुए भी प्रेम होने की बात को झुठला रही थी। एक अंतर्द्वंद मुझे भीतर ही भीतर मथ रहा था। लेकिन क्या प्रेम को झुठलाया जा सकता है?
प्रेम के नाम पर हजारों सूईयाँ एक साथ मेरे तन-बदन में चुभ जातीं। हजारों बिच्छू मेरे शरीर पर रेंगने लगते।
मैं जानती थी कि प्रेम से ख़ूबसूरत दुनिया में कुछ नहीं। यही तो है जो इस दुनिया को ख़ूबसूरत और जीने लायक बनाता है वर्ना तो 'और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा'
यह जानते हुए भी 'प्यार' और 'मोहब्बत' जैसे शब्द मेरी डिक्शनरी में नहीं थे।
इसके भी विशेष कारण थे।
प्रेम में विफल चरित्र एक-एक कर मेरे सामने आ जाते और प्रेम मेरे लिए प्रश्नचिन्ह बनकर खड़ा हो जाता।
जब से होश सम्भाला स्त्रियाँ को अंदर ही अंदर रोते बिसूरते हुए महसूस किया। उनका रोना, चीखना। उनका एकाकीपन मुझे अंदर ही अंदर सालता।
वह स्त्री जिसे मैं चाची कहती थी, बहुत सुन्दर थी जिन्हें चाचा ब्याह तो लाये लेकिन कभी पलटकर नहीं देखा इसलिए उस स्त्री ने जीवन के सबसे सुंदर दिन अकेले तन्हाई में काटे। उसकी डबडबाई आँखें मेरा पीछा करतीं।
वह स्त्री जो मेरी ताई लगती थी ताऊ जी बात बे-बात पर बेटा पैदा न करने के नाम पर गालियाँ देते और पीटते। दूसरे विवाह की धमकी देते। वह बेचारी गूँगी बनी सब कुछ सह्तीं, डरी सहमी हँसने के नाम पर चेहरे पर चिपकाई हुई हँसी और बोलने के नाम पर होठों पर दबी हुई सिसकियाँ थीं।
और वह स्त्री जिसने मुझे जन्म दिया वह मेरी मॉम थी। मॉम के दुःख दर्द अलग थे। छिप-छिपकर रोते हुए उन्हें हर रोज़ देखा।
जाने क्या पीड़ा थी उन्हें।
जाने कौन-सा दुःख था जो उनकी आँखें कभी सूखने नहीं देता था।
प्रेम जो सहज है वह कहीं नहीं दिखाई दिया।
कभी पूछने का साहस नहीं हुआ लेकिन विवाह के नाम से चिढ होने लगी। डर लगने लगा।
डर के साथ-साथ मेरे अंदर धीरे-धीरे एक खोजी प्रवृत्ति जन्म लेने लगी। मैं अनजाने ही घर और आस पडौस की हर स्त्री के भीतर प्रवेश करने की कोशिश करने लगी।
उनकी सूनी आँखें बिना कहे बहुत कुछ कहतीं। उनका समर्पण, उनका निस्वार्थ प्रेम मुझे मोम की मानिंद पिघलाता।
कामवाली बाई जब-ब आकर बताती कि आज उसके मरद ने उसकी बहुत पिटाई की। वह अपने शरीर पर पड़े हुए निशान दिखाती तो मेरा मन विवाह के प्रति घृणा से भर जाता।
मेरे मन में अनेक प्रश्न जन्म लेने लगे।
मेरी आँखे खोजी तो बन ही चुकी थीं।
हमेशा किसी ऐसे सम्बन्ध की तलाश में रहने लगीं जहाँ क्रोध हो तो मनुहार भी हो। रूठना और मनाना हो ताकि जीवन जीवन-सा लगे। जहाँ खुलकर अपनी बात कही और सुनी ज़ा सके।
किससे कहूँ अपनी बेचैनी की वज़ह?
किससे कहूँ अपना डर?
किससे कहूँ कि पुरुष का यह रूप मुझे नहीं भाता।
किससे कहहूँ कि ऐसे किसी पुरुष की परछाई भी नहीं चाहिए मुझे।
क्या कोई समझ पायेगा?
पुरुष के इशारों पर चलने वाला समाज क्या कभी इस पीड़ा को समझ सकता है?
एक तरफ निखिल था तो दूसरी तरह आँसुओं में बहता हुआ चुप्पियों का शोर था। जाने-अजाने चेहरे और रोती हुई रुदालियाँ थीं। उनकी आहें थीं। सुबकियाँ थीं। उनकी आवश्यकताएँ, आकांक्षाएँ थी, एकान्तिक चीखें थीं जो दिन-रात मेरा मर्म भेदती थीं।
मैं ऐसी अहिल्याओं से घिर गयी थी जिनके दुःख का कोई निस्तार नहीं था।
बचपन में कुछ समझ में नहीं आता था लेकिन जैसे-जैसे यौवन ने पाँव पसारने शुरू किये, मुझे स्त्री की पीड़ा उसके दुःख समझ आने लगे। उनके सपन, उनकी बातें, उनकी दैहिक और मानसिक पीड़ा मुझसे बतियाने लगीं।
अब मैं एक स्त्री की तरह सोचने लगी।
और मुझे अच्छे से दिखाई देने लगा कि समाज में वे केवल देह मात्र हैं।
उनका होना कोई मायने नहीं रखता।
सहचर तो दूर वे इंसान भी नहीं हैं।
मुखौटे लगे ऐसे पुरुष को देखकर वितृष्णा होने लगी।
सच कहूँ तो मैं भी एक युवा की तरह सपने देखना चाहती थी।
अपनी युवावस्था को उसी तरह महसूस करना चाहती थी जैसे कि इस समय में कोई भी युवा महसूस करता है
लेकिन मैं अनजाने यह सब मिस कर रही थी।
मुझे बुरा भी लग रहा था फिर भी चाहने के बावज़ूद मैं कुछ नहीं कर पा रही थी।
जब भी मैं विवाह के विषय में सोचती मुझे थरथराहट होने लगती।
लेकिन कहते हैं ना, प्रेम किया नहीं जाता हो जाता है।
और इस समय मैं प्रेम में थी।
यादों में जाने कब तक घिरी रहती तभी मैंने अपने कंधे पर एक स्पर्श महसूस किया। मैं जैसे किसी तिलिस्म से बाहर आयी। आँख अपने आप खुल गयीं ये मॉम थीं जो जाने कब से खडी मुझे देख रही थीं।
'निक्की बेटा! क्या ऑफिस नहीं जाना? देख तो बारह बज रहे हैं।'
ओह! दस से बारह बज गए? दो घंटे हो गए स्टडी टेबल पर बैठे हुए। आश्चर्य से मैंने वाल घड़ी की तरफ़ देखा। फिर संयत होकर बोली
"मॉम आज मन नहीं है। मैं घर से ही ऑफिस हेंडिल कर लूंगी।"
कुछ देर तक मॉम यूँ ही खडी रहीं एकटक मेरी आँखों में झाँकते हुए फिर धीरे से उन्होंने मेरी आँखों पर हाथ घुमाया झुककर माथे पर चुम्बन दिया और एक भी शब्द बिना बोले वापस लौट गयीं।
मैंने महसूस किया कि मैं रो रही थी।
मेरे हाथों में निखिल का काव्य-संग्रह था जिसकी एक कविता पढ़ते-पढ़ते मैं अपने आप में डूब गयी थी। निखिल की आवाज़ मुझे सुनाई दे रही थी।
मैं न होने पर भी
रहूंगा इन शब्दों में
जब तुम इन्हें बुद्बुदाओगी
मैं होऊँगा तुम्हारे उस स्पर्श में
जब अजाने
तुम इन्हें छुओगी
और होऊँगा भुजाओं के उस बंधन में
जब बेख्याली में
तुम इस पुस्तक को सीने से लगाओगी
महसूस करोगी मुझे अपने अंदर धडकते हुए
सच कहता हूँ देखना"
मैं निखिल को अपने आस-पास महसूस कर रही थी
और मेरे आँसू चेहरे से ढुलकते हुए मेरी गर्दन सहला रहे थे।
मॉम ने भी देख लिए। जाने क्या सोच रही होंगी। यह सोचकर मैं परेशान हो उठी।
मॉम डैड मेरे विवाह को लेकर चिंतित हैं लेकिन मैं विवाह के नाम पर हमेशा ना नुकुर करती हूँ।
निखिल के प्रति मेरा झुकाव इसकी वजह तो है ही मगर एक वजह और भी है जो मैं पहले भी कह चुकी है कि मुझे विवाह के नाम से डर लगता है।
लेकिन कौन मानेगा इसे
और कब तक ऐसा चलेगा।
कोई निर्णय तो लेना ही होगा।
मुझे कुछ करना होगा।
मॉम मेरी वजह से उदास हैं यह बात मेरे लिए पीडादाई है। मॉम की यह उदासी मैं और अधिक सहन नहीं कर सकती।
मैं धीरे से उठी। बड़े प्यार से पुस्तक को सहलाकर वहीं शेल्फ में रखा और स्टडी रूम में इधर से उधर चक्कर लगाने लगी।
मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी।
निखिल के जाने के बाद मुझे अहसास हुआ कि कहीं भीतर कुछ था जो रिक्त होता जा रहा था। फिर भी चारों तरफ पसरे हुए मौन ने मुझे तोड़ा नहीं, बिखेरा नहीं शायद यह प्रेम ही था जो सहलाता रहा मेरी हड्डियों को मेरी धमनियों में जम आये रक्त को।
मैं अब अपने प्रेम की ताकत को समझ रही थी।
जो कुछ भी घटित हो गया वह सारी उम्र की उदासी के लिये पर्याप्त था और यह भी सही कि घटित को बदलना किसी के भी वश में नहीं लेकिन भावी पलों को तो जिया जा सकता है, उस प्रेम को जिया जा सकता है जो मुझमें ऊर्जा भर रहा है। यह सोचते ही मेरे अंदर नई ऊर्जा भर गयी और मैं बुदबुदाने लगी
" निखिल, मैं तुम्हें जिऊँगी ...
हाँ, मैं तुम्हें जिऊँगी तुम्हारे बिना।
जीना है मुझे।
रुदाली नहीं बनना है।
मैं देह नहीं, जीती जागती हुई एक स्त्री हूँ और ऐसे ही बने रहना चाहती हूँ। "
अब इतनी मुश्किल घड़ी में भी मैं मुस्करा रही थी।
सच कहूँ तो अचंभित थी अपने आप पर और अचम्भित थी अपने साहस पर।
सच यह भी है कि आसान नहीं होगा तुम्हारे बिना तुम्हें जीना लेकिन तुमसे एक बार कहा भी था।
" विवाह का नाम भी मुझमें डर पैदा करता है।
मैं विवाह नहीं करूँगी। "
तुमने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा और पूछा ...
"क्यों?"
मैंने उत्तर नहीं दिया और अपने आप में गुम हो गयी थी। हो सकता है इसलिए तुमने अपने प्रेम का इजहार कभी नहीं किया और बिना बोले, बिना मिले चले गये हमेशा के लिए।
लेकिन ऐसे भी कोई जाता है भला।
' प्रेम सबको नसीब नहीं होता। आज जब मुझे मिला है तो मैं इसे जिऊँगी शिद्दत के साथ।
यह सोचते ही जैसे मुझे मेरी समस्या का समाधान मिल गया। बिना इधर-उधर देखे मैं गाड़ी की चाबी लेकर बाहर निकल गयी। मैं एक डॉक्टर से परिचित थी जिनसे मिलकर इस समाधान को परिणाम तक पहुँचाना संभव था। गैराज से गाड़ी निकाली और डॉ नीतल के नर्सिंग होम के लिए रवाना हो गयी।
मैं जानती थी कि मैं जो करने जा रही हूँ उसे परिवार या समाज किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा। मॉम दुखी होंगी और डैड चुपचाप अपनी लायब्रेरी में सिगरेट फूँकने लगेंगे। हो सकता है कुछ दिनों के लिए बात करना भी बंद कर दें
लेकिन मैंने ठान ली थी।
तभी मुझे याद आया कि डॉ से अपोइन्टमेंट तो लिया नहीं। कोई बात नहीं आज यूँ ही सही।
दोपहर के दो बज रहे थे और डॉक्टर नीतल अपने रूम में थीं मैंने कहा
"मे आई कम इन डॉक्टर! गुड आफ्टर नून।"
"यस! गुड आफ्टर नून"
सौरी, बिना अपोइन्टमेंट के आ गयी
" नो प्रोब्लम निक्की। आओ। कैसे आना हुआ?
मैं अपना नाम सुनकर आश्वस्त हुई
"आपसे कुछ डिसकस करना था" मैंने जवाब दिया।
"ओके... तो नि: संकोच कहो"
"आप तो जानती ही हैं कि मैं अभी तक अविवाहित हूँ"
"हूऊऊऊन... तो"
"मैं विवाह नहीं करना चाहती।"
"ह्म्म्म्म्म"
मगर माँ बनना चाहती हूँ। "
" ठीक है ... बच्चा गोद ले लो।
हमारे नर्सिंग होम में ऐसे कई बच्चे पैदा होते हैं जिनके गरीब माँ बाप कई सन्तान होने की वजह से उन्हें बेच देते हैं या अनाथ आश्रम से भी ले सकती हो। समाज का कुछ तो भला होगा। "
"हाँ, ले तो सकती हूँ लेकिन मैं स्वयं माँ बनने की इच्छुक हूँ।"
" ठीक है और भी वैज्ञानिक विधियाँ हैं। बैंक से स्पर्म लेकर सेरोगेटिड मदर से यह प्रक्रिया कराई जा सकती है।
टेस्ट ट्यूब बेबी के विषय में तो तुमने सुना ही है, वह भी सम्भव है। "
"जी... मगर मैं स्वयं माँ होने की पीड़ा को एन्जॉय करना चाहती हूँ।"
" लेकिन निक्की! ऐसा क्यूँ?
जब माँ बनने का तुम्हारे पास सेफेस्ट तरीका है तो ऐसा क्यों करना चाहती हो? समाज को फेस करना मुश्किल हो जाएगा। "
मेरे अंदर की स्त्री इस प्रश्न को सुनकर तिलमिलाई और स्वयं से कहने लगी
"समाज! हा-हा ये किस समाज की बात कर रही हैं? वह समाज जो सदियों से स्त्री को अपने जूते की नोक पर रखता है। घूँघट और बुर्के में रख जिसने आधी आबादी की सोच पर भी विराम लगा दिया है। घर, सड़क, चौराहा कहीं भी स्त्री के साथ कुछ भी हो जाए वह अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे रहता है।"
फिर मैं दृढ़ता से बोली
"मुझे समाज की परवाह नहीं ..."
"निक्की, वी आर सोशल ह्यूमन बींग्स। विदाउट सोसाइटी वी हेव नो एक्जिटेंस।"
" डॉक्टर, आज तक समाज ने हम स्त्रियों को क्या दिया है तिरस्कार और अपमान के अलावा। आज भी स्त्री की वही दशा है या कहूँ उससे भी बदतर। घर तहखाने हैं और अंदर बाहर भेड़िये? स्त्री तो इस समाज के लिए केवल देह है।
सॉरी, डॉ. मुझे यह सब आपसे नहीं कहना चाहिए था। "
डॉ नीतल यह जानती थीं कि मैं अपनी फैक्ट्री की डायरेक्टर होने के साथ-साथ वह एक राइटर भी हूँ और राइटर बहुत सेंसेटिव होते हैं
इसलिए वह अपनी चेयर से उठकर मेरे पास आयीं और मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोलीं-
"इट'स ओके निक्की ...बी रिलेक्स्ड...मैं हूँ ना। डॉन' ट वरी। सब ठीक होगा।"
उनका स्पर्श किसी मैजिक से कम नहीं था। मुझे अच्छा लग रहा था और अपनापन भी जिसकी मुझे इस समय सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी।
"तो आप बताइये क्या यह सम्भव है?"
डॉक्टर निरुत्तर हो गयीं। अंत में सहमति में सर हिलाते हुए बोलीं
" हाँ ... क्यों नहीं ...
स्पर्म बैंक से स्पर्म लेकर उन्हें फीमेल बॉडी में इंजेक्ट करने होते हैं। कभी-कभी यह प्रयोग एक बार में ही सफल हो जाता है और कई बार यह प्रतिक्रिया कई दफा दोहरानी होती है। "
"जी" ...
"तो निक्की! क्या तुम इस प्रक्रिया के लिए तैयार हो?"
"यस, आई एम् रेडी डॉक्टर"
ओके, तो चलो तुम्हारा चेक अप कर लेते हैं।
सब ठीक है निक्की! अपने पीरियड्स की डेट्स भी बताइयेगा क्योंकि उन डेट्स का इस प्रक्रिया में विशेष महत्त्व होता है। कुछ टेस्ट लिख रही हूँ करा लेना। इसके बाद समय सुनिश्चित किया जा सकता है।
मुझे कुछ राहत महसूस हुई लेकिन मॉम डैड को मनाना 'लोहे के चने चबाने' जैसा है।
यूँ तो मॉम मेरी दोस्त मॉम हैं। उनसे सब कुछ शेयर करती हूँ फिर भी उनसे यह बात कैसे कहूँ यही सोचते-सोचते गाड़ी कब घर के गेट तक पहुँच गयी पता नहीं चला।
घर पर मॉम अकेली थी। डाइनिंग टेबल पर बैठी लंच के लिए मेरा इन्तजार कर रही थीं। मैं धीमे से वहीं उनके पास वाली कुर्सी पर बैठ गयी। लंच करते-करते मैंने कहा
"मॉम! आज कहीं बाहर चलते हैं लोंग ड्राइव पर डिनर भी बाहर करेंगे। चलोगी ना"
"हाँ, हाँ क्यूँ नहीं।"
मैंने हमेशा जो भी चाहा वह सहज प्राप्य था लेकिन जीवन के इस अहम फैसले में मॉम डैड को साझीदार बनाकर अपनी बात मनवाना चाहती थी।
लोंग ड्राइव पर जाना तो बहाना मात्र था। गाड़ी अपने गंतव्य स्थल की तरफ दौड़ने लगी।
दमदमा लेक पहुँचते-पहुँचते साढ़े पाँच बज चुके थे। जहाँ गाड़ी रुकी वहाँ सामने की तरफ लहराती बलखाती दूर तक जाती हुई नदी, नदी के जिस्म पर अठखेली करती हुई कश्तियाँ, खिलखिलाते लोग और डूबने से पहले नदी में अपना अक्स तलाशता सूरज, पीछे जहाँ तक आँख जाती हरियाली ही हरियाली, फूलों से लदी झाड़ियाँ और क्यारियाँ थीं।
यह एक पिकनिक स्पॉट है जहाँ हमेशा ही रौनक बनी रहती है।
रोजाना की भागमभाग से कुछ पल चुराकर ऐसे जीना सचमुच फिर से श्वासों को जीवंत कर जाता है। दुःख दर्द पीड़ा तनाव जो आज के जीवन का अभिन्न अंग बन गये है, को भूलकर कुछ पल सुकून के केवल अपने लिए जीना कितना सुखकर है।
मैं हमेशा खुश होती थी यहाँ आकर लेकिन आज एक बेचैनी थी मन में एक उदासी जो न चाहते हुए भी चेहरे पर झलक रही थी।
मॉम का हाथ पकड़कर मैं वहीं नदी में पाँव लटकाकर एक पत्थर पर बैठ गयी। पैरों को स्पर्श करती नदी जैसे मेरी समूची देह में प्रवेश करने लगी। मैं झुककर नदी को अंजुरी में भरने की कोशिश करती। लहरें आतीं और तपाक से अँजुरी में बैठतीं, उछलतीं और भाग जातीं।
मैं बड़ी देर तक ऐसा करती रही। लग रहा था कि नदी मुझसे बतिया रही है और मैं कान लगाकर उसे ध्यान से सुन रही हूँ।
अब मैं नदी थी या नदी मैं, कहना मुश्किल था।
मॉम बहुत ध्यान से मुझे लगातार देख रही थीं।
वह जानती थीं कि बेहद व्यस्त रहने वाली निक्की, वर्किंग डे में, यूँ ही यहाँ नहीं आयी। सुबह स्टडी चेयर पर उसका रोना भी यूँ ही नहीं था इसलिए चुप्पी तोड़ने की पहल मॉम ने की।
"हाँ तो अब बताओ बेटा! क्या बात है?"
"मॉम!"
"हूऊऊऊन"
"मैं विवाह नहीं करना चाहती।"
प्रश्नभरी निगाह से मॉम मुझे देख रही थीं।
मैं फिर कुछ रुककर धीरे से बोली
"लेकिन मैं माँ बनना चाहती हूँ।"
मॉम ने चौंककर देखा और फिर अनायास उनके मुँह से कुछ शब्द बाहर आये।
"ओह! क्यूँ बेटा? ऐसे कैसे?"
" माँ बनने का सुख तुम्हारी तरह भोगना चाहती हूँ मॉम! स्वयं अपने बच्चे को
जन्म देकर"
एक सांस में मैंने सब कह दिया।
"माँ बनना अपने आप में एक खूबसूरत अहसास है बेटा। विवाह करके भी तो आसानी से माँ बन सकती हो"
"नहीं मॉम! विवाह नहीं!"
"क्यों नहीं? अभी भी विवाह से बेहतर विकल्प कोई नहीं हैं। विवाह हमें सुरक्षा देता है।"
"लेकिन मॉम ..."
"बेटा पहले मेरी बात सुनो तो। तुम अपनी मर्जी के लड़के से विवाह कर सकती हो या लिविंग रिलेशनशिप भी एक ऑप्शन है अगर चाहो तो...मगर उसके भी अपने खतरे हैं। तुम मुझसे बेहतर जानती और समझती हो।"
"हम्म्म्म"
"प्रेम समय के साथ-साथ मेच्योर होता है बेटा। पहले अरेंज्ड मेरिज का चलन था। विवाह के बाद प्रेम स्वयं हो जाता था।"
"प्रेम! लेकिन विवाह मात्र समझौता है मॉम प्रेम नहीं। वहाँ केवल देह का मिलन होता है, मन का नहीं। मन तो डस्टबिन में पड़ा कराहता है। विवाह आज एक ऐसी सामाजिक संस्था बन गया है जहाँ स्त्री का मनुष्य बने रहना भी मुमकिन नहीं मॉम।"
फिर मैं कुछ रुककर बोली-
"विवाह सेक्स के लिए एक विशेष सर्टिफिकेट है और सेक्स, जो दोनों की बुनियादी जरूरत है, उस पर तो स्त्री के लिए सोचना भी अपराध है। तौबा! तौबा! समझौते पर यानी शर्तों पर जीवन जीना मुझे मंज़ूर नहीं और सेक्स के लिए ऐसे विवाह की आवश्यकता नहीं।"
मॉम बड़े ध्यान से निक्की की बातें सुन रही थी। बोलना चाहती थी कुछ, समझाना चाहती थीं उसे लेकिन नहीं बोल पायीं।
" अच्छा! सच-सच कहना मॉम! क्या विवाह करके तुम खुश रहीं?
क्या आज तुम अपने आपको पहचान सकती हो? मुझे नानी ने बताया था तुम बहुत चंचल थीं। पढाई-लिखाई में अव्वल फिर ये क्या हो गया? विवाह करके कौन-सा अपराध किया जो अपना अस्तित्व भी खो बैठीं। जबकि विवाह विशेष रूप से दो व्यक्तियों का मिलन है, दो दिलों का मिलन है जो उत्सव की तरह होना चाहिए ना। ये घुटन, ये बेबसी, ये निरीहता क्यूँ? सच बात तो यह है कि स्त्री का यूँ घुट-घुटकर जीना मुझे तोड़ता है मॉम। उसकी चुप्पी मुझे बेचैन करती है।
क्या स्त्री के प्रेम और समर्पण का पुरुष के लिए कोइ अर्थ नहीं।
उसकी एकनिष्ठता के कोई मायने नहीं।
अगर नहीं तो विवाह की सार्थकता क्या है मॉम!
क्यूँ किया जाए विवाह?
प्रेम तो जीवन का अनिवार्य अंग है। प्रेम श्वासों की जरूरत है, धडकनों का संगीत है, सारी दुनियाँ से जुड़े रहने का साधन और स्वयं को पहचानने, स्वयं तक पहुँचने का माध्यम है।
विवाह के बाद ऐसा क्या हो जाता है कि स्त्री इतनी दयनीय हो जाती है कि वह इंसान भी नहीं रहती। "
मैं बिना पूर्ण विराम लगाए बोलती जा रही थी जैसे अपनी हर उलझन को आज सुलझा लेना चाहती थी।
" मेरी रूह तक यह सोचकर काँप जाती है मॉम, अगर प्रेम ही नहीं रहा तो अस्तित्वविहीन होकर मैं कैसे जी पाऊँगी?
नहीं! नहीं! बिलकुल नहीं। विवाह नहीं। "
मैंने धीरे से अपनी दोनों आँखें बंद कीं और बुदबुदाने लगी
" मैं लोस्ट सोल हूँ मॉम!
निखिल वह पुरुष है जिससे मैं प्रेम करती हूँ और अंतिम श्वास तक उसके प्रेम में रहना चाहती हूँ।
इसलिए उससे भी विवाह करना नहीं चाहती।
अगर वह यहाँ होता तब भी मैं उससे विवाह नहीं करती क्योंकि मैंने देखा है कि विवाह के बाद प्रेम-प्रेम नहीं रहता। उसकी मृत्यु हो जाती है और मुझे ये स्वीकार नहीं।
निखिल न होते हुए भी हमेशा मुझमें मेरे साथ होगा क्योंकि मैं उसके प्रेम में हूँ।
और हमेशा प्रेम में बने रहना चाहती हूँ।
विवाह करके अहल्या होना मुझे स्वीकार नहीं। "
हर तरफ जैसे निस्तब्धता छा गयी। मॉम के पास कोइ उत्तर नहीं था।
वह स्तब्ध बैठी रहीं। शायद सोच रही थीं कि जिस पुरुष को प्रेम करते हुए लगभग पैतीस वर्ष बीत गए वह उसे पहचानता तक नहीं।
बस एक आँसू धीमे से आँख से ढुलक गया जिसे मॉम ने रोकने की कोशिश भी नहीं की।
मॉम सर झुकाए बैठी रहीं जैसे स्वयं से बात कर रही हों बहुत देर तक वह कुछ नहीं बोलीं फिर नदी में उठती हुई लहरों को एकटक देखती हुई शायद अपने अतीत में खो गईं जहाँ वह नितांत अकेली खडी थीं।
कुछ समय बाद उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया। मेरा माथा चूमा और बैठे ही बैठे मुझे बाहों में भर लिया।
अविरल अश्रुओं की धारा दोनों को भिगो रही थी।
जाने कितनी देर तक हम दोनों ऐसे ही नदी बनी रहीं। नदी जो ठहरती नहीं। जो निरंतर प्रवाहित होती है। यहाँ प्रेम का प्रवाह था, विश्वास का प्रवाह था, अनकहे शब्दों का प्रवाह था और उस स्वीकारोक्ति का, उस सहमती का जिसे मैं चाहती थी।
अगले दिन की सुबह बड़ी खुशनुमा थी।
कोहरा छट चुका था।
मैं और मॉम हॉस्पिटल जा रहे थे