विदेश मंत्रालय में छह वर्ष (पृष्ठ-1) / अजित कुमार
मेरे जीवन का अधिकतर हिस्सा- लगभग 75 वर्षों में 45 वर्ष -नौकरी करते बीता है । इनमें से 39 साल मैंने अध्यापन किया और 6 साल भारत सरकार के विदेश मत्रालय में डा0 बच्चन के मातहत अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद-कार्य- जिसके बारे में उस समय भले ही यह ध्यान न किया हो, पर आज सोचने पर महसूस होता है कि नियमित किन्तु मन्थर गति से बहती हुई मेरी नदी अपने प्रवाह के क्रम में देर-सबेर जाकर जब भी अनन्त-अथाह सागर में विलीन होगी, तब होगी… पर यदि उसमें कभी कोई द्वीप था- तो निश्चय ही वह उन्हीं छ्ह वर्षों की अवधि के दौरान रहा होगा ।
सन 1956 से 1962 तक का यह समय केवल इस नाते स्मरणीय नहीं कि एक छात्र ने अपने एक अध्यापक को सरकारी ज़िम्मेवारी निभाने में सहयोग दिया – इसमें विशेष यह है कि वह छात्र था- अजित शंकर चौधरी जिसे तब तक थोडी-बहुत लेखकीय ख्याति अजितकुमार के नाम से मिल चुकी थी और वह गुरु थे- प्रसिद्ध हिन्दी कवि डा हरिवंश राय बच्चन जो प्रयाग विश्वविद्यालय में अनेक वर्ष अंग्रेज़ी साहित्य के प्राध्यापक रह विदेश जा केम्ब्रिज से आयरिश कवि येटस के तंत्रवाद पर अपना शोध-कार्य पूरा कर हाल में ही स्वदेश लौटे थे और जिन्हें सन 1955 में तत्कालीन प्रधान मन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दी का विशेषाधिकारी बना दिल्ली-स्थित विदेश मन्त्रालय में नियुक्त किया था।
उस अवधि का और अपनी उन दिनों की मानसिक स्थिति का विशद वर्णन बच्चन जी आत्मकथा में कर चुके है जिसे दोहराना यहां ज़रूरी नहीं । पर जो बहुत सी बातें अनकही रह गयीं , उनमें से कुछ का हवाला यहां देना शायद प्रासंगिक होगा।
तब मैं डीएवी कालेज, कानपुर में सुखपूर्वक अध्यापन करते हुए लेखन तथा परिवार के परिवेश में पूरी तरह मगन और संतुष्ट था किन्तु नियति मुझे खींचकर दिल्ली ले आई जहां मैं 1956 से लेकर अब तक न केवल अटका हुआ हूं बल्कि जान पड़ता है, यहीं दम भी तोडूंगा जबकि मुझे घसीटकर दिल्ली लाने वाले बन्धु ओंकारनाथ श्रीवास्तव और गुरुवर बच्चनजी क्रमश: लंदन और बम्बई में संसार से बिदा ले गये । अब इसका रोना कहां तक रोया जाय कि हम जिनके भरोसे गफ़लत में पडे सोये रहते हैं, वे अकसर बीच में ही उठ कर चले जाते हैं । तो धीरज रखने का उपाय यही है कि उनसे जुडी यादें हमें जब-तब प्रेरित करती रहें । और, जहां तक इन दोनो का संबन्ध है, संक्षेप में यही कहूंगा कि चारो ओर घिर रही रात में उनका स्मरण मुझ ऊंघते को रह-रह कर जगाता है ।
ओंकार सन 1948 से 1953 तक प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्रावास केपीयूसी में मेरे प्रिय साथी रहे । बच्चनजी उनके क्लासटीचर और मेरे सेमिनार टीच्रर थे । सबसे पहले उन्हींके साथ मैं बच्चनजी के घर गया था । कालान्तर में जब ओंकार को आकाशवाणी, दिल्ली में काम मिला और पता चला- विदेश मन्त्रालय में बच्चनजी को एक सहायक चाहिये, मुझे कानपुर से बुलाया गया और इस तरह हम तीनो फिर एक ही नगर में इकट्ठे हो गये । यह सम्मिलन धीरे-धीरे किस तरह बढ्ता गया और अपने छात्रों के पारिवारिक जीवन में गुरुवर ने कैसी सार्थक भूमिका निभाई, इसका रोचक वर्णन ओंकार ने अपने लेख ‘कोई न कभी मिलकर बिछुडे ‘में किया है जिसका शीर्षक बच्चनजी के उस गीत पर आधारित था जिसमें ये पंक्तियां आती हैं- ‘सब सुख पावें, सुख सरसावें ‘। भलेही समय ने हमारे अनेक सुख हमसे छीन लिये हों,- यह तथ्य कि गुरु-दम्पति के सान्निध्य में हम अनेक छात्रों ने भरा-पूरा जीवन जिया- अपनेआप में उल्लेखनीय है ।
मेरा अतिरिक्त सौभाग्य यह था कि मैंने विदेश विभाग में हिन्दी अनुवाद करते हुए लगभग छह साल उनके साथ बिताये और जाना कि ‘मैं कलम और बन्दूक चलाता हूं दोनों’ गानेवाला कवि दफ़्तर का उबाऊ काम भी कैसी निष्ठा और लगन से करता था । इसमें सन्देह नहीं कि वे प्रथमत: और प्रमुखत: कवि थे पर यह कभी नहीं हुआ कि इसे उन्होंने दफ़्तरी अनुशासन या दायित्व पर हावी होने दिया हो ।
डा बच्चन ने आत्मकथा के दूसरे खंड ‘नीड का निर्माण फिर ‘ में तनिक विस्तार से विदेश मन्त्रालय में विशेषाधिकारी- हिन्दी बन् कर आने की स्थितियां बयान की हैं, जहां वे 1955 से लेकर 1965 तक रहे । उन्होंने तो इसका ज़िक्र कहीं नहीं किया, पर जब 1956 में हिन्दी अनुवादक बनकर मैं विदेश मन्त्रालय में आया, तब मुझसे और बच्चनजी के पहले से वहां हिन्दी एकांश में कार्यरत श्री राधेश्याम शर्मा ने मुझे वह कथा सुनाई थी जो समय से कुछ पूर्व ही बच्चनजी के विदेश मन्त्रालय में नियुक्त हो जाने का निमित्त बनी थी।
उक्त आत्मकथा के पाठक जानते ही हैं कि विदेश से उच्च उपाधि लेकर लौटने पर अपने विभाग और विश्वविद्यालय में बच्चनजी को जो उदासीनता और दुर्भावना झेलनी पडी, उससे वे आहत थे और जिन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस पढाई में उनकी सहायता की थी, उनके मन में यह विचार आया था कि भारत सरकार में वे उनके लिये यथावसर कोई उपयुक्त पद बनायेंगे।
श्री राधेश्याम शर्मा के अनुसार यह अवसर संयोगवश सन 1955 में निकल आया, जब श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित सोवियत संघ में भारत की राजदूत होकर पहुंचीं और उन्होंने अपने पद का सत्यांकन पत्र संबद्ध अधिकारी को सौंपने की पेशकश करनी चाही ताकि वे अपना राजनयिक दायित्व विधिवत आरम्भ कर सकें । लेकिन इसमें बाधा यह आ पडी कि रूसियों ने सत्यांकन पत्र की भाषा- अंग्रेज़ी- को लेकर ऐसी आपत्ति खडी कर दी जिसका तत्काल समाधान किये बिना श्रीमती पंडित की नियुक्ति सत्यापित नहीं हो सकती थी । वह शीतयुद्ध के चरमोत्कर्ष का काल था और दोनो गुट एक-दूसरे को नीचा दिखाने के मौक़े खोजते ही रहते थे । रूसियों ने चाहा कि सत्यांकनपत्र या तो भारत की राषट्रभाषा हिन्दी में हो, या सोवियत सघ की राष्टभाषा रूसी में, जो एक ऐसी मांग थी, जिसका तर्कसंगत उत्तर यही हो सकता था कि सरकारी प्रलेखों के लिये अंग्रेज़ी के सर्वमान्य उपयोग वाली प्रचलित पद्धति अपनाये रखने की जगह वह कागज़ हिन्दी में तैयार किया जाय और जब तक यह नहीं हो जाता, हमारी राजदूत बीच में अटकी रहें ।
राधेश्यामजी ने बताया था कि उन दिनों का दफ़्तरी तनाव तब और बढ गया था- जब उक्त आलेख का हिन्दी अनुवाद शिक्षा मन्त्रालय के सहयोग से हिन्दीभाषी अधिकारियों द्वारा तैयार करा, कैलिग्राग्राफ़िस्ट अर्थात क़ातिब से सुन्दर अक्ष्र्रों में, उम्दा, मोटे कागज़ पर लिखवा, मास्को भेजा गया – जो सत्यांकन पत्र की मानक विधि थी- किन्तु अधिकारी चकित रह गये जब रूसी विद्वानों ने उस पाठ में भाषा तथा वर्तनी की अनेक गलतियों पर निशान लगा, उसे वापस कर दिया, जिसका सीधा असर यह तो हुआ ही कि हमारी राजदूत अपना काम-काज शुरू न कर पायी, ऊपर से यह खिसियाहट भी झेलनी पडी कि हमारी अपनी भाषा को हमारी अपेक्षा विदेशी विद्वान सीनियर बरान्निकोव- चेलिशेव आदि ज़्यादा अच्छी तरह जानते हैं ।
सम्भवत: यही वह स्थिति रही होगी, जब पंडित नेहरू ने हस्तक्षेप किया और डा0 बच्चन के पास संदेश गया कि वे दिल्ली आकर सरकार को इस भारी धर्मसंकट से उबारें । बच्चन जी ने बडी कुशलता से उस कार्य को संपन्न किया और इस सिलसिले में जो लम्बी-चौडी दफ़्तरी कारगुज़ारी हुई, उसका नतीजा यह निकला कि भारत सरकार के विदेश मंत्रालय म्रें यह नीतिगत निर्णय लिया गया कि भविष्य में भारतीय राजदूतों के सत्यांकन पत्र हिन्दी में ही जारी किये जायेंगे । अत: तत्कालीन हिन्दी एकांश को कुछ बढा, बाबू, टाइपिस्ट, आशुलिपिक आदि अमला जोड ‘हिन्दी सेक्शन’ गढा गया और चिट्ठी-पत्री सम्बन्धी उसकी भाषायी ज़िम्मेवारियों में एक और काम- ‘सत्यांकन पत्र की तैयारी ‘- भी शामिल हुआ। मुझे यह भी पता चला कि ‘इकाई’ या ‘एकांश’जैसी निर्वैयिक्तकता से उसको मुक्त कर बच्चनजी ने उसे ‘विभाग’ का स्वरूप देने पर बल दिया और सरकारी कागज़ों में वह कुछ भी रहा हो, उनके लिये वह इसी भांति बना, भले ही सरकारी तौर पर उसे फुलाने-फैलानी की कला न उन्हें आती थी और न उन्हें वैसा करने में कोई दिलचस्पी थी, जिसको विदेशियों ने ‘पीटर’ और ‘पार्किन्सन नियमों-सिद्धान्तों’जैसे नामो से जोड़कर प्रतिष्ठा भले दी हो, पर जिसके मूल में हमेशा की तरह भावना सीधी सी यह रही कि अफ़सर वही बड़ा माना जायेगा जिसकी गर्दन में मातहतों की छोटी-बड़ी भरपूर मालाएं पड़ी हुई हों । आज यह कहते हुए मुझे विशेष गर्व होता है कि विदेश मन्त्रालय में काम करने के पूरे छ:वर्षों के दौरान एक बार भी मैंने बच्चनजी को इस आकांक्षा से ग्रस्त नहीं पाया और सौभाग्यवश मुझे भी ऐसा कोई दंश नहीं हुआ कि सरकारी सीढियों के एक निचले पायदान पर मैं इतने सालों अटका पड़ा रहा । ज़रूर ही, इसके पीछे गुरु और शिष्य की मानसिकता का एक स्तर पर तालमेल काम कर रहा होगा गोकि यहां ठहरकर मैं जोड़ना चाहूंगा कि मुझमें और उनमें जो बहुत से फ़र्क थे- मसलन उनकी सुचारुता-व्यवस्थाप्रियता और मेरा ढीलाढालापन- उसे भी निकट से जानने का मुझे अवसर मिला जिसे बहुत शुरू से ही भांपकर वे मुझे ‘दीर्घसूत्री‘ अर्थात विलम्ब से काम पूरा करने वाला कहने लगे थे। पर उस सबकी चर्चा फिर कभी करूंगा, अभी वह सूत्र जोड़ता हूं जिसके बीच में छूट जाने का भय है ।
विदेश मन्त्रालय में हिन्दी के विशेषाधिकारी की भांति बच्चन जी की नियुक्ति का तात्कालिक संदर्भ- शर्मा जी के अनुसार- यही था । 1956 के आरंभिक महीनों मे, जब मैं हिन्दी अनुवादक बनकर दिल्ली पहुंचा और हिन्दी विभाग में सहायक की भांति कार्यरत शर्मा जी से मित्रता हुई तो एक रोज़ किसी ‘लेटर आफ़ क्रीडेंस’ में स्पेलिंग की गल्तियो पर पेंसिल से निशान लगाते समय मुझे खीझते देख उन्होंने यह कथा सुनायी थी। मेरी शिकायत मुख्यत: यह थी कि पहली बार मार्क की हुई गलतियां ठीक करना तो दूर, क़ातिब ने कितनी ही नयी गलतियां कर दी हैं, जिन्हें ठीक करने का मतलब होगा- मंहगे- उम्दा- मोटे कागज़ की और भी ज़्यादा बर्बादी । इसपर जहां उन्होंने समझाया था कि सरकारी काम-काज में ऐसे अपव्यय तो होते ही रहते हैं और कि सुलेख के धनी ये लोग आमतौर से होते हैं अनपढ ही, वहीं लगे हाथों पूरी पष्ठ्भूमि भी मुझे बताना उन्होंने ज़रूरी माना था ।
छह वर्ष, जो मैंने वहां बिताये- तनिक से काम और ढेर से आराम के वर्ष थे । मुख्य दायित्व वहां सत्यांकनपत्रों के अलावा संसद के प्रश्नों का हुआ करता था- यानी उन प्रश्नों का जो हिन्दी में पूछे जाते थे और जिनका उत्तर भी हिन्दी में ही दिये जाने का प्रावधान था । आज की बात तो मैं नहीं जानता पर उन दिनों इससे जुडी समूची प्रक्रिया मुझे हास्यास्पद मालूम होती थी । आज़ादी के उन शुरुआती सालों में संसद मे वैसे तो काफ़ी कारवाई होती थी पर उसका अधिकतर माध्यम अंग्रेज़ी रहती थी । हिन्दी में कोई इक्का-दुक्का ही सवाल पूछा जाता था और विदेश मन्त्रालय से जुडा प्राय: एक ही सवाल गाहे-बगाहे कोई हिन्दीभाषी उठा देता था कि हमारे कितने दूतावासों का काम हिन्दी में होता है ।
इसे निबटाने का बहुत रोचक ढंग बनाया गया था । पहले हम हिन्दी विभाग में उस प्रश्न का अनुवाद अंग्रेज़ी में कर प्रशासन के पास भेजते, जो उसका उत्तर अंग्रेज़ी में लिख हमारे पास लौटाता ताकि हम फिर उसका अनुवाद कर, अपने प्रशासन के माध्यम से संसद को सुलभ करा सकें । मुझे हैरानी होती थी कि जब सीधा सा जबाब यह हुआ करता था कि ‘सूचना एकत्र की जा रही है और सुलभ होते ही सदन की मेज़ पर रख दी जायगी’ तो इसके वास्ते हर बार नाक हाथ घुमाकर क्यों पकड़ी जाती है ? पर यह दफ़्तरी मामला था जिसमें नाक घुसा दखल देने की गुंजाइश नहीं थी इसलिये ऐसे मौक़ों पर हमारे विभाग के सभी सदस्य- ओएसडी(आफ़िसर आन स्पेशल ड्यूटी) से लेकर एलडीसी(लोयर डिविज़न क्लर्क) और चपरासी तक मिलकर चींटी को मशीनगन से मारने में मशगूल हो जाते थे क्योंकि दफ़्तरी मामलो में हमारे सलाहकार राधेश्याम जी ने बताया था कि संसदीय प्रश्न को निबटाना प्रथम सरकारी वरीयता है और इस ‘टाप प्रायोरिटी ‘ से छुट्टी पाकर ही किसी दूसरे काम में हाथ लगाया जा सकता है ।