विदेश मंत्रालय में छह वर्ष (पृष्ठ-2) / अजित कुमार
इस निर्देश का पालन करने का मतलब हमारे लिए आम तौर से यह होता था कि संसद का सत्र होने पर ही हम कभी-कभी थोड़ी देर के लिए तनिक सा ब्यस्त होते थे , बाकी समय किसी हिन्दी में आए पत्र /आवेदनपत्र का अनुवाद करना हो, तो करते, अन्यथा चाय पीते, अखबार पढते और आपस में या फ़ोन पर गपशप करते थे । हमारे एक मात्र अधिकारी बच्चनजी का अपना स्वतंत्र कमरा था, जहां हम चपरासी के जरिए कागज़ हस्ताक्षर के लिए भेज देते या कोई फ़ौरी, ज़रूरी काम निपटाना होता तो अनुवाद विषयक फाइल लेकर मैं और दफ़्तरी कारवाई संबन्धी फाइल के साथ शर्मा जी बच्चनजी के पास दस्तखत कराने जाते थे । शुरू-शुरू में तो हमारा दफ़्तर सेक्रेटेरियट के साउथ ब्लाक में था, जहां स्वयं नेहरू जी प्रधान मंत्री की हैसियत से और विदेश मंत्रालय के अन्य वरिष्ठ अधिकारी बैठते थे । उस समय का एक रोचक प्रसंग आज तक मुझे गुदगुदाता है।
हुआ यौ कि जब मैं डी ए वी कांलेज , कानपुर से बिदा हो दिल्ली पहुंचा तो पता नहीं कैसे मेरे छोटे से कस्बे उन्नाव में मुझे जाननेवाले कई लोगों को खामखयाली सी हो गयी कि राजधानी में प्रधान मंत्री नेहरू के बाद बच्चनजी का दर्जा है और उनके बाद अजित का । इसकी जानकारी मुझे तब हुई जब दो-चार महीने काम करने के बाद कुछ रोज की छुट्टी ले मैं घर पहुंचा । एक बालबंधु ने मिलते ही पूछा –‘पंडित जी से तो रोज ही मुलाकात होती होगी ? जिसका उत्तर सादा सा मुझे यही देना पडा कि ‘नहीं भाई, एकाधबार संयोगवश उन्हें आते-जाते देखा भर है।‘ फिर मैं उन्हे काफ़ी देर तक सरकारी तंत्र के बारे में बताता रहा कि चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक फैली जंजीर में कितनी ज़्यादा कडियां होती हैं और कि उनके बीच मुझ नान-गज़ेटेड और गुरुवर जैसे अंडर सेक्रेटरी अधिकारी की भूमिका दाल में जीरे के एक दाने से भी कितनी कम है- जिसे तो वे मित्र पता नहीं कितना समझे…पर जब मैंने भारत सरकार के हाहाहूती कार्यालयों- साउथ- नार्थ ब्लाकों, ससद भवन,राष्ट्रपति भवन, राजपथ, कनाटप्लेस आदि के बारे में बताना शुरू किया तो दिखा कि उनकी आंखें, नाक-कान सब खुले के खुले रह गये हैं ।
जैसा मैंने बताया- शुरू में हिन्दी विभाग साउथ ब्लाक में था जहां मेरा साक्षात्कार बच्चनजी के अलावा विदेश मन्त्रालय में तब संयुक्त सचिव श्री टी एन कौल ने लिया था जो एक समय उन्नाव में ज़िलाधीश भी रह चुके थे और उनकी विशेष याद मुझे इस नाते भी थी कि स्कूल में उनके हाथों मुझे जीवन का पहला पुरस्कार मिला था और विश्वयुद्ध के दौरान उनकी पहल पर उन्नाव में आयोजित संगीत सम्मेलन में पहली बार मैंने उस्ताद फ़ैयाज़ खां, न्रारायणराव व्यास, ओंकारनाथ ठाकुर जैसे महान गायकों को सुन जीवन की धन्यता महसूस की थी । यह तो खैर बहुत बाद में जाना कि इस तरह के जलसों का असली मक़सद लडाई के लिये धन इकट्ठा करना होता था लेकिन ‘ दूर खेलन मत जाव, हमारे मन ‘ और ‘पलँगा ना चढौगी ‘ आदि की गूंज आज साठ- पैसठ साल बाद भी मुझे मगन करती रहती है । … साक्षात्कार के दौरान तो इस सबकी चर्चा का अवसर था नहीं और बाद में भी कभी कौल साहब से मुलाकात या बातचीत नहीं हो पाई लेकिन उनके अनजाने मैं आज भी उनके साथ अपने मन का गहरा जुड़ाव यदि महसूस करता हूं तो शायद इसलिए कि एक तो उनके नाते बचपन में गहरा सुख मिला था, दूसरे- सन 1956 से लेकर आज सन 2008 तक मेरी जीवन की जो भी गतिविधि, आशा–निराशा-हताशा रही है, उसमें अप्रत्यक्ष रूप से सही कुछ न कुछ भूमिका उनकी भी थी । कालान्तर में मैंने यह भी जाना कि जहां मैने जीवन में लगातार पिछड़ते जाने का रास्ता अपने लिये चुना, वहां अन्य बहुतेरे आईसीएस अधिकारियों की भाति श्री कौल अपने कैरियर में ऊची-दर-ऊंची सीढी चढते गये थे ।
बहरहाल, हिन्दी विभाग के काम की चर्चा के सिलसिले में यह बताना फिर ज़रूरी है कि दफ़्तरी तत्परता और संलग्नता के बावजूद बच्चनजी की रुचि अपना अमला बढाने में न थी और इसके लिये ज़रूरी दफ़्तरी हथकंडे भी उन्हें मालूम न थे इसलिये उनके कार्यकाल में तो उनके समेत कुल सात जने ही वहां रहे लेकिन बाद में अन्य अधिकारी उसे दोगुना –दस गुना बढाने में समर्थ हुए। आज के काम काज की स्थिति तो मैं नहीं जानता, एक बार वह कार्यालय छोड्ने के बाद दोबारा उसमें जाने का मन नहीं हुआ,