विद्या / मृणाल आशुतोष
कक्षा में शिक्षक नहीं थे। बच्चे उन के न होने का फायदा उठाते हुए शोर मचा रहे थे। अचानक शिक्षक के आने की आवाज़ सुन सब चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए।
शिक्षक ने कक्षा शुरू की, "बच्चो! कल जो पाठ पढ़ा था। वह सबको समझ आया था न!"
"जी सर।" सब बच्चों ने ज़ोर से आवाज़ लगायी।
"ठीक है, रवि! तुम वह श्लोक सुनाओ।"
"विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्। ।"
"समीर, अब तुम इसका अर्थ बताओ।"
"विद्या विनय ..."
"ठीक!"
"विद्या विनय देती है और...और!"
"अरे नालायक! कल ही तो बताया था।"
"सर, विद्या विनय देती है और ...और उससे धन...!"
"ला रे रवि, छड़ी ला। इस गधे को एक श्लोक का अर्थ तक याद नहीं हुआ। उल्लू का पट्ठा, पक्का फेल होगा इस बार।"
बच्चे अपनी कॉपियों में सर द्वारा लिखवाया गया श्लोक का अर्थ पढ़ रहे थे, 'विद्या विनय देती है...!'