विद्वान / संजय पुरोहित
“बालश्रम निश्चय ही तीसरी दुनिया के लोगों के लिए शर्मनाक है, इसे बन्द होना ही चाहिए।”
“आप ठीक कहते हैं। इससे न केवल बच्चों का बचपन बल्कि आगे चलकर उसकी जवानी और बुढ़ापा, तीनों ही बर्बाद हो जाते हैं।”
“और तो और, हमारे कई उत्पादों का पश्चिमी देश बहिष्कार कर रहे हैं क्योंकि उनमें बालश्रम का प्रयोग होता है।”
“अरे भाई, सूखी चर्चा ही करते रहोगे या कुछ चाय-वाय का भी बन्दोबस्त करोगे?”
“आपने ठीक याद दिलाया, अरे ओ मनसुखिया, कहाँ मर गया, चाय का क्या हुआ?”
एक आठ-दस साल का लड़का चाय लेकर आता है, केतली से कप में भरते हुए कुछ चाय की बूँदें गद्दे पर गिर जाती हैं।
“बेवकूफ, नालायक, कर दिया ना नये नये गद्दे का सत्यानाश।”
“खाने को मन भर चाहिए और काम करते मौत आती है, अब देख क्या रहा है, निकल भाग यहाँ से नहीं तो यहीं पिटाई कर डालूँगा तेरी।”
“आप अपना मूड न खराब कीजिये। इन्हे मुँह नहीं लगाना चाहिए।”
“चलिये चर्चा पर लौटते हैं। तो हम किस प्रकार बालश्रम को पूर्णतया समाप्त करने के लिए आम जनता को प्रेरित कर सकते हैं..............!”
चर्चा जारी रहती है।