विधु विनोद चोपड़ा की सिनेमाई शतरंज का "वजीर" / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 11 दिसम्बर 2014
विधु विनोद चोपड़ा की अंग्रेजी भाषा में बनी "ब्रोकन हॉर्सेस' अगले वर्ष के मध्य तक प्रदर्शित होगी। उनकी राजू हीरानी और आमिर के साथ बनी फिल्म "पीके' 19 दिसंबर को प्रदर्शित हो रही है। उनकी बिजॉय नांबियार द्वारा निर्देशित "वजीर' में अमिताभ बच्चन, फरहान अख्तर, अदिति राव हैदरी और मानव कौल अभिनय कर रहे हैं। दिल्ली में शूटिंग का पहला दौर हो चुका है, दूसरा कश्मीर में होगा। "मिशन कश्मीर' के समय हीरानी उनके सहायक निर्देशक थे। ज्ञातव्य है कि "वजीर' पहले "दो' के नाम से बनाई जाने वाली थी। कथा के बारे में अभी कोई जानकारी नहीं है परन्तु टाइटिल तो शतरंज के खेल का है, भले ही शाब्दिक अर्थ "मंत्री' हो। शतरंज का खेल विधु की विचार प्रक्रिया का एक हिस्सा रहा है और उनकी फिल्मों की बुनावट भी इसी खेल की तरह होती है, पात्र भी वैसी ही चाल रखते हैं। शतरंज को रूपक बनाकर विधु की फिल्मों पर शोध किया जा सकता है। हाल में जावेद अख्तर ने टाटा स्काई पर जारी अपने कार्यक्रम "दोहे मोहे सोवे' में रहीम के एक दोहे की व्याख्या की थी कि शतरंज के खेल में ऊंट ढाई घर चल सकता है, टेढ़ा चल सकता है, उसकी मार जबरदस्त है परन्तु वह कभी बादशाह नहीं हो सकता, जबकि प्यादा मात्र एक घर चल सकता है और सीधा ही चल सकता है, परन्तु बिसात की दूसरी ओर अंतिम "घर' पर पहुंचते ही उसकी ताजपोशी हो जाती है और बादशाह हो जाता है।
गोयाकि साधारण व्यक्ति सरल सीधी राह से चलकर शिखर पर पहुंच सकता है। उसकी ताजपोशी मुमकिन है। वहीं ढाई घर और टेढ़ा चलने वाले में भले ही मारक शक्ति हो लेकिन उसकी ताजपोशी मुमकिन नहीं। शैलेंद्र की पंक्ति है "सीधी राह पर चलना, देखकर उलझन, बचकर निकलना'। सई परांजपे की "कथा' कछुए खरगोश की कथा से प्रेरित थी और वह भी सरलता, सहजता की विजय गाथा थी। सत्यजीत रॉय ने मुंशी प्रेमचंद की कथा से प्रेरित अपनी पहली हिन्दी फिल्म "शतरंज के खिलाड़ी' बनाई जिसमें संजीव कुमार, शबाना आजमी और सईद जाफरी ने अभिनय किया था। रॉय महोदय ने प्रेमचंद की ही "सद्गति' से प्रेरित फिल्म दूरदर्शन के लिए बनाई थी जिसमें एक ब्राह्मण अपने घर आए दलित से इतना परिश्रम कराता है कि उसकी मृत्यु हाे जाती है और उच्च जाति का व्यक्ति इतना संवेदनहीन हो जाता है कि उसे मृत्यु पर कोई शोक नहीं, अपने बर्बर काम पर पछतावा नहीं, अब उसकी एकमात्र कठिनाई ये है कि इस अस्पृश्य लाश को अपने आंगन से बाहर कैसे फेंके, उसे हाथ लगाने पर तो उसका धर्म भ्रष्ट होगा। गौरतलब यह भी है कि रॉय की दोनों हिन्दी फिल्में महान साहित्यकार प्रेमचंद से प्रेरित है और उनकी अधिकांश बंगाली भाषा में बनी फिल्में भी महान साहित्यकारों की रचना से प्रेरित रही हैं।
बहरहाल विनोद चोपड़ा की "वजीर' में शतरंज एक रूपक है और संभव है खेल की बारीकियों के अनुसार जीवन में आम आदमी तथा ओहदेदारों के कार्यकलाप का गहरा संकेत हो क्योंकि शतरंज, उसकी बिसात और मोहरे साहित्य में हमेशा प्रतीकों के अर्थ में लिए गए हैं। इस खेल का कुछ फिल्मों में इस्तेमाल हुआ है जैसे राज खोसला की "मुंबई के बाबू' में लूटने के लिए पुत्र बनकर आए नायक की हकीकत परिवार की कन्या ने समझ ली है और जब पिता-पुत्र शतरंज खेल रहे हैं तो नायक-नायिका के संवादों में छुपा है कि घर की कन्या उसकी हकीकत जान गई है। "जिंदगी' पर "मात' सीरियल दिखाया जा रहा है, इसमें भी पात्रों की व्याख्या शतरंज की शब्दावली में है। राजकपूर की "श्री 420' में सेठ सोनाचंद के मकान का फर्श शतरंज की बिसात की तरह है और सेठजी नायक को मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
फिल्म जगत में ऋषिकेश मुखर्जी और राहुल देव बर्मन को शतरंज का बहुत शौक था। अशोक कुमार भी शौकीन थे। फिल्म उद्योग को प्राय: लोकप्रिय सितारों और सफल निर्माताओं ने शतरंज की बिसात की तरह समझा है और प्रतिद्वंद्वी को मात देने का प्रयास किया जाता है परन्तु इन महानुभावों को प्यादे अर्थात् दर्शक की ताकत का अंदाज नहीं है। मनोरंजन उद्योग के शतरंज का सबसे ताकतवर मोहरा आम दर्शक ही है।