विनयपत्रिका की हरितोषिणी टीका का 'परिचय' / रामचन्द्र शुक्ल
भक्ति रस का पूर्ण परिपाक जैसा विनयपत्रिका में देखा जाता है वैसा अन्यत्र नहीं। भक्ति में प्रेम के अतिरिक्त आलंबन के महत्तव और अपने दैन्य का अनुभव परम आवश्यक अंग है। तुलसी के हृदय से इन दोनों अनुभवों के ऐसे निर्मल शब्द-स्रोत निकले हैं, जिनमें अवगाहन करने से मन की मैल कटती है और अत्यन्त पवित्र प्रफुल्लता आती है। गोस्वामीजी के भक्ति क्षेत्र में शील, शक्ति और सौन्दर्य तीनों की प्रतिष्ठा होने के कारण मनुष्य की सम्पूर्ण रागात्मिका प्रकृति के परिष्कार और प्रसार के लिए मैदान पड़ा हुआ है। जिस प्रकार लोक व्यवहार से अपने को अलग करके आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होनेवाले काम, क्रोध आदि शत्रुओं से बहुत दूर रहने का मार्ग पा सकते हैं, उसी प्रकार लोक-व्यवहार में मग्न रहनेवाले अपने भिन्नभिन्नर् कर्तव्यों के भीतर ही आनन्द की वह ज्योति पा सकते हैं जिससे इस जीवन में दिव्य जीवन का आभास मिलने लगता है, और मनुष्य के वे सब कर्म, वे सब वचन और वे सब भाव-क्या डूबते हुए को बचाना, क्या अत्याचारी पर शस्त्र चलाना, क्या स्तुति करना, क्या निन्दा करना, क्या दया से आर्द्र होना, क्या क्रोध से तमतमाना-जिनसे लोक का कल्याण होता आया है, भगवान् के लोक पालन करनेवाले कर्म, वचन और भाव दिखाई पड़ते हैं।
यह प्राचीन भक्तिमार्ग एकदेशीय आधार पर स्थित नहीं, यह एकांगदर्शी नहीं। यह हमारे हृदय को ऐसा नहीं करना चाहता कि हम केवल व्रत उपवास करनेवालों और उपदेश करनेवालों ही पर श्रध्दा रखें और जो लोग संसार के पदार्थों का उचित उपभोग करके अपनी विशाल भुजाओं से रणक्षेत्र में अत्याचारियों का दमन करते हैं, या अपनी अन्तर्दृष्टि की साधना और शारीरिक अध्येवसाय के बल से मनुष्य जाति के ज्ञान की वृध्दि करते हैं, उनके प्रति उदासीन रहें। गोस्वामीजी की रामभक्ति, वह पदार्थ है जिससे जीवन में शक्ति, सरसता, प्रफुल्लता, पवित्रता सब कुछ प्राप्त हो सकती है। आलंबन की महत्तव भावना से प्रेरित दैन्य के अतिरिक्त भक्ति के और जितने अंग हैं-भक्ति के कारण अन्त:करण को जो और और शुभ वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं-सबकी अभिव्यंजना विनयप्रत्रिका के भीतर हम पा सकते हैं। राम में सौन्दर्य, शक्ति और शील तीनों की चरम अभिव्यक्ति एक साथ समन्वित होकर मनुष्य के सम्पूर्ण हृदय को-उसके किसी एक ही अंश को नहीं-आकर्षित कर लेती है। कोरी साधुता का उपदेश पाखंड है; कोरी वीरता का उपदेश उद्दंडता है, कोरे ज्ञान का उपदेश आलस्य है, और कोरी चतुराई का उपदेश धूर्तता है।
सूर और तुलसी को हमें उपदेश के रूप में नहीं देखना चाहिए। ये उपदेशक नहीं हैं, अपनी भावुकता और प्रतिभा के बल से लोकादर्श की मनोहर मूर्ति प्रतिष्ठित करनेवाले हैं। हमारा प्राचीन भक्ति मार्ग उपदेशकों की सृष्टि करनेवाला नहीं है। सदाचार और ब्रह्मज्ञान के रूख को उपदेशों द्वारा इसके प्रचार की व्यवस्था नहीं है। न हमारे राम और कृष्ण उपदेशक, न उनके भक्त तुलसी और सूर। लोक व्यवहार में मग्न होकर जो मंगल ज्योति इन अवतारों ने उसके भीतर जगाई, उसके माधुर्य का अनेक रूपों में साक्षात्कार करके मुग्ध होना और मुग्ध करना ही इन भक्तों का प्रधान व्यवसाय है। उनका शस्त्र भी मानव हृदय है और लक्ष्य भी। उपदेशों का ग्रहण ऊपर ही ऊपर से होता है। न वे हृदय के मर्म को ही भेद सकते हैं, न बुध्दि की कसौटी पर ही स्थिर भाव से जमे रह सकते हैं। हृदय तो उनकी ओर मुड़ता ही नहीं और बुध्दि उनको लेकर दार्शनिक वादों के बीच जा उलझती है। उपदेश, वाद या तर्क गोस्वामीजी के अनुसार 'वाक्य ज्ञान' मात्र कराते हैं, जिससे जीवन कल्याण का लक्ष्य पूरा नहीं होता-
वाक्य-ज्ञान अत्यंत निपुन भव पार न पावै कोई।
निसि गृह मध्य दीप की बातन तम निवृत्ता नहिं होई (123)
'वाक्य ज्ञान' और बात है, अनुभूति और बात। इसी से प्राचीन परंपरा के भक्त लोग उपदेश, वाद या तर्क की अपेक्षा चरित्र श्रवण और चरित्र कीर्तन आदि का ही अधिक नाम लिया करते हैं।
प्राचीन भागवत सम्प्रदाय के बीच भगवान् के उस लोकरंजनकारी रूप की प्रतिष्ठा हुई जिसके अवलम्बन से मानव हृदय अपने पूर्ण भावसंघात के साथ कल्याण मार्ग की ओर आप से आप आकर्षित हो सके। इसी लोकरंजनकारी रूप का प्रत्यक्षीकरण प्राचीन परंपरा के भक्तों का लक्ष्य है, उपदेश देना नहीं। उसी मनोहर रूप की अनुभूति से गद्गद और पुलकित होना, उसी रूप की एक एक छटा को औरों के सामने भी रख कर उन्हें मानव जीवन के सौन्दर्य-साधन में प्रवृत्त करना भक्तों का काम है।
गोस्वामीजी ने अनन्त सौन्दर्य का साक्षात्कार करके उसके भीतर ही अनन्त शक्ति और अनन्त शील की वह झलक दिखाई है, जिससे लोक का प्रमोदपूर्ण परिचालन होता है। सौन्दर्य, शक्ति और शील तीनों में मनुष्य मात्र के लिए आकर्षण विद्यमान है। रूप लावण्य के बीच प्रतिष्ठित होने से शक्ति और शील को और भी अधिक सौन्दर्य प्राप्त हो जाता है, उनमें एक अपूर्व मनोहरता आ जाती है। जिसे शक्ति सौन्दर्य की यह झलक मिल गई उसके हृदय में सच्चे वीर होने का अभिलाष जीवन भर के लिए जग गया, जिसने शील सौन्दर्य की यह झाँकी पाई, उसके आचरण पर इसके मधुर प्रतिबिम्ब की छाप बैठी। प्राचीन भक्ति के इस तत्वा की ओर ध्याउन न देकर जो लोग लोकादर्श स्थापक सूर और तुलसी को कबीर, दादू आदि की श्रेणी में रख कर देखते हैं, वे बड़ी भारी भूल करते हैं।
अनन्त शक्ति सौन्दर्य समन्वित अनन्त शील की प्रतिष्ठा करके गोस्वामीजी को पूर्ण आशा होती है कि उसका आभास पाकर जो पूरी मनुष्यता को पहुँचा हुआ हृदय होगा वह अवश्य द्रवीभूत होगा-
सुनि सीतापति सील सुभाउ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेर खाउ।
इसी हृदय पध्दति द्वारा ही मनुष्य में शील और सदाचार का स्थायी संस्कार जम सकता है। दूसरी कोई पध्दति है ही नहीं।
चरम महत्तव के इस भव्य मनुष्य ग्राह्य रूप के सम्मुरख भाव विह्नल भक्त हृदय के बीच जो जो भाव तरंगें उठती हैं उन्हीं की माला यह विनयपत्रिका है। महत्तव और इन भाव तरंगों की स्थिति परस्पर बिंब प्रतिबिंब समझनी चाहिए। भक्त में दैन्य, आत्म समर्पण, आशा, उत्साह, आत्मग्लानि, अनुताप, आत्म निवेदन आदि की गंभीरता उस महत्तव की अनुभूति की मात्रा के अनुसार समझिए। महत्तव का जितना ही सान्निध्यस प्राप्त होता जायगा-उसका जितना ही स्पष्ट साक्षात्कार होता जायगा-उतना ही अधिक स्फुट इन भावों का विकास होता जायगा, और इन पर भी महत्तव की आभा चढ़ती जायगी। मानो ये भाव महत्तव की ओर बढ़ते जाते हैं और महत्तव इन भावों की ओर बढ़ता आता है। इस प्रकार लघुत्व का महत्तव में लय हो जाता है।
सारांश यह है कि भक्ति का मूल तत्वम है महत्तव की अनुभूति। इस अनुभूति के साथ ही दैन्य अर्थात् अपने लघुत्व की अनुभूति का उदय होता है। इस अनुभूति को दो ही पंक्तियों में गोस्वामीजी ने बड़े ही सीधे सादे ढंग से कह दिया है-
राम सों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो?
राम सों खरो है कौन, मोसों कौन खोटो?
प्रभु के महत्तव के सामने होते ही भक्त के हृदय में अपने लघुत्व का अनुभव होने लगता है। उसे जिस प्रकार प्रभु का महत्तव वर्णन करने में आनन्द आता है उसी प्रकार अपना लघुत्व वर्णन करने में भी। प्रभु की अनन्त शक्ति के प्रकाश में उसकी असामर्थ्य का, उसकी दीन दशा का, बहुत साफ चित्र दिखाई पड़ता है, और वह अपने ऐसा दीन हीन संसार में किसी को नहीं देखता। प्रभु के अनन्त शील और पवित्रता के सामने उसे अपने में दोष ही दोष और पाप ही पाप दिखाई पड़ने लगते हैं। इसी दृश्य के क्षोभ से आत्मशुध्दि का आयोजन आप से आप होता है। इस अवस्था को प्राप्त भक्त अपने प्राप्त दोषों, पापों और त्रुटियों को अत्यन्त अधिक परिमाण में देखता है और उनका जी खोल कर वर्णन करने में बहुत कुछ सन्तोष लाभ करता है। दंभ, अभिमान, छल, कपट आदि में से कोई उस समय बाधक नहीं हो सकता। इस प्रकार अपने पापों की पूरी सूचना देने से जी का बोझ ही नहीं, सिर का बोझ भी कुछ हलका हो जाता है। उसके सुधर का भार उसी पर न रह कर बँट सा जाता है।
इस अवस्था के पद इस ग्रन्थ में बहुत अधिक हैं। ऐसी उच्च मनोभूमि की प्राप्ति, जिसमें अपने दोषों को झुक झुक कर देखने ही की नहीं, उठा उठा कर दिखाने की भी प्रवृत्ति होती है, ऐसी नहीं जिसे कोई कहे कि यह कौन बड़ी बात है। लोक की सामान्य प्रवृत्ति तो प्राय: इसके विपरीत ही होती है, जिसे अपनी ही मान कर गोसाईंजी कहते हैं-
जानत हू निज पाप जलधि जिय, जलसीकर सम सुनत लरौं।
रजसम पर अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरिसम रज ते निदरौं
ऐसे वचनों के सम्बन्ध में यह समझ रखना चाहिए कि ये दैन्य भाव के उत्कर्ष की व्यंजना करनेवाले उद्गार हैं। ऐतिहासिक खोज की धुन में इन्हें आत्मषवृत्ति समझ बैठना ठीक न होगा। इन शब्द प्रवाहों में लोक की सामान्य प्रवृत्ति की व्यंजना हो जाती है इससे इनके द्वारा प्रत्येक मनुष्य अपने दोषों और बुराइयों की ओर दृष्टि ले जाने का साहस प्राप्त कर सकता है। दैन्य भक्तों का बड़ा भारी बल है।
परम महत्तव के सान्निध्यु से हृदय में उस महत्तव में लीन होने के लिए जो अनेक प्रकार के आन्दोलन उत्पन्न होते हैं, वे ही भक्तों के भाव हैं। कभी भक्त अनन्त रूप राशि के अनुभव से प्रेम पुलकित हो जाता है, कभी अनन्त शक्ति की झलक पाकर आश्चर्य और उत्साह से पूर्ण होता है, कभी अनन्त शील की भावना से अपने कर्मों पर पछताता है और कभी प्रभु के दया दाक्षिण्य को देख मन में इस प्रकार ढाँढ़स बँधाता है-
कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहि कियों भौंतुवा भौंर को हौं।
तुलसिदास सीतल नित एहि बल, बड़े ठेकाने ठौर को हौं
दिन रात स्वामी के पास रहते रहते जिस प्रकार सेवक की कुछ धड़क खुल जाती है, उसी प्रकार प्रभु के सतत ध्यातन से तो सान्निध्यक की अनुभूति भक्त के हृदय में उत्पन्न होती है, उसके कारण वह कभी कभी मीठा उपालंभ भी देता है।
भक्ति में लेन देन का भाव नहीं रह जाता है। भक्ति के बदले में उत्तम गति मिलेगी, इस भावना को लेकर भक्ति हो ही नहीं सकती। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। वह शक्ति, सौन्दर्य और शील के अनन्त समुद्र के तट पर खडाहोकर, लहरें लेने में ही जीवन का परम फल मानता है-
इहै परम फल, परम बड़ाई।
नख सिख रुचिर रूबदुमाधाव छबि निरखहिं नयन अघाईड्ड
वह यही चाहता है कि प्रभु के सौन्दर्य, शक्ति आदि की अनन्तता की जो मधुर भावना है वह अबाध रहे-उसमें किसी प्रकार की कसर न आने पावे। अपने ऐसे पापी की सुगति को वह प्रभु की शक्ति का एक चमत्कार समझता है। अत: उसे यदि सुगति न प्राप्त हुई तो उसे इसका पछतावा न होगा, पछतावा होगा इस बात का कि प्रभु की अनन्त शक्ति की भावना बाधित हो गई-
नाहिंन नरक परत मो कहँ डर जद्यपि हौं अति हारो।
यह बड़ि त्रास दासतुलसी प्रभु नामहु पाप न जारो
विनय में कई एक पद ऐसे हैं, जिनमें भक्ति की चरमावस्था ज्ञानयोग की चरमावस्था सी ही कही गई है, जैसे-
रघुपति भगति करत कठिनाई।
कहत सुगम, करनी अपार, जानै सोई जेहि बनि आई
सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवै निद्रा तजि जोगी।
सोई हरिपद अनुभवै परम सुख अतिसय द्वैत-बियोगीड्ड
सोक, मोह, भय, हरष, दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास एहि दसाहीन संसय निर्मूल न जाहीं
प्रभु के सर्वगत होने का ध्या्न करते करते भक्त अन्त में जाकर उस अवस्था को प्राप्त करता है जिसमें वह अपने साथ साथ समस्त संसार को एक अपरिच्छिन्न सत्ता में लीन होता हुआ देखने लगता है, और दृश्य भेदों का उसके ऊपर उतना जोर नहीं रह जाता। तर्क या युक्ति ऐसी अवस्था की सूचना भर दे सकती है-'वाक्य ज्ञान' भर करा सकती है-अनुभव नहीं करा सकती। भक्ति अनुभव करा सकती है। संसार में परोपकार और आत्मत्याग के जो उज्ज्वल दृष्टान्त कहीं कहीं दिखाई पड़ा करते हैं, वे इसी अनुभूति मार्ग में कुछ न कुछ अग्रसर होने के हैं। यह अनुभूति मार्ग या भक्ति मार्ग बहुत दूर तक तो लोक-कल्याण की व्यवस्था करता दिखाई पड़ता है, पर और आगे चलकर यह निस्संग साधाक को सब भेदों से परे ले जाताहै।
कुछ थोड़े से पदों में दार्शनिक सिध्दान्तों की भी चर्चा मिलती है, जैसे-
केशव कहि न जाइ, का कहिए।
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिख चितेरे।
धोए मिटै न, मरै भीति, दुख पाइय यहि तनु हेरे
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल करि मानै।
तुलसिदास परिहरै तीनि भ्रम सौ आपन पहिचानै (111)
इसमें मायावाद आदि सब दार्शनिक मतों को अपूर्ण कहकर केवल उनके द्वारा आत्मानुभूति असम्भव कही गई है। सच्ची भक्ति से ही क्रमश: वह अवस्था प्राप्त हो सकती है, जिससे जीव का कल्याण होता हे। जहाँ तक समझ में आता है गोस्वामीजी का मतलब यह नहीं जान पड़ता कि ये सब मत बिलकुल असत्य है। कहने का तात्पर्य यह समझ पड़ता है कि ये सब पूर्ण सत्य नहीं हैं-अंशत: सत्य हैं। इनमें से किसी एक को पूर्ण सत्य मानकर दूसरे मतों की उपेक्षा करने से सच्ची तत्वशदृष्टि नहीं प्राप्त हो सकती। गोस्वामीजी ने यथावसर भिन्न भिन्न मतों से वैराग्य की पुष्टि के लिए सहारा लिया है, जैसे-इस पद में सत्कार्यवाद और अद्वैतवाद का मिश्रण सा दिखाई पड़ता है-
जौ निज मन परिहरै विकारा।
तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख संसय सोक अपारा?
बिटप मधय पुत्रिका, सूत्र महँ कंचुक बिनहिं बनाए।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाए (124)
इसी प्रकार संसार की असारता के सम्बन्ध में वे कहते हैं-
मैं तोहिं अब जान्यों, संसार!
देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किए बिचार। (188)
पर इस 'कछू नाहिंन' को मायावाद का सा 'नहीं' न समझना चाहिए।
सारांश यह है कि गोस्वामीजी की यह विनयपत्रिका भक्तिरस के नाना स्वादों से भरी हुई है। हिन्दी साहित्य में यह एक अनमोल रत्न है। यद्यपि इसके कुछ पद जन-साधारण के बीच प्रचलित हैं पर शुध्द पाठ और टीका टिप्पणी न होने के कारण इधर बहुत दिनों से समग्र ग्रन्थ के पाठ का आनन्द अधिकतर लोग नहीं उठा सकते थे। श्री बैजनाथ आदि की पुराने ढंग की टीकाएँ थीं, पर वे सब के काम की न थीं। थोड़े दिन हुए पंडित रामेश्वर भट्टजी ने आजकल की चलती भाषा में एक टीका की। पर अवधी भाषा से परिचित न होने के कारण कई स्थलों पर वे भ्रम से न बच सके। यद्यपि कवितावली और गीतावली के समान 'विनय' की भाषा भी व्रज ही रक्खीऔ गई है, पर अवधी की छाप उसमें जगह जगह मौजूद है, क्योंकि वह गोस्वामीजी की मातृभाषा थी। ऐसे स्थलों पर प्राय: अर्थ में भूलें हुई हैं, जैसे-
राम को गुलाम नाम रामबोला राख् यो राम,
काम यहै नाम द्वै हौं कबहूँ कहत हौं।
रोटी लूगा नीके राखौ, आगेहू की वेद भाखौ
'भलो ह्नैहै तेरो', ताते आनँद लहत हौं (76)
इस पद में 'रोटी लूगा' का अर्थ 'अन्न वस्त्रा' स्पष्ट है, पर श्रीयुत भट्टजी ने अर्थ किया “रोटी लूँगा”। पूरबी शब्द 'लूगा' का अर्थ न जानने पर भी यदि भट्टजी ने 'लेना' क्रिया के 'लूँगा' रूप पर ही विचार कर लिया होता-तो इस प्रकार का अर्थ करने के श्रम से बच जाते। 'लेना' क्रिया का 'लूँगा' रूप न व्रजभाषा में ही होता है, न अवधी में।
श्रीयुत वियोगी हरि जी ने यह एक दूसरी विस्तृत और विशद टीका प्रस्तुत की है। जिस श्रम के साथ उन्होंने इस कार्य को ऐसे सुचारु रूप से सम्पन्न किया है-उसके लिए वे समस्त हिन्दी-पाठकों के धन्यवाद के पात्र हैं। भावार्थ अत्यन्त सुगम और सुबोध रीति से लिखे गए हैं। पद के भीतर आए हुए प्रसंगों की कुछ अधिक चर्चा टिप्पणियों में की गई है। और टीकाकारों से मतभेद के कारण भी इन्हीं टिप्पणियों में दिए गए हैं। सबसे बड़ी विशेषता है स्थान स्थान पर और और कवियों की मिलती जुलती उक्तियों का सन्निवेश, जिनके द्वारा पाठक भाव तक पूर्ण रूप से पहुँचने के अतिरिक्त साहित्य क्षेत्र में और इधर उधर देखभाल करने की उत्कंठा भी प्राप्त कर सकते हैं। कुछ टीकाकारों के चमत्कारों का भी थोड़ा बहुत नमूना टिप्पणी के रूप में कहीं कहीं मिल जाता है, जैसे 130वें पद में 'राम' शब्द के छह बार आने के तीन कारण। वास्तव में ऐसी ही टीकाओं की आवश्यकता है जिनमें न तो मूल विषय से वादरायण सम्बन्ध मात्र रखनेवाला आवश्यक विस्तार ही हो, और न वचन की इतनी दरिद्रता ही कि पाठक बेचारे मुँह ताकते ही रह जायँ।
इस टीका में भी दो एक जगह जो त्रुटियाँ रह गई हैं-वे, आशा है, अगले संस्करण में सुधर दी जायँगी। टीका वास्तव में जैसी होनी चाहिए-वैसी ही हुईहै।
(जनवरी, 1924)