विनाश भविष्यवाणियों का व्यापार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 18 दिसम्बर 2012
समय -समय पर संसार के नष्ट होने की भविष्यवाणियां की जाती रही हैं और नैराश्य से पीडि़त लोग इन पर यकीन भी करते हैं। इन्हीं लोगों का ताजा शगल है कि 21 दिसंबर को प्रलय होगी। मायन कैलेंडर इसे 22 दिसंबर बता रहा है। मायन कैलेंडर में 22 दिसंबर को एक वृहत युग बीत रहा है, जिसमें लगभग पांच हजार वर्ष थे। मायन संस्कृति किसी जमाने में आज के ग्वाटेमाला के आसपास की जगह पर विकसित हुई थी। आज कोई भी वैज्ञानिक मायन कैलेंडर की भविष्यवाणी पर विश्वास नहीं करता। दुनिया के लगभग पांच अरब वर्ष के इतिहास में इस तरह के शगूफे होते रहे हैं। बाजार के इस दौर में यूरोप में विनाश वाइन भी बेची जा रही है, गोयाकि नशे में गाफिल रहना बेहतर है। होशोहवास में कोई मरता नहीं जीता है। सच तो यह है कि जीने के लिए भी किसी नशे की आवश्यकता नहीं है। कमाल यह है कि इस पर शर्त भी लगाई जाती है, जबकि संपूर्ण विनाश के बाद शर्त का पैसा किससे लेंगे। ग्राहम ग्रीन की एक पटकथा है 'द टेन्थ मैन', जिसमें नाजी कैम्प में जिसकी मरने की बारी है, वह अपनी पूरी जायदाद के कागजात नाजी अफसरों की मौजूदगी में उसके नाम करता है, जो उसकी जगह मरने को सशर्त तैयार है। ठीक उसी समय अमेरिकी फौज नाजी कैंप पर कब्जा कर लेती है तथा युद्ध के पश्चात वह व्यक्ति जायदाद का मालिक बन जाता है और मालिक को मजबूरन उसके यहां चाकरी करनी पड़ती है। वह ताउम्र उस एक क्षण को कोसता है, जब उसने अपनी चतुराई से अपने लिए जीवन चुना था और एक सौदा किया था। अगर वह उस एक क्षण मृत्यु से आंखें चार करने का हौसला दिखाता तो उसकी संपत्ति कहीं नहीं जाती। इसी कथा के आधार पर बलदेवराज चोपड़ा ने दूरदर्शन के लिए एक सीरियल भी बनाया था।
इन तमाम भविष्यवाणियों से यह लाभ भी नहीं होता कि सभी मनुष्य आत्म-अवलोकन करें कि इस मंडराते विनाश में उनकी क्या भूमिका रही है। किसने कितने गुनाह किए हैं, कितने वृक्ष काटे हैं, कितना झूठ बोला है। अरविंद केजरीवाल भी विचार कर सकते है कि सच्चे-झूठे आरोपों के पीछे क्या उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा छुपी थी? भारत के अनेक नेताओं को लगता होगा कि जब प्रधानमंत्री बनने की हमारी बारी आई तो विनाश हो गया। कुछ तो इतने हठधर्मी हैं कि विनाश के बाद भी उनकी आत्मा उस कुर्सी पर बैठ जाएगी।
इसी तरह की एक भविष्यवाणी दस मार्च १९८० की थी कि जुपिटर ग्रह के प्रभाव से भूकंप आएंगे और झूठा साबित होने पर लेखक स्फीटन प्लेगमैन ने दूसरी किताब लिखी कि उनसे गणना में कहां चूक हुई थी। मजे की बात है कि यह दूसरी किताब 'जुपिटर इफेक्ट दी कंसीडर्ड' पहले वाली से ज्यादा बिकी। आखिर संपूर्ण विनाश के प्रति इतनी ललक कुछ लोगों में क्यों है? अनेक लोग अशुभ बोलने में जाने कैसा आनंद लेते हैं? अशुभ बोलना, अहित की कामना करना मनुष्य मन के अंधकार से घिरे हिस्से हैं। आख्यानों मेंं भले ही कुछ लिखा हो, परंतु नारद मुनि की लोकप्रिय अवधारणा यही है कि वे अहित में आनंद लेते हैं और सारे समय उनके मुंह पर नारायण-नारायण का जाप चलता रहता है। घरों में सास-बहू की चिकचिक का ही विराट रूप है नारदमुनि का खबरची स्वरूप। लोकप्रिय संस्करण मूल पाठ पर हावी हो जाते हैं। बहरहाल सीरियल संसार में ऐसे अनेक पात्र दिखाए जा रहे हैं।
सभी धाॢमक आख्यानों में संपूर्ण विनाश के संकेत हैं और अनेक देशों में इस पर महाकाव्य भी लिखे गए हैं। क्रिश्चिएनिटी में नोहा की नाव में तमाम पशु-पक्षियों का एक जोड़ा सुरक्षित रहने का जिक्र है। जयशंकर प्रसाद ने भी 'कामायनी' की रचना की है। कामायनी में प्रलय के बाद एक पद है 'कौन तुम संसृति जल निधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक।' मिल्टन का 'पैराडाइज लॉस्ट' भी है। डब्ल्यू बी यीट्स की 'सेकंड कमिंग' भी महान रचना मानी जाती है। लुग्दी साहित्य के क्षेत्र में स्टीफन किंग की 'द स्टैंड' एक ऐसे वाइरस की कल्पना प्रस्तुत करता है, जिसमें विनाश का वर्णन है। फ्रैंकेस्टीन पात्र की रचना करने वाली मैरी शैली की 'द लास्ट मैन' किताब में प्लेग की महामारी से केवल छह लोग बचते हैं। 'डेकामेरॉन' नामक रचना में भी प्लेग से बचने के लिए कुछ लोग ऊंचे पहाड़ पर चले जाते हैं, जहां समय व्यतीत करने के लिए वे बारी-बारी से कहानियां कहते हैं।
इस तरह की भविष्यवाणियां झूठी होती हैं, परंतु इनका प्रभाव पड़ता है। कुछ लोग बैंक से पैसा निकाल लेते हैं, मानो प्रलय या विनाश में यह उन्हें कुछ समय खरीदने का अवसर देगा। शराब की बिक्री बढ़ जाती है, शायद वेश्यागमन भी पनपता है। प्रेम की अंतरंगता मनुष्य को सय और स्थान से मुक्त करती है। यह कितनी अजीब बात है कि विनाश के पूर्व भोग की कामना बढ़ती है। युद्धकाल में ये दोनों प्रवृत्तियों को विकसित होते देखा जा सकता है। मृत्यु को निकट आते देख या उसकी संभावना के समय भोग अथवा प्रार्थना की ओर लोग जाते हैं। धार्मिक स्थानों पर भी भीड़ हो जाती है। दरअसल भोग-विलास या प्रार्थना से बेहतर है कि मनुष्य केवल अपने काम पर ध्यान दे, क्योंकि उससे बेहतर कुछ भी नहीं है।
बहरहाल जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी' का एक पद इस तरह है -
'पंचभूत का भैरव मिश्रण, शंपाओं के शकल निपात।
उल्का लेकर अमर शक्तियां, खोज रहीं ज्यों खोया प्रात।'