विनोद कुमार शुक्ल की कविता / ओम निश्चल
हिंदी कविता में एक ऐसा शख्स भी है जो अपनी तरह से लिखता है। जिसका हिंदी साहित्य के अनुशासन से भले ही कोई सीधा ताल्लुक न हो, पर जिसके काव्यानुशासन पर उँगली नहीं उठाई जा सकती। कविता और गल्प दोनों से सघन रिश्ता रखने वाले विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ एकबारगी देखने पर कलावादी प्रत्ययों से संसाधित जान पड़ती हैं किन्तु उनमें गहरे प्रवेश करने पर पता चलता है कि वे अमूर्तन को स्थानीयताओं से मूर्त एवं प्रयोजनीय बना देते हैं। इस बार वे आदिवासियों को लेकर जिस काव्यात्मक दृढ़ता से पेश आए हैं, वह उन्हें अपनी ज़मीन से जोड़ता है। अचरज नहीं कि अपरिग्रह का अभ्यासी यह कवि शब्द शक्तियों की टोह में लगातार लगा रहने वाला है जैसे कोई खगोलविद नक्षत्रों की रहस्य-लीला को समझने में।
कविता सुनती है सताई हुई कौमों की कराह
हिंदी में उपलब्धल तमाम कवियों में एक कवि ऐसा भी है जो अपनी प्रकृति, अपनी समझ, अपनी भाषा और कविता की संरचना में बरते जाने वाले उपकरणों तथा कल्पवना व यथार्थ के सुविनियोग में बहुत विरल है। उसे समझना आसान नहीं। पर इसमें संशय नहीं कि वह उत्काट ऐंद्रियसंवेद्य कवि है। उस पर बहुतों ने लिखा है, पर क्या वे सब उस कवि की अनुभव-छायाओं को पकड़ पाए हैं? वह पूरी तार्किकता और अनुभवगम्यए विविधताओं के साथ कविताओं में अपने जीवनानुभवों की एक अलग दुनिया निर्मित करता है। विनोद कुमार शुक्ल ऐसे ही कवि हैं, जिन्हेंक पढ़ने का एक धीरज भरा सलीका चाहिए और यह भी कि उन्हें पढ़ते हुए आपके और उनकी कविता के अलावा पूरा एकांत हो।
कथा संसार की ही तरह कविता में भी विनोद कुमार शुक्लम ने सदैव अपना अलग रास्ताी अख़्तियार किया है। वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह के साथ ही विनोद कुमार शुक्लह ने अपनी कविता को चालू कविता की आबोहवा से बचा कर रखा है। उनके कविता संग्रहों सब कुछ होना बचा रहेगा और अतिरिक्त नहीं के साथ उनके ताजा संग्रह कभी के बाद अभी में भी उनका यही तेवर बरकरार है। वे सीधे सादे वाक्यों से कविता की शुरुआत अवश्यत करते हैं किन्तु आगे चल कर वह एक ऐसे तार्किक और चिंतनशील विन्यातस में खो जाती है कि हम ‘ज्यों चतुरन की बात में बात बात में बात’ जैसी मुग्धीमयता के मुरीद हो उठते हैं। किन्तुा अनभ्यहस्तं पाठक के लिए उनकी कविताऍं कोई इतनी मेड इजी भी नहीं हैं। उनकी कविताओं का आनंद वही ले सकता है, वाक्यी की इकाइयों से बनने वाली अर्थ संरचना पर जिसकी बखूबी पकड़ हो। जो अव्य यों, विशेषणों, क्रियाओं और योजक पदों तक से कविता की प्रतीति संभव कर सकता हो। विनोद जी कविता की सृष्टि, को खेल की तरह लेते हैं और वाक्यों की व्यातकरणिक संघटना से अपने अनुभवों को एक नई काव्यलभाषा के पैरहन में बदल देते हैं। उनकी कविता अपने अचूक और सावधान चिंतन का परिणाम लगती है। वे अपने अवलोकन से किसी भी क्रिया को स्वा भाविक रूप से घटता हुआ नहीं देखते, उस घटना के पीछे घटती हुई अन्यक चीजों को बार बार घटने के लिए एक उत्प्रेआरक तत्व की तरह उकसाते हुए भी पेश आते हैं। उनकी कविता की बानगी उन्हीं के शब्दों में: एक अच्छीत घटना/तुम घटने पर रहना/बल्किक घट जाना/बार बार घट जाना/ प्रत्येतक मनुष्यो का जीवन/हर क्षण अच्छा् मुहूर्त है/सुख की घटना के लिए।
आरंभ से ही विनोद कुमार शुक्ल का यही मिजाज़ रहा है कि अक्स र वे चालू भाषा और जानी पहचानी काव्यि युक्तियों से काम नहीं लेते। इसीलिए उनके जैसा कवि परिदृश्यू में और नही है जो ऐसे प्रयोगों का जोखिम उठाए । किसी भी लोकप्रियता और उद्धरणीयता के मोह में पड़े बिना वे एक तरफ अपनी कविता को भाषा, तर्क और नई उपपत्तिययों से जोड़ते हैं तो दूसरी तरफ वे कविता की प्रयोजनीयता की ओर से भी मुँह फेरे नही रहते। आखिर वे ही हैं जिन्हों ने लिखा है, ‘जो सबकी घड़ी में बज रहा है, वह सबके हिस्से का समय नही है।‘ या ‘झुकने से जैसे जेब से सिक्का गिर जाता है/हृदय से मनुष्यहता गिर जाती है।‘ वे पृथ्वी के संसाधनों पर पहला हक उनका समझते हैं जो इसके मूल निवासी हैं। तभी वे कहते हैं: जो प्रकृति के सबसे निकट हैं/जंगल उनका है। पर विनोद कुमार शुक्ली की कविता वैसे नहीं पहचानी जा सकती जैसे उनके अन्यट समकालीनों की । वह एक सपाट पाठ की तरह पठनीय या व्या ख्येीय नही है, बल्किा अपने स्था पत्यउ में अनूठी और विरल है। वे लिखते हैं: मैं उनसे नहीं कहता जो निर्णय लेते हैं/ क्योंाकि वे निर्णय ले चुके होतेहैं। ‘मृत्युे के बाद’ की पंक्ति यॉं हैं: ‘ मृत्युल कभी भी हो/परन्तुत अंतिम सॉंस लेने के लिए/मेरे पास हमेशा समय रहेगा।‘ या ‘ बाहर झरे चंपा के फूल को मैं उठा लेता हूँ और एक ‘अतिम नहीं सॉंस’ लेता हूँ।‘ उनकी कविता संरचना में यह ‘नहीं सॉंस’ जैसा अटपटापन प्रूफ शोधकों को कितनी बाधा पहुँचाता होगा जो कवि की ही तरह चौकस और सावधान न हों।पर यही तो उनकी विशेषता है जो उनके काव्यो और कथासंसार में गद्य को अपनी तरह से बरतने से संभव हुई है।
आखिर इतने अटपटेपन से वे कविता में क्या कहना चाहते हैं? कविता के बारे में एक कविता में वे कहते हैं :’ कविता जानबूझ कर लिखता हूँ/जानबूझ कर कौन सी कविता/यह अंत तक पता नहीं होता/यानी शुरू से/ परन्तुह एक स्थि ति में कविता/स्वतयं होने के लिए आपसे सहयोग करने लगती है/ यानी अंत तक/ यद्यपि कविता का अंत नहीं होता।‘ याद रहे कि मुक्ति बोध ने भी कहा था ‘खत्म नहीं होती कविता’। परन्तु शुक्ल का अंदाजेबयॉं अलग है। मुक्तिनबोध के गहरे सान्नि ध्यग में रहते हुए भी उनकी कविता उनसे कितनी अप्रभावित रही है, यह देखने की बात है जबकि मलय को मुक्तिभबोध के प्रभावों में अवलोकित आकलित करने का चलन हो चला है। मुक्तिैबोध, मलय और शुक्लि तीनों की कविताऍं दुर्बोध हैं। पर विनोद कुमार शुक्लल के यहॉं यह दुर्बोधता कुछ अलग किस्मक की है। यह जानबूझ कर पैदा की गयी दुर्बोधता है--- जीवन के आसान से दिखने वाले पहलुओं में कुछ अलक्षित अर्थ उपजा लेने की सयत्नय कोशिश। इसीलिए वे न तो मुक्तिसबोध से कम चिंतनशील कवि है न उनसे कम दुर्बोध। वे अपनी सरलता को व्यं-जित करने की कोशिश करते भी नहीं दीखते। जैसे वे चाहते हों कि यदि कविता के शहदीले पाठ तक पहुँचना है तो इस दुर्बोधता के कॉंटे के बीच से गुजरना लाजिमी है।
विनोद कुमार शुक्ले अपनी ही तरह के अंदाजेबयॉं के पहले और अंतिम प्रयोक्ताा हैं। स्वधभाव से ही मितभाषी और अमूर्तनों के अभ्याीसी शुक्ल अब अपनी ही उपजाई इस कला के व्याामोह में गिरफ्तार से हो गए लगते हैं। बेशक, कविता का यह सर्वथा एक नया सौंदर्यबोध है जो इसके अंत:पुर में प्रवेश करने और रम जाने पर एक सात्वि क से आस्वांद का सृजन करता है। यही वजह है कि विष्णुप खरे उन्हींर के एक पद के हवाले से अपना मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि उनकी कविता वह जलप्रपात है जिसमें सब आवाजों का कोरस समाया हुआ है तथा उनका कवि ऐसे रोमांचक आयाम उद्घाटित कर रहा है जो नितांत अप्रत्यााशित थे। अक्सिर दूसरों के हिंदुत्वतवादी पद-प्रत्यकयों की गहरी आलोचना करने वाले खरे उन्हें यह क्ली न चिट भी देते हैं कि उनकी कविताओं में प्रयुक्तय ये प्रत्य य उनकी निजी आस्थां और एक आध्या त्मि क सांस्कृ तिक कलात्मयक परंपरा विशेष का पर्याय हैं जिसका लेना-देना किसी मनुवादी हिंदुत्वं से नहीं है। इस संग्रह में भी जीवन-मृत्युत, राजिम के आठवीं शती के मंदिर, मृत्युह के बाद, हुमा मंदिर के सामने जैसी कविताओं तक में उनकी निजी आस्थाश में कहीं भी उनकी हिंदुत्वयवादी आस्थाे बलवती होती नहीं दिखती।
उनकी कविता किसी मूल्या या संदेश का संधान नही है। वह वाक् में, शब्दी में, अर्थ में, रस में, ध्वीनि में, रीति में, वक्रोक्तिक में, उक्ति वैचित्र्य मे— यहॉं तक कि किसी असंभवता में भी कुछ खोजने बीनने और रचने से उद्वेलित है। वह जीवन को अच्छीव उम्मीतदों के साथ जीने का जतन सिखाती है। ‘जीवन को मैंने पाया इसे भूला नहीं’---वे कहते हैं। ‘अच्छेज से एक दिन रहूँ तब तक अमर रहूँ’ में एक भी दिन को अच्छीा तरह से जीना उम्मीहद और आश्वछस्ति के साथ जीना है। उनकी इन कविताओं में दंगे, कर्फ्यू, आदिवासी, जंगल, विस्थातपनानुभूति, पड़ोस, पड़ोसी और पड़ोस-भाव पर तो कविताऍं हैं ही, अलगाववादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध यह ख्वारहिश भी है : ‘सिर उठा कर मैं बहु जातीय नहीं,सब जातीय/बहु संख्यवक नहीं/ सब संख्यवक होकर/ एक मनुष्य। खर्च होना चाहता हूँ/एक मुश्ती।‘(लोगों और जगहों में, पृ.15) वे दंगे की दहशत में भी मरने के लिए इस इसरार के साथ उद्यत दिखते हैं ताकि किसी मुसलमान के हाथों मरें तो उन्हें हिंदू न समझा जाए और किसी हिंदू के हाथो मरें तो उन्हें मुसलमान न समझा जाए। वे अगली कविता में यह भी कहते हैं कि ‘हत्यांरा अगर हिंदू हुआ तो अपनी जान हिन्दूल कह कर न बचाऊँ/मुसलमान कहूँ/ अगर मुसलमान हुआ तो अपनी जान मुसलमान कह कर न बचाऊँ/हिंदू कहूँ।‘(अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों)
स्थामनिकता का वैश्विाकता से क्याआ रिश्तान है, यह विनोद कुमार शुक्लह की कविताओं को पढ़ कर जाना जा सकता है। दुनिया भर के आदिवासी इन दिनों विस्थािपन के संकट से गुज़र रहे हैं। इन कविताओं में भरपूर स्थाानिकता है। इतनी कि उन्हेंं हिंदी के उस अंचल का कवि कहा जा सके जहॉं बस्तार और दंतेवाड़ा जैसे दुर्गम आदिवासियों के इलाके हैं। जहॉं अभी अभी सलवा जुडूम का दमनचक्र चल रहा है। राजिम, रायपुर, छत्तीैसगढ़, छत्तीमसगढ़ एक्सँप्रेस, बिलासपुर, हबीब तनवीर, रज़ा और राजनंदगॉंव के प्रसंगों के बहाने कवि अपनी स्था निकता को तो चरितार्थ करता ही है, वह अपनी कविता को लोगों के सुख-दुख और लोकाचार के निकट भी ले जाता है। वह यथार्थ के बहुस्तवरीय पहलुओं का अनावरण करने की इच्छाच रखता हुआ उस वैश्वि क यथार्थ के निकट जाना चाहता है जो ऐसे ही खंड खंड यथार्थों से बना है। ‘गंगातट’ में यही स्था्निकता है जिसमें रमे हुए ज्ञानेन्द्र पति को वैश्विथक संकटों की आहट सुनाई देती है। ऐसी ही आहट शुक्लथ को छत्तीासगढ़ की ज्वालंत सामयिकता से सुनाई देती है। आज छत्ती सगढ़ का दहकता हुआ यथार्थ आदिवासियों के विस्थानपन और उन पर होने वाले उत्पीैड़नों का यथार्थ है, प्राकृतिक संसाधनों को खँखोरती सर्वग्रासी पूँजीवादी व्यावस्थाह का यथार्थ है। कविता कला की समस्तै चुनौतियों को अपने मूड़े-माथे उठाए हुए वे जहॉं भाषा की शक्तिव और सामर्थ्य् का पूरा उपयोग करते हैं वहीं अपने इस दायित्वन से मुँह नहीं मोड़ते कि किसी भी कला की प्रयोजनीयता अंतत: उसकी सामाजिक उपयोगिता में है। इस दृष्टि़ से विनोदकुमार शुक्ली इस बात के पूरे समर्थक हैं कि आदिवासियों की बेदखली दरअसल आकाश से चॉंदनी की बेदखली है। वे इस बात से मुतमइन हैं कि आदिवासियों की तथाकथित हिंसक कार्रवाई दरअसल अपनी जान बचाने की कार्रवाई है। यह अपने को बचाने के लिए खुद को मार डालने की कार्रवाई है। कवि के शब्दोंर में यही आदिवासी सच है।
आदिवासियों को हिंसक बताने की मानसिकता पर एक बातचीत में उन्होंकने माना है कि आदिवासियों के पास जो तीर धनुष जैसा हथियार है, ये उनकी अपनी रक्षा के लिए और शिकार से पेट भरने का उनका अपना साधन हैं। इसको उतना और वैसा ही प्राकृतिक मानना चाहिए जैसे किसी हिरण के सींग होते हैं, जिससे वह अपना बचाव करता है। लेकिन अगर हिरण एक झुंड में खड़ा हुआ है और हिरण के सींग का नुकीलापन आकाश की तरफ मुखातिब है, ऐसे में उससे अपने बचाव के लिए हवाई हमले की बात करना कैसी सोच है? इसी तरह उनकी नजर में विकास की अवधारणा बाजार की आवश्यलकता के अनुरूप बनाई जाती है। उनकी दृष्टिउ में प्रदूषण के उद्भावक गरीब लोग नहीं, बल्किक कल-कारखाने चलाने वाले अमीर लोग हैं। क्योंदकि गरीब तो कचरा बीनने वाला है, पैदा करने वाला नहीं। यह पश्चि मी सभ्यीता-रहन-सहन, उपभोक्तासवाद और तकनीक का कचरा है जो अमीर देशों की देन है। कविताओं में उनकी यही दृष्टिच गुँथी हुई दिखती है।
विनोद कुमार शुक्ले की इन कविताओं की मौलिकता उनकी अपनी उपार्जित मौलिकता है। यदि उनकी रचना में कोई मैनरिज्मं या रीतिवाद दिखता भी है तो वह उसी तरह है जैसे कि हर लेखक का अपना मैनरिज्म होना ही चाहिए। इस दुनिया को भी वे उसी तरह अपने तरीके से देखते हैं जैसा कि एक कवि को करना चाहिए। यह मैनरिज्मच : यह एक वाक्यप में है, रहा शब्दस को रेखांकित कर रहा हूँ, पैदल अपने पड़ोस में जा रहा हूँ, गेंद का पड़ोस, जितने सभ्यभ होते हैं, मेरा दुख गया पड़ोस में, रहा, दूसरों के करीब हूँ और मृत्यु के बाद जैसी कविताओं में स्पजष्टे झलकता है। पर कहा जाए तो यही तो शुक्लच के कवित्वक का वैशिष्ट्यह भी है। उक्तिव वैचित्र्य से ज्यादा उक्ति वैशिष्ट्यो। एक वाक्यल, एक शब्दश या एक मिलते-जुलते भाव से जीवन को देखने की इतनी रीतियॉं विकसित कर लेना उनकी कविता को सर्वांग सम्पूवर्ण बनाता है। उसका सौष्ठकव कभी एक शब्दभ में झलकता है तो कभी एक भाव में, कभी एक अवधारणा में, कभी एक क्रियापद में, योजक शब्दे में तो कभी किसी अव्यएय तक में भी। यह सौष्ठणव उस प्रगीतात्मएकता की अनुपस्थि ति के बावजूद है जिसे कविगण प्राय: अपनी लोकप्रियता के अचूक आधार के रूप में अपनाते हैं। जब उपयोगितावाद की रौ में किसी भी साहित्यि क उत्पातद से कुछ न कुछ संदेश देने की अपेक्षा की जाती है, उनकी कविता सीधे कोई संदेश जारी करने के बजाय चीजों की माइक्रो-एनालिसिस में जाती है और लगातार दृश्योमान संसार के मुलम्मेज को खुरचती हुई उसके वास्तंविक कथ्यर और रूप का अनावरण करती है।
विनोद कुमार शुक्लद की कविता इतने कलात्मीक लटके झटकों से बनी है कि वह किसी भी आसान सी श्रेणी या सॉंचे में फिट नहीं बैठती। हॉं, शमशेर के-से वाक्संयम से बनी बुनी उनकी कविता जीवन के तमाम नए चित्र हमारे समक्ष रखती है जो कविता में पहली बार देखने को मिलते हैं। इसलिए सामान्यनत: उन्हेंज कलावादी कहना उस कलात्मिकता का तिरस्का र है जो कविता-कला की पहली और बुनियादी शर्त है और जिसे वे एक जिद की तरह सम्हावले हुए हैं। अनेक नए बिम्ब हम उनके यहॉं देखते हैं। बाजार होते हुए समय और निष्कहरुण होती सत्तां के बारीक से बारीक गठजोड़ की खबर वे हमें देते हैं। हमेशा कम बोलने वाली उनकी कविता अपनी चुप्पीा में भी बेहद मुखर होती है और अनेक वाचाल कवियों के समक्ष एक चुनौती पेश करती है। इसी संग्रह में एक ‘पड़ोस’ को लेकर ही उनकी बहुमुखी कल्प ना बेहद सक्रिय हो उठी है। उसकी अनेक रंगतें और अर्थच्छाोयाऍं कई कई कविताओं में दिखती हैं। उन्हें् चंद्रमा पड़ोसी की तरह दिखता है तो जीवन घर से ज्याछदा पड़ोस में अनुभव होता है। अकेलापन इसलिए महसूस होता है कि कवि स्वरयं के पड़ोस में नहीं रहा। पड़ोस में नया नया और पृथ्वी के पड़ोस में होना, स्थ गित मृत्युह-जैसे जीवन के पड़ोस में आ धमकने से कितना भिन्नय है, यह शुक्लम की कविताऍं बताती हैं। चुप रहने में भी जीवन की उम्मी द- भरी धड़कन सुन पड़ती है तो रज़ा के चित्रों को देखना सूर्यवृत्तु को सुबह-सु्बह खिलते हुए देखना है। छत्तीभसगढ़ के विभाजन ने भी यहॉं कई कविताऍं दी हैं। शुक्ल के यहॉं विस्थातपन के कई कचोटभरे बिम्बत हैं।अक्सवर राजनैतिक विभाजन को स्वी कार न करने वाला कवि-मन यहॉं मौजूद है। यह सुसंयोग ही है कि एक तरफ कवि 63 का हो रहा है और दूसरी ओर 36गढ़ राज्यन बन रहा है। राजिम के आठवी शती के मंदिर में तो माथा टेकने और चरण स्पहर्श से घिस कर चिकनी और सपाट हो चुकी प्रतिमा के पैरों की उँगलियों की वजह में मन ही मन का चरण स्प र्श और दूर से मत्थाह टेकना भी वह शामिल कर लेता है।
कवि के सरोकार बताते हैं कि वह ऐसे फीके रंग का हिमायती है जिस पर समय की मार पड़ी है। ‘मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया’—में बाहर जाकर रोजी कमाते तथा केवल किसी बोली और भाषा विशेष से पहचान लिए जाने का खतरा उठाते बिहारियों की तरह ही कवि को छत्ती सगढियों के भी हालात लगते हैं। वह चिंतित है कि एक भाषा में बचाओ दूसरे प्रदेश की भाषा में जान से मारे जाने का कारण बन जाता है और एक ही प्रांत में होना उस प्रांत का बंदी जैसा बन जाना, भले, नए राज्यण बनने से देश के स्वमतंत्र होने जैसी खुशी होती हो। कहॉ रहे वे नागरिक जिन्हें वह देशवासी कह कर पुकारे। बिहारी हो या छत्तीमसगढ़ी, उसका स्था।यी पता उससे खो गया है। वह जैसे कमाने-खाने के लिए भागती हुई प्रजातियों में बदल गया है। इस तरह शुक्ल की कविता परदुखकातर है। वह आदिवासियों को उनके जन्म्जात अधिकारों से बेदखल किये जाने का शोक मनाती है तो उन्हेंह सभ्योता के जगमगाते हुए मंच पर बसाने के पीछे की हिंस्र मानसिकता का खुलासा भी करती है। कहना यह कि शुक्लय की कविता उन आवाजों को अनसुना नही करती जो सताई हुई कौमों की कराह से आती है तथा अपनी कलात्माक जिद में यह भूल नहीं जाती कि मनुष्यु का जन्मद किसी भी कविता के जन्मक से बड़ा है। भले ही, कविता ही मनुष्यप को बड़ा बनाती हो।