विनोद मेहता : एक पायोनियर का आउटलुक / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :09 मार्च 2015
लखनऊ कीशाम आज गहरी अंधरी हो गई है और सब तरफ खामोशी छा गई है, जैसे किसी सवाक फिल्म का साउंड गायब हो गया हो। लखनऊ के लाड़ले लेखक-संपादक विनोद मेहता का 73 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। 2011 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा का टाइटल था, 'लखनऊ बॉय' और उनके प्रकाशक पेंग्विन का जोरदार आग्रह था कि टाइटल से 'लखनऊ बॉय' हटाया जाए पर विनोद मेहता अपनी बात पर अड़े रहे। और सच तो यह है कि सारा जीवन वे अपने जीवन मूल्यों पर अड़े रहे। किताब में लखनऊ की गलियों, पान-कबाब की दुकानों का कुछ ऐसा वर्णन है कि पढ़ते समय आंखों में लखनऊ की धूल छा जाती है। उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड 'एडिटर अनप्लग्ड' कुछ माह पूर्व ही प्रकाशित हुआ। ये दोनों खंड आजाद भारत के गणतंत्र की विभिन्न सरकारों के घपलों का दस्तावेज है। हम इसे समकालीन इतिहास भी कह सकते हैं।
विगत कुछ वर्षों में भारत के साप्ताहिक पािक्षक देश की कुछ ऐसी मनोहारी छवि गढ़ते रहे हैंं मानो आप न्यून रोशनियों की बांहों में समाए किसी मॉल को देख रहे हैं, जिसमें चार मल्टीप्लेक्स स्क्रीन हैं और हर तरह के तमाशे जारी हैं। परंतु विनोद मेहता का साप्ताहिक आउटलुक बूचड़खाने की याद दिलाता है, जहां लोहे की रॉड पर कटे हुए बकरे लटके हुए हैं और उनमें से ताजा खून रिस रहा है। सारी चीजें अनावृत हैं और मानो सत्य ने घूंघट निकाल दिया है। उनके संपादित साप्ताहिक में एक ओर घंूघट उठाए सत्य को देख रहे हैं तो दूसरी ओर चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा का बूचड़खाना अठखेलियां कर रहा है।
विनोद मेहता ताउम्र सरकारों के चमकीले कालीन के भीतर छुपी गंदगी उजागर करते रहे। उन्होंने निहायत साफगोई से यह भी कहा कि भारत में खोजी पत्रकारिता नहीं है। सारा भ्रष्टाचार घपलों की जानकारी सरकारी दफ्तरों से उजागर होती है या नेता अपने विश्वासपात्रों के माध्यम से खबरें भेजते हैं, क्योंकि सभी का उद्देश्य किसी किसी की पोल खोलना और अपने निजी स्वार्थ की रक्षा करना है। मेहता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के तब तक अप्रकाशित काल्पनिक उपन्यास के अंश भी प्रकाशित किए थे और ये दस्तावेज उन्हें प्रधानमंत्री के नजदीकी व्यक्तियों से मिले थे। कुछ दिनों बाद मेहता को यह भी मालूम हुआ कि यह तथाकथित लीकेज प्रधानमंत्री के प्रचारतंत्र ने जानबूझकर किया, क्योंकि उन दिनों उनकी छवि उबाऊ और खामोश प्रधानमंत्री की हो गई थी। उस छवि की बासी कढ़ी में उबाल की जरूरत थी, जो उन्हें रोचक एवं रंगीन होने की छवि दे। भारतीय सरकारों की अंतड़ियों में मवाद ही भरा है और अवाम से खेलना उनका जुनून है।
इसी तरह आउटलुक में सर्वप्रथम राडिया टेप्स के अंश प्रकाशित हुए और अनेक नामी लोगों के बड़े जतन से लगाए गए मुखौटे नीचे गिर गए। भारत के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित घराने का दावा था कि वे रिश्वत नहीं देते और राजनीति से दूर रहते हैं। राडिया टेप्स में इसकी पोल खुल गई। विनोद मेहता ने उसी घराने के अध्यक्ष का करुणानिधि को भेजा गोपनीय पत्र भी प्रकाशित किया तथा करुणानिधि की तीसरी पत्नी को जिस जमीन का वादा किया था वह कभी नहीं दी गई। इसके साथ राडिया टेप्स में विगत दशकों में धूमकेतु की तरह उभरे एक घराने का भी जिक्र है। विनोद मेहता ने इन सब लोगों के नाम भी लिखे हैं।
विनोद मेहता ने अपने प्रारंभिक संघर्ष दौर में 'बॉम्बे डायरी' नामक साहसी किताब लिखी थी और मीना कुमारी की जीवनी भी लिखी थी, जिस पर फिल्म बनाने का इरादा एक निर्माता का है। मीना कुमारी की जीवनी के लिए विनोद मेहता अनेक फिल्म वालों से मिले। उन्होंने लिखा कि महान राजेंद्रसिंह बेदी 'दस्तक' बनाने के समय अपनी नायिका रेहाना सुल्तान को दिल दे चुके थे और उन्हें संशय था कि उनका नायक संजीव कुमार भी रेहाना को चाहता है। यह प्रेम त्रिकोण दिलचस्प बन गया परंतु रेहाना ने दोनों को धता बताकर बीआर इशारा से विवाह कर लिया। विनोद मेहता ने राडिया का भी बचाव किया कि केवल खूबसूरत महिला होेने के कारण वे पकड़ी गईं जबकि अमीर घरानों की लॉबीइंग का काम दशकों से कई पुरुष कर रहे हैं। विनोद मेहता भारतीय पत्रकारिता में साहस और साफगोई की परंपरा के शायद आखिरी संपादक थे और इसी कड़ी में राजेंद्र माथुर भी थे।