विप्रदास / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय / पृष्ठ-2
‘‘ऐसा क्या किया इसने ?’’ उत्सुकता प्रकट करते हुए विप्रदास ने कहा,
‘‘मुझे कुछ भी मालूम नहीं।’’
‘‘तुझे सब मालूम है। अभी यह छोटा इतना होशियार नहीं हुआ कि अपनी किसी गतिविधि को तुमसे छिपा सके। तू इसे अनुशासित कर, यह तो ‘मियां की जूती, मियां के सिर’ की उक्ति चरितार्थ कर रहा है। हमारे ही धन से हमारे विरुद्ध आन्दोलन कर रहा है, लोगों को संगठित कर रहा है। कलकत्ता से लोगों को बुलाकर हमारी प्रजा को हमारे विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित कर रहा है। तुम इसे कलकत्ता में निवास का ख़र्च देना बन्द कर दो, यह मेरा सुझाव है।’’ आश्चर्य प्रकट करते हुए विप्रदास बोला, ‘‘मां ! पढ़ाई के लिए जब उसे कलकत्ता रहना ही है, तो ख़र्च बन्द कर देने से क्या यह भीख मांगकर आपना निर्वाह करेगा ?’’ मां ने कहा, ‘‘इसके वहां पढ़ने की आवश्यकता ही क्या है ? तुम्हें याद होगा कि मेरे ससुरजी के स्कूल में संगठित होकर आये बच्चों द्वारा विदेशी शिक्षा को राष्ट्रघाती बताने पर तुम उन्हें दण्डित करने को उद्यत हो गये थे। अब जब तुम्हारा अपना यह लाडला ऐसी भाषा बोलता है, तो तुम चुपचाप क्यों सुनते रहते हो ?’’
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