विभाजन-विभीषिका के आख्याता: डॉ. चन्द्र त्रिखा / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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पाठकबन्धु, इस तथ्य के आप-स्वयं साक्षी हैं कि अपने भारत-राष्ट्र के 75वें स्वाधीनता-दिवस के पावन-पर्व पर, 15 अगस्त 2021 को, लाल किला की प्राचीर से, राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में, प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने यह उद्घोषणा की थी कि भविष्य में, प्रतिवर्ष, 14 अगस्त का दिन, 'विभाजन-विभीषिका स्मृति-दिवस' के रूप में मनाया जायेगा। यह उद्घोषणा सुनते ही मेरी आँखों के सामने हिन्दी में अब तक रचित और अनूदित वह सारा साहित्य उपस्थित हो गया, जो सर्वश्री सआदतहसन मण्टो, खुशवंतसिंह, यशपाल, भीष्म साहनी, अमृता प्रीतम और चन्द्र त्रिखा आदि साहित्यकारों ने, भारत-विभाजन की विभीषिका और विस्थापन की त्रासदी को लेकर लिखा है। इस साहित्य-सम्पदा में से जितना-कितना मैं पढ़-देख-सुन पाया हूँ, उसके आधार पर, विश्वासपूर्वक, यह कह सकता हूँ कि इसमें से, राष्ट्रीय स्तर पर अनेकधा सम्मानित-पुरस्कृत एवं अलंकृत-अभिनंदित, प्रख्यात पत्रकार-साहित्यकार-इतिहासकार डॉ. चन्द्र त्रिखा द्वारा लिखा गया साहित्य ही सर्वाधिक प्रामाणिक, दस्तावेज़ी, ऐतिहासिक, यथार्थ, तटस्थ, वस्तुपरक, स्पष्ट, निष्पक्ष, विश्वसनीय, संवेदनशील और दिशाबोधक बन पड़ा है। यहाँ यह तथ्य भी रेखांकनीय है कि त्रिखा-परिवार इस त्रासदी का स्वयं भोक्ता रहा है। जब इस परिवार को अपनी जड़ों से उखड़ना-उजड़ना पड़ा, उस समय चन्द्र त्रिखा (9.7.1945 ई.) लगभग अढाई वर्ष के थे। परिवार तथा अन्यान्य भुक्तभोगियों से सुनी रोमांचक, भयावह और लोमहर्षक दास्तानों तथा, बाद में, सम्बन्धित स्थलों की स्वयं यात्रा करके, अर्जित की गयी प्रमाणपुष्ट सामग्री एवं अध्ययन-मनन, चिन्तन-विश्लेषण के आधार पर, डॉ. त्रिखा द्वारा प्रस्तुत तिथिवार स्थूल-सूक्ष्म विवरण, प्रकरण-संग्रहण एवं चित्रावली-संयोजन आदि साक्षी है कि डॉ. त्रिखा की भारत-विभाजन विषयक प्रस्तुति ही सही और सच्ची तस्वीर पेश करती है, जिसके आलोक में ही 'विभाजन-विभीषिका स्मृति-दिवस' का सार्थक-सफलीभूत आयोजन संभव है। आइए, अब, आगे बढ़ें और डॉ. त्रिखा द्वारा प्रणीत विभाजन सम्बन्धी साहित्य की तह में जाकर वस्तुस्थिति का अवलोकन करें-

भारत-पाक विभाजन और शरणार्थियों के पुनर्स्थापन की समस्या भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की एक अत्यंत संवेदनशील एवं अभूतपूर्व त्रासदी है, जिसमें लाखों-लाख लोग मारे गये थे और करोड़ों परिवार अपनी जड़ों से उखड़ गये थे। निस्संदेह, यह दुनिया का सबसे बड़ा 'मजबूरी में पलायन' और 'माइग्रेशन' था। बकौल खुशवंतसिंह, "यह एक ऐसा 'सर्जिकल ऑप्रेशन' था, जो बिना किसी 'एनस्थीसिया' के सम्पन्न किया गया था और पाँच दरियाओं की धरती वाला पूरा पंजाब मानवीय रक्त की धाराओं में बदल गया था।" इसी पृष्ठभूमि पर आधारित, डॉ. चन्द्र त्रिखा ने विभाजन-पूर्व, विभाजनकालीन और विभाजन-पश्चात् के परिवेश को दृष्टि-पथ में रखकर, इन आठ ग्रन्थों का प्रणयन किया है-"वे 48 घंटे',' विभाजन-गाथा',' वे दिनः वे लोग',' सांझे पुल',' उजड़े दयारों में लोबान की खुशबू (2019) , 'विभाजन: एक काला अध्याय (2019) ,' रिफ़्यूजी'(2019) और' विभाजन बनाम विस्थापन' (2020) । एक ही विषय पर, एक-के-बाद-एक, आठ ग्रन्थ लिखने के बाद भी, संभवतः, एतद्विषयक लेखन का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा, क्योंकि, बकौल डॉ. त्रिखा," अभी भी लगता है, बहुत-कुछ शेष है, जो कलमबन्दी का मोहताज है। विश्व के सबसे बड़े जनसंख्या-तबादले, भीषण नरसंहार और विस्थापन की पीड़ा को एकाध सदी में भुला पाना संभव नहीं है। इतने समय में तो शरीर के नासूर भी नहीं भरते, फिर ये नासूर तो रूहों से जुड़े थे। " (विभाजन बनाम विस्थापन, पृ। 7)

लगभग डेढ़ हज़ार मुद्रित पृष्ठों और सहस्राधिक चित्रों में समाहित डॉ. त्रिखा के उक्त आठों ग्रन्थों का सार-संक्षेप और निष्कर्ष निम्नवत् है—

1. "भारत-पाक विभाजन के समय लगभग 44 लाख हिन्दुओं एवं सिक्खों ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश किया था, जबकि 41 लाख मुस्लिम भारतीय-क्षेत्रों से पाकिस्तान में प्रविष्ट हुए थे। वैसे विभाजन के समय के आँकड़ों के बारे में अभी भी विवाद है। कुछ विद्वानों एवं इतिहासज्ञों का दावा है कि लगभग डेढ़ करोड़ लोग घरों से उजड़े थे। सरकारी आँकड़ों में दर्ज़ संख्या सिर्फ उनकी है, जिन्होंने मुआवज़ों या राहत के लिए अपना नाम दर्ज़ कराया था। लाखों लोग ऐसे भी थे, जो दंगों में मारे गए या हाशिए पर ही अपने उजड़ने की दास्ताँ दोहराते रहे।" (उजड़े दयारों में लोबान की खुशबू, पृ। 7)

2. विभाजन की इस त्रासदी में "आठ से दस लाख लोग नृशंस क़त्लोग़ारत का शिकार हुए। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, लगभग नब्बे हज़ार स्त्रियों को अपहरण व बलात्कार की पाशविकता से गुज़रना पड़ा।" (वे 48 घंटे, पृ.176)

3. "अभी भी अंतिम आँकड़ा तय नहीं है कि कितनी लाख लाशें बिछी थीं, कितने बेघर हुए थे, कितनी औरतें अपहृत हुईं। अनुमान यही है कि 10 से 15 लाख तक इन्सान मरे थे और लगभग अढाई करोड़ लोग उजड़े थे।" (विभाजन बनाम विस्थापन, पृ। 10)

4. "कभी-कभी लगता है कि14-15 अगस्त को स्वाधीनता-दिवस के साथ उसी शाम पूरे उपमहाद्वीप में पश्चात्ताप-दिवस भी मनाया जाना चाहिए, ताकि उन करोड़ों परिवारों की नियति को याद किया जाए और इतिहास की आत्मा से भविष्य के लिए सद्बुद्धि की दुआएँ की जाएँ। अब अनेक राजनीतिक विश्लेषक एवं इतिहासकार मानते हैं कि यदि उस समय के राजनीतिक नेतृत्व ने अपने चिन्तन का दायरा सत्ता के गलियारे से बाहर तक फैलाया होता, तो यह त्रासदी टल सकती थी।" (वे 48 घंटे, पृ। 18-20)

5. "ढेरों सवाल हैं, जो उपजे हैं, दक्षिण-एशियाई उपमहाद्वीप की उस विभीषिका से, जिसने 1946 से 1948 तक एक कोहराम का माहौल पैदा किया। यह एक ऐसा कोहराम था, जिसकी जवाबदेही किसी एक व्यक्ति-विशेष या किसी एक जाति-विशेष, किसी एक मज़हब-विशेष या किसी एक दल-विशेष पर नहीं डाली जा सकती।" (वे 48 घंटे, पृ। 174)

6. "हम किसे कटघरे में खड़ा करें, यह तय नहीं है। अभियुक्तों की फ़हरिस्त में तो जिन्नाह, नेहरू, पटेल, लियाकत, माउंटबेटन, सभी आते हैं। हमने सारे आरोप चंद दंगाइयों के माथे चस्पाँ किए और सत्ता-सुख भोगने में लग गए-लम्बे स्वाधीनता-संग्राम की आखिर थकान भी तो उतारनी थी।" (रिफ़्यूजी, पृ। 4) (ध्यातव्य है कि डॉ. चन्द्र त्रिखा ने भारत-पाक विभाजन के लिए उत्तरदायी अभियुक्तों की सूची में जो नाम गिनवाए हैं, उनकी सबल-सप्रमाण पुष्टि प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर रघुवेन्द्र तँवर ने अपने सद्य-प्रकाशित ग्रन्थ-'भारत-विभाजन की कहानी'- (प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, 2021) में भी की है। इस प्रकार, अब, अभियुक्तों के नामों पर कोई संशय नहीं रहना चाहिए।)

7. " मानवीय इतिहास की इस सर्वाधिक पाशविक गाथा में सभी धर्मों, मज़हबों, सम्प्रदायों के अनुयायियों की, किसी-न-किसी स्तर पर, शिरकत थी। पशुता का कोई धर्म या मज़हब नहीं होता। ऐसे वीभत्स इतिहास की बुनियाद पर बने दो राष्ट्र अपने इस दाग़दार अतीत की संतप्त स्मृतियों से तभी मुक्त हो पाएँगे, जब अच्छे पड़ोसियों की तर्ज़ पर जीने का सलीका अपनाएँगे। ...

8. इतिहास कटघरे में भी खड़ा करता है और क्षमा भी करता है, बशर्ते कि दोनों पक्ष, एक-दूसरे की पीड़ा, आवश्यकता और सर्वधर्म-समभाव का भाव, अपने भीतर तक उतार सकें। " (वे 48 घंटे, पृ। 176)

9. "इतना तो सुनिश्चित बनाना ही चाहिए कि अब भविष्य में इस उपमहाद्वीप में कोई रिफ़्यूजी न हों।" (रिफ़्यूजी, पृ। 6)

10. "पुरानी कहावत है कि दोस्त बदले जा सकते हैं, मगर पड़ोसी नहीं। जब नियति यही है, तो पड़ोस से सुखद बयारों का आना ज़रूरी है। अब तक की हताशा के बावज़ूद उम्मीद करनी चाहिए कि जो काम अब तक नहीं हो पाया, वह आने वाली नस्लें कर डालेंगी।" (विभाजन बनाम विस्थापन, पृ। 9) 11. "राजनीतिक या भौगोलिक हकीकतों से भी शायद ज़्यादा-बड़ी है संवेदनाओं और जड़ों की हक़ीक़त। बहरहाल, दोनों मुल्क अपनी-अपनी जगह पर मौजूद हैं। उन्हें तोड़ने की बात महज़ शायरी में हो सकती है, हक़ीक़त में नहीं। मगर बेहतर होगा कि खोए हुए विश्वास की बहाली के लिए थोड़ी ईमानदाराना मशक्कत हो। पीरों, फ़कीरों, सूफियों, संतों, गुरुओं और मन्दिरों की घंटियों व मस्जिदों की अज़ानों से सुर तो यही निकलते हैं-मानस की जात सबै एकि पहचानबो।" (वे 48 घंटे, पृ। 10)

12. "... एक तथ्य बार-बार उपजा है कि सामान्य आवाम दोनों तरफ सौहार्द के लिए दीवाना है। वे, घावों व नफ़रत को भुलाकर, फिर से बगलगीर होने के लिए व्यग्र हैं। उन्हें लगता है, आँसुओं से आपसी हिकारत व नफ़रत धुल जाती है।" (वे 48 घंटे, पृ। 175) 13. "इन 48 घण्टों (14 व 15 अगस्त, 1947) में जहाँ एक ओर नफ़रत, हिकारत, खून-खराबा, बलात्कार, वहशियत व साम्प्रदायिक संकीर्णता की घिनौनी इबारतें वक़्त की दीवार पर लिखी गयीं, वहाँ आपसी भाईचारे, रिश्तों की पाकीज़गी, मानवीय मूल्य और करुणा की भी इबारतें दर्ज़ हुईं।" (वे 48 घंटे, पृ। 14)

डॉ. त्रिखा बताते हैं कि 'फोर्ड फ़ाउण्डेशन' के सहयोग से, दिल्ली में शोध की एक दस-वर्षीय परियोजना-'रिकन्स्ट्रक्टिंग लाइव्स: मैमायर्स ऑव पार्टीशन'-बनी थी, जिसमें 1947 के भारत-पाक विभाजन के मध्य हज़ारों लोगों के साक्षात्कारों के संचयन का लक्ष्य रखा गया था। यह भी ज्ञात हुआ है कि यह कार्य अत्यन्त धीमी गति से चल रहा है-अभी तक मात्र-सहस्राधिक भुक्तभोगियों के ही साक्षात्कार लिपिबद्ध हो सके हैं; जबकि, हम-सब जानते हैं, भुक्तभोगियों की उस पीढ़ी के अधिकतर सदस्य संसार छोड़ चुके हैं या छोड़ने वाले हैं। इसलिए, इस दिशा में, शीघ्रातिशीघ्र ठोस-प्रयास किये जाने की महती आवश्यकता है, क्योंकि "भारत-पाक विभाजन के प्रामाणिक तथ्यों का सभी स्तरों पर संकलन, दस्तावेजीकरण और प्रकाशन आने वाली नस्लों को एक बहुत-बड़ा सबक भी देगा और भुक्तभोगी परिवारों के लिए एक व्यापक 'कथारसिस' भी सिद्ध होगा।" (विभाजन: एक काला अध्याय, पृ। 260)

उपर्युक्त पर्यालोचन, मूल्यांकन और निष्कर्षण से यह स्पष्ट है कि भारत-पाक विभाजन का निर्णय और उसका परिपालन जिन्नाह-नेहरू सरीखे कतिपय 'बड़े' नेताओं की नासमझी का दुष्परिणाम था, जिसकी असहनीय मार और मर्मांतक पीड़ा करोड़ों बेकसूर-लोगों को भुगतनी पड़ी और आज भी, रह-रहकर, उसका दंश दोनों देशों के लोगों को सालता रहता है। डॉ. चन्द्र त्रिखा ने गत 75 वर्षीय कालखण्ड की कटु सच्चाइयों, यथार्थताओं, असंगतियों, विसंगतियों, विषमताओं, विरूपताओं और वस्तु-स्थितियों का स्थूल-सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए यह सुझाव दिया है कि जो होना था, सो हो चुका। दोनों देशों के भूगोल को तो नहीं ही बदला जा सकता। अतः दोनों देशों का हित इस बात में है कि आपसी दुश्मनी-व्यवहार का परित्याग करके, एक अच्छे पड़ोसी की तरह, यथासंभव सद्भाव और सहयोग से रहने की आदत डालें। इससे पुराने छिले-छाले भी शांत होंगे और जनता-जनार्दन को सुकून भी मिलेगा। -0-