विभाजन की त्रासदी; इतिहास के पृष्ठों का पुनर्मूल्यांकन / शिवजी श्रीवास्तव

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विभाजन की त्रासदी:मुनीश त्रिपाठी,प्रकाशक —विद्या विकास एकेडमी,( प्रभात प्रकाशन ग्रुप,नई दिल्ली),प्रकाशन वर्ष-2019,मूल्य–₹400.पृष्ठ संख्या-200

भारत को स्वतंत्रता के साथ ही विभाजन का जो गहरा जख्म मिला वह नासूर बन कर आज भी भारतीय जन-मानस को आक्रांत करता रहता है,कश्मीर समस्या हो या दिन प्रति दिन का बढ़ता साम्प्रदायिक वैमनस्य एवम दंगे, विचारक सबके मूल में कहीं न कहीं विभाजन को ही महत्वपूर्ण कारण मानते हैं, विभाजन क्यों हुआ?क्या विभाजन को रोका जा सकता था?विभाजन के मूल में किसकी सोच थी इन प्रश्नों का उत्तर कई बार तलाशने के प्रयास हुए,अनेक विद्वानों,इतिहासविदों ने अपने-अपने ढंग से इन कारणों को तलाशने के प्रयास किये, इसी कड़ी में मुनीश त्रिपाठी की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘विभाजन की त्रासदी’ है।मुनीश त्रिपाठी की यह प्रथम कृति ही है किंतु इस पुस्तक में उन्होंने इतिहास की घटनाओं का गहन अध्ययन एवम मंथन करते हुए अनेक प्रसिद्ध इतिहासकारों के अध्ययन से इतर निष्कर्षो को देने का प्रयास किया है।इतिहास की इस भयंकर त्रासदी की विभीषिका प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति की भाँति लेखक के मन को व्यथित करती है,वही व्यथा इस पुस्तक के लेखन की प्रेरक शक्ति है। लेखक ने भूमिका में ही स्पष्ट करते हुए लिखा है,”बँटवारे में मरने वालों का सरकारी आँकड़ा केवल छह लाख दर्ज है,लेकिन इस संदर्भ में अगर तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी मोसले पर गौर करें तो वह गैरसरकारी आँकड़ा दस लाख दर्शाता है….गौरतलब है न पहले और न ही बाद में इतना बड़ा खून खराबा और बर्बरता दुनिया के किसी देश मे हुई”…विभाजन की इस त्रासदी के मूल में क्या कारण रहे यही तलाशना इस पुस्तक का उद्देश्य है।बंटवारे को लेकर तमाम प्रश्न जो आज तक जनमानस को उद्वेलित करते हैं उन तमाम प्रश्नों को इस पुस्तक में उठाया गया है,पुस्तक को चार अध्यायों में विभक्त किया गया है –

1.विभाजन की त्रासदी. 2.जिन्ना,लियाकत और मुस्लिम लीग. 3.गांधी,नेहरू,पटेल,अम्बेडकर,लोहिया,वामपंथ और विभाजन.आ 4.वामपंथ की बँटवारे में भूमिका।

इन अध्यायों से ही स्पष्ट है कि लेखक ने विभाजन के कारणों को तलाशते हुए इतिहास के उन अनेक महापुरुषों को कटघरे में खड़ा किया है जो अब तक के इतिहास में आजादी के नायक या महानायक के रूप में स्वीकृत और मान्य हैं,भूमिका में ही लेखक ने अपनी मान्यताओं का संकेत कर दिया है,”अब एक बड़ा सवाल उठता है कि देश का विभाजन आखिर सुनिश्चित कैसे हुआ?क्या जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद इसके लिये जिम्मेदार था या फिर अंग्रेजों की कुटिल नीति? क्या गांधी और कांग्रेस के खून में बुनियादी रूप से मुस्लिम तुष्टीकरण का बीज विद्यमान था जिसने अंततः बँटवारे का एक खूनी वटवृक्ष तैयार किया जिसकी तपिश आज भी ठंडी नहीं हो पाई है…”

बँटवारे के कारणों को तलाशते हुए लेखक सुदूर अतीत तक जाकर उस मानसिकता को समझना चाहते हैं,जिसने भारत मे विभाजन की भूमि तैयार की,लेखक इसका मूल उत्स सैयद अहमद बरेलवी के उस आंदोलन में देखते हैं जिसने सबसे पहले 1789 में भारत को दार-उल-हर्व (काफिरो का देश )का फतवा देकर मुसलमानों से अपील की थी कि सम्पूर्ण भारत को दार-उल-इस्लाम बनाने की आवश्यकता है।इसके बाद बहावी आंदोलन में भी यही मानसिकता दिखती है।साम्प्रदायिक अलगाव की मानसिकता का यही बीज शनैः-शनैः एक विष-वृक्ष के रूप में बढ़ता रहा ,इस मानसिकता ने समय समय पर अनेक साम्प्रदायिक दंगे भी कराए। इतिहास के अनुशीलन के क्रम में पुस्तक ने तत्कालीन अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं/आंदोलनों /दंगों के विवरण दिये हैं जिनमे मुस्लिम लीग का उदय,मार्ले-मिंटो सुधार,असहयोग और खिलाफत आंदोलन,मोपला विद्रोह तथा समय -समय पर होने वाले दंगो जैसी अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ शामिल है,पर लेखक ने बंग-भंग को विभाजन के लिये महत्वपूर्ण नही माना ।लेखक की धारणा है कि यद्यपि अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के नेतृत्व में हिन्दूओं-मुस्लिमों ने मिलकर लड़ाई लड़ी किन्तु वस्तुतः वे हृदय से एक नहीं हो पाए,अंग्रेज भी इस मानसिकता को समझते थे अतः वे भी दोनों के मध्य ‘फूट डालो और राज करो’,की नीति पर चलते रहे।आजादी की लड़ाई के नायकों ने जाने-,अनजाने कई ऐतिहासिक भूलें कीं जिनका दुष्परिणाम विभाजन के रूप में प्रकट हुआ।लेखक के अनुसार असहयोग आंदोलन के साथ खिलाफत आंदोलन को शामिल करना शायद गांधी जी की सबसे बड़ी भूल थी,इस संदर्भ में लेखक ने लोहिया और डॉ. आम्बेडकर के विचारों को आधार बनाया है,आम्बेडकर सदृश कई विद्वान इस मत के थे कि यदि विभाजन हो ही रहा है तो जनसंख्या की अदला-बदली पूर्ण रूप से की जाए,किन्तु उस पर अमल नही हुआ। कांग्रेस,नेहरू और गांधी की अनेक ऐतिहासिक भूलों को इंगित करते हुए भी लेखक इन प्रश्नों से जूझते हैं कि जो गांधी कहते थे कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा वे विभाजन के लिए कैसे तैयार हो गये,?जिन्ना की महत्वाकांक्षा के मूल में क्या था? सरदार पटेल की क्या भूमिका थी, आम मुस्लिम और हिन्दू की क्या मानसिकता रही…इत्यादि।

निःसन्देह लेखक ने इतिहास के गहन मंथन के पश्चा अपनी मान्यताएँ रखी हैं, किन्तु विभाजन में वामपंथ की भूमिका के संदर्भ में कोई नवीन तथ्य नहीं है,वामपंथियों की द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के विरुद्ध बहुराष्ट्रवाद के सिद्धांत की मान्यता से इतिहास के अध्येता परिचित हैं,चतुर्थ अध्याय में विभाजन के समय वामपंथी नीति के लिये मात्र दो पृष्ठ हैं,शेष में सन 2000के पश्चात् भारत में बढ़ रही साम्प्रदायिक घटनाओं,आतंकी गतिविधियों या विभाजन से सम्बन्धित राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घटित होने वाली उन घटनाओं का विश्लेषण है, जो विभाजन की मानसिकता से जन्मी हैं और उनकी काली छाया सेआज तक मुक्ति नही मिल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि पुस्तक विचारोत्तेजक एवम नई बहस को जन्म देने वाली है।

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