विभाव / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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विभाव / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

कवि-कर्म-विधान के दो पक्ष होते हैं-विभाव पक्ष और भाव पक्ष। कवि एक ओर तो ऐसी वस्तुओं का चित्रण करता है जो मन में कोई भाव उठाने या उठे हुए भाव को और जमाने में समर्थ होती हैं और दूसरी ओर उन वस्तुओं के अनुरूप भावों के अनेक स्वरूप शब्दों द्वारा व्यक्त करता है। एक विभाव पक्ष है, दूसरा भाव पक्ष। कहने की आवश्यकता नहीं कि काव्य में ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं, अत: दोनों रहते हैं। जहाँ एक ही पक्ष का वर्णन रहता है वहाँ भी दूसरा पक्ष अव्यक्त रूप में रहता है। जैसे, नायिका के रूप या नख-शिख का कोरा वर्णन लें तो उसमें भी आश्रय का रति भाव अव्यक्त रूप में वर्तमान रहता है। पर काव्य में विभाव ही मुख्य है। भावों के प्रकृत आधार या विषय का कल्पना द्वारा पूर्ण और यथातथ्य प्रत्यक्षीकरण कवि का सबसे पहला और सबसे आवश्यक काम है। जैसा पहले कहा जा चुका है, इसके अंतर्गत दो पक्ष होते हैं-

(1) आलम्बन (भाव का विषय)

(2) आश्रय (भाव का अनुभव करनेवाला)

इनमें से प्रथम तो मनुष्य से लेकर कीट, पतंग, वृक्ष नदी, पर्वत आदि सृष्टि का कोई भी पदार्थ हो सकता है। किंतु दूसरा हृदयसम्पन्न मनुष्य ही होता है। प्राचीन कविगण इन दोनों का स्वरूप प्रतिष्ठित करने में-इनका बिम्बग्रहण कराने में-कल्पना का पूरा-पूरा उपयोग करते थे। वाल्मीकीय रामायण को मैं आर्ष काव्य का आदर्श मानता हूँ। उसमें राम के रूप, गुण, शील, स्वभाव तथा रावण की विरूपता, अनीति, अत्याचार आदि का पूरा चित्रण तो मिलता ही है, साथ ही अयोध्या , चित्रकूट, दंडकारण्य आदि का चित्र भी पूरे ब्योरे के साथ सामने आता है। न स्थलों के वर्णन में हमें हाट, बाट, वन, पर्वत, नदी, निर्झर, ग्राम, जनपद इत्यादि न जाने कितने पदार्थों का प्रत्यक्षीकरण मिलता है।

साहित्य के आचार्यों की दृष्टि में वन, उपवन, ऋतु आदि श्रृंगार के 'उद्दीपन' मात्र हैं; केवल नायक या नायिका को हँसाने या रुलाने के लिए हैं। जब यही बात है तब फिर इनका संश्लिष्टा चित्रण करके श्रोता को 'बिम्बग्रहण' कराने से क्या प्रयोजन? उनके नाम गिनाकर अर्थ ग्रहण करा दिया; बस हो गया। पर सोचने की बात है कि क्या प्राचीन कवियों ने इनका वर्णन इसी रूप में किया है? क्या विश्व हृदय वाल्मीकि ने वनों और नदियों आदि का वर्णन इसी उद्देश्य से किया है? क्या महाकवि कालिदास ने 'कुमारसंभव' के आरंभ में ही हिमालय का जो विशद वर्णन किया है वह केवल श्रृंगार के उद्दीपन की दृष्टि से? कभी नहीं। ये वर्णन पहले तो प्रसंगप्राप्त हैं, अर्थात् आलम्बन की परिस्थिति को अंकित करनेवाले हैं। इनके बिना आश्रय और आलम्बन शून्य में खड़े मालूम होते हैं। इस पर यों गौर कीजिए। राम और लक्ष्मण के दो चित्र आपके सामने हैं। केवल दो मूर्तियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है; और दूसरे में पयस्विनी के द्रुम लताच्छादित तट पर पर्णकुटी के सामने दोनों भाई बैठे हैं। इनमें दूसरा चित्र परिस्थिति को लिए हुए है, इससे उसमें हमारे भावों के लिए अधिक विस्तृत आलम्बन है। हमारी परिस्थिति हमारे जीवन का आलम्बन है, अत: उपचार से वह हमारे भावों का भी आलम्बन है। उसी परिस्थिति में-उसी संसार में-उन्हीं दृश्यों के बीच जिनमें हम रहते हैं, राम लक्ष्मण को पाकर हम उनके साथ तादात्म्य संबंध का अधिक अनुभव करते हैं, जिससे 'साधारणीकरण' पूरा-पूरा होता है।

पर प्राकृतिक वर्णन केवल अंग रूप से ही हमारे भावों के आलम्बन नहीं हैं, स्वतंत्र रूप में भी हैं। जिन प्राकृतिक दृश्यों के बीच हमारे आदिम पूर्वज रहे और अब भी मनुष्य जाति का अधिकांश (जो नगरों में नहीं आ गया है) अपनी आयु व्यतीत करता है, उनके प्रति प्रेमभाव पूर्व साहचर्य के प्रभाव से संस्कार या वासना के रूप में हमारे अंत:करण में निहित है। उनके दर्शन या काव्य आदि में प्रदर्शन से हमारी भीतरी प्रकृति का जो अनुरंजन होता है वह अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। इस अनुरंजन को केवल किसी दूसरे भाव का आश्रित या उत्ते जक कहना अपनी जड़ता का ढिंढोरा पीटना है। जो प्राकृतिक दृश्यों को केवल कामोद्दीपन की सामग्री समझते हैं उनकी रुचि भ्रष्ट हो गई है और संस्कारसापेक्ष है। मैंने पहाड़ों पर या जंगलों में घूमते समय बहुत से ऐसे साधु देखे हैं जो लहराते हुए हरे भरे जंगलों, स्वच्छ शिलाओं पर चाँदी से ढलते हुए झरनों, चौकड़ी भरते हुए हिरनों और जल को झुककर चूमती हुई डालियों पर कलरव कर रहे विहंगों को देख मुग्धी हो गए हैं। काले मेघ जब अपनी छाया डालकर चित्रकूट के पर्वतों को नीलवर्ण कर देते हैं तब नाचते हुए नीलकंठों (मोरों) को देखकर सभ्यताभिमान के कारण शरीर चाहे न नाचे, पर मन अवश्य नाचने लगता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे दृश्यों को देखकर हर्ष होता है। हर्ष एक संचारी भाव है। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि उसके मूल में रतिभाव वर्तमान है और वह रतिभाव उन दृश्यों के प्रति है।

रीति ग्रन्थों की बदौलत रसदृष्टि परिमित हो जाने से उसके संयोजक विषयों में से कुछ तो 'उद्दीपन' में डाल दिए गए और कुछ 'भावक्षेत्र' से ही निकाले जाकर 'अलंकार' के हाते में हाँक दिए गए। इसी व्यवस्था के अनुसार वस्तुओं के स्वाभाविक रूप और क्रिया का वर्णन 'स्वभावोक्ति' अलंकार हो गया; जैसे लड़कों का खेलना, चीते का पूँछ पटककर झपटना, हाथी का गंडस्थल रगड़ना इत्यादि। पर मैं इन्हें प्रस्तुत विषय मानता हूँ, जिनपर अप्रस्तुत विषयों का उत्प्रेक्षा आदि द्वारा आरोप हो सकता है। वात्सल्य रतिभाव के प्रदर्शन में यदि बच्चे की क्रीड़ा का वर्णन हो तो क्या वह अलंकार मात्र होगा? प्रस्तुत वर्ण्य विषय अलंकार नहीं कहा जा सकता। वह स्वयं रस के संयोजकों में से है; उसकी शोभामात्र बढ़ानेवाला नहीं। मैं अलंकार को केवल वर्णनप्रणाली मात्र मानता हूँ; जिसके अंतर्गत किसी वस्तु का वर्णन किया जा सकता है। वस्तुनिर्देश अलंकार का काम नहीं। इस दृष्टि से कई अलंकार ऐसे हैं जिन्हें अलंकार न कहना चाहिए; जैसे स्वभावोक्ति, अतिशयोक्ति से भिन्न अत्युक्ति, उद्दात्त इत्यादि। सारांश यह कि स्वभावोक्ति अलंकार नहीं है और इसी से उसका ठीक-ठीक लक्षण भी नहीं स्थिर हो सका। कुछ लोग 'अलंकार' का बहुत व्यापक अर्थ लेने लगे हैं। इन सब बातों का विस्तृत विवेचन फिर कभी किया जायगा।

मनुष्य शेष प्रकृति के साथ अपने रागात्मक संबंध का विच्छेद करने से अपने आनंद की व्यापकता को नष्ट करता है। बुद्धि की व्याप्ति के लिए मनुष्य को जिस प्रकार विस्तृत और अनेक रूपात्मक क्षेत्र मिला है उसी प्रकार 'भावों' (मन के वेगों) की व्याप्ति के लिए भी। अब आलस्य या प्रमाद के कारण मनुष्य इस द्वितीय क्षेत्र को संकुचित कर लेगा तो उसका आनंद पशुओं के आनंद से विशाल किसी प्रकार नहीं कहा जा सकेगा। अत: यह सिद्ध हुआ कि वन, पर्वत, नदी, निर्झर, पक्षी, खेत, बारी इत्यादि के प्रति हमारा प्रेम स्वाभाविक है, या कम से कम वासना के रूप में अंत:करण में निहित है।

पर प्रेम की प्रतिष्ठा दो प्रकार से होती है-(1) सुंदर रूप के अनुभव द्वारा और (2) साहचर्य द्वारा। सुंदर रूप के आधार पर जो प्रेमभाव या लोभ (मेरे मानसकोश में दोनों का अर्थ प्राय: एक ही निकलता है) प्रतिष्ठित होता है उसका हेतु संलक्ष्य होता है; और जो केवल साहचर्य के प्रभाव से अंकुरित और पल्लवित होता है वह एक प्रकार से हेतुज्ञानशून्य होता है। यदि हम किसी किसान को उसकी झोपड़ी से हटाकर किसी दूर देश में ले जाकर राजभवन में टिका दें तो वह उस झोपड़ी का, उसके छप्पर पर चढ़ी हुई कुम्हड़े की बेल का, सामने के नीम के पेड़ का, द्वार पर बधे हुए चौपायों का ध्याहन करके ऑंसू बहाएगा। वह यह कभी नहीं समझता कि मेरा झोपड़ा इस राजभवन से सुंदर था; परंतु फिर भी झोपड़े का प्रेम उसके हृदय में बना हुआ है। यह प्रेम रूप सौंदर्यगत नहीं है; सच्चा स्वाभाविक और हेतुज्ञानशून्य प्रेम है। इस प्रेम को रूपसौंदर्यगत प्रेम नहीं पहुँच सकता।

इससे यह स्पष्ट है कि अपने सुखविलास के अथवा शोभा और सजावट की अपनी रचनाओं के आदर्श को लेकर जो प्रकृति के क्षेत्र का अवलोकन करते हैं और अपना प्रेमानंद केवल इन शब्दों में प्रकट करते हैं कि-'अहा हा!' कैसे लाल-पीले और सुंदर फूल खिले हैं, पेड़ किस प्रकार यहाँ से वहाँ तक एक पंक्ति में चले गए हैं, लताओं का कैसा सुंदर मंडप-सा बन गया है, कैसी शीतल, मंद, सुगंध हवा चल रही है, उनका प्रेम कोई प्रेम नहीं-उसे अधूरा समझना चाहिए। वे प्रकृति के सच्चे उपासक नहीं। वे तमाशबीन हैं, और केवल अनोखापन, सजावट या चमत्कार देखने निकलते हैं, उनका हृदय मनुष्य प्रवर्तित व्यापारों में पड़कर इतना कुंठित हो गया है कि उसमें उन सामान्य प्राकृतिक परिस्थितियों में जिनमें, अत्यंत आदिम कल्प में मनुष्य जाति ने अपना जीवन व्यतीत किया था तथा उन प्राचीन मानव व्यापारों में जिनमें वन्य दशा से निकलकर वह अपने निर्वाह और रक्षा के लिए लगी, लीन होने की वृत्ति दब गई अथवा यों कहिए कि उनमें करोड़ों पीढ़ियों को पार करके आनेवाली अन्तस्संज्ञावर्तिनी वह अव्यक्त स्मृति नहीं रह गई जिसे वासना या संस्कार कहते हैं। वे तड़क भड़क, सजावट, रंगों की चमक दमक, कलाओं की बारीकी पर भले ही मुग्धे हो सकते हों, पर सच्चे सहृदय नहीं कहे जा सकते।

कँकरीले टीलों, ऊसर पटपरों, पहाड़ के ऊबड़ खाबड़ किनारों या बबूल, करौंदे के झाड़ों में क्या आकर्षित करनेवाली कोई बात नहीं होती? जो फारस की चाल के बगीचों के गोल चौखूँटे कटाव, सीधी -सीधी रविशें, मेहँदी के बने भद्दे हाथी, घोड़े, काट छाँटकर सुडौल किए हुए सरो के पेड़ों की कतारें, एक पंक्ति में फूले हुए गुलाब आदि देखकर ही वाह वाह करना जानते हैं, उनका साथ सच्चे भावुक सहृदयों को वैसा ही दु:खदायी होगा जैसा सज्जनों को खलों का। हमारे प्राचीन पूर्वज भी उपवन और वाटिकाएँ लगाते थे। पर उनका आदर्श कुछ और था। उनका आदर्श वही था जो अब तक चीन और योरप में थोड़ा बहुत बना हुआ है। आजकल के पार्कों में हम भारतीय आदर्श की छाया पाते हैं। हमारे यहाँ के उपवन वन के प्रतिरूप ही होते थे। जो वनों में जाकर प्रकृति का शुद्ध स्वरूप और उसकी स्वच्छंद क्रीड़ा नहीं देख सकते थे वे उपवनों में ही जाकर उसका थोड़ा बहुत अनुभव कर लेते थे। वे सर्वत्र अपने को ही नहीं देखना चाहते थे। पेड़ों को मनुष्य की कवायद करते देखकर ही जो मनुष्य प्रसन्न होते हैं वे अपना ही रूप सर्वत्र देखना चाहते हैं; अहंकारवश अपने से बाहर प्रकृति की ओर देखने की इच्छा नहीं करते।

काव्य का जो चरम लक्ष्य सर्वभूत को आत्मभूत कराके अनुभव कराना है (दर्शन के समान केवल ज्ञान कराना नहीं) उसके साधन में भी अहंकार का त्याग आवश्यक है। जब तक इस अहंकार से पीछा न छूटेगा तब तक प्रकृति के सब रूप मनुष्य की अनुभूति के भीतर नहीं आ सकते। खेद है कि फारस की उस महफिली शायरी का कुसंस्कार भारतीयों के हृदय में भी इधर बहुत दिनों से जम रहा है जिसमें चमन, गुल, बुलबुल, लाला, नरगिस आदि का ही कुछ वर्णन विलास की सामग्री के रूप में होता है। कोह, बयावान आदि का उल्लेख किसी भारी विपत्ति या दुर्दिन के ही प्रसंग में मिलता है। फारस में क्या और पेड़ पौधो नहीं होते? पर उनसे वहाँ के शायरों को कोई मतलब नहीं। अलबुर्ज जैसे सुंदर पहाड़ का विशद वर्णन किस फारसी काव्य में है? पर इधर वाल्मीकि को देखिए। उन्होंने प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में केवल मंजरियों से छाए हुए रसालों, सुरभित सुमनों से लदी हुई मालती लताओं, मकरंदपरागपूरित सरोजों का ही वर्णन नहीं किया; इंगुदी, अंकोट, तेंदु, बबूल और बहेड़े आदि जंगली पेड़ों का भी तल्लीनता के साथ वर्णन किया है। इसी प्रकार योरप के कवियों ने भी अपने गाँव के बहते हुए नाले के किनारे उगनेवाली झाड़ी या घास तक का नाम ऑंखों में ऑंसू भर कर लिया है।1 इससे स्पष्ट है कि मनुष्य को उसके व्यापारगर्त से बाहर प्रकृति के विशाल और विस्तृत क्षेत्र में ले जाने की शक्ति फारस की परिमित काव्यपद्धति में नहीं है-भारत और योरप की पद्धति में है।

स्वाभाविक सहृदयता केवल अद्भुत, अनूठी, चमत्कारपूर्ण, विशद या असाधारण वस्तुओं पर मुग्धक होने में ही नहीं है। जितने आदमी भेड़ाघाट, गुलमर्ग आदि देखने जाते हैं वे सब प्रकृति के सच्चे आराधक नहीं होते; अधिकांश केवल तमाशबीन होते हैं। केवल असाधारणत्व के साक्षात्कार की यह रुचि स्थूल और भद्दी है, और हृदय के गहरे तलों से संबंध नहीं रखती। जिस रुचि से प्रेरित होकर लोग आतिशबाजी, जलूस वगैरह देखने दौड़ते हैं यह वही रुचि है। काव्य में इसी असाधारण और चमत्कार की ओछी रुचि के कारण बहुत से लोग अतिशयोक्तिपूर्ण अशक्त वाक्यों में ही काव्यत्व समझने लगे। कोई बिहारी के विरहवर्णन पर सिर हिलाता है, कोई 'यार' की कमर गायब हो जाने पर वाह-वाह करता है। कालिदास ने अत्यंत प्राकृतिक ढंग से रथ को धूल के आगे निकाला2 तो भूषण ने घोड़े को छोड़े हुए तीर से एक तीर आगे कर दिया।3 पर मुबालिगा जहाँ हद से ज्यादा बढ़ा कि मजाक हुआ। खेद है कि उर्दू की शायरी ऐसे ही मजाक की सूरत में आ गई।

सारांश यह कि केवल असाधारणत्व दर्शन की रुचि सच्ची सहृदयता की पहचान नहीं है। शोभा और सौंदर्य की भावना के साथ-साथ जिसमें मनुष्य जाति के उस समय के पुराने सहचरों की वंशपरम्परागत स्मृति वासना के रूप में बनी हुई है, जब वह प्रकृति के खुले क्षेत्र में विचरती थी, वे ही पूरे सहृदय कहे जा सकते हैं। पहले कह आए हैं कि वन्य और ग्रामीण दोनों प्रकार के जीवन प्राचीन हैं, दोनों पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदी-नालों और पर्वत-मैदानों के बीच व्यतीत होते हैं, अत: प्रकृति के अधिक रूपों के साथ संबंध रखते हैं। हम पेड़ पौधों और पशुपक्षियों से संबंध तोड़कर


1. देखिए वर्डस्वड़र्थ की 'एडमॉनीशन टु ए ट्रेवेलर' शीर्षक कविता।

2. आत्मौद्धतैरपि रजोभिरलङ्घनीया धावन्त्यमी मृगजवाक्षमयेव रथ्या:।

-अभिज्ञानशाकुंतल, 1/81

3. जिन चढ़ि आगे को चलाइत तीर,

तीर एक भरि तऊ तीर पीछे ही परत हैं।

-शिवभूषण, 372।

नगरों में आ बसे; पर उनके बिना रहा नहीं जाता। हम उन्हें हर वक्त पास न रखकर घेरे में बंद करते हैं, और कभी-कभी मन बहलाने को उनके पास चले जाते हैं। हमारा साथ उनसे भी छोड़ते नहीं बनता। कबूतर हमारे घर के छज्जों पर सुख से सोते हैं-

तां कस्याद्बिचद्भवनवलभौ सुप्तपारावतायां ,

नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात्खिन्नविद्युत्कलत्रा  : -मेघदूत, पूर्वमेघ, 42।

गौरे हमारे घर के भीतर आ बैठते हैं, बिल्ली अपना हिस्सा या तो म्याऊँ म्याऊँ करके माँगती है या चोरी से ले जाती है, कुत्ते घर की रखवाली करते हैं और वासुदेवजी कभी-कभी दीवार फोड़कर निकल पड़ते हैं। बरसात के दिनों में जब सुरखी चूने की कड़ाई की परवा न करके हरी-हरी घास पुरानी छत पर निकल पड़ती है तब मुझे उसके प्रेम का अनुभव होता है। वह मानो हमें ढूँढ़ती हुई आती है और कहती है कि तुम मुझसे क्यों दूर-दूर भागे फिरते हो?

वनों, पर्वतों, नदी, नालों, कछारों, पटपरों, खेतों, खेतों की नालियों, घास के बीच से गई हुई ढुर्रियों, हल, बैलों, झोपड़ों और श्रम में लगे हुए किसानों इत्यादि में जो आकर्षण हमारे लिए हैं वह हमारे अंत:करण में निहित वासना के कारण है,असाधारण चमत्कार या अपूर्व शोभा के कारण नहीं। जो केवल पावस की हरियाली और वसंत के पुष्पहास के समय ही वनों और खेतों को देखकर प्रसन्न हो सकते हैं, जिन्हें केवल मंजरीमंडित रसालों, प्रफुल्ल कदंबों और सघन मालतीकुंजों का दर्शन प्रिय लगता है, ग्रीष्म के खुले हुए पटपर, खेत और मैदान, शिशिर की पत्रविहीन नंगी वृक्षावली और झाड़ बबूल आदि जिनके हृदय को कुछ भी स्पर्श नहीं करते उनकी प्रवृत्ति राजसी समझनी चाहिए। वे केवल अपने विलास या सुख की सामग्री प्रकृति में ढूँढ़ते हैं। उनमें उस 'सत्व' की कमी है जो सत्ता मात्र के साथ एकीकरण की अनुभूति द्वारा लीन करके आत्मसत्ता के विभुत्व का आभास देती है। संपूर्ण सत्ता, क्या भौतिक, क्या आध्याबत्मिक, एक ही परम सत्ता या परम भाव के अंतर्गत है, अत: ज्ञान या तर्कबुद्धि द्वारा हम जिस अद्वैत भाव तक पहुँचते हैं उसी भाव तक इस 'सत्व गुण' के बल पर हमारी रागात्मिका वृत्ति भी पहुँचती है। इस प्रकार अन्तत: दोनों वृत्तियों का समन्वय हो जाता है। यदि हम ज्ञान द्वारा सर्वभूत को आत्मवत् जान सकते हैं तो रागात्मिका वृत्ति द्वारा उसका अनुभव भी कर सकते हैं। तर्कबुद्धि से होकर परम ज्ञानी भी इस 'स्वानुभूति' का आश्रय लेते हैं। अत: परमार्थ दृष्टि से दर्शन और काव्य दोनों अंत:करण की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का आश्रय लेकर एक ही लक्ष्य की ओर ले जानेवाले हैं। इस व्यापक दृष्टि से काव्य का विवेचन करने से लक्षणग्रन्थों में निर्दिष्ट संकीर्णता कहीं-कहीं बहुत खटकती है। वन, उपवन, चाँदनी इत्यादि को दांपत्य रति के उद्दीपन मात्र मानने से संतोष नहीं होता।

पहले कहा जा चुका है कि रस के संयोजक जो विभाव आदि हैं वे ही कल्पना के प्रधान क्षेत्र हैं। कवि की कल्पना का पूर्ण विकास उन्हीं में देखना चाहिए। पर वहाँ कल्पना को कवि की अनुभूति के आदेश पर चलना पड़ता है, उसकी श्रेष्ठता कवि के सहृदयता से संबंध रखती है, अत: उस कृत्रिमता के काल में जिसमें कविता केवल अभ्यासगम्य समझी जाने लगी; कल्पना का प्रयोग काव्य का प्रकृत स्वरूप संघटित करने में कम होकर अलंकार आदि बाह्य आडंबर फैलाने में अधिक होने लगा। पर विभावन द्वारा जब वस्तु प्रतिष्ठा पूर्ण रूप से हो तब आगे और कुछ होना चाहिए। विभाव वस्तु चित्रमय होता है, अत: जहाँ वस्तु श्रोता या पाठक के भावों का आलम्बन होती है वहाँ अकेला उसका पूर्ण चित्रण ही काव्य कहलाने में समर्थ हो सकता है। पिछले कवियों में इस वस्तुचित्र का विस्तार क्रमश: कम होता गया। प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण में वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि सच्चे कवियों की कल्पना ऐसे रूपों की योजना करने में, ऐसी वस्तुएँ इकट्ठी करने में प्रयुक्त होती थी जिनसे किसी स्थल का चित्र पूरा होता था, और जो श्रोता के भाव का स्वयं आलम्बन होती थी। वे जिन दृश्यों को अंकित कर गए हैं उनके ऐसे ब्योरों को उन्होंने सामने रखा है जिनसे एक भरापूरा चित्र सामने आता है। ऐसे दृश्य अंकित करने के लिए प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण की आवश्यकता होती है; उसके स्वरूप में इस प्रकार तल्लीन होना पड़ता है कि एक एक ब्योरे पर ध्यातन जाय। उन्हें इस बात का अनुभव रहता था कि कल्पना के सहारे चित्र के भीतर एक वस्तु और व्यापार का संश्लिष्टु रूप में भरना जितना जरूरी है उतना उपमा आदि ढूँढ़ना नहीं। इसी से उनके चित्र भरेपूरे हैं। और इधर के कवियों ने जहाँ परम्परापालन के लिए ऐसे चित्र खींचे भी हैं वहाँ वे पूर्ण चित्र क्या, चित्र भी नहीं हुए हैं। उनके चित्र (यदि चित्र कहें जा सकें) ऐसे ही हुए हैं जैसा कि किसी चित्रकार का अधूरा छोड़ा हुआ चित्र जिसमें कहीं एक रेखा यहाँ लगती है, कहीं वहाँ-कहीं कुछ रंग भरा जा सका है, कहीं खाली है। चित्र कला के प्रयोग द्वारा इस बात की परीक्षा हो सकती है। वाल्मीकि के वर्षा वर्णन को लीजिए और जो-जो वस्तुएँ आती जायँ उसकी आकृति ऐसी सावधानी से अंकित करते चलिए कि कोई वस्तु छूटने न पावे (देखिए चित्र संख्या 1)। अब गोस्वामी तुलसीदासजी का भागवत से लिया गया वर्षावर्णन लेकर ऐसा ही कीजिए। ऐसा करने से यह चित्र बना (देखिए चित्र संख्या 2) और दोनों चित्रों को इस बात का ध्याोन रखकर मिलाइए कि ये किष्किंधा की पर्वत स्थली के चित्र हैं।

खेद है कि जिस कल्पना का उद्योग मुख्यत: पदार्थों का रूप संघटित करने, प्राकृतिक व्यापारों को प्रत्यक्ष करने और इस प्रकार किसी दृश्यखंड के ब्योरे पूरे करने में होना चाहिए था उसका प्रयोग पिछले कवियों ने उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत आदि की उद्भावना करने में अधिक किया। महाकवि माघ प्रबन्धरचना में जैसे कुशल थे वैसे ही उसके पक्षपाती भी थे; पर उनकी प्रवृत्ति हम प्रस्तुत वस्तुविन्यास की ओर कम और अलंकारयोजना की ओर अधिक पाते हैं। उनके दृश्यवर्णन में वाल्मीकि आदि प्राचीन कवियों का सा प्रकृति का रूपविश्लेंषण नहीं है; उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, अर्थांतरन्यास आदि की भरमार है। उदाहरण के लिए उनके प्रभातवर्णन से कुछ श्लो्क दिए जाते हैं-

अरुणजलजराजीमुग्ध हस्ताग्रपादा बहुलमधुपमालाकज्जलेन्दीवराक्षी।

अनुपतित विरावै: पत्रिणां व्याहरन्ती रजनिमचिरजाता पूर्व सन्धया सुतेव॥

विततपृथुवरत्रातुल्यरूपैर्मयूखै: कलश इव गरीयान दिग्भिराकृष्यमाण

कृतचपलविहक्षलापकोलाहलाभिर्जलनिधिाजलमध्याादेष उतार्यतेऽर्क:॥

व्रजति विजयमक्ष्णामंशुमाली न यावत् तिमिरमखिलमस्तं तावदेवारुऽणेन।

परपरिभवितेजस्तन्वतामाशु कर्तु प्रभवति हि विपक्षोच्छेदमग्रेसरोऽपि॥1

इस वर्णन में यह स्पष्ट लक्षित होता है कि कवि को दृश्य की एक-एक सूक्ष्म वस्तु और व्यापार प्रत्यक्ष करके चित्र पूरा करने की उतनी चिंता नहीं है जितनी कि अद्भुत अद्भुत उपमाओं आदि के द्वारा एक कौतुक खड़ा करने की। पर काव्य कौतुक नहीं है, उसका उद्देश्य गंभीर है।

पाश्चात्य काव्यसमीक्षक किसी वर्णन के ज्ञातृ पक्ष (सब्जेक्टिव) और ज्ञेय पक्ष (आब्जेक्टिव) अथवा विषयी पक्ष और विषय पक्ष-दो पक्ष लिया करते हैं। जो वस्तुएँ बाह्य प्रकृति में हम देख रहे हैं उनका चित्रण ज्ञेय पक्ष के अंतर्गत हुआ, और उन वस्तुओं के प्रभाव से हमारे चित्त में जो भाव या आभास उत्पन्न हो रहे हैं वे ज्ञातृ पक्ष के अंतर्गत हुए। अत: उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के आधिक्य के पक्षपाती कह सकते हैं कि पिछले कवियों के दृश्य वर्णन ज्ञातृ-पक्ष-प्रधान हैं। ठीक है; पर वस्तुविन्यास प्रधान कार्य है। यदि वह अच्छी तरह बन पड़ा तो पाठक के हृदय में दृश्य के सौंदर्य, भीषणता, विशालता इत्यादि का अनुभव थोड़ा बहुत आप से आप होगा। वस्तुओं के संबंध में इन भावों का ठीक-ठीक अनुभव करने में सहारा देने के लिए कवि कहीं बीच-बीच में अपने अंत:करण की भी झलक दिखाता चले तो यहाँ तक ठीक है। यह झलक दो प्रकार की हो सकती है-भावमय और अपरवस्तुमय। जैसे, किसी ने कहा-'तालाब के उस किनारे पर खिले कमल कैसे मनोहर लगते हैं।' यहाँ कमलों के दर्शन से सौंदर्य का जो भाव चित्त में उदित हुआ वह वाच्य द्वारा स्पष्ट कह दिया गया। यही बात यदि यों कही जाय कि 'तालाब के उस किनारे पर खिले कमल


1. अरुणकमलरूपी कोमल हाथपैरवाली, मधुपमालारूपी कज्जलयुक्त कमलनेत्रवाली, पक्षियों के कलरवरूपी रोदनवाली यह प्रभातवेला सद्योजात बालिका के समान रात्रिरूपी अपनी माता की ओर लपकी आ रही है। जिस प्रकार घड़ा खींचते समय स्त्रियाँ कुछ कोलाहल करती हैं उसी प्रकार के पक्षियों के कोलाहल से पूर्ण दिशारूपी स्त्रियाँ, दूर तक फैली हुई किरणरूपी रस्सियों से, सूर्यरूपी घड़े को बाँधाकर बड़े भारी कलश के समान समुद्र के भीतर से खींचकर ऊपर निकाल रही हैं। सूर्य के उदय होने से पहले ही सूर्य के साथी अरुण ने सारा अंधकार दूर कर दिया; वैरियों को नष्ट करनेवाले स्वामियों के आगे चलनेवाला सेवक भी शत्रुओं को मार भगाने में समर्थ होता है।

ऐसे लगते हैं मानो प्रभात के गगन तट पर की ललाई।' तो सौंदर्य का भाव स्पष्ट न कहा जाकर दूसरी ऐसी वस्तु सामने ला दी गई जिसके साथ भी वैसे ही सौंदर्य का भाव लगा हुआ है। एक में भाव वाच्य द्वारा प्रकट किया गया दूसरे में अलंकार रूप व्यंग्य द्वारा। इससे स्पष्ट है कि दृश्य वर्णन करते समय कवि उपमा, उत्प्रेक्षा आदि द्वारा वर्ण्य वस्तुओं के मेल में जो दूसरी वस्तुएँ रखता है सो केवल भाव को तीव्र करने के लिए। अत: वे दूसरी वस्तुएँ ऐसी होनी चाहिए जिनसे प्राय: सब मनुष्यों के चित्त में वे ही भाव उदित होते हों जो वर्ण्य वस्तुओं से होते हैं। यों ही खिलवाड़ के लिए बार-बार प्रसंगप्राप्त वस्तुओं से श्रोता या पाठक का ध्यांन हटाकर दूसरी वस्तुओं की ओर ले जाना जो प्रसंगानुकूल भाव उद्दीप्त करने में भी सहायक नहीं काव्य के गांभीर्य और गौरव को नष्ट करना है, उसकी मर्यादा बिगाड़ना है। इसी प्रकार बात-बात में 'अहाहा! कैसा मनोहर है! कैसा आह्लादजनक है!' ऐसे उद्गार भी भद्देपन से खाली नहीं, और काव्यशिष्टता के विरूद्ध हैं। तात्पर्य यह कि अनुभूति में सहायता देने के लिए केवल कहीं कहीं उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का प्रयोग उतना ही उचित है जितने से बिंब ग्रहण करने में, दृश्य का चित्र हृदयंगम करने में, श्रोता या पाठक को बाधा न पड़े।

जहाँ एक व्यापार के मेल में दूसरा व्यापार रखा जाता है वहाँ या तो (क) प्रथम व्यापार से उत्पन्न भाव को अधिक तीव्र करना होता है; जैसे, हिलती हुई मंजरियाँ मानो भौरों को पास बुला रही हैं, अथवा (ख) द्वितीय व्यापार का सृष्टि के बीच एक गोचर प्रतिरूप दिखाना; जैसे-

'बुंद अघात सहैं गिरि कैसे। खल के बचन सन्त सह जैसे।'

दूसरी अवस्था में प्रस्तुत दृश्य स्वयं सृष्टि या जीवन के किसी रहस्य का गोचर प्रतिबिम्बवत् हो जाता है। अत: उस प्रतिबिम्ब का प्रतिबिम्ब ग्रहण करने में कल्पना उत्साह नहीं दिखाती। इसी से जहाँ दृश्यचित्रण इष्ट होता है वहाँ के लिए यह अवस्था अनुकूल नहीं होती।

वाल्मीकिजी भी बीच-बीच में उपमाएँ देते गए हैं; पर उससे उनके सूक्ष्म निरीक्षण में कसर नहीं आने पाई है। वर्षा में पर्वत की गेरू से मिलकर नदियों की धारा का लाल होकर बहना, पर्वत के ऊपर से मोटी धारा का काली शिलाओं पर गिरकर छितराना, पेड़ों पर गिरे वर्षा के जल का पत्तियों की नोंकों पर से बूँद-बूँद टपकना और पक्षियों का उसे पीना, हेमंत में कमलों के नाल मात्र का खड़ा रहना और उसके छोर पर केसर का छितराना, ऐसे-ऐसे व्यापारों को वह सामने लाते चले गए हैं। सुंदरकांड के पाँचवें सर्ग में जो छोटा सा 'चंद्रनामा' है वह इसके विरोध में नहीं उपस्थित किया जा सकता; क्योंकि वह एक प्रकार की स्तुति या वर्णन मात्र है। वहाँ कोई दृश्य-चित्रण नहीं है।

विषयी या ज्ञाता अपने चारों ओर उपस्थित वस्तुओं को कभी-कभी किस प्रकार अपने तत्कालीन भावों के रंग में देखता है इसका जैसा सुंदर उदाहरण आदिकवि ने दिया है वह वैसा अन्यत्र कहीं कदाचित् ही मिले। पंचवटी में आश्रम बनाकर हेमंत में जब लक्ष्मण एक-एक वस्तु और प्राकृतिक व्यापार का निरीक्षण करने लगे उस समय पाले से धुँधली पड़ी हुई चाँदनी उन्हें ऐसी दिखाई पड़ी जैसी धूप से साँवली पड़ी हुई सीता-

ज्योत्स्ना तुषारमलिना पौर्णमास्यां न राजते।

सीतेव चातपश्यामा लक्ष्यते न तु शोभते॥

इसी प्रकार सुग्रीव को राज्य देकर माल्यवान् पर्वत पर निवास करते हुए, सीता के विरह में व्याकुल, भगवान् रामचन्द्र को वर्षा आने पर ग्रीष्म की धूप से संतप्त पृथ्वी जल से पूर्ण होकर सीता के समान ऑंसू बहाती हुई दिखाई देती है, काले-काले बादलों के बीच में चमकती हुई बिजली रावण की गोद में छटपटाती हुई वैदेही के समान दिखाई पड़ती है और फूले हुए अर्जुन के वृक्षों से युक्त तथा केतकी से सुगंधित शैल ऐसा लगता है जैसे शत्रु से रहित होकर सुग्रीव अभिषेक की जलधारा से सींचा जाता हो। यथा-

एषा घर्मपरिक्लिष्टा नववारिपरिप्लुता।

सीतेव शोकसन्तप्ता मही वाष्पं विमुद्बचति॥

नीलमेघाश्रिता विद्युत्स्फुरन्ती प्रतिभाति माम्।

स्फुरन्ती रावणस्यांके वैदेहीव तपस्विनी॥

एष: फुल्लार्जुन: शैल: केतकैरभिवासित:।

सुग्रीव इव शान्तारिर्धाराभिरभिषिच्यते॥

ऐसा अनुमान होता है कि कालिदास के समय से, या उसके कुछ पहले ही से दृश्यवर्णन के संबंध में कवियों ने दो मार्ग निकाले। स्थलवर्णन में तो वस्तु वर्णन की सूक्ष्मता कुछ दिनों तक वैसी ही बनी रही, पर ऋतुवर्णन में चित्रण उतना आवश्यक नहीं समझा गया जितना कुछ इनी गिनी वस्तुओं का कथन मात्र करके भावों के उद्दीपन का वर्णन। जान पड़ता है, ऋतुवर्णन वैसे ही फुटकर पद्यों के रूप में पढ़े जाने लगे जैसे बारहमासा पढ़ा जाता है। अत: उनमें अनुप्रास और शब्दों के माधुर्य आदि का ध्याैन अधिक रहने लगा। कालिदास के ऋतुसंहार और रघुवंश के नौवें सर्ग में सन्निविष्ट वसंत वर्णन से इसका कुछ आभास मिलता है। उक्त वर्णन के श्लो्क इस ढंग के हैं-

कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनुं षट्पदकोकिलकूजितम्।

इति यथाक्रममाविरभून्मधुर्द्रुमवतीमवतीर्य वनस्थलीम्॥

रीतिग्रन्थों के अधिक बनने और प्रचार पाने से क्रमश: यह ढंग जोर पकड़ता गया। प्राकृतिक वस्तुव्यापार का सूक्ष्म निरीक्षण धीरे-धीरे कम होता गया। किस ऋतु में क्या-क्या वर्णन करना चाहिए, इसका आधार 'प्रत्यक्ष' अनुभव नहीं रह गया, 'आप्त शब्द' हुआ। वर्षा के वर्णन में जो कदंब, कुटज, इंद्रवधू, मेघगर्जन, विद्युत् इत्यादि का नाम लिया जाता रहा वह इसलिए कि भगवान् भरत मुनि की आज्ञा थी-

कदम्बनिम्बकुटजै : शाद्वलै : सेन्द्रगोपकै :।

मेघैर्वातै  : सुखस्पर्शै : प्रावृट्कालं प्रदर्शयेत्॥

कहना नहीं होगा कि हिंदी के कवियों के हिस्से में यही आया। गिनी-गिनाई वस्तुओं के नाम लेकर अर्थग्रहण मात्र कराना अधिकतर उनका काम हुआ, सूक्ष्म रूपविवरण और आधार आधेय की संश्लिष्ट् योजना के साथ 'बिम्बग्रहण' कराना नहीं।

ऋतुवर्णन की यह प्रथा निकल ही रही थी कि कवियों को भी औरों की देखादेखी दंगल का शौक पैदा हुआ। राजसभाओं में ललकार कर टेढ़ी मेढ़ी विकट समस्याएँ दी जाने लगीं, और कवि लोग उपमा, उत्प्रेक्षा आदि की अद्भुत उक्तियों द्वारा उनकी पूर्ति करने लगे। ये उक्तियाँ जितनी ही बेसिर पैर की होतीं उतनी ही वाहवाही मिलती। कश्मीर के लेखक कवि जब अपना श्रीकंठचरित काव्य कश्मीर के राजा की सभा में ले गए तब वहाँ कन्नौज के राजा गोविंदचंद के दूत सुहल ने उन्हें यह समस्या दी-

एतद्वभ्रुकचानुचारिकिरणं राजद्रुहोऽह्न: शिर-श्छेदाभं वियत: प्रतीचि निपतत्यब्धौत रवेर्मण्डलम्।

अर्थात् नेवले के बालों के सदृश पीली किरणों को प्रकट करता हुआ सूर्य का यह बिम्ब, चंद्रमा का द्रोह करनेवाले दिन के कटे हुए सिर के समान आकाश से पश्चिम समुद्र में गिरता है, (राज=राजा, चंद्रमा) इसकी पूर्ति मंखक ने इस प्रकार की- एषापि द्युरमा प्रियानुगमनं प्रोद्दामकाष्ठोत्थिते।

संध्या ग्नौ र्विरचय्य तारकमिषाज्जातास्थिशेषस्थिति ।।

अर्थात् दिशाओं में उत्पन्न संध्या्रूपी प्रचंड अग्नि में अपने प्रियतम का अनुगमन करके आकाश की श्री (शोभा) भी तारों के बहाने (रूप में) अस्थिशेष हो गई। (काष्ठोत्थिते=काष्ठा + उत्थिते और काठ + उत्थिते। काष्ठा=दिशा; काष्ठ=लकड़ी) मतलब यह है कि सती हो जानेवाली आकाशश्री की जो हड्डियॉं रह गईं वे ही ये तारे हैं।

जो कल्पना पहले भावों और रसों की सामग्री जुटाया करती थी वह बाजीगरी या तमाशा करने लगी। होते-होते यहाँ तक हुआ कि 'पिपीलिका नृत्यति वद्दिमधये', और 'मोम के मंदिर माखन के मुनि बैठे हुतासन आसन मारे' की नौबत आ गई।

कहाँ ऋषि कवि का पाले से धुँधले चंद्रमा का मुँह की भाप से अंधें दर्पण के साथ मिलान और कहाँ तारे और हड्डियॉं! खैर, यहाँ दोनों का रंग तो सफेद है, और आगे चलकर तो यह दशा हुई कि दो-दो वस्तुओं को लेकर सांगरूपक बाँधते चले जाते हैं, वे किसी बात में परस्पर मिलती-जुलती भी हैं या नहीं इससे कोई मतलब नहीं, सांगरूपक की रस्म तो अदा हो रही है। दूसरी बात विचारने की यह है कि संध्याम समय अस्त होते हुए सूर्य को देखकर मंखक कवि के हृदय में किसी भाव का उदय हुआ या नहीं, उनके कथन से किसी भाव की व्यंजना होती है या नहीं? यहाँ अस्त होता हुआ सूर्य 'आलम्बन' और कवि ही आश्रय माना जा सकता है। पर मेरे देखने में तो यहाँ कवि का हृदय एकदम तटस्थ है। उससे सारे वर्णन से कोई मतलब ही नहीं। उसमें रति, शोक आदि किसी भाव का पता नहीं लगता। ऐसे पद्यों को काव्य में परिगणित देख यदि कोई 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं' की व्याप्ति में संदेह कर बैठे तो उसका क्या दोष? 'ललाई के बीच सूर्य का बिंब समुद्र के छोर पर डूबा और तारे छिटक गए' इतना ही कथन यदि प्रधान होता तो वह दृश्य कवि और श्रोता दोनों के रति भाव का आलम्बन होकर काव्य भी कहला सकता था। पर अलंकार से एकदम आक्रांत होकर वह काव्य का स्वरूप ही खो बैठा। यदि कहिए कि यहाँ अलंकार द्वारा उक्त दृश्यरूप वस्तु व्यंग्य है तो भी ठीक नहीं; क्योंकि 'विभाव' व्यंग्य नहीं हुआ करता। 'विभाव' में शब्द द्वारा उन वस्तुओं के स्वरूप की प्रतिष्ठा करनी होती है जो भावों का आश्रय, आलम्बन और उद्दीपन होती है। जब वह वस्तुप्रतिष्ठा हो लेती है तब भावों के व्यापार का आरंभ होता है। मुक्तक में जहाँ नायक नायिका का चित्रण नहीं होता वहाँ उनका ग्रहण 'आक्षेप' द्वारा होता है, व्यंजना द्वारा नहीं।

दृश्यवर्णन में उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का स्थान कितना गौण है इसकी मनोविज्ञान की रीति से भी परीक्षा हो सकती है। एक पर्वतस्थली का दृश्यवर्णन करके किसी को सुनाइए। फिर महीने-दो-महीने पीछे उससे उसी दृश्य का कुछ वर्णन करने के लिए कहिए। आप देखेंगे कि उस संपूर्ण दृश्य की सुसंगत योजना करनेवाली वस्तुओं और व्यापारों में से शायद ही किसी का उसे स्मरण हो। इसका मतलब यही है कि उस वर्णन के जितने अंश पर हृदय की तल्लीनता के कारण पूरा ध्या न रहा उसका संस्कार बना रहा; और इसलिए संकेत पाकर उसकी तो पुनरुद्भावना हुई, शेष अंश छूट गया।

खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी की कविता का उत्थान उस समय हुआ जब संस्कृत काव्य लक्ष्यच्युत हो चुका था। इसी से हिंदी की कविताओं में प्राकृतिक दृश्यों का वह सूक्ष्म वर्णन नहीं मिलता जो संस्कृत की प्राचीन कविताओं में पाया जाता है। केशव के पीछे तो प्रबंध काव्यों का बनना एक प्रकार से बंद ही हो गया। आचार्य बनने का हौसला रह गया, कवि बनने का नहीं। आलम्बन और नायिकाभेद के लक्षणग्रन्थ लिखकर अपने रचे उदाहरण देने में ही कवियों ने अपने कार्य की समाप्ति मान ली। रीतिग्रन्थ लिखने के कारण ही सुसंस्कृत में कोई कवि नहीं कहलाया। साहित्य के आचार्यों में सब कवि नहीं थे। ऐसे फुटकर पद्य रचयिताओं की परिमित कृति में प्राकृतिक दृश्य ढूँढ़ना ही व्यर्थ है। श्रृंगार के उद्दीपन के रूप में 'षट्ऋतु' का वर्णन अवश्य कुछ मिलता है; पर उसमें बाह्य प्रकृति के रूपों का प्रत्यक्षीकरण मुख्य नहीं होता, नायक नायिका का प्रमाद या संताप ही मुख्य होता है। अब रहे दो चार आख्यानकाव्य। उनमें दृश्यवर्णन को स्थान ही बहुत कम दिया गया है। अगर कुछ वर्णन परम्परापालन की दृष्टि से है भी तो वह अलंकारप्रधान है। उपमा, उत्प्रेक्षा आदि की भरमार इस बात की स्पष्ट सूचना दे रही है कि कवि का मन दृश्यों के प्रत्यक्षीकरण् में लगा नहीं है, उचट उचटकर दूसरी ओर जा पड़ा है।

कोई एक वस्तु सामने आई कि उपमा के पीछे परेशान। श्याम के 'छबीले मुख' का प्रसंग आया। बस, अंधे सूरदास चारों ओर उपमा टटोल रहे हैं-

बलि बलि जाउँ छबीले मुख की, या पटतर को कोहै?

या बानक उपमा दीबे को सुकवि कहा टकटोहै?

उपमाएँ यदि मिलती गईं तब तो सब ठीक ही ठीक, एक वस्तु के ऊपर उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा लादते चले जा रहे हैं। 'हरि कर राजत माखन, रोटी', बस, इतनी ही सी तो बात है, उसपर-

मनों बारिज ससि वैर जानि जिय गह्यो सुधांसुहि घोटी।

मनो बराह भूधार सह पृथ्वी धारी दसनन की कोटी।

एक छोटी सी रोटी की हकीकत ही कितनी, उसपर पहाड़ के सहित जमीन का बोझा लाकर रख दिया! उपमाएँ यदि न मिलीं तो बस, 'शेष शारदा' पर फिरे, उनकी इज्जत लेने पर उतारू।

मलिक मुहम्मद जायसी की 'पद्मावत' यद्यपि एक आख्यानकाव्य है पर उसमें भी स्थल वर्णन सूक्ष्म नहीं हैं। सिंहलद्वीप के गढ़, राजद्वार, बगीचे आदि का वर्णन है। बगीचे के वर्णन में पेड़ों और चिड़ियों की फेहरिस्त हैं, जो बहेलियों से भी मिल सकती है? प्राप्त प्रथा के अनुसार पद्मावती के संयोगसुख के संबंध में 'षट्ऋतु' और नागमती की विरहवेदना के प्रसंग में 'बारहमासा' अलबत है। दोनों का ढंग वही है जो ऊपर कहा गया है। दो उदाहरण यथेष्ट होंगे-

ऋतु पावस बरसे पिउ पावा । सावन भादौं अधिक सुहावा।

पद्मावति चाहत ऋतु पाई । गगन सुहावन, भूमि सुहाई।

कोकिलबैन,पाँतिबगछूटी । घन निसरी जनु बीरबहूटी।

चमक बीजु, बरसै जल सोना । दादुर मोर सबद सुठि लोना।

रँगराती पीतम सँग जागी । गरजै गगन, चौंकि गर लागी।

सीतल बूँद, ऊँच चौपारा । हरियर सब दीखे संसारा।

हरियर भूमि, कुसुंभी चोला । औ धानि पिउ सँग रचा हिंडोला।

संयोग श्रृंगार की दृष्टि से यह वर्णन बड़ा मनोहर है। पर इसमें कवि का अपना सूक्ष्म निरीक्षण 'बरसै जल सोना' में ही दिखाई पड़ता है। और सब वर्णन परम्परानुसारी ही है। अब विप्रलंभ श्रृंगार के अंतर्गत आषाढ़ का वर्णन लीजिए-

चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा। गाजा बिरह दुंद दल बाजा।

धूम स्याम धौरे घन धाए। सेत धाजा बग पाँति दिखाए।

खड़ग बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद बान बरसहि घनि घोरा।

ओनई घटा आइ चहुँ फेरी। कंत! उबार मदन हौं घेरी।

दादुर, मोर, कोकिला पीऊ। गिरहि बीजु, घट रहै न जीऊ।

पुष्य नखत सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाह, मँदिर को छावा।

पाठक देख सकते हैं कि फुटकर कहने या गाने के लिए ये पद्य कितने सुंदर है। पर एक प्रबन्धकाव्य के भीतर दृश्यचित्रण की दृष्टि से यदि इन्हें देखते हैं तो संतोष नहीं होता। अन्य के संबंध में स्थित किसी भाव के 'उद्दीपन' मात्र के लिए जितना वस्तुविन्यास अपेक्षित था उतना जायसी ने किया, इसमें कोई सन्देह नहीं। 'उद्दीपन' रूप में दृश्य जो अभाव उत्पन्न करता है वह दूसरे के-अर्थात् 'आलम्बन' के-संबंध से, स्वतंत्र रूप में नहीं। पर जैसा कि सिद्ध किया जा चुका है, प्राकृतिक दृश्य मनुष्य के भावों के स्वतंत्र आलम्बन भी होते हैं। प्राचीन कवियों ने इन्हें पात्र के आलम्बन के रूप में और श्रोता के आलम्बन के रूप में, दोनों रूपों में सन्निविष्ट किया है। 'कुमारसंभव' का हिमालय वर्णन श्रोता या पाठक के आलम्बन के रूप में है। वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण का हेमंत के अंतर्गत पंचवटी दृश्यवर्णन पात्र और श्रोता दोनों के भाव का 'उद्दीपन' है, किंतु रूप के सूक्ष्म विश्लेकषण् के बल से श्रोता के लिए आलम्बन हो गया है।

एक बड़े प्रबंध काव्य में प्राकृतिक दृश्यों का श्रोता के भाव के आलम्बन रूप में वर्णन भी आवश्यक है, और यह स्वरूप उन्हें तभी प्राप्त हो सकता है जब उनका चित्रण ऐसे ब्योरे के साथ हो कि उनका बिम्बग्रहण हो, उनका पूर्ण स्वरूप पाठक या श्रोता की कल्पना में उपस्थित हो जाय। कारण, रति या तल्लीनता उत्पन्न करने के लिए प्रत्यक्ष स्वरूप का परिचय आवश्यक है। सारांश यह कि 'उद्दीपन' होने के लिए रूप का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश क्या, संकेत मात्र यथेष्ट है; पर 'आलम्बन होने के लिए पूर्ण और स्पष्ट स्फुरण होना चाहिए।

गोस्वामी तुलसीदासजी के भक्तिपूर्ण हृदय में भगवान् रामचंद्र के संबंध से चित्रकूट के प्रति जो प्रेमभाव प्रतिष्ठित था उसके कारण उन्होंने उसके रम्य स्वरूप पर अधिक दृष्टि जमाई है। नीचे दिए हुए वर्णन में यद्यपि प्रचलित रीति के अनुसार प्रत्येक वस्तु और व्यापार के साथ दृष्टांत और उत्प्रेक्षा लगी हुई है पर निरीक्षण बहुत अच्छा है-

सब दिन चित्रकूट नीको लागत ;

बरषा ऋतु प्रबेस बिसेष गिरि देखत मन अनुरागत।

चहुँदिसि बन संपन्न, बिहग मृग बोलत सोभा पावत;

जनु सुनरेस देस पुर प्रमुदित प्रजा सकल सुख छावत।

सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु रँगमगे सृंगनि;

मनहुँ आदि अंभोज विराजत सेवित सुर मुनि सृंगनि।

सिखर परसि घन घटहि, मिलति बगपाँति सी छबि कबि बरनी;

आदि बराह बिहरि बारिधि मनो उठ्यो है दसन धरि धरनी।

जल जुत विमल सिलनि झलकत नभ बन प्रतिबिंब तरंग;

मानहुँ जगरचना विचित्र बिलसति बिराट अंग अंग।

मन्दाकिनिहि मिलत झरना झरि भरि भरि जल आछे;

'तुलसी' सकल सुकृतसुख लागे मनो राम भगति के पाछे।

वाह्य प्रकृति के संबंध में सूरदासजी की दृष्टि बहुत परिमित है। एक तो ब्रज की गोचारण भूमि के बाहर उन्होंने पैर ही नहीं निकाला, दूसरे उस भूमि का भी पूर्ण चित्र उन्होंने कहीं नहीं खींचा। उद्दीपन के रूप में केवल द्रुम, बल्ली और यमुना के किनारेवाले कदंब का उल्लेख भर बार-बार मिलता है; गोपियों के विरह के प्रसंग में रीति के अनुसार पावस आदि का वर्णन अवश्य है; पर कहने की आवश्यकता नहीं कि उसमें पावस स्वरूप स्थित नहीं है, वियोगिनी गोपियों के मानप्रदत्त रूप में है-कहीं वह कृष्णरूप में है, कहीं चढ़ाई करते हुए राजा के रूप में, इत्यादि; जैसे-

आज घन स्याम की अनुहारि;

उनइ आए साँवरे से, सजनी! देख रूप की आरि।

इंद्रधनुष मनो पीतबसन छवि दामिनि दसन बिचारि।

जनु बगपाँति माला मोतिन की, चितवत हितहि निहारि।


अथवा- तुम्हारो गोकुल हो, ब्रजनाथ!

घेरयो है अरि चतुरंगिनि लै मनमथ सेना साथ।

गरजत अति गंभीर गिरा, मनु मंगल मत्त अपार।

धुरवा धूरि उड़त रथ पायक घोरन की खुरतार।


केवल कहीं-कहीं नियत वस्तुओं की कुछ अधिक गिनती भर मिलती हैं; जैसे-

बरन बरन अनेक जलधर अति मनोहर वेष।

तिहि समय, सखि! गगन सोभा सबहि ते सुबिसेष।

उड़त खग, बगबृंद राजत, रटत चातक, मोर।

बहुल बिधि बिधि रुचि बढ़ावत दामिनि घन घोर।

धरनि तृन तन रोम पुलकित पिय समागम जानि।

द्रुमनि बर बल्ली वियोगिनि मिलत है पहिचानि।

हंस, सुक, पिक, सारिका, अलि गुंज नाना नाद।

मुदित मंडल भेक भेकी बिहग बिगत बिषाद।

कुटज, कुमुद, कदंब, कोबिद कनक आरि, सुकंज।

केतकी, करबीर, बेलउ विमल बहु बिध मंजु।

यह नामावली निरीक्षण का फल नहीं है। इसकी सूचना 'कुमुद' और 'कोविद' (कोविदार) पद दे रहे हैं। कचनार की शोभा, वसंत ऋतु में ही होती है, जबकि वह फूलता है; और कुमुद की तो पत्तियाँ भी वर्षा काल में अच्छी तरह नहीं बढ़ी रहतीं।

यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि वस्तुओं की गिनती गिनाना ही वस्तु- विन्यास नहीं है। आसपास की और वस्तुओं के बीच उनकी प्रकृत स्थापना से दृश्य के एक पूर्ण सुसंगत रूप की योजना होती है। 'मौर लगे हैं, समीर चलता है, कोयल बोलती है' इस प्रकार कहना केवल वस्तुओं और व्यापारों की गिनती गिनाना है। रीति ग्रन्थों में प्रत्येक ऋतु में वर्ण्य व्यापारों की सूची देखकर यह तो हर एक कर सकता है। यह चित्रण नहीं है। इन्हीं वस्तुओं और व्यापारों को लेकर यदि हम इस प्रकार योजना करें-'वह देखो, मौरों से गुछी, मंद-मंद झूमती हुई आम की डाली पर, हरी-हरी पत्तियों के बीच अपने कृष्ण कलेवर को पूर्ण रूप से न छिपा सकती हुई कोयल बोल रही है!' तो यह दृश्य अंकित करने का प्रयत्न कहा जायगा। किसी वस्तु का वर्णन जितनी ही अधिक वस्तुओं के संबंध को लिए हुए होगा उतना ही वह पेचीला होगा, और कवि के निरीक्षण की सूक्ष्मता प्रकट करेगा। इस दृष्टि से प्राचीन कवियों के वर्णनों का विचार करने पर इस बात का पता लग जायगा। देखिए, वाल्मीकि के 'मुक्तासकाशं' वाले श्लो क मे।1 पानी की बूँदों का आकाश से गिरना, गिरकर पत्तों की नोकों पर लगना और चिड़ियों के पंखों को बिगाड़ना, चिड़ियों का पत्तों की नोक पर लगी बूँदों को पीना, इतने अधिक व्यापार एक सम्बन्धसूत्र में एकसाथ पिरोए हैं। इसी प्रकार कालिदास ने हिमालय के पवन के साथ भागीरथी के जलकण का फैलना, देवदारु के पेड़ों का काँपना, मोर की पूँछों का छितराना, किरातों का मृगों की खोज में निकलना और वायु सेवन करना, इतने व्यापारों का परस्पर संबंध दिखाया है।2 पर इतनी अधिक संश्लिष्टे योजना के प्रत्यक्षीकरण के लिए विस्तृत और गूढ़ निरीक्षण अपेक्षित है। ऊपर गोस्वामी तुलसीदासजी का जो चित्रकूट वर्णन दिया गया है उसमें वह बात कुछ-कुछ है-'सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु रँगमगे सृंगनि' में यों ही काले बादल का नाम नहीं ले लिया है; वह ऊपर उठे हुए श्रृंग पर दिखाया गया है और वह श्रृंग भी गेरू के रंग में रँगा हुआ है। इसी प्रकार 'जल जुत बिमल सिलनि झलकत नभ बन प्रतिबिम्ब तरंग' में शिलाओं का धुलकर स्वच्छ होना, उनपर बरसाती पानी का लगना, स्वच्छता के कारण उनमें आकाश और वन


1. मुक्तासकाशं सलिलं पतद्वे सुनिर्मल पत्रापुटेषु लग्नम्।

हृष्टा विवर्णच्छदना विहक्ष्: सुरेन्द्रदत्तंल तृषिता: पिवन्ति।

-वाल्मीकीय रामायण किंष्किधाकांड

2. भागीरथीनिर्झरशीकराणां वोढा मुहु:कम्पित देवदारु:।

यद्वायुरन्विष्टमृगै: किरातैरासेव्यते भिन्नशिखण्डवर्ह:॥

-कुमारसंभव, 1-15।

का प्रतिबिंब दिखाई पड़ना इतनी बातों की एक वाक्य में संबंध योजना पाई जाती है।

जायसी से कवियों के एक और झुकाव का पता लगता है। 'कवि' और 'सयाने' जब एक ही समझे जाने लगे तब मनुष्य के व्यवसाय विशेष की जानकारी का खजाना भी काव्यों में खुलने लगा। घोड़ों का वर्णन है तो घोड़ों के पचासों भेदों के नाम सुन लीजिए, जिन्हें शायद घोड़े के व्यवसायी ही जानते होंगे। भोजन का वर्णन है तो पूरी, कचौरी, रायता, चटनी, मुरब्बा, पेड़ा, बरफी, जलेबी, फेनी, गुलाबजामुन आदि जितनी चीजों का नाम कविजी जानते हैं वे सब मौजूद! इन व्यंजनों को सामने रखने से पाठकों को ललचाने के सिवा और क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? पर काव्य भूख जगाने के लिए तो है नहीं। जिसे रोग आदि के कारण भोजन से अरुचि हो गई होगी वह किसी अच्छे वैद्य के नुस्खे का सेवन करेगा। भोजन की पत्तल का वर्णन करना प्राचीन कवि भद्दापन और काव्यशिष्टता के विरूद्ध समझते थे। इसी से उन्होंने दृश्यकाव्य में भोजन के दृश्य का निषेध किया है। नामावली की इस प्रथा का अनुसरण जायसी, सूरदास, सूदन और महाराज रघुराजसिंह ने अधिक किया है। अस्त्राशस्त्रों और पहरावों के नामों के फेहरिस्त देखनी हो तो सूदन का 'सुजानचरित्र' पढ़िए, हाथी, घोड़ों, सवारियों और राजसी ठाठ-बाट की वस्तुओं के नाम याद करने हों तो महाराज रघुराजसिंह का 'रामस्वयंवर' उठा लीजिए।

केशवदासजी को अपने श्लेटष, यमक और उत्प्रेक्षा इत्यादि से फुरसत कहाँ कि विस्तृत संबंधयोजना के साथ प्रकृति का निरीक्षण करने जायँ। सीधी तरह से कुछ वस्तुओं के नाम ले जायँ यही गनीमत है-

फल फूलन पूरे, तरुवर रूरे, कोकिल कुल कलरव बोलै।

अति मत्त मयूरी, पियरस पूरी, बन बन प्रति नाचति डोलै।

देखिए दंडक वन के वर्णन में श्लेरष का यह चमत्कार दिखाकर आप चलते हुए-

सोभत दंडक की रुचि बनी, भाँतिन-भाँतिन सुंदर घनी।

सेव बड़े नृप की जनु लसैं, श्रीफल भूरि भाव जहँ बसै।

बेर भयानक सी अति लगै, अर्क समूह जहाँ जगमगै।

'बेर', 'बनी', 'श्रीफल' और 'अर्क' शब्दों में श्लेंष की कारीगरी दिखा दी बस हो गया। वनस्थली के प्रति उनका अनुराग तो था नहीं कि उसके रूप की छटा ब्योरे के साथ दिखाते। 'भयानक' शब्द जो रखा हुआ है वह 'भाव' का सूचक नहीं है, क्योंकि न तो 'बेर' ही कोई भयंकर वस्तु है न आक (मदार) ही। श्लेकष से 'अर्क' का अर्थ सूर्य लेने से 'समूह' के कारण प्रलय काल का अर्थ निकलता है, जो प्रस्तुत नहीं है। दंडकवन क्या दे देता-आनंद दे सकता था, वह भी नहीं देता था-जो उसके रूप का विश्लेदषण केशवदासजी करने जाते? राजा की सेवा से 'श्रीफल' प्राप्त होता था, उसका जिक्र मौजूद है।

जब केशवदासजी का यह हाल है तब फुटकर पद्य कहनेवाले उनके अनुयायी 'कवियों' में प्रकृति का रूपविश्लेलषण ढूँढ़ना ही व्यर्थ है। ऋतुवर्णन की पुरानी रीति उन्होंने निबाही है। उनके वर्णन में उद्दीपन भर के लिए फुटकर वस्तुएँ आई हैं, सो वे भी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि की भीड़ में छिपी हुई हैं। वसंत कहीं राजा होकर आया है, कहीं फौजदार, कहीं फकीर, कहीं कुछ, कहीं कुछ। किसी ने कुछ बढ़कर हाथ मारा तो शिशिर और ग्रीष्म ऋतु में जो अपने शरीर की दशा देखी उसका वर्णन कर दिया, और उपचार का नुस्खा कह गए-

ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम,

गरमी झुकी है जाम जाम अति तापिनी।

भीजे खस बीजन डुलाए ना सुखात सेद,

गात ना सुहात, बात दावा सी डरापिनी।

ग्वाल कवि कहैं कोरे कुंभन में कूपन तें,

लै लै जलधार बार बार मुख थापिनी।

जब पियो तब पियो, अब पियो फेरिअब,

पीवत हू पीवत बुझै न प्यास पापिनी॥

गर्मी के मौसम के लिए एक कविजी राय देते हैं-

सीतल गुलाब जल भरि चहबच्चन में,

डारि कै कमल दल न्हाइबे को धँसिए।

कालिदास अंग अंग अगर अतर संग,

केसर, उसीर नीर घनसार धँसिए।

जेठ में गोविंदलाल चंदन के चहलन,

भरि भरि गोकुल के महलन बसिए॥

मेरे कहने का अभिप्राय यह नहीं कि इन कवियों में कहीं प्रकृति का निरीक्षण मिलेगा ही नहीं। मिलेगा, पर थोड़ा, और वह भी बहुत ढूँढ़ने पर कहीं एकाध जगह। जैसे-

वृष को तरनि तेज सहसो किरन तपै,

ज्वालनि के जाल बिकराल बरसत है।

तचति धारनि, जग झुरत झुरनि, सीरी,

छाँह को पकरि पंथी, पंछी बिरमत है।

'सेनापति' नेक दुपहरी ढरकत होत,

घमका* विषम, जो न पात खरकत है।

मेरे जान, पौर सीरे ठौर को पकरि कोऊ,

घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवत है॥

नंददासजी एक प्रसिद्ध कृष्णभक्त और कवि थे। पर ब्रजभूमि की महिमा का बखान करते समय दृश्य अंकित करने के बखेड़े में वे भी नहीं पड़े। वहाँ चिरवसंत

  • घमका-हवा का गिरना या ठहर जाना।


रहता है, इतने ही में अपना मतलब सबको समझा दिया-

श्रीवृंदावन चिदघन, कछु छबि बरनि न जाई;

कृष्ण ललित लीला के काज गहि रह्यो जड़ताई।

जहँ नग, खग, मृग, लता, कुंज, बीरुध, तृन जेते;

नहिंन काल गुन, प्रभा सदा सोभित रहैं तेते।

सकल जंतु अबिरुद्ध जहाँ, हरि मृग सँग चरहीं;

काम क्रोध मद लोभ रहित लीला अनुसरहीं।

सब दिन रहत बसंत कृष्ण अवलोकनि लोभा;

त्रिभुवन कानन जा विभूति करि सोभित सोभा।

या बन की बर बानिक या बन ही बनि आवै;

सेस, महेस, सुरेस, गनेस, न पारहि पावै।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से हमारी भाषा नए मार्ग पर आ खड़ी हुई, पर दृश्यवर्णन में कोई संस्कार नहीं हुआ। वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों की प्रणाली का अधययन करके सुधार का यत्न नहीं किया गया। भारतेंदुजी का जीवन एकदम नागरिक था। मानवी प्रकृति में ही उनकी तल्लीनता अधिक पाई जाती है; बाह्य प्रकृति के साथ उनके हृदय का वैसा सामंजस्य नहीं पाया जाता। 'सत्य हरिश्चंद्र' में गंगा और 'चंद्रावली' में यमुना का वर्णन अच्छा कहा जाता है। पर ये दोनों वर्णन भी पिछले खेवे के कवियों की परंपरा के अनुसार ही हैं। इनमें भी एक-एक साथ कई वस्तुओं और व्यापारों की सूक्ष्म संबंध योजना नहीं है, केवल वस्तुओं और व्यापारों के पृथक्-पृथक् कथन के साथ उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का प्राचुर्य है। दोनों के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं-

(क)

नव उज्जल जल धार हार हीरक सी सोहति;

बिच बिच छहरति बूँद मध्यक मुक्ता मनि पोहति।

लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत;

जिमि नरगन मन विविध मनोरथ करत मिटावत।

कहूँ बधे नवघाट उच्च गिरिवर सम सोहत;

कहुँ छतरी, कहुँ मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत।

धवल धाम चहुँ ओर फरहरत धुजा पताका;

घहरत घंटा धुनि धमकत धौंसा करि साका।

कहुँ सुंदरी नहाति, नीर कर जुगल उछारत;

जुग अंबुज मिलि मुक्त गुच्छ मनु सुच्छ निकारत।

धोवति सुंदरि बदन करन अति ही छवि पावत।

बारिधि नाते ससि कलंक मनु कमल मिटावत।

(ख)

तरनि - तनूजा - तट – तमाल - तरुवर बहु छाए;

झुके कूल सों जन परसन हित मनहुँ सुहाए।

किधौं मुकुर में लखत उझकि सब निज निज सोभा;

कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।

मनु आतप वारन तीर को सिमिट सबै छाए रहत;

कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन-मन सुख लहत।

कहुँ तीर पर अमल कमल सोभित बहु भाँतिन;

कहुँ सैवालन-मध्यु कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन।

मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखति ब्रज सोभा।

कै उमँगे प्रिय-प्रिया-प्रेम के अनगिन गोभा।

कै करिकै कर बहु पीय को टेरत निज ढिग सोहई;

कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई।

कै पिय पद उपमान मानि यहि निज उर धारत;

कै मुख करि बहु भृंग मिस अस्तुति उच्चारत।

कै व्रजतियगन बदनकमल की झलकति झाँईं;

कै व्रज हरि पद परस-हेतु कमला बहु आईं।

देखिए, यमुना के वर्णन में 'सैवालन मध्यग कुमुदिनी' में दो वस्तुओं की संबंध योजना थी; पर आगे चलकर जो 'उत्प्रेक्षा' और 'संदेह' की भरमार हुई तो उसमें अलग-अलग कुमुद और कमल ही रह गए, और वे भी अलंकारों के बोझ के नीचे दबे हुए।

इन उध्दृत कविताओं में कहीं प्रकृति के स्थूल और सूक्ष्म रूपों के नूतन उद्धाटन का प्रयत्न नहीं दिखाई पड़ता, सारा वर्णन परम्पराभुक्त है अत: चमत्कार लाने के लिए अलंकारों से लादा गया है।

इन अलंकारों के द्वारा कवियों ने अधिकतर विलासिता तथा कृत्रिम शोभा और सजावट का आरोप करके प्रकृति की पवित्रता में पाठक के मन के लीन होने का रास्ता बंद कर दिया है। यदि कहीं हरी घास से ढँकी हुई भूमि का जिक्र आ गया है तो कविजी ने पाठक को उसे पारसी कालीन या पन्ने की फर्श समझने की आज्ञा दे दी है। यदि उदित होता हुआ चन्द्रमंडल दिखाया है तो उसे फानूस या लैंप का ग्लोब मानने को कहा है। तात्पर्य यह है कि भोग विलास की जो सामग्री कोठरी के भीतर हमें मिलती है उसी की ओर खींचकर कविजी फिर ले जाते हैं। मनुष्य अपने उठाए हुए घेरे या प्रवर्तित कार्यकलाप से कुछ देर बाहर निकलकर प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र का निरीक्षण करे, प्राचीन कवि जहाँ इस बात का उद्योग करते थे वहाँ नए कैंड़े के कवि उसे ढकेलकर फिर उसी घेरे के भीतर बंद करने का प्रयत्न करने लगे। प्रकृति के प्रति यह उदासीनता नवीनों का लक्षण है।

मैं समझता हूँ, अब यह दिखाने के लिए और अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं है कि वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि प्राकृतिक दृश्य हमारे राग या रति भाव के स्वतंत्र आलम्बन हैं, उनमें सहृदयों के लिए सहज आकर्षण वर्तमान है। इन दृश्यों के अंतर्गत जो वस्तुएँ और व्यापार होंगे उनमें जीवन के मूल स्वरूप और मूल परिस्थिति का आभास पाकर हमारी वृत्तियाँ तल्लीन होती हैं। जो व्यापार केवल मनुष्य की अधिक समुन्नत बुद्धि के परिणाम होंगे, जो उसके आदिम जीवन से बहुत इधर के होंगे, उनमें प्राकृतिक या पुरातन व्यापारों की सी तल्लीन करने की शक्ति न होगी। जैसे, 'सीतल गुलाबजल भरि चहबच्चन में' बैठे हुए कविजी की अपेक्षा तलैया के कीचड़ में बैठकर जीभ निकाल-निकाल हाँफते हुए कुत्ते का अधिक प्राकृतिक व्यापार कहा जायगा। इसी प्रकार शिशिर में दुशाला ओढ़े 'गुलगुली गिलमें, गलीचा' बिछाकर बैठे हुए स्वांग से धूप में खपरैल पर बैठी बदन चाटती हुई बिल्ली में अधिक प्राकृतिक भाव है। पुतलीघर में एंजिन चलाते हुए देशी साहब की अपेक्षा खेत में हल चलाते हुए किसान में अधिक स्वाभाविक आकर्षण है; विश्वास न हो तो भवभूति और कालिदास से पूछ लीजिए।

जबकि प्राकृतिक दृश्य हमारे भावों के आलम्बन हैं तब इस शंका के लिए कोई स्थान ही नहीं रहा कि प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में कौन सा रस है? जो पदार्थ हमारे किसी न किसी भाव के विषय हो सकते हैं उन सबका वर्णन रस के अंतर्गत है; क्योंकि 'भाव' का ग्रहण भी रस के समान ही होता है। यदि रतिभाव के रसदशा तक पहुँचने की योग्यता 'दांपत्य रति' में ही मानिए तो पूर्ण भाव के रूप में भी दृश्यों का वर्णन कवियों की रचनाओं में बराबर मिलता है। जैसे, काव्य के किसी पात्र का यह कहना है कि 'जब मैं इस पुराने आम के पेड़ को देखता हूँ तब इस बात का स्मरण हो आता है कि यह वही है जिसके नीचे मैं लड़कपन में बैठा करता था, और सारा शरीर पुलकित हो जाता है, मन एक अपूर्व भाव में मग्न हो जाता है।' विभाव, अनुभाव और संचारी से पुष्ट भाव व्यंजना का उदाहरण होगा।

पहले कहा जा चुका है कि जो वस्तु मनुष्य के भावों का विषय व आलम्बन होती है उसका शब्दचित्र यदि किसी कवि ने खींच दिया तो वह एक प्रकार से अपना काम कर चुका। उसके लिए यह अनिवार्य नहीं कि वह 'आश्रय' की भी कल्पना करके उसे उस भाव का अनुभव करता हुआ, हर्ष से नाचता हुआ या विषाद से रोता हुआ दिखावे। मैं आलम्बन मात्र के विशद वर्णन को श्रोता में रसानुभव (भावानुभव सही) उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ मानता हूँ। यह बात नहीं है कि जब तक कोई दूसरा किसी भाव का अनुभव करता हुआ और उसे शब्द और चेष्टा द्वारा प्रकाशित करता हुआ न दिखाया जाय तब तक रसानुभव हो ही नहीं सकता। यदि ऐसा होता तो हिंदी में 'नायिकाभेद और नखसिख' के जो सैकड़ों ग्रंथ बने हैं उन्हें कोई पढ़ता ही नहीं। नायिकाभेद में केवल श्रृंगार रस के आलम्बन का वर्णन होता है, और नखसिख के किसी पद्य में उस आलम्बन के भी किसी एक अंगमात्र का। पर ऐसे वर्णनों से रसिक लोग बराबर आनंद प्राप्त करते देखे जाते हैं। इसी प्रकार प्राकृतिक दृश्यवर्णन मात्र को, चाहे कवि उसमें अपने हर्ष आदि का कुछ भी वर्णन न करे, हम काव्य कह सकते हैं। हिमालय वर्णन को यदि हम कुमारसंभव से निकालकर अलग कर दें तो वह एक उत्तम काव्य कहला सकता है। मेघदूत में-विशेषकर पूर्वमेघ में-प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन ही प्रधान है। यक्ष की कथा निकाल देने पर भी उसका काव्यत्व नष्ट नहीं हो सकता।

ऊपर 'नखसिख' की बात आ गई है, इसलिए मनुष्य के रूपवर्णन के संबंध में भी दो-चार बातें कह देना अप्रासंगिक न होगा। कारण, दृश्यचित्रण के अंतर्गत वह भी आता है। 'नखसिख' में केवल नायिका के रूप का वर्णन होता है। पर उसमें भी रूपचित्रण का कोई प्रयास हम नहीं पाते, केवल विलक्षण उत्प्रेक्षाओं और उपमानों की भरमार पाते हैं। इन उपमानों के योग द्वारा अंगों की सौंदर्यभावना से उत्पन्न सुखानुभूति में अवश्य वृद्धि होती है, पर रूप नहीं निर्दिष्ट होता है। काव्य में मुख, नेत्र और अधार आदि के साथ चंद्र, कमल और विद्रुम आदि के लाने का मुख्य उद्देश्य वर्ण, आकृति आदि का ज्ञान कराना नहीं, बल्कि कल्पना में साथ-साथ उन्हें भी रखकर सौंदर्यगत आनंद के अनुभव को तीव्र करना है। काव्य की उपमा का उद्देश्य भावानुभूति को तीव्र करना है। नैयायिकों के 'गोसदृशो गवय:' के समान ज्ञान उत्पन्न करना नहीं। इस दृष्टि से विचार करने पर कई एक प्रचलित उपमान बहुत खटकते हैं-जैसे नायिका की कटि की सूक्ष्मता को दिखाने के लिए सिंहनी को सामने लाना, जाँघों की उपमा के लिए हाथी की सूँड की ओर इशारा करना। खैर इसका विवेचन उपमा आदि अलंकारों पर विचार करते समय कभी किया जायगा। अब प्रस्तुत विषय की ओर आता हूँ।

मनुष्य की आकृति और मुद्रा के चित्रण के लिए भी काव्यक्षेत्र में पूरा मैदान पड़ा है। आकृतिचित्रण का अत्यंत उत्कर्ष वहाँ समझना चाहिए जहाँ दो व्यक्तियों के अलग-अलग चित्रों में हम भेद कर सकें। जैसे दो सुंदरियों की ऑंख, कान, भौं, कपोल, अधार, चिबुक इत्यादि सब अंगों को लेकर हमने वर्णन द्वारा दो अलग-अलग चित्र खींचे। फिर दोनों वर्णनों को किसी और के हाथ में देकर हमने उन दोनों स्त्रियों को उसके सामने बुलाया। यदि वह बतला दें कि यह उसका वर्णन है और यह उसका तो समझिए कि पूर्ण सफलता हुई। यूरोप के उपन्यासों में इस ओर बहुत कुछ प्रयत्न दिखाई पड़ता है; पर हमारे यहाँ अभी इधर विशेष ध्याहन नहीं दिया गया। मुद्रा चित्रित करने में गोस्वामी तुलसीदास जी अत्यंत कुशल दिखाई पड़ते हैं। मृग पर चलाने के लिए तीर खींचे हुए रामचंद्रजी को देखिए-

'जटा मुकुट सिर सारस नयननि गौंहै तकत सुभौंह सिकोरे। '

इसी प्रकार राम के आगमन की प्रतीक्षा में शबरी-

'छन भवन, छन बाहर विलोकति पंथ भ्रू पर पानि कै।'

पूर्वजनों की दीर्घ परंपरा द्वारा चली आती हुई जन्मगत वासना के अतिरिक्त जीवन में भी बहुत से संस्कार प्राप्त किए जाते हैं; जिनके कारण कुछ वस्तुओं के प्रति विशेष भाव अंत:करण में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। बचपन से अपने घर में या बाहर हम जिन दृश्यों को बराबर देखते आए, जिनकी चर्चा बराबर सुनते आए, उनके प्रति एक प्रकार का सृहृद्भाव मन में घर कर लेता है। हिंदुओं के बालक अपने घर में रामकृष्ण की कथाएँ और भजन सुनते आते हैं इससे रामकृष्ण के चरित्रों से संबंध रखनेवाले स्थानों को देखने की उत्कंठा उनमें बनी रहती है। गोस्वामीजी के इन शब्दों में यही उत्कंठा भरी है-

अब चित चेतु चित्रकूटहि चलु ;

भूमि बिलोकु रामपद अंकित, बन बिलोकु रघुबर विहार थलु।

ऐसे स्थानों के प्रति संबंध की योजना के कारण हृदय में विशेष रूप से भावों का उदय होता है। कोई रामभक्त जब चित्रकूट पहुँचता है तब वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य पर ही मुग्धह नहीं होता, अपने इष्टदेव की मधुर भावना के योग से एक विशेष प्रकार के अनिर्वचनीय माधुर्य का भी अनुभव करता है। ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी रास्तों में जब झाड़ियों के काँटे उसके शरीर में चुभते हैं तब उसमें सान्निध्यत का यह मधुर भाव बिना उठे नहीं रह सकता कि ये झाड़ उन्हीं प्राचीन झाड़ों के वंशज हैं जो राम, लक्ष्मण और सीता को कभी चुभे होंगे। इस भावयोजना के कारण उन झाड़ों को वह और ही दृष्टि से देखने लगता है। यह दृष्टि औरों को नहीं प्राप्त हो सकती।

ऐसे संस्कार जीवन में हम बराबर प्राप्त करते जाते हैं। जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, वे भी आल्हा आदि सुनकर कन्नौज, कालिंजर, महोबा, नयनागढ़ (चुनारगढ़) इत्यादि के प्रति एक विशेष 'भाव' सूचित करते हैं। पढ़े-लिखे लोग अनेक प्रकार के इतिहास, पुराण, जीवन चरित्र आदि पढ़कर उनमें वर्णित घटनाओं से संबंध रखनेवाले स्थानों के दर्शन की उत्कंठा प्राप्त करते हैं। इतिहासप्रसिद्ध स्थान उनके लिए तीर्थ से हो जाते हैं। प्राचीन इतिहास पढ़ते समय कल्पना का योग पूरा-पूरा रहता है। जिन छोटे-छोटे ब्योरों का वर्णन इतिहास नहीं भी करता उनका आरोप अज्ञात रूप से कल्पना करती चलती है। यदि इस प्रकार का थोड़ा बहुत चित्र कल्पना अपनी ओर से न करती चले तो इतिहास आदि पढ़ने में जी ही न लगे। सिकंदर और पौरव का युद्ध पढ़ते समय पढ़नेवाले के मन में सिकंदर और उसके साथियों का यवनवेश, पौरव के उष्णीष और किरीट कुंडल मन में आवेंगे। मतलब यह कि परिस्थिति आदि का कोई चित्र कल्पना में थोड़ा बहुत अवश्य रहेगा-जो भावुक होंगे उनमें अधिक रहेगा। प्राचीन समय का समाजचित्र हम 'मेघदूत', 'मालविकाग्निमित्र' आदि में ढूँढ़ते हैं, और उसकी थोड़ी बहुत झलक पाकर अपने को और अपने समय को भूलकर तल्लीन हो जाते हैं। एक दिन रात को मैं सारनाथ से लौटता हुआ काशी की कुंजगली में जा निकला। प्राचीन काल में पहुँची हुई कल्पना को लिए हुए उस सँकरी गली में जाकर मैं क्या देखता हूँ कि पीतल की सुंदर दीवटों पर दीपक जल रहे हैं, दूकानों पर केवल धोती पहने और उत्तरीय डाले (गर्मी के दिन थे) व्यापारी बैठे हुए हैं, दीवारों पर सिंदूर से कुछ देवताओं के नाम लिखे हुए हैं, पुरानी चाल के चौखूँटे द्वार और खिड़कियाँ हैं। मुझे ऐसा भान हुआ कि मैं प्राचीन उज्जयिनी की किसी वीथिका में आ निकला हूँ। इतने ही में थोड़ी दूर चलकर म्युनिसिपैलिटी की लालटेन दिखाई दी। बस सारी भावना हवा हो गई।

इतिहास के अध्यियन से, प्राचीन आख्यानों के श्रवण से, भूतकाल का जो दृश्य इस प्रकार कल्पना में बस जाता है वह वर्तमान दृश्यों को खंडित प्रतीत होने से बचाता है, वह उन्हें दीर्घ कालक्षेत्र के बीच चले आए हुए अतीत के दृश्यों के मेल में दिखाता है, और हमारे भावों को कालबद्ध न रखकर अधिक व्यापकत्व प्रदान करता है। हम केवल उन्हीं से रागद्वेष नहीं रखते जिनसे हम घिरे हुए हैं। बल्कि उनसे भी जो अब इस संसार में नहीं हैं, पहले कभी हो चुके हैं। पशुत्व और मनुष्यत्व में यही एक बड़ा भारी भेद है। मनुष्य उस कोटि की पहुँची हुई सत्ता है जो अल्प क्षण में ही आत्मप्रसार को बद्ध रखकर संतुष्ट नहीं हो सकती जिसे वर्तमान कहते हैं। वह अतीत के दीर्घ पटल को भेदकर अपनी अन्वीक्षण बुद्धि को ही नहीं, रागात्मिका वृत्ति को भी ले जाती है। हमारे 'भावों' के लिए भूतकाल का क्षेत्र अत्यंत पवित्र क्षेत्र है। वहाँ वे शरीरयात्रा के स्थूल स्वार्थ से संश्लिष्टद होकर कलुषित नहीं होते-अपने विशुद्ध रूप में दिखाई पड़ते हैं। उक्त क्षेत्र में जिनके 'भावों' का व्यायाम के लिए संचरण होता रहता है उनके 'भावों' का वर्तमान विषयों के साथ उचित उपयुक्त संबंध स्थापित हो जाता है। उनके घृणा, क्रोध आदि भाव भी बहुत कम अवसरों पर ऐसे होंगे कि कोई उन्हें बुरा कह सके।

मनुष्य अपने रति, क्रोध आदि भावों को या तो सर्वथा मार डाले, अथवा साधना के लिए उन्हें कभी-कभी ऐसे क्षेत्र में ले जाया करे जहाँ स्वार्थ की पहुँच न हो, तब जाकर सच्ची आत्माभिव्यक्ति होगी। नए अर्थवादी 'पुराने गीतों' को छोड़ने को लाख कहा करें, पर जो विशाल हृदय हैं वे भूत को बिना आत्मभूत किए नहीं रह सकते। अतीत काल की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति जो हमारा रागात्मक भाव होता है वह प्राय: उस काल की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति हमारे भावों को तीव्र भी करता है और उनका ठीक-ठीक अवस्थान भी करता है। वर्षा के आरंभ में जब हम बाहर मैदान में निकल पड़ते हैं, जहाँ जुते हुए खेतों की सोंधी महक आती है और किसानों की स्त्रियाँ टोकरी लिए इधर-उधर दिखाई देती हैं, उस समय कालिदास की लेखनी से अंकित-

त्वय्यायत्तंर कृषिफलमिति भ्रूविकारानभिज्ञै :

प्रीतिस्निग्धौर्जनपदवधालोचन: पीयमान:।

सद्य: सीरोत्कषणसुरभिक्षेत्रमारुह्य मालं

किंचित्पश्चाद्ब्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण॥

इस दृश्य के प्रभाव से-हमारा भाव और भी तीव्र हो जाता है, हमें वह दृश्य और भी मनोहर लगने लगता है।

जिन वस्तुओं और व्यापारों के प्रति हमारे प्राचीन पूर्वज अपने 'भाव' अंकित कर गए हैं उनके सामने अपने को पाकर मानो हम उन पूर्वपुरुषों के निकट जा पहुँचते हैं, और उसी प्रकार के भावों का अनुभव कर उनके हृदय से अपना हृदय मिलाते हुए उनके सगे बन जाते हैं। वर्तमान सभ्यता ने जहाँ अपना दखल नहीं जमाया है उन जंगलों, पहाड़ों, गाँवों और मैदानों में हम अपने को वाल्मीकि, कालिदास या भवभूति के समय में खड़ा कल्पित कर सकते हैं; कोई बाधाक दृश्य सामने नहीं आता। पर्वतों की कंदराओं में, प्रभात के प्रफुल्ल पद्मजाल में, छिटकी चाँदनी में, खिली कुमुदिनी में हमारी ऑंखें कालिदास, भवभूति आदि की ऑंखों से जा मिलती हैं। पलाश, इंगुदी, अंकोट वनों में अब भी खड़े हैं, सरोवरों में कमल अब भी खिलते हैं, तालाबों में कुमुदिनी अब भी चाँदनी के साथ हँसती है, वानीर शाखाएँ अब भी झुक-झुककर तीर का नीर चूमती हैं; पर हमारी ऑंखें उनकी ओर भूलकर भी नहीं जातीं, हमारे हृदय से मानो उनका कोई लगाव ही नहीं रह गया। अग्निमित्र, विक्रमादित्य आदि को अब हम नहीं देख सकते। उनकी आकृति वहन करनेवाला आलोचक अब न जाने किस लोक में पहुँचा होगा; पर ऐसी वस्तुएँ अब भी हम देख सकते हैं जिन्हें उन्होंने भी देखा होगा। क्षिप्रा के किनारे दूर तक फैले हुए प्राचीन उज्जयिनी के ढूहों पर सूर्यास्त के समय खड़े हो जाइए। इधर-उधर उठी हुई पहाड़ियाँ कह रही हैं कि महाकाल के दर्शन को जाते हुए कालिदासजी हमें देर तक देखा करते थे; उस समय 'क्षिप्रावात' उनके उत्तरीय को फहराता था।1 काली शिलाओं पर से बहती हुई वेत्रावती की स्वच्छ धारा के तट पर विदिशा के खंडहरों में वे ईंट-पत्थर अब भी पड़े हुए हैं जिनपर अंगरागलिप्त शरीर और सुगंध धूम से बसे केश-कलपवाली रमणियों के हाथ पड़े होंगे।2

बिजली से जगमगाते हुए नए अँगरेजी ढंग के शहरों में धुऑं उगलती हुई मिलों और ह्नाइट वे लेडला की दुकान के सामने, हम कालिदास आदि से अपने को बहुत दूर पाते हैं। पर प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र में हमारा उनका भेदभाव मिट जाता है, हम सामान्य परिस्थिति के साक्षात्कार द्वारा चिरकाल-व्यापी शुद्ध 'मनुष्यत्व' का अनुभव करते हैं, विशेष कालबद्ध मनुष्यत्व का नहीं।

1. मेघदूत, पूर्वमेघ, 32/2।

2. वही, 26।


यहाँ पर कहा जा सकता है कि विशेषकालबद्ध मनुष्यत्व न सही, पर देशबद्ध मनुष्यत्व तो यह अवश्य है। हाँ, है। इसी देशबद्ध मनुष्यत्व के अनुभव से सच्ची देशभक्ति या देशप्रेम की स्थापना होती है। जो हृदय संसार की जातियों के बीच अपनी जाति की स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं कर सकता वह देशप्रेम का दावा नहीं कर सकता। इस स्वतंत्र सत्ता से अभिप्राय स्वरूप की स्वतंत्र सत्ता से है; केवल अन्न, धान संचित करने और अधिकार भोगने की स्वतंत्रता से नहीं। अपने स्वरूप को भूलकर यदि भारतवासियों ने संसार में सुख-समृद्धि प्राप्त की तो क्या? क्योंकि उन्होंने उदात्त वृत्तियों को उत्तेजित करनेवाली बँधी-बधाई परंपरा से अपना संबंध तोड़ लिया, नई उभरी हुई इतिहासशून्य जंगली जातियों में अपना नाम लिखाया। फिलीपाइन द्वीपवासियों से उनकी मर्यादा कुछ अधिक नहीं रह गई।

देशप्रेम है क्या? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आलम्बन क्या है? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन सहित सारी भूमि। प्रेम किस प्रकार का है? यह साहचर्यगत प्रेम है। जिनके बीच हम रहते हैं, जिन्हें बराबर ऑंखों से देखते हैं, जिनकी बातें बराबर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है, सारांश यह कि जिनके सान्निध्यत का हमें अभ्यास पड़ जाता है, उनके प्रति लोभ या राग हो जाता है। देशप्रेम यदि वास्तव में अंत:करण का कोई भाव है तो यही हो सकता है। यदि यह नहीं है तो वह कोरी बकवास या किसी और भाव के संकेत के लिए गढ़ा हुआ शब्द है। यदि किसी को अपने देश से सचमुच प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्तेश, वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि सबसे प्रेम होगा, वह सबको चाह भरी दृष्टि से देखेगा, वह सबकी सुध करके विदेश में ऑंसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो यह भी ऑंख भर नहीं देखते कि आम प्रणयसौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानों के झोपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देशप्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि 'भाइयो! बिना रूपपरिचय का यह प्रेम कैसा?' जिसके दु:खसुख के तुम कभी साथी नहीं हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह कैसे समझें? उनसे कोसों दूर बैठे-बैठे, पड़े-पड़े या खड़े-खड़े तुम बिलायती बोली में अर्थशास्त्र की दुहाई दिया करो; पर प्रेम का नाम उसके साथ मत घसीटो। प्रेम हिसाब-किताब नहीं है। हिसाब-किताब करनेवाले भाड़े पर भी मिल सकते हैं, पर प्रेम करनेवाले नहीं। एक अमेरिकन फारसवालों को उनके देश का सारा हिसाब-किताब समझाकर चला गया।

हिसाब-किताब से देश की दशा का ज्ञानमात्र हो सकता है। हितचिंतन और हितसाधन की प्रवृत्ति कोरे ज्ञान से भिन्न है। वह मन के वेग या 'भाव' पर अवलंबित है, उसका संबंध लोभ या प्रेम से है; जिसके बिना अन्य पक्ष में आवश्यक त्याग का उत्साह हो नहीं सकता। जिसे ब्रज की भूमि से प्रेम होगा वह इस प्रकार कहेगा-

नैनन सों 'रसखान' जबै व्रज के बन, बांग, तड़ाग निहारौं।

कोटिक वे कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर बारौं।

रसखान तो किसी की 'लकुटी अरु कामरिया' पर तीनों पुरों का राजसिंहासन तक त्यागने को तैयार थे; पर देशप्रेम की दुहाई देनेवालों में से कितने अपने किसी थके माँदे भाई के फटे पुराने कपड़ों पर रीझकर-या कम से कम न खीझकर-बिना मन मैला किए कमरे की फर्श भी मैली होने देंगे? मोटे आदमियो! तुम जरा-सा दुबले हो जाते-अपने अंदेशे से ही सही-तो न जाने कितनी ठठरियों पर मांस चढ़ जाता।

पशु और बालक भी जिनके साथ अधिक रहते हैं उनसे परच जाते हैं। यह परचना परिचय ही है। परिचय प्रेम का प्रवर्तक है। बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यदि देशप्रेम के लिए हृदय में जगह करनी है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाइए। बाहर निकलिए तो ऑंख खोलकर देखिए कि खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच कैसे बह रहे हैं, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है, कछारों में चौपायों के झुंड इधर-उधार चरते हैं, चरवाहे तान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच गाँव झाँक रहे हैं; उनमें घुसिए देखिए तो क्या हो रहा है। जो मिलें उनसे दो-दो बातें कीजिए, उनके साथ किसी पेड़ की छाया के नीचे घड़ी-आध-घड़ी बैठ जाइए और समझिए कि ये सब हमारे देश के हैं। इस प्रकार जब देश का रूप आपकी ऑंखों में समा जायगा, आप उसके अंग-प्रत्यंग से परिचित हो जायँगे, तब आपके अंत:करण में इस इच्छा का सचमुच उदय होगा कि वह सदा हरा-भरा और फला-फूला रहे, उसके धान-धान्य की वृद्धि हो, उसके सब प्राणी सुखी रहें।

पर आजकल इस प्रकार का परिचय बाबुओं की लज्जा का विषय हो रहा है। वे देश के स्वरूप से अनजान रहने या बनने में अपनी बड़ी शान समझते हैं। मैं अपने एक लखनवी दोस्त के साथ साँची का स्तूप देखने गया। यह स्तूप एक बहुत सुंदर छोटी पहाड़ी के ऊपर है। नीचे छोटा-मोटा जंगल है; जिसमें महुए के पेड़ भी बहुत से हैं।संयोग से उन दिनों वहाँ पुरातत्व विभाग का कैंप पड़ा हुआ था। रात हो जाने से उस दिन हम लोग स्तूप नहीं देख सके; सबेरे देखने का विचार करके नीचे उतर रहे थे। वसंत का समय था। महुए चारों ओर टपक रहे थे। मेरे मुँह से निकला-'महुओं की कैसी महक आ रही है!' इस पर लखनवी महाशय ने चट मुझे रोककर कहा-'यहाँ महुए सहुए का नाम न लीजिए, लोग देहाती समझेंगे।' मैं चुप हो रहा; समझ गया कि महुए का नाम जानने से बाबूपन में बड़ा भारी बट्टा लगता है।1 पीछे ध्याोन आया कि यह वही लखनऊ है जहाँ कभी यह पूछनेवाले भी थे कि गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा होता है या बड़ा।

हिंदूपन की अंतिम झलक दिखानेवाले थानेश्वर, कन्नौज, दिल्ली, पानीपत आदि


1. मिलाइए, 'लोभ और प्रीति' शीर्षक निबंध

स्थान उनके गंभीर भावों के आलम्बन हैं जिनमें ऐतिहासिक भावुकता है। जो देश के पुराने स्वरूप से परिचित हैं, उनके लिए इन स्थानों के नाम ही उद्दीपन स्वरूप हैं। इन्हें सुनते ही उनके हृदय में कैसे-कैसे भाव जाग्रत होते हैं वे नहीं कह सकते। भारतेंदु का इतना ही कहना उनके लिए बहुत है कि-

हाय पंचनद ! हा पानीपत !

अहजुँ रहे तुम धरनि विराजत?

हाय चितौर ! निलज तू भारी,

अजहुँ खरो भारतहि मँझारी !

पानीपत,चित्तौीर, कन्नौज आदि का नाम सुनते ही भारत का प्राचीन हिंदू दृश्य ऑंखों के सामने फिर जाता है। उनके साथ गंभीर भावों का संबंध लगा हुआ है। ऐसे एक-एक नाम हमारे लिए काव्य के टुकड़े हैं। ये रसात्मक शब्द अवश्य हैं।1

अबतक जो कुछ कहा गया उससे यह बात स्पष्ट हो गई होगी कि काव्य में 'आलम्बन' ही मुख्य है। यदि कवि ने ऐसी वस्तुओं और व्यापारों को अपने शब्दचित्र द्वारा सामने उपस्थित कर दिया जिनसे श्रोता या पाठक के भाव जाग्रत होते हैं, तो वह एक प्रकार से अपना काम कर चुका। संसार की प्रत्येक भाषा में इस प्रकार के काव्य वर्तमान हैं जिनमें भावों को प्रदर्शित करनेवाले पात्र, अर्थात् 'आश्रय' की योजना नहीं की गई है-केवल ऐसी वस्तुएँ और व्यापार सामने रख दिए गए हैं जिनसे श्रोता या पाठक ही भाव का अनुभव करते हैं। यदि किसी कवि ने किसी दृश्य का पूर्ण चित्रण करके रख दिया, तो क्या वह इसीलिए काव्य न कहलाएगा कि उसके वर्णन के भीतर कोई पात्र उस दृश्य से प्राप्त आनंद या शोक को अपने शब्द और चेष्टा द्वारा प्रकट करनेवाला नहीं है? कुमारसंभव के आरंभ के उतने श्लो्कों को जिनमें हिमालय का वर्णन है, क्या काव्य से खारिज समझें? मेघदूत में जो आम्रकूट, विंध्यव, रेवा आदि के वर्णन हैं उन सब में क्या यक्ष की विरहव्यथा ही व्यंग्य है?

विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी की गिनती गिनाकर किसी प्रकार 'रस' की शर्त पूरी करना ही जब से कविजन अपना परम पुरुषार्थ मानने लगे तब से यह बात कुछ भूल-सी चली कि कवियों का मुख्य कार्य ऐसे विषय को सामने रखना है जो श्रोता के विविध भावों के आलम्बन हो सकें। सच पूछिए तो काव्य में अंकित सारे दृश्य श्रोता के भिन्न-भिन्न भावों के आलम्बनस्वरूप होते हैं। किसी पात्र को रति, हास, शोक, क्रोध आदि प्रकट करता हुआ दिखाने में ही रसपरिपाक मानना और यह समझना कि श्रोता को पूरी रसानुभूति हो गई, बुरा हुआ। श्रोता या पाठक के भी हृदय होता है। वह जो किसी काव्य को पढ़ता या सुनता है सो केवल दूसरों का हँसना;, रोना, क्रोध करना आदि देखने के लिए ही नहीं, बल्कि ऐसे विषयों को


1. मिलाइए, 'भारतेंदु हरिश्चंद्र' शीर्षक समीक्षा।

सामने लाने के लिए जो स्वयं उसे हँसाने, रुलाने, क्रुद्ध करने, आकृष्ट करने, लीन करने का गुण रखते हों। राजा हरिश्चंद्र को श्मशान में रानी शैव्या से कफन माँगते हुए, राम जानकी को वनगमन के लिए निकलते हुए पढ़कर ही लोग क्या करुणार्द्र नहीं हो जाते? उनकी करुणा क्या इस बात की अपेक्षा करती है कि कोई पात्र उन दृश्यों पर शोक या दु:ख शब्दों और चेष्टा द्वारा, प्रकट करे? तुलसीदासजी के इस सवैये में-

कागर कीर ज्यों भूषन चीर सरीर लस्यो तजि नीर ज्यों काई।

मातु पिता, प्रिय लोग सबै, सनमान सुभाय सनेह सगाई।

संग सुभामिनि भाइ भलो, दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाई।

राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई॥

पाठक को करुण रस में मग्न करने की पूरी सामग्री मौजूद है। परिस्थिति के सहित राम हमारी करुणा के आलम्बन हैं, चाहे किसी पात्र की करुणा के आलम्बन हों या न हों।

इस प्रकार कवि द्वारा अंकित संपूर्ण दृश्य को श्रोता के भावों का आलम्बन मान लेने पर पूर्ण रस वहीं मानना पड़ेगा जहाँ-

(क) आश्रय श्रोता के रति भाव का आलम्बन होगा और

(ख) आलम्बन श्रोता के भी उन्हीं भावों का आलम्बन होगा आश्रय के जिन भावों का है।

जहाँ इस प्रकार का समन्वय न हो वहाँ मैं पूर्ण रस नहीं मानता।यदि आश्रय का चित्रण ऐसा हुआ है कि पाठक या श्रोता के हृदय में उसके प्रति सहृदय भाव स्थापित हो गया है तो इस संबंध से वह श्रोता उन भावों को अपनाएगा। उनका अनुभव भी आप करेगा जिनका अनुभव करता हुआ आश्रय दिखाया जायगा। इसके उपरांत यदि वह व्यक्ति या वस्तु भी इस रूप में चित्रित है कि उसके प्रति मनुष्य मात्र के अत: श्रोता के हृदय में भी वे भाव बिना उद्भूत हुए न रहेंगे तो फिर क्या कहना है। पूर्ण रस वहीं पर कहा जा सकता है। कौरवों की सभा में दु:शासन पर भीम के क्रोध का यदि वर्णन किया जाय तो उससे रौद्ररस की ऐसी ही अनुभूति हो सकती है क्योंकि अबला द्रौपदी के साथ कुव्यवहार का जो चित्र खींचा जायगा उससे दु:शासन को ऐसा रूप प्राप्त हो जायगा जो पाठक के हृदय में क्रोध का अवश्य संचार करेगा। अत: भीम के क्रोध प्रकट करने पर उसे ऐसा प्रतीत होगा मानो उसी के हृदय का भाव प्रकट किया जा रहा है। पर शकुंतला के प्रति दुर्वासा के क्रोध का वर्णन चाहे कितने ही ब्योरे के साथ किया जाय-उसमें लाल ऑंखें, फरकते ओठ, गर्व भरे वाक्य सब कुछ हों-पर उससे पाठक के हृदय में वैसी रसानुभूति नहीं हो सकती। इस कथन का अभिप्राय यह नहीं कि इस प्रकार के भावों का वर्णन ही न किया जाय। प्रसंगप्राप्त सब बातों का वर्णन कवि का कर्तव्य है, केवल रस या पूर्ण रस की कवायद करना नहीं। रामायण में जिस प्रकार रावण के प्रति राम के क्रोध का वर्णन है उसी प्रकार राम के प्रति रावण के क्रोध का भी, जैसे राम के प्रति सीता के रति भाव का वर्णन है वैसे ही सूर्पणखा के भी। हाँ! भारतीय काव्य की दृष्टि से महाकाव्य में प्रधान आश्रय और आलम्बन से संबंध रखनेवाले भाव का अनुभव श्रोता या पाठक को पूर्ण रस के रूप में होना चाहिए।