विमल मेहता सेकिण्ड / अवधेश श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखें खुलीं तो देखा, खिड़की से सफ़ेद रंग की रोशनी छन-छनकर कमरे में आ रही है। शायद सुबह हो गई है। मुझे याद नहीं कि रात कितने बजे तक जागता रहा हूँ। और अब कितना बज रहा है — यह जानने की ज़रूरत महसूस नहीं कर पा रहा हूँ। मैंने खाट पर लेटे-लेटे ही मेज़ पर रखे विल्स फिल्टर के पैकेट की आख़िरी सिगरेट को सुलगा लिया। सिगरेट का धुआँ कमरे की ख़ामोशी के बीच छा गया। धुएँ के बीच ही विमल मेहता सेकिण्ड की तस्वीर उभरकर सामने आने लगी, जो कल रात पलक झपकने तक मेरे साथ रही।

कभी सोचता हूँ विमला मेहता सेकिण्ड मरा नहीं, बल्कि फूलमालाओं से सुसज्जित, हर पल मेरे साथ अपनी शान्त, सरल व गम्भीर मुस्कराहट लिए खड़ा है। उसकी आवाज़ में वही जोश है। शब्दों में वही अंगारे हैं। लेकिन कभी सोचता हूं उसका सीना छलनी करने वाले चेहरे इतनी ज़ोर से अपना काम कर रहे हैं कि उसकी ख़ून से सनी पड़ी लाश व्यवस्था का परिहास बनकर रह गई है।

प्रैक्टिकल के क्लास शुरू होने के दिन जब मैं अपनी एलाटिड सीट पर पहुँचा तो वहाँ पहले से ही एक स्टूडेण्ट विचारमग्न खड़ा था।

‘‘आपका नाम क्या है?’’ — उसकी बड़ी दाढ़ी और बिखरे बालों को देखकर मेरा मन अजीब-सा हो गया था।

’ विकल मेहता सेकिण्ड।’’— उसके स्वर में स्वाभिमान भरा था।

‘‘बीएस-सी में क्या परसेण्टेज है?’’ — मैंने बहुत ही बेरुखा लहजा अपनाया था।

‘‘क्लास में सबसे अधिक परसेण्टेज मेरा ही है।’’— उसने संयत स्वर में कहा था।

मैं कुछ झेंप-सा गया। मुझे डर लगा कि कहीं वह मुझसे मेरा परसेण्टेज न पूछने लगे। मैंने तुरन्त हाथ बढ़ाया था — ‘‘मुझे विमल मेहता फर्स्ट कहते हैं।’’

दो-चार दिन बाद ही मैं प्रोफ़ेसर मित्रा से मिलने उनके फ्लैट पर पहुँचा था। वे थकान-सी लिए अपने रीडिंग-रूम में बैठे थे। शायद किसी शिफ़्ट को पढ़ाकर उठे थे।

‘‘गुडमार्निंग सर!’’ — मैंने पास पड़ी चेयर पर बैठते हुए कहा था।

‘‘मार्निंग! मार्निंग!’’ — मित्रा साहब ने मुस्कराते हुए कहा था — ‘‘कहिए, विमल मेहता, पढ़ाई ठीक-ठाक चल रही है?’’

‘‘सर, अभी तो नोट्स बना रहा हूँ।’’ — मेरा स्वर बहुत विनम्र था।

‘‘मेरे पेपर में तो बनाने नहीं पड़ेंगे, मैं तो ख़ुद लिखवा देता हूँ।’’ — मित्रा साहब की आवाज़ में अहं भरा था।

‘‘हाँ सर, आपके पेपर में तो कोई प्रॉब्लम नहीं आएगी।’’ — कहा तो मैंने सिर्फ़ इतना ही, लेकिन मन में आया था कि कह दूँ — सर, आपके हिस्ट्रीनुमा लेक्चर को लिखते-लिखते स्टूडेण्ट्स बोर हो जाते हैं, पर क्या करें प्रैक्टिकल के दो सौ नम्बर उन्हें चुपचाप बिठाए रखते हैं।’

‘‘विमल, कॉलेज लाइफ़ में तुम्हारे फ़ादर से मेरी अच्छी-ख़ासी फ्रेण्डशिप थी।’’ — मित्रा साहब डैडी को बीच में ख़ामख़ा में ले आए थे।

‘‘सर, ऐसा डैडी भी कहते हैं।’’ — मेंने उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा था। लेकिन सच तो यह है कि डैडी को मेरा एडमिशन कराना था, इसलिए उन्हें अपनी फ्रेण्डशिप याद आई थी।

‘‘वो किस पोस्ट पर हैं?’’

‘‘सर, वे एक फर्म में चीफ़ इंजीनियर हैं।’’ — मैं मन-ही-मन चिढ़ रहा था कि ये डैडी बीच में क्यों टपक रहे हैं।

‘‘देखा, विमल! टेक्नीकल लाइन ज्वाइन करने का आराम। अब तो टीचिंग लाइन में कोई रेपुटेशन नहीं रही है।’’ — मित्रा साहब ने मुँह बनाते हुए कहा था। मन में आया था, कह दूँ कि मॉरल तो गिरा लिया पार्टी-पॉलिटिक्स और ट्यूशनबाज़ी के चक्कर में। और अब चाहते हैं रेपुटेशन। पर उनके मन जैसा उत्तर दे सकने की स्थिति में न होने के कारण चुप ही रह गया था।

‘‘अच्छा, कोई प्रॉब्लम हो तो बताना।’’ — मित्रा साहब ने उठने का मूड बनाया था।

‘‘सर मैं अपना लैबोरेटरी पार्टनर बदलना चाहता हूँ। आप चन्द्रा साहब से कह दें।

‘‘ यह तो बहुत मुश्किल काम है! पिछले सालों के झगड़ों और सिफ़ारिशी रवैयों को देखते हुए चन्द्रा साहब ने एल्फ़ाबेटीकल लिस्ट बनाई है।’’ — मित्रा साहब ने मुझे बीच में टोकते हुए कहा था।

‘‘सर, झगड़ा करने पर तो पार्टनर अलग-अलग कर दिए जाते हैं। मैं झगड़ा कर लूँ?’’ — मैंने हिम्मत करके पूछा।

‘‘अरे नहीं, इम्प्रेशन ख़राब मत करना। पता नहीं किसके बैच में नाम आ जाए?’’ — मित्रा साहब ने गम्भीर होते हुए पूछा था — ‘‘क्या नाम है तुम्हारे पार्टनर का?’’

‘‘नाम तो उसका भी विमल मेहता है।’’ — मैंने अपनी बात को वज़नदार बनाने के लिए कहा था — ‘‘बट, ही इज क्रेजी एण्ड कंफ़्यूज।’’

‘‘अरे वो पोजीशन होल्डर!’’ — उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा था — ‘‘सुना है, उसने तो प्रोफ़ेसर सिन्हा की हालत ख़राब कर दी है। इनर्टगैस में मास्टर बनते थे। उसने ऐसे टिपिकल क्वेश्चन पूछ डाले, जिसकी वजह से प्रोफ़ेसर सिन्हा ने दो दिन क्लास नहीं लिया।’’

सर, सिन्हा साहब को आता ही क्या है? जीवाजी यूनिवर्सिटी से पीएच-डी कर ली है। कॉलेज मैनेजर के साले हैं, इसलिए अपॉइण्टमेण्ट हो गया। सोचा था, इतनी बात कह ही दूँ पर चुप रहा था — प्रैक्टिकल के पॉइण्ट ऑफ़ व्यू से।

‘‘चलूँ सर!’’ — मैंने हाथों को चलते समय जोड़ लिया था।

‘‘मेरी राय में वह लड़का प्रैक्टिकल और रिटेन एग्जाम में हेल्पफ़ुल रहेगा, इसलिए तुम अपना टाइम पास कर लो तो अच्छा ही रहेगा।’’ — उन्होंने एक स्लिप मैं डिटेल लिखते हुए कहा था — ‘‘वैसे मैं आज ही ट्राई करूँगा।’

मेरे मन में एग्जाम के पॉइण्ट ऑफ व्यू की बात एक स्वार्थ की तरह परत-दर-परत चढ़ गई थी।

उसके दूसरे ही दिन चन्द्रा साहब ने लैब ब्वॉय से बुलवाया था। चन्द्रा साहब के स्ट्रिक्ट नेचर से मैं पहले ही से परिचित था। सहमे क़दमों मैं चन्द्रा साहब के कमरे तक गया था। दिल की बढ़ी धड़कनों के साथ उनके कमरे के दरवाज़े पर पड़ी चिक को उठाया था — ‘‘मे आई कम इन, सर?’’

‘‘यस!’’ — उन्होंने सिर हिलाया था।

‘‘सर, मेरा नाम विमल मेहता फर्स्ट है। आपने मुझे बुलवाया है?’’ — मैंने काँपती आवाज़ में पूछा था।

‘‘हाँ!’’ उन्होंने गम्भीर मुद्रा में कहा था — ‘‘एडमिशन लिस्ट में फ़र्स्ट और लास्ट नम्बर पर एक ही नाम के दो स्टूडेण्ट्स थे, सबसे ऊपर वाला यूनिवर्सिटी में पोजीशन लेकर और सबसे नीचे वाला प्रोफ़ेसर मित्रा की सिफ़ारिश लेकर आया था! आप तो वर्स्ट थे, फ़र्स्ट कैसे बन गए?’’

मेरे मन में चन्द्रा साहब के प्रति भद्दी गालियाँ फूट रही थीं।

‘‘व्हाट इज़ द प्रॉब्लम?’’ — चन्द्रा साहब ने सख़्त आवाज़ में कहा था— ‘‘यू गो एण्ड डू द वर्क विद को-ऑपरेशन।’’

‘‘ओके सर।’’ — मैंने देखा पेपरवेट से दबी मेरे नाम की स्लिप को मसलकर उन्होंने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था।

एग्जाम के पॉइंट ऑफ व्यू से मैं विमल मेहता सेकिण्ड के साथ न चाहकर भी रहने लगा था।

अधिकतर मैं जाकर ख़ुद ही दराज़ खोलता था। इंस्ट्रमेण्ट भी ख़ुद ही साफ़ करता था। मुझमें आए परिवर्तन को देखकर पहले तो उसके चेहरे पर आश्चर्य की रेखाएँ उभरी थीं, लेकिन धीरे-धीरे सब-कुछ नॉर्मल-सा होने लगा था। उसके साथ रहने का सुखद परिणाम तो चार दिन बाद ही मिल गया था, जब हम लोगों ने प्रैक्टिकल कॉपी साइन कराई तो केवल हम लोगों का टाइट्रेशन विदइन टॉलरेंस था। बाकी पूरे क्लास का बियाण्ड लिमिट गया था।

रिएक्शन, न्यूमेरीकल, थ्योरिटिकल और चाहे कैसी भी प्रॉब्लम हो, वह मुझे किसी खाली पीरियड में या हॉस्टल में आकर अच्छी तरह से समझाता था। हालाँकि मैं अपने हिसाब से किसी प्रॉब्लम को रखने के पहले चाय या कॉफ़ी का दौर चलाने की भूमिका बना लेता था।

चाय-कॉफ़ी के दौरान ही विभिन्न टॉपिक पर उससे मेरा न चाहकर भी डिस्कशन हो जाता था। अकसर वह काण्ट, शिलर और मार्क्स या ऐसे ही कुछ नामों को लेकर बात करता था, जिनके बारे में जानने की बात तो अलग, मैं नाम भी पहली बार सुनता था। वह हर क्षेत्र में परिवर्तन की बात करता था। सरल, निष्कपट, इच्छाओं में नियन्त्रित, सहानुभूतियों से विकसित और नैतिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण चरित्र की बात करता था।

एक दिन मैंने अपनी पूरी बौद्धिकता को दाँव पर लगाकर उससे कहा था — ‘‘यार, समाज के चलने का अपना सिस्टम है। वह कभी भी किसी के विचारों से नहीं बदला। अक्सर ऐसे लोगों के सीने छलनी कर दिए गए। वे सूलियों पर चढ़ा दिए गए या फिर बुत बना दिए गए।’’

उसकी आखों में लालिमा तैर गई थी। उसने मेज़ पर एक मुक्का ठोंका था — ‘‘समाज तो बदल सकता है अगर बदलने वाले हों। एक, और सिर्फ एक ही व्यक्ति समूचे राष्ट्र की विचारधारा को बदल देता है। उसे नवचेतना, नवजागरण और नवनिर्माण की ओर अग्रसर कर देता है। और उसे इतना ऊँचा उठा देता है, जहाँ दुनिया उसके सामने बौनी नज़र आने लगती है। क्या तुमने माओ’ का नाम नहीं सुना? और जो धार पर चलते हैं वो वार भी खाते हैं।‘‘

उस समय कुछ देर के लिए पूरी कैण्टीन का ध्यान हम लोगों की ओर केन्द्रित हो गया था।

कॉलेज यूनियन में भी उसकी अच्छी-ख़ासी दख़ल थी। उसके ही ज़ोर लगाने पर वोटिंग की रीकाउण्टिंग हुई थी। रीकाउंटिंग के लिए लिखी एप्लीकेशन पर मेरे दस्तख़त उसने सबसे ऊपर कराए थे, हालांकि मैं ऐसा नहीं करना चाहता था। री-काउण्टिंग में दिवाकर के जीत जाने पर उसे विशेष ख़ुशी हुई थी। उत्साहित मन की तेज़ धड़कनों के साथ उसने कैण्टीन में मुझसे कहा था — ‘‘यार, दिवाकर विन कर गया है!’’

नीलिमा की ओर नजर फेंकते हुए वह मेरे बगल में बैठ गया था।

‘‘ये मेरे अभिन्न मित्र हैं, विमल मेहता सेकिण्ड।’’ — मैंने उसका परिचय देते हुए नीलिमा से कहा था।

‘‘हाँ, मैं आपको नेम एण्ड फ़ेस से तो पहले से ही जानती हूँ।’’ — नीलिमा ने उससे कहा था — ‘‘मेरा नाम नीलिमा जोशी है। मैं जूलॉजी प्रीवियस की स्टूडेण्ट हूँ।’’

‘‘आपको मैं भी बाई नेम जानता हूँ।’’ उसने नीलिमा से मुस्कराते हुए कहा था।

‘‘कैसे?’’ — नीलिमा के चेहरे पर आश्चर्य था।

‘‘पहले ये बताइए, आप लोग एक-दूसरे को कैसे जानते हैं?’’ — उसने मुस्कराते हुए पूछा था।

‘‘हम दोनों ने इलाहाबाद से एक साथ बीएस-सी किया था। मेरे फादर यहाँ एक फ़र्म में टेक्नीकल डाइरेक्टर होकर आ गए, इस वजह से मुझे भी यहाँ आना पड़ा।’’

‘‘बीएस-सी में डिवीजन लूज होने पर मैंने इस डोनेशन और सिफ़ारिशवाली यूनिवर्सिटी के दरवाज़े खटखटाए।’’ — मैंने एक सच भी उसके सामने उगल दिया था।

‘‘तुम्हारा और नीलिमाजी का साथ भी नहीं छूटा।’’— उसकी बात पर हम तीनों में हल्की-सी हँसी फैल गई थी।

‘‘थोड़ा-सा खिसकना।’’— मैंने कहा था।

‘‘क्यों?’’

‘‘दो की जगह तीन चाय को कहना है।’’

‘‘मैं चाय को रद्द कराकर तीन कॉफ़ी के लिए पहले ही से कहकर आया हूँ।’’ — उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान फैल गई थी।

‘‘आज तो अपने बहुत ही होशियारी का काम किया है!’’ — मैं उसकी एक्टीविटी पर मन-ही-मन मुस्कराया था।

‘‘तो क्या आपने मुझे किताबी होशियार समझा था?’’ — उसने चेहरे पर गम्भीरता लाते हुए कहा था।

‘‘हाँ, आप मुझे कैसे जानते हैं?’’ — नीलिमा ने हम दोनों का वार्तालाप तोड़ दिया था।

‘‘आपका प्रोफ़ेसर मिश्रा से क्या झगड़ा हो गया?’’ — उसने नीलिमा से सवाल किया था।

‘‘झगड़ा!’’ नीलिमा ने चौंकते हुए कहा था — ‘‘मैंने उन्हें दो महीने तक ट्यूटर रखा था।’’

‘‘अब प्रोफ़ेसर सक्सेना को ट्यूटर बना लिया। मिश्रा ग्रुप से सक्सेना ग्रुप में आने का कारण?’’

‘‘नहीं, मुझे किसी ग्रुप-व्रुप से मतलब नहीं है। मैंने ऐसा सब कुछ प्रैक्टिकल के पॉइण्ट ऑफ व्यू से किया है। मुझे बाद में मालूम हुआ कि प्रोफ़ेसर मिश्रा कभी भी प्रीवियस के इण्टरनल नहीं रहते हैं, वरना इस तरह का शोर नहीं मचता।’’ — नीलिमा ने चेहरे को बेफ़िक्र बना लिया था — ‘‘ख़ैर, अब चाहे कोई कुछ भी कहे, मुझे प्रीवियस के मार्क्स की चिन्ता नहीं!’’

‘‘फाइनल में?’’

‘‘इस शहर में महात्मा गाँधी पोस्ट-ग्रेजुएट कॉलेज के अलावा और भी कॉलेज हैं।’’

कॉफ़ी ख़त्म हो गई। काउण्टर पर पेमेण्ट करके हम तीनों चले आए थे। दिवाकर के विन करने के दूसरे-तीसरे दिन ही मुझे मित्रा साहब ने अच्छी-खासी झाडू पिलाई थी — ‘‘तुमने री-काउण्टिंग की एप्लीकेशन पर दस्तख़त क्यों किए थे? कॉलेज मैनेजमेण्ट ने यूनियन एकाउण्ट में हज़ारों का घपला किया है, अगर दिवाकर एक-एक रिकॉर्ड देखेगा तो जाने कितने चेहरे सामने आ जाएँगे।’’

‘‘सर, एप्लीकेशन पर दस्तख़त करने के लिए मुझे विमल मेहता सेकिण्ड ने विवश किया था।’’

‘‘विमल मेहता सेकिण्ड! विमल मेहता सेकिण्ड!! कॉलेज-भर में तूफ़ान मचा रखा है इस लड़के ने!’’ — मित्रा साहब की आँखें लाल हो गईं — ‘‘मालूम है तुम्हें, इस लड़के को इतनी लिफ़्ट क्यों दी जा रही है? सिर्फ़ इसलिए कि वह एक स्कॉलर है और उसके रिजल्ट से कॉलेज का नाम होगा।’’

‘‘सर, सिर्फ मैंने ही तो दस्तख़त नहीं किए थे।’’

‘‘लेकिन तुम मरे कैण्डीडेट हो। आइन्दा किसी भी तरह की एक्टीविटी में भाग नहीं लेना।’’ — मित्रा साहब की आँखें और अधिक लाल हो गई थीं — ‘‘तुम्हारी वजह से मुझे प्रिंसिपल साहब के सामने बेइज्जत होना पड़ा है।’’

मित्रा साहब के रूम से निकलते ही मेरा मन झल्लाहट से भर गया था। मेरे लिए दोहरी ज़िन्दगी जीना मुश्किल हो गया था। मैंने मित्रा साहब से हुई बातों का पूरा-पूरा ब्योरा उसे और दिवाकर को दे दिया था।

आख़िर एक दिन एकपक्षीय निर्णय लेने की घड़ी आ गई थी। बीएड की छात्रा सुजाता को लेकर कॉलेज में गहरा आक्रोश फैल गया था। हॉस्टल में सुजाता ने स्लीपिंग टेबलेट खाकर आत्महत्या कर ली थी।

सुजाता ने मरने के पहले खत लिखा था, जिसमें कॉलेज के अनेक सम्भ्रान्त व्यक्तियों के नाम लिखे थे, जिन्होंने उस पर नाजायज सम्बन्धों के लिए दबाव डाला था।

प्रिंसिपल और प्रोफ़ेसर चाहते थे कि अगर क्लास सुचारु रूप से चलती रहे तो शायद मामला टल जाए, पर लेबोरेटरी में गहरा शोर मचा हुआ था।

‘‘विमल मेहता फ़र्स्ट! आज लॉक नहीं खुलेगा।’’ — उसने चाबी का गुच्छा छीनते हुए कहा था।

मैं सिर से पाँव तक काँप गया था, क्योंकि यह सब प्रैक्टिकल के पॉइण्ट ऑफ व्यू से अच्छा नहीं हो रहा था।

उसने एक मेमोरण्डम मुझे पकड़ा दिया था। काँपते हाथों से थामकर मैंने पूरे मेमोरण्डम पर सरसरी नज़र दौड़ा दी थी। मैंने उसे एक स्टूल देकर इत्मीनान से बिठाया था —‘‘ज़रा, ठण्डे दिमाग से सोचो, इस पन्ने को देने से क्या लेबोरेटरी ब्रेकेज फाइन का हिसाब-क़िताब रखा जाने लगेगा? मिश्रा साहब की ट्यूशनबाजी ख़त्म हो जाएगी? सक्सेना साहब की पॉलिटिक्स बन्द हो जाएगी? कॉलेज मैगजीन प्रोफ़ेसरों के घर नहीं जाएगी? सिन्हा साहब को कॉलेज से निकाल दिया जाएगा? भाई-भतीजावाद, जातिवाद और डोनेशन पर पाबन्दी लगा दी जाएगी? प्रोफ़ेसर वर्मा के घर अब कभी माइक्रोस्कोपों से पढ़ाई नहीं होगी...‘‘

बड़ा ही अजीब-सा दृश्य था। हम दोनों एक-दूसरे के सामने बैठे थे। बहुत सारे स्टूडेण्ट्स हम दोनों को घेरे खड़े थे। वातावरण में ख़ामोशी तैर गई थी। मुझे महसूस हो रहा था, जैसे मेरी बातें वज़नदार साबित हो रही हैं, पर स्वयं मेरे भीतर एक सच फैल रहा था जो मेरी बातों को काट रहा था। लेकिन मैंने परिस्थिति के मुताबिक ख़ामोशी को तोड़ा था —‘‘मामला बीएड सेक्शन का है, अपनी फ़ैकल्टी का नहींं, अपने डिपार्टमेण्ट का नहीं और न ही अपने क्लास का है...और फिर रातों में हॉस्टल में क्या होता रहता है, इसका हमने ठेका ले रखा है?’’

‘‘ठेका! सुजाता की जगह तुम्हारी बीवी होती, बहन होती या नीलिमा ही होती तो क्या तुम अपने को तसल्ली देकर चुप रह जाते? क्या तुम चिल्लाकर नहीं कहते, यह अन्याय है! यह जुल्म है! इन हॉस्टलों को करथन का अड्डा क्यों बना दिया है?’’ उसकी आवेशमयी आँखें लाल हो गई थीं।

‘‘तुम अभी आवेश में हो। लेकिन ठण्डे दिमाग से सोचो, यह एक्टीविटी साइंस के स्टूडेण्ट के लिए ठीक है? हमारे फ्यूचर...’’

‘‘हमारे फ़्यूचर हमारे हाथों में हैं, किसी की गिरफ़्त में नहीं।’’ — अपनी ज्वालामुखी आवाज़ से बीच में ही उसने मुझे टोका था —‘‘क्या हम निहित स्वार्थों की वजह से इस कॉलेज की भ्रष्ट व्यवस्था पर चोट नहीं कर सकते? इसके विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकते?’’

मेरे कन्धे पर उसने अपने हाथ रख दिए थे। मेरे मन में बसी स्वार्थ की परतें कहीं दूर किसी नए उजाले में गुम होने लगी थीं। मैंने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए थे — ‘‘क्या आर्ट फैकल्टी हमारा साथ दे रही है?’’

‘‘नहीं...उसे श्रीदेवी की फ़िल्मों से फुरसत कहाँ है!’’

‘‘और ज्योग्राफ़ी?’’

‘‘उसके दिमाग खुलने में अभी बहुत वक़्त बाक़ी है।’’ — उसके सरल चेहरे पर मुस्कराहट थिरकी थी — ‘‘हमारे साथ यूनियन है और पूरी साइंस फ़ैकल्टी। जिन्हें ख़ामोश रखा जाता है, वही आवाज़ उठाते हैं!’’

मैं, वह और दिवाकर स्टूडेण्ट्स की भीड़ के साथ प्रिंसिपल साहब के कमरे तक गए थे। मेरी टाँगे काँप रही थीं, पर मेरे भीतर एक आवाज घुमड़ रही थी जो मुझे आगे खड़ा किए थी।

‘‘सुजाता का केस तो पुलिस के हाथों में है। प्रोफ़ेसर वर्मा के घर पर माइक्रोस्कोप पकड़े जाने की घटना तथा इसी प्रकार की अन्य घटनाओं और शिकायतों के लिए हाईकोर्ट का एक जज न्यायिक जाँच के लिए आ रहा है। इसके अलावा जो और बातें हैं, उन्हें मैं ख़ुद ही निपटा दूँगा।’’ — प्रिंसिपल साहब ने मेमोरण्डम पेपर को अपने हाथों में हिलाते हुए पूरा था — ‘‘लेकिन इस दंगे की ज़रूरत क्या थी?’’

‘‘सर, हमारा दंगा उद्देश्य दंगा करना नहीं है। हमें अपनी बात कहनी है, इसलिए हम अपने कुछ साथियों सहित आए हैं।’’ — दिवाकर ने निर्भीकता से स्पष्टीकरण दिया था।

कॉलेज मैनेजमेण्ट और डीएम ने मिलकर अनिश्चितकाल के लिए कॉलेज बन्द करने तथा चौबीस घण्टे में हॉस्टल खाली करने का ऑर्डर निकाल दिया था। कॉलेज तथा हॉस्टल में पुलिस तथा पीएसी तैनात कर दी गई थी। उन लोगों ने वही घिसी-पिटी चाल दोहराई थी, जिससे स्टूडेण्ट्स की स्ट्रेन्थ न हो सके और मामला ठण्डा पड़ जाए।

हम लोगों ने चाल कामयाब न होने दी। डीएम और एसपी को बाध्य किया था कॉलेज खोलने के लिए। उन्हें एक आवेदन-पत्र दिया था, जिसमें लिखा था कि कॉलेज बन्द करना तथा हॉस्टल खाली कराना स्टूडेण्ट्स के साथ नाइंसाफी है। आन्ध्र प्रदेश व मद्रास के लड़के कैसे घर वापस जाएँगे? महीने का आख़िर हैं। जेबें ख़ाली हैं। मनीऑर्डर आने में अभी बहुत दिन बाक़ी है, इसलिए कॉलेज की पढ़ाई को सुचारु रूप से चलने दिया जाए। पुलिस व पीएसी हटा ली जाए। हमारे मेमोरण्डम पर सख़्त-से-सख़्त कार्यवाही की जाए।

डीएम ने हम लोगों की बात मान ली थी। कॉलेज में पढ़ाई चलने लगी थी। पर कल अचानक कॉलेज मैनेजमेण्ट ने जो चाल चली वह कमीनेपन की हद से उतरकर थी।

कुछ गुण्डों और स्टूडेण्ट्स को लेकर उन्होंने गैस टैंक जलाने का नाटक रच लिया था। पुलिस और पीएसी को बुलाकर स्टूडेण्ट्स की पिटाई शुरू कर दी थी। कुछ प्रोफ़ेसरों ने पुलिस और पीएसी वालों को रोका था — ‘‘भाई, हमारे स्टूडेण्ट्स बाकायदा क्लास में पढ़ रहे हैं। कुछ अराजक तत्त्वों ने आगजनी की कोशिश की है, आप उन्हें पकड़िए।’’

इस पर पीएसी के हेकड़ जवानों ने उन्हें एक तरफ धक्का दिया था — ‘‘इस कॉलेज में कुछ समय से स्ट्रडेण्ट्स गुण्डागर्दी कर रहे हैं। अब उन्हें बाकायदा हम पढ़ना सिखाएँगे।’’

पुलिस के डर से स्टूडेण्ट्स कमरों में बन्द हो गए थे, लेकिन उन लोगों ने खिड़की के जंगलों के बीच से अश्रुगैस के गोले अन्दर पहुँचाए थे। अश्रुगैस के धुएँ से घबड़ाकर स्टूडेण्ट्स बाहर निकलते तो पुलिसवाले गेट पर ही उन पर लाठियां बरसाना शुरू कर देते थे। स्टूडेण्ट्स की एक भीड़ कॉलेज कंस्ट्रक्शन के लिए आई ईंटों से पुलिस से मुठभेड़ करने लगी थी। स्टूडेण्ट्स की इस जोशीली भीड़ पर पुलिस का काबू पाना मुश्किल हो रहा था। अश्रुगैस और दहशत के कारण लड़कियाँ बेहोश हो गई थीं। कहीं उनकी चप्पलें, कहीं दुपट्टे तो कहीं उनकी फ़ाइलें पड़ी थीं। अजीब दर्दनाक दृश्य उभर आया था। मुझे नहीं मालूम उस समय विमल मेहता सेकिण्ड और दिवाकर कहाँ थे? मुझे लाइब्रेरी के बरामदे पर चार पुलिस वाले दबोचे हुए थे।

एक इंस्पेक्टर के इशारे पर पुलिसवाले मुझे जीप की ओर ले जाने लगे थे। आनाकानी करने पर उन्होंने मुझे घसीटना शुरू कर दिया था। घसीटकर उन्होंने मुझे जीप में डाल दिया, जहां पहले से कुछ लड़के मौजूद थे।

जीप सीधी कोतवाली पर जाकर रुकी थी। हम सभी की बुक्स और फाइल्स को छीन-छीनकर एक ओर फेंक दिया गया था। एक बरामदे में ले जाकर हम लोगों के ऊपर कम्बल डालकर लाठियाँ बरसाई जाने लगी थीं।

‘‘आख़िर हमारा कसूर क्या है ’’— मैंने चीख़कर कहा था।

‘‘कसूर!’’ — पुलिस इंस्पेक्टर ने अपनी कमीज़ पर जड़े स्टारों को देखते हुए बड़े अहं से कहा था — ‘‘कानून और व्यवस्था के ख़ुद ठेकेदार बनना चाहते हैं। कॉलेज को अपने बाप की जागीर समझते हैं। जब जी में आया हड़ताल करा दी, लड़कियों को छेड़ दिया, प्रिंसिपल का घेराव कर दिया, लेक्चरर-प्रोफेसर पर उल्टे-सीधे आरोप लगा दिए और आगजनी कर दी...’’

पुलिस इंस्पेक्टर ज़ोर-ज़ोर से माँ-बहन की गालियाँ बकता हुआ चला गया था। हम सभी को एक कोठरी में बन्द कर दिया गया था। पानी माँगने पर पुलिसवाले भद्दी-भद्दी गालियाँ दे जाते थे। दिन-भर हम सभी उस कोठरी में भूख और प्यास का सामना करते रहे थे। कुछ रात होने पर इंस्पेक्टर हम लोगों के पास आया था।

‘‘हमें यहाँ क्यों बन्द किया गया है?’’ मेरी आँखों में अंगारे तैरने लगे थे। अब इंस्पेक्टर ने चेहरे को तमतमाया नहीं, बल्कि सिगरेट के धुएँ के बीच चेहरे को गम्भीर-सा बना लिया था।

‘‘तुम्हारा नाम विमल मेहता फर्स्ट है?’’ — इंस्पेक्टर ने मुझसे पूछा था।

‘‘हाँ!’’ — मेरे मन में अजीब-सी दहशत भर गई थी।

मुझे कोठरी से निकालकर एक कमरे में ले जाया गया था। इंस्पेक्टर ने मुझे एक कुर्सी पर बैठने का इशारा किया था —‘‘तुम्हारे साथ विमल मेहता सेकिण्ड पढ़ता था?’’

‘‘हाँ! हाँ!’’ — मेरे मन में उत्सुकता थी— ‘‘वह कहाँ है? कैसा है?’’

‘‘ही इज क्रेजी एण्ड कन्फ्यूज्ड!’’

‘‘नो! नो!!एएब्सल्यूटली राँग।’’ — इंस्पेक्टर के शब्दों पर मैं चीख़ पड़ा।

‘‘आपने प्रोफ़ेसर मित्रा से उसके खिलाफ शिकायत की थी?’’

मैंने महसूस कर लिया था कि यह सब मेरे शुभ-चिन्तकों की एक चाल है, मुझे छुड़ाने के लिए। मैंने मेज़ पर हाथ पटकते हुए कहा था — ‘‘इंस्पेक्टर साहब, वह कालेज का सबसे इण्टेलीजेण्ट लड़का है।’’

इंस्पेक्टर ने सिगरेट के धुएँ को उड़ाते हुए कहा था — ‘‘सुबह लड़कों की भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस को गोली भी चलानी पड़ी थी। उस मुठभेड़ में वह लड़का मारा गया।’’

एक-एक शब्द पिघले सीसे की तरह कान में उतर गया था। आँखों के सामने धुन्ध-सा छाने लगा। मन अजीब-सी तड़फड़ाहट से भर गया। मैंने काँपती आवाज़ में पूछा था — ‘‘क्या मैं जा सकता हूँ?’’

‘‘हाँ!’’ — इंस्पेक्टर ने मुझे सशंकित नज़रों से घूरा था — ‘‘डीएम के स्पेशल ऑर्डर पर आपको इसी शर्त पर छोड़ा गया है कि अब आप किसी भी ग़ैरकानूनी एक्टीविटी में भाग नहीं लेंगे।’’

मेरा शर्तनामा किसने भरा होगा? दिवाकर कहां होगा? मन में अजीब-अजीब से सवालों को लेकर मैं लड़खड़ाते क़दमों से सीधे हॉस्टल आया था।

‘‘विमल मेहता सेकिण्ड की मृत्यु कैसे हुई?’’ — अपने रूम-पार्टनर से मेरा पहला सवाल था।

अचानक वह मुझे देखकर चौंक गया था — ‘‘मृत्यु कैसे हुई! अरे यार, उसका तो समझो मर्डर हुआ है!’’

‘‘मर्डर!‘‘

‘‘उसे सुजाता-काण्ड और कॉलेज की बहुत-सी लूपहोल्स की ख़बर हो गई थी।’’ — पार्टनर के चेहरे पर मायूसी उतर आई थी — ‘‘अभी तो आ रहा हूँ! करीब दो बजे के बाद तो पोस्टमार्टम हुआ था। उसकी डेड बॉडी को खुली मोटर में ले जाया गया था। फूल-मालाओं से उसका पूरा बदन ढक गया था। लोग उसका नाम ले-लेकर ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे थे। बहुत सारे प्रोफ़ेसर भी थे हमारे साथ। प्रोफ़ेसर चन्द्रा तो फूट-फूटकर रो रहे थे। उसकी माँ का रोना तो किसी से देखा नहीं जा रहा था...’’ — पार्टनर का गला भर गया था।

माँ की रोटी तो उसकी स्कॉलरशिप से ही चलती थी! मैंने पार्टनर से पूछा था — ‘‘माँ कहाँ है?’’

‘‘नीलिमा को मालूम होगा।’’

‘‘कैसे?’’ — मैंने आश्चर्य से पूछा था।

‘‘मोटर पर उसके शव के पास माँ के अलावा बहुत सारी लड़कियाँ थीं। उन लड़कियों में मैं सिर्फ़ नीलिमा को ही पहचानता हूँ।’’

पार्टनर ने मुस्कराते हुए कहा था — ‘‘यार, तुम्हें बाहर लाने का श्रेय भी नीलिमा को ही है।‘‘

मेरी नज़र उसके तैयार सूटकेस पर गई तो मैंने पूछा था — ‘‘और तुम कहाँ जा रहे हो?’’

‘‘घर!’’

‘‘क्यों?’’

‘‘डीएम के ऑर्डर से सभी कॉलेज व स्कूल दस दिन के लिए बन्द कर दिए गए हैं।’’

पार्टनर ने अपना सूटकेस हाथ में उठाते हुए कहा था —‘‘अच्छा मैं चलूँ।’’ — फ़ॉरमैलिटी पूरी करने के लिए मैं पार्टनर के साथ बाहर तक चला आया था।

‘‘यार, तुम अपना मूड फ़्रेश करने के लिए इलाहाबाद चले जाओ।’’ — पार्टनर ने मेरे कन्धे पर हाथ रख दिया था। गेट पर हम दोनों ने एक साथ हवा में हाथ हिला दिए थे।

वह रिक्शे की ओर बढ़ गया था।

‘‘विमल! विमल!!’’ — दरवाजे पर आवाज़ हुई।

दरवाज़ा खोलते ही मैं चौंक उठा।

‘‘तुम!’’

‘‘हाँ, सोचा आपका मूड ऑफ़ होगा। मैं ही कोतवाली के हालचाल पूछ लूँ चलकर।’’ — नीलिमा के चेहरे पर व्यंग्य-भरी मुस्कान थी — ‘‘कहिए, कितने डण्डे पड़े और कितनी गालियाँ मिलीं?’’

मैंने उल्टे-सीधे पड़े बिस्तरों को ठीक करके बैठने के लिए जगह बनाई। नीलिमा बैठ गई।

वातावरण में ख़ामोशी छा गई।

‘‘रीगल में तुम्हारे फेवरेट हीरो की फ़िल्म शेक्सपियर वाला आ गई है।’’ — नीलिमा ने वातावरण की ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा — ‘‘चलोगे नहीं?’’

‘‘तुम्हें विमल मेहता सेकिण्ड की माँ का पता मालूम है?’’

‘‘मेरे घर पर।’’

‘‘और दिवाकर?’’

‘‘कल दोपहर तक मेरे साथ था। उसके बाद पुलिस ने अरेस्ट कर लिया।’ ‘‘ क्यों?’’

नीलिमा ने अपना पर्स खोलते हुए कहा — ‘‘आज के न्यूज-पेपर में महात्मा गाँधी पोस्ट-ग्रेजुएट कॉलेज की दो न्यूज मुख्य पृष्ठ पर हैं। पहली — कॉलेज के मेधावी छात्र विमल मेहता सेकिण्ड की पुलिस-छात्र संघर्ष में दुःखद मृत्यु और दूसरी, कॉलेज यूनियन का प्रेसीडेण्ट गिरफ़्तार, यूनियन-फ़ण्ड में हज़ारों का घपला!’’

‘‘मतलब दिवाकर को फँसा दिया है!’’

‘‘हाँ! उसी की सलाह पर मैंने तुम्हें कोतवाली से वापस बुलवाने के लिए सिफ़ारिश लगवाई।’’— नीलिमा ने एक पैकेट पत्र के साथ देते हुए कहा।

मैंने पत्र खोला।

प्रिय विमल, झूठे आरोपों में मुझे फाँस दिया गया है, मैं तुम्हें वह काग़ज़ात सौंप रहा हूँ जो कॉलेज के तमाम काले कारनामों को नंगा कर देंगे। मैंने ये काग़ज़ात तुम तक पहुँचाने का काम नीलिमा को दिया है। कल सुजाता-काण्ड की तारीख़ है, इस केस में अब विमल मेहता सेकिण्ड की जगह विमल मेहता फर्स्ट को कोर्ट में गवाही देने जाना होगा —दिवाकर।’

सहसा मेरे निढाल मन में एक उत्साह दौड़ गया। मुझे लगा, विमल मेहता सेकिण्ड तो मेरे पास ही खड़ा है...उसकी मौत की ख़बर सिर्फ़ एक झूठ है!