विमल सतसई: कालजयी, सार्वभौम कृति / राहुल शिवाय

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जैसा कि मुक्ति बोध ने कहा है कि जीवन बोध ही साहित्य बोध है। अध्ययन, मनन, चिंतन और अभ्यास के बाद जो बात कवि को कवि बनाती है, उसे भवानी प्रसाद मिश्र इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-‘कविता मुझको लिखती है।’ स्पष्ट है कि कवि का सृजन उनके व्यक्तित्व का अविभाज्य हिस्सा होता है। यही कारण है कि ‘विमल सतसई’ के दोहों में युग का संत्रास, आजादी से मोहभंग की स्थितियों, भूख, गरीबी, अपराध, सौंदर्य, नैतिकता, संस्कृति-संस्कार का जिसे कवि ने जीया है, महसूस किया है, उन सभी का बड़ा हृदयस्पर्शी चित्रण हुआ है। लगता है कवि को रचना ढूँढ़ती चली आई है।

साहित्य को सायास नहीं रचा जा सकता। यह निश्चय ही कठिन प्रक्रिया है। कभी-कभी उपर से भी होता है, जब कवि के कलम की नोंक से रचनायें उतरती हैं। विमल सतसई के दोहे इस बात का प्रमाण हैं। जिस प्रतिबद्धता ने विमल के कवि को रचा है, वह हमेशा सत्य की जीत के लिए व्याकुल है। घांटा-सत्तू खाकर किसी तरह जीवन वसर करने वाले लोगों से लेकर तिनका-तिनका जुटाकर मध्यवर्गीय हो जाने वाले लोग हों या पतन की गर्त से लेकर नैतिकता की उँचाइयों तक पहुँचे लोग हों, ये सभी के सभी कवि विमल के दोहों की परीधि में हैं। यहाँ कुछ भी ऐसा शायद ही शेष बचा हो जिनका गंभीरता से स्पर्श न किया गया हो। इकतालीस शीर्षकों में आबद्ध दोहों में कवि की संवेदना जहाँ प्रेम, शृंगार, प्रकृति, विरह और अपने कवि मित्रों के साथ सभी कालजयी प्रख्यात कवियों के लिये व्यक्त हुई है, वहीं युगों-युगों के खामोश होठों को खोलने के लिए, रूढ़िवाद को तोड़ने के लिए और अपने हक, अधिकार पाने के लिए एवं स्वयं अपनी विवशता पर भी बोल उठी है। परिवर्तनकामी कवि अनिरुद्ध प्रसाद विमल के दोहे किसी परिणाम की परवाह न करते हुए अपना तेवर प्रस्तुत करती हैं। सच्चाई के पक्ष में सामाजिक व्यवस्था के सारे पहलुओं का निरीक्षण, परीक्षण करके परिवर्तन को सक्रिय एवं तेज बनाना चाहती हैं। यहाँ इनके दोहे इनके अन्तर्मन का प्रतिबिंब बनकर उभरे हैं। लगता है वह इनके अस्तित्व की ही आवाज है।

कवियों के लिखने का सत्तासीनों पर रत्ती भर भी असर नहीं होने के कारण बेचैन कवि का यह दोहा उनके आहत मन की ही अभिव्यक्ति है-‘‘

लिख-लिख कर हम मर गये, मनपांखी बेचैन।
समय कहो, हम क्या करें, कब आयेगा चैन।।’’

बहुत विवश हो कर रहा, समय आज आह्वान।
चाहत में जो भी रुचे, दो थोड़ा वरदान।।’’

ठीक ही तो, इस व्यवस्था के विरूद्ध मोटी चमड़ी वाले राजनीतिज्ञों को कवि/साहित्यकारों ने कितनी खरी-खोटी सुनाई है, क्या-क्या नहीं कह दिया है। सभ्य भाषा में गालियाँ तक दी है, अपशब्द कहे हैं। महाकवि निराला ने अबे, सुन बे गुलाब कह कर तो आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री ने तो अपने ‘मेघगीत’ कविता में ‘रक्त’ मरण मुख से देता है, जन के जीवन को आशा। जनता धरती पर बैठी है, नभ में मंच खड़ा है, जो जितना है दूर मही से उतना वही बड़ा है’ तक कहा, लेकिन ये बेशर्म सुधरने वाले नहीं हैं। कुपथ-कुपथ रथ दौड़ाने वाले हमारे देश की अवाम का पथ निर्देशक बने हुए हैं। ये दोगले चरित्र वाले जो हमारे देश का शोषण-दोहन कर रहे हैं, ऐसे व्यवस्था विरोधी दोहों से विमल सतसई भरा पड़ा है-

‘‘राणा-ताना रह गया, केवल एक प्रमाण।
भाषण पर ही देश को, चला रहे पाषाण।।

नजर कहीं आती नहीं, सच में कोई वैद।
पत्थर के इस देश में, चाँद चाँदनी कैद।।

चाहे जो सरकार हो, खड़ी झूठ बुनियाद।
जनता के अरमान का, बूँद-बूँद बर्बाद।।

सच ही तो 69 साल बाद भी स्वतंत्र भारत में जिन्हें पाँव रखने को एक इंच जमीन न नसीब हुई और न भूख के लिए रोटी। शिक्षा सुरक्षा और स्वास्थ की बात तो शायद ही किसी सरकारी कागज में लिखा मिले। केवल झूठे वादों के सिवा इस देश की जनता को और कुछ भी तो नहीं मिला है। कवि अनिरुद्ध प्रसाद विमल इन सभी के सभी दुखों, प्रताड़नाओं से आहत हैं। ऐसे दोहों की भी कमी नहीं है इस संग्रह में। प्रमाण के लिये द्रष्टव्य हैं कुछ दोहे-

हलकू, झुनियाँ लड़ रहे, ठंड पूस की रात।
कम्बल बिन अब तक रही, है यह दुख की बात।।

समय साथ मेरे नहीं, सच मैं हूँ मजबूर।
कल भी मैं मजदूर था, आज तलक मजदूर।।

समय देखकर हँस दिया, ऐसा हुआ विकास।
जनता धरती पर रही, नेता है आकाश।।

इसके साथ ही शीर्षकों में आबद्ध दोहों में कवि विमल की दृष्टि जिधर भी पड़ी है, वे तीव्र भावानुभूति के मोती जड़े हुए से दृष्टिगोचर होते हैं। निश्चय ही इनके अभिव्यक्त भावों का पाठक पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। समय शीर्षक के अन्तर्गत 243 दोहों में शायद ही आज के वर्तमान की कोई भी सामाजिक, राष्ट्रीय सरोकारों की समस्याएँ हों जिनका चित्रण कवि की लेखनी से न हुआ हो। देश, कृषक, कवि, किताब, हिन्दी, वृक्ष, तरुण, पर्यावरण, प्रकृति, माँ, साहित्य, नीति, प्रेम, शृंगार, विरह जैसे शीर्षकों में आबद्ध दोहों में भी कवि विमल के हृदय का भावुक उदगार एक परिपक्व जीवन दृष्टि के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इनमें अनुभूति की तीव्रता और दृष्टि की व्यापकता है।

‘साँवरी’ कवि विमल का प्रगीत प्रबंध काव्य है। प्रेम और विरह का अनूठा काव्य-कौशल इस काव्य में प्रदर्शित हुआ है। प्रेम कवि को आरंभ से ही शक्ति देता रहा है। इसमें रुप का आकर्षण भी है और मन की विह्वलता भी, प्रतीक्षा की पीड़ा के साथ स्मृतियों का दर्द भी। इनके दोहों में प्रेम की यह दीप्ति मन को मोह लेता है। प्रेम देता ही देता है। कुछ दोहे द्रष्टव्य हैं-

समय साँवरी प्रेम का, मिला मुझे उपहार।
वही प्रेम गुण-शील है, कविता का संसार।।

आज प्रेम का अर्थ हो, सिर्फ-सिर्फ सम्मान।
संग प्रिया गुलजार हो, होगा नया विहान।।

विमल जी की राष्ट्रीय चेतना भी अत्यन्त प्रखर है। देशकाल से निरन्तर संवाद इनकी कविताओं को लोकजीवन से जोड़ते हैं। ‘देश’ शीर्षक के दोहे इनकी राष्ट्रीय भावनाओं की प्रखरता का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-

जो भारत की जान से, सचमुच करता प्यार।
युग चेता होगा वही, जागो फिर एक बार।।

तरुण देश हित में जियोे, जीवन चंचल धार।
नया रचो इतिहास अब, बनो-बनो अंगार।।

कश्मीर की वर्तमान समस्या पर मीडिया-जितना चीखे-चिल्लाये लेकिन देश के शीर्ष नेतृत्व के साथ कवियों की भूमिका भी चुप्पी साधे बैठे हैं। ऐसे में कवि विमल कश्मीर समस्या को जिस ओजभरी वाणी में उठाते हैं, वह निसंदेह कवि की राष्ट्रीय चेतना को प्रमुखता से दर्शाते हैं-

मनभावन सब झील हैं, सुन्दर-सुन्दर बाग।
लाल-लाल सेबों भरा, है कश्मीरी पाग।।

सारे जग में स्वर्ग-सा, अपना यह कश्मीर।
सना खून से चींखता, विपद बड़ा गंभीर।।

बुझने मत देना कभी, सपनों की कंदील।
झपटो साथी देश के, बन दुश्मन पर चील।।

यह जीवन मूल्यों के प्रति सचेतन भाव अनिरुद्ध प्रसाद विमल के कवि कर्म की उपलब्धि है। इतना ही नहीं हिन्दी भाषा को भारत की आम जनता की भाषा बताते हुए कवि पूरी मजबूती के साथ उसके पक्ष में खड़ा दिखाई देते हैं-

राष्ट्र एकता के लिये, कर हिन्दी से प्यार।
जग भर करना है हमें, हिन्दी का विस्तार।।

हिन्दी हित जीयें मरें, हिन्दी हित कुरबान।
गगन-मगन होकर करें, हिन्दी का सम्मान।।

इसी प्रकार ‘विमल सतसई’ के दोहे मृृग-नाभि में स्थित कस्तुरी गंध की तरह प्रमत्त कर देने वाली हैं। इन दोहों में अपनी भारतीय संस्कृति का सांस्कृतिक संस्कार हमें मानवहित की ओर सदैव अग्रसर होने की प्रेरणा देते हैं। इन दोहों में पीड़ा और आक्रोश का स्वर है। ये सच्चाई के पथ पर बिना किसी भ्रम और बाधा के अनवरत चलते रहले का संदेश देते हैं। इनके दोहे आदमी को आदमी होने का एहसास कराती हैं, जीवित होने का बोध एवं इससे भी आगे निराश, हतास, लोगों के मन में चेतना प्रज्वलित करने का महती कार्य करती है।

‘समय’ और राग-विराग शीर्षक से आबद्ध 292 दोहे ऐसे हैं जिसमें इक्कीसवीं सदी में भी भारतीय जनमानस के हिस्से में आए अंधेरे का मर्मभेदी चित्रण है। कोढ़ में खाज की तरह पल-बढ़ रहे नव अधिनायकवादी तत्वों के खिलाफ विरोध का प्रखर स्वर है, उसकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति है। समानता, स्वतंत्रता आदि मूल्यों का जाप करने वाली व्यवस्था के मुँह पर करारे तमाचे हैं। दलित उत्पीड़न, पर्यावरण प्रदूषण, साम्प्रदायिक विद्वेष, भ्रष्टाचार, निरंकुश जनप्रतिनिधियों का नव धनाढ्य वर्ग में परिवर्तित होना एवं साथ ही व्यवस्था की क्रूरता आज के हमारे समय का जरूरी सरोकार हैं । मनुष्यता का निरंतर ह्रास हो रहा है। जीवन मूल्य घटते जा रहे हैं। इन सभी विडम्बनाओं का अपने दोहों में कवि विमल ने गंभीर चिन्ता के साथ रेखांकित किया है। इसके अतिरिक्त कवि विमल ने श्रृंगार, विरह, प्रेम, प्रकृति का भी पूरी तन्मयता के साथ चित्रण किया है। ये दोहे, इनकी अनुभूतियाँ, नितान्त, वैयक्तिक होकर भी समाज और संस्कृति के मिट्टी गंध से जुड़े हैं। उनके दोहों की सबसे बड़ी विशेषता सहज संप्रेषणीयता है। भाषा, भाव और कल्पना की त्रिवेणी लहराती है इन दोहों में। इनके दोहों में दिनकर का ओज है तो कबीर का फकीराना अक्खड़ अंदाज भी। शीर्षकों में आबद्ध एवं अपने विषय बैविध्यता को लेकर ‘विमल सतसई’ निसंदेह एक कालजयी, सार्वभौम कृति है।