विमुक्त जातियों का क्या करें! / प्रताप सहगल

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किसी को भी अचानक यह पता चले कि भारत की पचपन साल की आज़ादी के बाद भी यहाँ दस करोड़ से भी ज़्यादा ऐसे लोग हैं, जिन्हें अभी संवैधानिक अधिकार भी प्राप्त नहीं हुए तो कैसा लगेगा? भारत! जहाँ अभी भी बावन करोड़ लोग निरक्षर है। यह संख्या पूरे विश्व में निरक्षरों की संख्या से ज़्यादा है। भारत! जहाँ तीस करोड़ से अधिक लोग ग़रीबी की रेखा से नीचे रहते हैं। अभी भी। पचपन साल की आज़ादी के बाद। भारत जहाँ संवैधानिक गारंटी के बाद अभी भी महिलाओं, दलितों, बच्चों एवं वृद्धों के साथ अमानवीय व्यवहार होते हैं! और ऐसे भारत में राजनेताओं की प्राथमिकताएँ क्या है! लेखकों, कलाकारों की चिंताएँ क्या हैं! इन सवालों पर ज़रूर बात करनी चाहिए।

हाल ही में दिल्ली में विमुक्त जातियों का पचासवाँ सम्मेलन हुआ। देश की राजधानी में इतने बड़े स्तर पर यह पहला आयोजन था। इसकी सूत्रधार रमणिका गुप्ता थीं। अजित कौर का सहयोग था और सम्मेलन में कई राजनेता, लेखक एवं बुद्धिजीवियों ने भी शिरकत की। महाश्वेता देवी अध्यक्षता कर रही थीं। वहाँ जो कुछ भी तीखे सवाल उठे, वे स्वयं में इन घुमंतू जातियों का पक्ष था, जो सत्ता के प्रतिपक्ष के रूप में भी देखा जा सकता है। उनके पक्ष का भी एक प्रतिपक्ष बनता है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए। विचार इस बात पर भी किया जाना चाहिए कि साहित्य या दूसरी कलाओं में इन वंचितों की पीर क्यों नहीं सुनाई दी? अब जब उन्हीं के माध्यम से वह पीर सुनाई देने लगी है तो उसका स्वरूप क्या है? उसके ख़तरे क्या हैं?

यह सत्य है कि संघर्ष के दौर में इन जातियों को पीछे धकेला गया। वे आदिवासी हैं, जिसका सीधा अर्थ यही है कि इस देश के वे 'आदि' बाशिंदे हैं और उन्हीं को नागरिक अधिकारों से वंचित करके समाज से बाहर फेंक दिया गया। वे जंगलों और पहाड़ों में जा छिपे। फिर ब्रिटिश सत्ता ने उन पर और पाबंदियाँ लगाईं और एक तरह से उनके कांसट्रेंशन कैंप बना दिये। ऐसे में उन्होंने अपने समाज बनाए। अपनी परंपराएँ विकसित कीं। अपनी जातियाँ बनाईं या उनकी कुछ जातियाँ भी बना दी गईं। विकास के नाम पर उनसे उनके जंगल छीने गए, उनका पानी छीना गया और उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए विवश किया गया। वे घुमंतू कहलाए। आज़ादी के बाद नेहरू के हस्तक्षेप से उन्हें मुक्त तो किया गया, लेकिन उन्हें सभी संवैधानिक अधिकार अभी तक भी प्राप्त नहीं हुए हैं। इसके लिए वे संघर्षशील हैं और इस संघर्ष में लेखकों / बुद्धिजीवियों का साथ उन्हें मिलना ही चाहिए। मिल भी रहा है, लेकिन कितना? इसमें हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा तो राम मंदिर में ही फंसा है। सांप्रदायिकता निकृष्ट ही होती है, पर आज हम सांप्रदायिकता के निकृष्टतम चेहरे को देख रहे हैं। मनुष्य को बचाने के बजाए उस 'राम' को बचा रहे हैं, जिसका अस्तित्व ही शंकाओं के घेरे में है। यह सचमुच एक दारुण समय है, जिसमें मनुष्यता दम तोड़ रही है।

ऐसे समय में विमुक्त जातियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार इसे और भी दारुण बना देते हैं। इन जातियों का समाज पर आरोप है कि इनसे इनकी संपत्ति, जिसमें जंगल, पानी शामिल है, छीन ली गई। इनका आरोप है कि सत्ता प्रतिष्ठान एवं व्यवस्था के पुर्ज़े यथा पुलिस आदि इनके साथ, खासतौर पर महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करती है। आरोप है कि इनकी परंपराओं को नष्ट कर दिया गया है, शेष जो बची हैं, उन्हें भी नष्ट किया जा रहा है। आरोप है कि इन्हें संवैधानिक समाज में प्रवेश नहीं दिया जा रहा है। आरोप है कि इन्हीं की संपत्ति का दोहन करके इनका ही शोषण किया जा रहा है। आरोप है कि तथाकथित आभिजात्य समाज, साहित्य एवं कलाओं में इनकी आवाज़ को नहीं सुना जा रहा। आरोप है कि ... आरोपों की यह फेहरिस्त और भी लंबी हो सकती है। यह उनका पक्ष है। जो सत्ता के लिए प्रतिपक्ष है। लेकिन हम उनके पक्ष का एक दूसरा प्रतिपक्ष भी खड़ा कर सकते हैं। उनके तर्कों में निहित जो कुछ ख़तरे हैं, उनकी ओर संकेत करना भी ज़रूरी है।

कहा गया कि उनकी साँसी, पारदी आदि जातियों में चोरी करना अपराध नहीं, बल्कि यह उनकी परंपरा है। चोरी करने के बावजूद वे इतने ईमानदार हैं कि चोरी का सामान ठीक तरीके से बाँट कर खाते हैं और अगर आसपास कोई बीमार हो तो पहले उसे देते हैं। यह तो मालूम नहीं यह प्रथा कब शुरू हुई होगी, लेकिन हुई होगी किसी ज़रूरत के दबाव में या फिर सभ्य समाज से बदला लेने के लिए। यह जातियाँ सिर्फ़ चोरी ही नहीं करतीं, जहाँ चोरी करने जाती हैं, उस घर के लोगों की हत्या भी कर देती हैं। आज जब हम संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई की बात करते हैं और उचित ही करते हैं तो इस तरह की परंपरा को आज भी औचित्यपूर्ण ठहराना या उसे बनाए रखना सही है क्या? ऐतिहासिक एवं सामाजिक कारणों से ऐसी दूसरी कई प्रथाएँ भी होंगी, जिन्हें उसी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। जिस तरह से कोई जन्मना ब्राह्मण उन सभी अधिकारों की बात करें, जिसे कोई व्यक्ति पढ़-लिख और स्थितियों को समझ-बूझ कर ही हासिल कर सकता है। प्रथा एवं कुप्रथा, परंपरा एवं रूढ़ि में भेद करना ज़रूरी है। हर समाज में ज़रूरी है। इसलिए इस तरह की परंपराओं को महिमामंडित करने के बजाए इन्हें छोड़ने की बात की जानी चाहिए। इसे भले ही सुधारवादी नज़रिया माना जाए, लेकिन विमुक्त जातियों को अपना संघर्ष तेज़ करने और उनका जनाधार बढ़ाने के लिए यह करना ही होगा। एक ओर हम सामाजिक परिवर्तन की बात करें और दूसरी ओर रूढ़ियों एवं कुप्रथाओं को छोड़ने के बजाए उन्हें बनाए रखने के तर्क तलाशते रहें, तो यह बात चल नहीं सकती। यह विरोधाभासी नज़रिया हमें दो क़दम आगे, दो क़दम पीछे की प्रक्रिया में वहीं का वहीं खड़ा रखेगा।

सवाल और भी हैं। दलित हों, या फिर अनुसूचित जाति के लोग, आदिवासी हों या अनुसूचित जनजाति के लोग। घुमंतू हों या टिके हुए, पिछड़े हों या अति पिछड़े अंत्यज हों या कुछ और। क्या कारण है कि इन तमाम लोगों के पास एक ऐसा मंच नहीं है, जहाँ से समवेत रूप से विरोध एवं परिवर्तन का स्‍वर उठाया जा सकें। एक सम्मेलन में एक वक्ता ने बोलते हुए कहा था कि हमारा दिमाग़ इतना बंद हो चुका है कि हम जाति के दायरे से बाहर निकलकर सोच ही नहीं पाते। आदिवासियों को जनजाति कहकर ही संतोष पाते हैं। जातियों में भी उपजाति ढूँढ़ते हैं, गोत्र ढूँढते हैं और तालमेल बिठाते हैं। यह सब क्या है? महाश्वेता देवी ने इसी राष्ट्रीय सम्मेलन में आह्वान किया था विमुक्त जातियों का कि आप लोग दलितों से अलग नहीं हो। उनका शोषण हुआ है, आपका भी हुआ है। कारण, स्थितियाँ भले ही अलग-अलग हों, लेकिन इस शोषण के पीछे मानसिकता तो एक ही है। इसलिए एकजुट संघर्ष ज़रूरी है। यहीं पर यह बात भी जोड़ी जा सकती है कि तथाकथित अगड़ी जातियों का एक बड़ा वर्ग भी इनके संघर्ष के साथ खड़ा है, इसलिए एक सिरे से सभी को गरियाना भी क्या ठीक है? सदियों से दबे इन लोगों का ताप समझ में आता है, लेकिन उन्हें भी प्रबुद्ध लोगों के सहयोग को समझना चाहिए। फिर तमाशा अनुसूचित जातियों / जनजातियों का भी देखिए! ब्राह्मणत्व वहाँ भी पैदा हो चुका है, उसका क्या करें। आरक्षण का लाभ जिन लोगों को दूसरी तीसरी पीढ़ी तक प्राप्त हो चुका है और वह आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से अपनी जगह बना चुके हैं, फिर भी आरक्षण छोड़ने को तैयार नहीं। क्यों? इस प्रश्न पर भी विचार करना चाहिए। इस प्रश्न भी विचार करना चाहिए कि सामाजिक दृष्टि से भले ही जिन जातियों का उत्पीड़न न होता हो, लेकिन आर्थिक दृष्टि से अनेक लोग पीड़ित एवं शोषित हैं, उनका क्या किया जाए? इन प्रश्नों से बचकर निकलने और सिर्फ़ वोटों की राजनीति करने से काम नहीं चलेगा, बल्कि सभी ओर से एक समग्र चिंतन की ज़रूरत है।

प्रश्न यह भी है कि विमुक्त जातियों के साहित्य को कितनी जगह प्राप्त है। किसी एक जगह पर बोलते हुए डॉ॰ नामवर सिंह ने कहा था कि ये लोग साहित्य में भी आरक्षण माँगते हैं। साहित्य में आरक्षण नहीं चलता। माना कि साहित्य में आरक्षण नहीं चलता, लेकिन साहित्य में ब्राह्मणवाद या ठाकुरवाद भी नहीं चलता। चलता था। अब नहीं। बाद में नामवर जी ने भी संभवतः अपने विचार को बदला। यहाँ साहित्य में आरक्षण का सवाल नहीं है, यहाँ ज़रूरत है दलितों, आदिवासियों एवं विमुक्त जातियों के अनुभवों को समझने की। यह साहित्य पढ़ते ही एक अलग दुनिया हमारे सामने खुलती है, जिसे जानकर भारत के तथाकथित गौरवशाली इतिहास एवं संस्कृति पर शर्म आने लगती है। अमरीका में लोगों को दासता से मुक्ति मिलती है तो हम 'वाह-वाह' करते हैं, अपने यहाँ मिलने लगती है तो हम 'हाय-हाय' करते हैं। यही वे दोहरे मानदंड हैं, जिन्हें लेकर भारतीय समाज खासतौर वह समाज जीता है, जिसे हम आभिजात्य समाज कह सकते हैं। यह आभिजात्य कहीं केवल अर्थ की दृष्टि से नाप लिया जाता है, कहीं बौद्धिकता कि दृष्टि से और कहीं मात्र सुविधा कि दृष्टि से।

यह भी समझना ज़रूरी है कि मनुष्य कहीं भी हो, कैसा भी हो, मनुष्योचित कमज़ोरियाँ उसमें होंगी ही। जाति चाहे पिछड़ी हो या अगड़ी, ईर्ष्‍या से कोई भी मुक्त नहीं है, न मोह से, न मद से। इन्हें जानते हुए और मानते हुए भी हमें रास्ते निकालने हैं। आज जब भूमंडलीकरण ही सरकार के पास एक मंत्र रह गया है, तब यह काम और भी मुश्किल है। भारतीय समाज कभी इतना संपन्न नहीं हुआ कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को भी बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर दिया जाए। यह भी कहना ज़रूरी है कि आज भारत को ज़रूरत 'राम' की नहीं, काम की है-और काम के सही दाम की भी।