विराट व्यक्तित्व के धनी गिर्दा / गिरीश तिवारी गिर्दा

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विराट व्यक्तित्व के धनी गिर्दा
लेखक:कुलीन जोशी

विश्वास नहीं होता कि गिर्दा नहीं रहे। अपनी तमाम स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों और डॉक्टरों की हिदायतों को नजरंदाज कर जोशोखरोश से लबरेज कविता पाठ करते या गीत गाते गिर्दा को जिन लोगों ने भी देखा और सुना, उन सभी के लिये गिर्दा की मृत्यु की खबर पर विश्वास कर पाना बहुत मुश्किल है। गिर्दा को गिर्दा कहने वालों की जमात में हर वर्ग और उम्र के लोग शामिल थे। वे सहज और सरल व्यक्तित्व के धनी थे। किसी भी प्रकार का आडम्बर और नकलीपन उन्हें छू भी नहीं सका था। वे हरेक से बड़ी आत्मीयता से मिलते और बातचीत करते थे। दो वर्ष पूर्व पिथौरागढ़ में राष्ट्रीय स्तर का एक कवि सम्मेलन आयोजित किये जाने के संबंध में उनसे विस्तृत बातचीत हुई थी और उन्होंने अनेकों सुझाव भी दिये थे। लेकिन किन्हीं कारणों से यह आयोजन नहीं हो पाया था।

गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ सच्चे अर्थों में एक जनकवि थे। उन्होंने अनेकों कवितायें और गीत लिखे और मधुर कंठ से गाये भी। जितना सहज उनका व्यक्तित्व था उतनी ही सहज उनकी कविता या गीत भी थे। शब्द संयोजन सरल होते हुए भी उनके गीत बहुत प्रासंगिक होते थे, सार्थक और मार्मिक भी। उनकी रचनात्मकता बहुत पैनी और धारधार थी। उत्तराखण्ड में होने वाले प्रत्येक छोटे-बड़े आन्दोलनों, चाहे वह शराब विरोधी आन्दोलन हो, जल-जंगल और जमीन पर स्थानीय जनता के हक-हकूकों की बहाली संबंधी आन्दोलन हो, बड़े बांध विरोधी आन्दोलन, नदी बचाओं आन्दोलन हो या फिर निर्णायक उत्तराखण्ड राज्य स्थापना का आन्दोलन, से वे जुड़े रहे। लेकिन उनकी सबसे अधिक प्रखर भूमिका उत्तराखण्ड आन्दोलन में ही दिखाई देती है। उन्होंने समग्र उत्तराखण्ड में घूम-घूम कर जुलूसों और विरोध प्रदर्शनों में स्वयं उपस्थित होकर अपने गीतों को गाया भी। इन जनगीतों ने आम जनता को राज्य स्थापना के निर्णायक संघर्ष की ओर प्रेरित किया। ठीक यही कार्य बल्ली सिंह चीमा, अतुल शर्मा और नरेन्द्र सिंह नेगी ने भी किया। ये 3-4 ही ऐसे जनकवि थे, जिन्हें व्यक्तिगत स्वार्थ और सुविधाओं की चाह पथ भ्रमित नहीं कर पायी।

गिर्दा ने कभी परिस्थितियों से समझौता नहीं किया। चकाचौंध भरे कवि सम्मेलन और रिकार्डिंग स्टूडिया उन्हें आकर्षित नहीं कर पाये। वे कवि सम्मेलनों में गये अवश्य, लेकिन वहाँ पर भी पहाड़ की विडम्बनात्मक जीवन-चर्चा से उपजी कविताओं का ही पाठ करते रहे। सच तो यह है कि तमाम स्वनामधन्य लेखकों-कवियों की तरह झूठा या नकली लेखन किया ही नहीं।

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद के राजनीतिक हालातों से वे बहुत दुःखी थे। अन्तिम वर्षों में उन्हें सबसे बड़ा दुःख इस बात का था कि राज्य आन्दोलन के दौर के सपने, आकांक्षायें और अपेक्षायें कहीं धुंधलके में खो गये हैं और एक ऐसी राजसत्ता और नौकरशाही उत्तराखण्ड पर काबिज हो गयी है, जिसे जन सामान्य की दुःख-तकलीफों से कोई सरोकार नहीं है। खटीमा, मसूरी और मुजफ्फरनगर जैसे नरसंहार और असंख्य बलिदानों के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया उत्तराखण्ड आज अपने मार्ग से भटकता जा रहा है। उन्हें पहाड़ के विकास के लिये गैरसैंण राजधानी उसी तरह आवश्यक प्रतीत होती है जिस प्रकार उत्तराखंड राज्य आंदोलन के प्रत्येक आंदोलनकारी को। राज्य आंदोलन के दौर को जिन लोगों ने देखा है, वे जनगीतों की ताकत और सामथ्र्य का बखूबी अंदाजा लगा सकते हैं। इस आन्दोलन ने स्वर्गीय निर्मल पांडे, गजेन्द्र सिंह ‘गंगू’, गोपू महर, महेश पाठक, कमला पंत आदि कई नेताओं को भी जन्म दिया।

उत्तराखंड बनने के बाद पूरे प्रदेश में अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गयी है और सभी पुराने और नये अखबारों के दिन बहुर गये हैं। इन सबका एक ही काम है सरकारी विज्ञापन प्राप्त करना और राज्य सरकार की तारीफ में कसीदे पढ़ना, जन संघर्षों की धार को भोंथरा करना और वास्तविक जनहित के मुद्दों से जनता का ध्यान हटाये रखना। मगर गिर्दा हमेशा जनता के पक्ष में पूरी ईमानदारी के साथ खड़े रहे। उन्होंने कभी भी खुद को सम्मानित करवाने की तिकड़मबाजी नहीं की और न ही पद्मश्री की दौड़ में स्वयं को शामिल किया। यह अलग बात है कि अनेको जन पक्षधर मंचों से गिर्दा को अनेक बार सम्मानित भी किया गया।

गिर्दा को यदि उत्तराखंड की लोक कलाओं, लोक गीतों, लोक नाट्यों, लोक गाथाओं और लोक नृत्यों का ‘इन्साइक्लोपीडिया’ कहा जाय तो अतिशियोक्ति न होगी। वे रंगकर्मी भी थे और पत्रकार भी। ‘नगाडे़ खामोश हैं’ और ‘गोरख्याली से गढ़वाली तक’ उनके द्वारा लिखित और निर्देशित चर्चित नाटक है। ‘युगमंच’ में उन्होंने ‘अंधेर नगरी’ सहित अनेकों नाटकों मंचित किये। जागर, जन संस्कृति मंच, पहाड़, उत्तरा और नैनीताल समाचार जैसे जनपक्षधर पत्रिकाओं-संस्थाओं से वे जुड़े रहे। उनके सहयोगी शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव लोचन साह, नरेन्द्र सिंह नेगी, ज़हूर आलम, बल्ली सिंह चीमा, अतुल शर्मा, इंद्रेश मैखुरी, विश्वम्भर नाथ साह आदि तमाम लोग आज भी उत्तराखंड की परिस्थितियों पर सक्रिय विचार-विमर्श करते रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यही है कि ऐसे तमाम विद्वजन उत्तराखंड की तथाकथित राजनीति में अलग-थलग पड़े हैं।

यह अत्यंत दुःखद तथ्य है कि पूरे देश की ही तरह हमारे छोटे से नवसृजित राज्य उत्तराखंड में भी महान विभूतियों का मूल्यांकन उनके जीते-जी नहीं हो पाता और न ही उनके विस्तृत और अनुभवों का कोई लाभ लिया जा सका है। इसके अनेकों उदाहरण हैं, जैसे मोहन उप्रेती, बी.एम शाह, शैलेश मटियानी, निर्मल पांडे आदि। हमें नहीं लगता कि पिछले 10 वर्षों से उत्तराखंड की जनता पर राज कर रही सरकारों ने कभी एक बार भी गिर्दा या फिर गिर्दा जैसे समग्र उत्तराखंड के विकास की सोच रखने वाले लोगों से बातचीत करने के बारे में सोचा भी होगा। उनके विचारों को जानने, आत्मसात करने और सही अर्थों में राज्य के विकास हेतु क्रियान्वित करने की बात तो छोड़ ही दीजिये।

नैतीताल समाचार से साभार