विलोम / सुषमा मुनीन्द्र

Gadya Kosh से
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आमतौर पर वे बेचैन रहते हैं, कुटुम्ब न्यायालय में चल रहे सम्बन्ध - विच्छेद के मामले उन्हें और भी बेचैन कर देते हैं।उन्हें लगता है वे अब तक उस तरह बेचैन नहीं थे जिस तरह अब हो गये हैं। वे अपनी बेचैनी को न्यायाधीशी गरिमा,गंभीरता से ढांकते - मूंदते रहे हैं और सोच पाना कठिन है उनकी काले कोट - बैज मिश्रित न्यायाधीशी मुद्रा के भीतर एक आम आदमी मौजूद हो सकता है अपनी भरी - पूरी भावनाओं के साथ।

वे अपना प्रत्येक काम नियत समय पर करते हैं। घर से ठीक समय पर कचहरी के लिये निकलते हैं। उन्हें देख कर ड्राइवर उनकी सैकेण्ड हैण्ड सलेटी फियेट का गेट खोल देता है। वे पिछली सीट पर बैठ जाते हैं, फिर ठीक समय पर कचहरी से घर के लिये चल पदते हैं। ड्राइवर उन्हें बंगले पहुंचा देता है, वे बंगले की बुनावट में समा जाते हैं। ड्राइवर कार की चाबी निकाल कर निर्धारित खूंटी में टांग कर लौटते हुए नमस्कार करता है। वे नमस्कार का जवाब देते हैं, नहीं भी देते। वे अपनी बैचेनी में लोकव्यवहार के प्रति सजग नहीं रह पाते हैं। यह जरूर है बावजूद बेचैनी के फैसले पूरी सजगता से करते हैं, गवाह और साक्ष्य के साथ स्वविवेक का यथेष्ट इस्तेमाल कर वे जो फैसला देते हैं वह ठीक जान पडता है। असंतुष्ट पक्ष को नहीं भी जान पडता। तब वह पक्ष कहता है, “जज साहब की मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती है तो फैसला ठीक कैसे करेंगे? पत्नी मंद - बुध्दि है, बेटी भी। बेटा स्वस्थ है जो बाहर पढता है। दो पागलों के साथ रहते हुए जज साहब की मानसिक स्थिति सही कैसे रह सकती है?”

लोग आरोप लगाते हैं पर सच यह है कि फैसला लिखते समय उनकी जिन्दगी के तमाम दबाव और खिंचाव कुछ देर के लिये स्थगित हो जाते हैं और वे निष्पक्ष - त्रुटिरहित निर्णय कर पाते हैं।यह पहली बार है जब किसी प्रकरण ने उनकी बेचैनी बढा दी है।

वादी कह रहा था, “सर मैं तीन साल से इस सिरफिरी औरत के साथ रहने की कोशिश कर अब थक चुका हूं। मैं अब इसके साथ रहा तो पागल हो जाऊंगा। पागल के साथ रह कर आदमी पागल ही तो होगा।”

उन्हें वादी का भाष्य, दलील कम उन्हें दी जा रही चुनौती अधिक लगी।

“आप इन्हें पागल न कहें। ये पागल नहीं हैं थोडी सुस्त हैं।”उन्होंने वादी से कहा, देखा प्रतिवादिनी को।

और ठीक इसी क्षण प्रतिवादिनी ने न जाने किस भाव से उन्हें ताका। वे बेचैन हो गये।मनोकामना की दृष्टि से कितनी मिलती है यह दृष्टि। इस तरह की सरल - मासूम - निस्पृह दृष्टि उन्हें सालती रही। उन्हें लगा इस मुकदमे का तार कहीं उनके अतीत से जुड रहा है। वे कुछ देर प्रतिवादिनी को देखते रहे शायद कुछ कहेगी पर वह पिछली पेशियों की तरह चुप थी। वादी ही बोला, “यह जो भी है, मैं इस के साथ नहीं रह सकता। आप ही कहें जिस मंदबुध्दि लडक़ी को उसके मां - बाप न रखना चाहें, भाई न रखें, उसे धोखे से, दुराव - छिपाव करके मेरे साथ क्या इस उम्मीद से बांध दिया गया है कि मैं इस को अपने साथ रखूंगा ही? क्या सात फेरों का बंधन जन्म के बंधन से भी अधिक विश्वसनीय होता है? लडक़ी की शादी इतनी जरूरी क्यों होती है कि छल से, बल से, धोखे से उसे ब्याहना ही है? फिर वह छोडी हुई स्त्री के रूप में भले ही मायके में शरण पा जाये पर एक बार तो उसे ब्याहना ही होगा।

उन्होंने चौक कर वादी को देखा। भीतर लम्बित पडे प्रश्न जीवित हो उठे- तो आपके साथ धोखा हुआ? आपको इसके माता - पिता ने छला या आपके माता - पिता ने? ऐसा तो नहीं आपके विवाह को जीवन भर भुनाते रहने के गुणनफल में माता - पिता ने पूरी सजगता में यह आयोजन किया? क्या इस पागल के एक समर्थ - समृध्दिशाली चाचा हैं जिनकी अनुकंपा से आपको और आपके भाइयों को प्रतिष्ठित पद हासिल हुए? आपके हिस्से में पागल आई और आपके भाइयों व कुटुम्ब के लिये प्रगति और विकास के रास्ते खुल गये? पर वादी पूछेगा यह सब आप कैसे जानते हैं तब क्या कहेंगे वे आज भी कहीं अतीत में अटके हुए हैं?

वे हैरान होकर वादी को देख रहे थे। वादी पत्नी को छोड पाने का फैसला कैसे कर पा रहा है? यह ऐसा व्यवहारिक बल्कि साहसी बल्कि निष्ठुर कैसे हो पाया? वे क्यों न हो पाए? शायद इसलिये कि एक समान स्थितियों का सामना सभी एक समान भाव से नहीं कर पाते। शायद इसलिये कि उनके जीवन का घटित सत्तर के शुरुआती दिनों का है और वादी इक्कीसवीं सदी का हौसला रखता है।

तीस वर्ष। पूरे तीस वर्ष । समय का पूरा खण्ड गुजर गया है। आचार - विचार, जीवन शैली,चेतना, सोच ध्येय में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। आज के स्वप्नजीवी - फास्ट लोग दोयम दर्जे को नहीं सहते। वादी कह रहा था,

“जिन्दगी एक बार मिलती है और अपनी जिन्दगी के प्रति मेरी एक जवाबदेही है। मेरी मानसिक स्थिति पर दुष्प्रभाव पडे मैं यह होने नहीं दूंगा।”

उन्होंने पुन: प्रतिवादिनी को देखा - बडी दुविधा है। उनकी सहमति वादी से है तो सहानुभूति प्रतिवादिनी से, दण्ड भले ही इसे मिले पर अपराध इसका नहीं है। यह अपने लिये कोई फैसला न कर पाई होगी। दूसरों के द्वारा किये गये फैसलों को पूरी तीक्ष्णता और आवेग के साथ समझ न पाती होगी। तभी तो जब इसके परित्याग की स्थिति बन रही है तब भी इस चेहरे में विवशता तो दिख रही है, वेदना नहीं। उन्हें प्रतिवादिनी और मनोकामना के चेहरे गड्ड - मड्ड होते जान पडे।वे मनोकामना की त्रुटि पर उसे दुत्कार कर क्षमा करते रहे हैं क्योंकि वह त्रुटि करने के तुरन्त बाद अपने अपराध बोध से भयभीत हो जाया करती थी। और उसके साथ बसर करें न करें के द्वैत - द्वन्द्व में

किसी स्वचलित प्रक्रिया की तरह वर्ष गुजरते रहे। उन्हें जब भी लगा अब मनोकामना को ढोना आसान नहीं ठीक उन्हीं क्षणों में वह उन्हें पता नहीं कैसी निरपराध दृष्टि से ताकने लगती है। वे हडबडा जाते थे। इससे मुक्त होना सरल हो सकता है, इसकी इस दृष्टि से नहीं । यह दृष्टि उन्हें सालती रहेगी।

पीछे लौटें सत्तर के दशक के प्रारंभ में तो वे घुंघराले बालों वाले, लापरवाह खूब ठठा कर हंसने वाले रसिक चित्त युवा हुआ करते थे, जिसका प्रत्येक काम समय चूक जाने के बाद ही हुआ करता था। उन दिनों वे पूरक परीक्षाएं देते - देते, नये - नये विधि स्नातक हो नौकरी की प्रतीक्षा करते हुए पिताजी के जाफरी वाले सरकारी क्वार्टर में बैठे थे। उनका मुख्य समय जाफरी वाले बरामदे में बीतता था जहां से बाहर की गतिविधियों को परखते उन्होंने परखा था, ठीक सामने के क्वार्टर में रहने वाले पंचायत अधिकारी चौबे जी की बडी पुत्री प्रकृति चौबे, बी ए अंतिम वर्ष, चुस्त कुर्ता - सलवार पहन कर ठीक दस बजे कॉलेज जाती है। वे अपने घुंघराले बालों को तबिअत से संवार कर प्रकृति का पीछा करते हुए प्रकृति के उपासक बन बैठे। तदुपरांत वे दोनों अपनी - अपनी जाफरी से एक दूसरे को देखने - टोहने लगे।

जातिगत आधार पर दोनों द्विज परिवारों में मेल - मिलाप होने लगा। वे और प्रकृति उम्र के लिहाज से एक - दूसरे के घर नियमित रूप से नहीं आते - जाते थे। उनके दोनों छोटे भाई देवव्रत और देशव्रत प्रकृति के घर जाते और प्रकृति की बहनों के साथ कैरम खेलते थे।

वे जब भाइयों से पूछते, “तुम्हारी प्रकृति दीदी मेरे बारे में कुछ पूछती हैं? “तब भाई उन्हें विचित्र भाव से देखते, “भैया प्रकृति दीदी तुम्हें क्यों पूछने लगीं? वे तो हम दोनों को पूछ रहीं थीं कि कल खेलने क्यों नहीं आये।”

“तुम नहीं समझोगे।”कह कर वे जाफरी से जा लगते। उनके क्वार्टर की फेन्स में जंगल जलेबी का विशाल वृक्ष था जो प्रकृति की बहनों को ललचाता था। गर्मी में लम्बी - कुण्डलाकार लाल फलियां फटतीं और उनके भीतर के सफेद, मांसल मोटे बीज झांकने लगते। वे बांस में हंसिया बांध स्टूल पर चढ क़र जंगल जलेबी तोडते। उनके भाई पैंट की जेबें और प्रकृति की बहनें फ्रॉकें भर लेतीं। बहनें जब फ्रॉकें भरे हुए घर पहुंचतीं तब प्रकृति पूछती, “तुम्हारे सदाव्रत भैया मेरे बारे में कुछ पूछ रहे थे?”बहनें चकित हो जातीं, “वे तुम्हें क्यों पूछने लगे दीदी, वे तो हमें पूछ रहे थे कि कल शाम को तुम सब कहां जा रहे थे?”

“तुम नहीं समझोगे।”कह कर प्रकृति जाफरी से जा लगती।

प्रेम का परिपाक तैयार होता ठीक इसके पहले सदाव्रत का विवाह तय हो गया। प्रकृति की मां हडबडी में सदाव्रत के घर गईं थीं और बढे हुए अचरज के साथ घर लौटीं थीं - “प्रकृति हम तो सोचते थे पूरक परीक्षा दे कर किसी तरह पास हुए बेरोजग़ार लडक़े के पास अच्छे प्रस्ताव नहीं आयेंगे। पर देखते हैं सदाव्रत का ब्याह तो कानून मंत्री की भतीजी से हो रहा है। पांडेजू पता नहीं कहां से क्या गोटी बैठा लेते हैं। पडाइन हैं बडी क़िस्मत वाली।”

प्रकृति की समझ में नहीं आया था मां अचरज व्यक्त कर रही है या संताप। वह बरामदे में जाकर जाफरी के पार झांकती रही थी। उधर जाफरी खाली थी।

सदाव्रत असहाज थे। प्रकृति के साथ कोई अलिखित अनुबंध था या बेरोजग़ार के लिये। वह भव्य प्रस्ताव उन्हें अस्वाभाविक लग रहा था।पारिवारिक संस्कार के अनुसार वे पिता से बहुत कम बोलते थे, पर मां के समने संशय रखा था।

“मनोकामना बडे घर की लडक़ी, मैं बेरोजग़ार मां मैं ऊसका निजी सचिव बन जाऊंगा।और वह तुम्हें अपना खादिम बना लेगी।”

उसकी निरक्षर मां अनुभवी चतुरता से हंसी थी, “तो बन जाऊंगी। अरे सदा, मैं मनोकामना को देख आई हूं। इतनी सीधी है कि उसकी मां ठीक ही कह रही थी कि लडक़ी के मुंह मैं जुबान ही नहीं है। फोटो तुम देख चुके हो, लडक़ी सुन्दर है, एम ए है। सदा तुम्हारा भाग्य उजागर होने जा रहा है। मजिस्ट्रेटी मिली समझो।”

अब उन्हें ठीक ठीक याद नहीम् कि उन्होंने कैसा महसूस किया था। प्रकृति उपासना के चलते वे शायद अपने अनुमानित भाग्योदय परा पूरी तरह प्रसन्न और परितुष्ट नहीं हुए थे, उन में कुछ तो खास है तभी भव्य प्रस्ताव आया है वाला विशिष्टता बोध भी उस तरह प्रस्फुटित नहीं हुआ था, जिस तरह हो सकता था।

कुछ तारीखें महज तारीखें नहीं होतीं बल्कि सम्पूर्ण जिन्दगी का अंतिम फलादेश होती हैं।

मां - पिताजी उत्सव मना रहे थे। इधर वे प्रथम रात्रि को ही जान गये थे कि मनोकामना का मानसिक विकास मंद है। वह स्थितियों को व्यस्कों की भांति नहीं देखती - जानती - समझती है।मनोकामना ने लाल ब्लाउज क़े भीतर गाढा नीला ब्लाउज पहन रखा था जो गले के पास बाहर झांक रहा था।

“दो ब्लाउज क्यों पहने हैं?”सदाव्रत चकित थे, मास्टर डिग्रीधारी को वस्त्रधारण करने का ज्ञान नहीं है!

“मां को छोड क़र आई हूं तो डर लग रहा है, ठण्ड भी।”मनोकामना इतनी झुक कर बैठी थी कि मानो अपने में समा जायेगी।

“डरो मत, यहां तुम्हारे अपने लोग हैं।”

“अच्छा।”

“एम ए हिन्दी साहित्य में किया है ना?”वे जानते थे पर कुछ तो पूछना ही था।

“हूं, फर्स्ट डिविजन, चाचा जी कॉपी बनवा देते थे।”

वह चुप रहे तो बहुत खूबसूरत है बोलने लगे तो बहुत बेतुकी। फिर उनकी इच्छा नहीं हुई कुछ कहने - पूछने की।

सुबह रसोई में मां चाय बना रहीं थीं और मनोकामना चाय की प्रतीक्षा में पीढे पर बैठी थी। वे इतने खिन्न और निराश थे कि उनकी कहने की इच्छा नहीं हुई कि मां तुम चाय बना रही हो और यह मां को इस जड बुध्दि में गुणों की खान दिखाई दे रही थी तो अब मां जानें। मनोकामना को घर के अन्य सदस्यों की अपेक्षा देवव्रत और देशव्रत की संगत अनुकूल लगती थी, और वह उनके साथ सहज अनुभव करती थी -

“देव, तुम्हारे भैया कहते हैं मैं उनके गले पड ग़ई हूं। मेरे लिये लडक़ों की कमी नहीं थी। एक सेकेण्ड लेफ्टिनेन्ट लडक़ा था वह अड ग़या था मुझसे ही शादी करेगा पर चाचाजी को फौजी पसन्द नहीं हैं। और मेरे जीजी के देवर से तो बात पक्की हो जाती पर कुण्डली नहीं मिली और कहती हुई वह स्वतन्त्र भाव से हंसती जा रही थी। उसका हंसना भिन्न होता था जो उसकी अल्प मानसिक विकास को सूचित करता था। देवव्रत और देशव्रत को अपनी नई - नई भाभी का साथ आनन्द देता था। देवव्रत बोला, “भाभी, आपके आ जाने से घर में हंसी सुनाई दे जाती है वरना इस घर में हंसना गुनाह हो जाता है।”

“गज़ब है, अपने मुंह से हंसते हैं, किसी का क्या बिगाडते हैं?”मनोकामना हतप्रभ थी।

बहू की हंसी सुनकर मां तमक कर सदाव्रत के कमरे में गई, “सदा, तुम सो रहे हो उधर दुलहिन अट्टहास कर रही है। पिताजी का भी लिहाज नहीं।”

वे वेग से उठे थे, “देश - देव तुम दोनों पढते क्यों नहीं? और जी तुम हां तुम गंवारों जैसी ढिलढिला रही हो, जाओ कमरे में।”

मनोकामना ने कांप कर देवव्रत को देखा था - हां यहां हंसना गुनाह है। फिर उसने मासूम कातर दृष्टि उन पर टिका दी थी। पता नहीं कैसी होती थी वह चितवन जब वे उसके प्रति कठोर होते - होते न हो पातो थे। लगने लगता था उनकी अपराधी यह नहीं बल्कि उनके माता - पिता हैं।

आज वे सोचते हैं तो पाते हैं मनोकामना को स्वीकार करने के पीछे उसके प्रति कोई जवाबदेही नहीं बल्कि माता - पिता से बदला लेने की भावना अधिक प्रभावी थी। वे माता - पिता को उन की करतूत याद दिलाना चाहते थे कि आपने जो इस मंदबुध्दि लडक़ी को मुज पर थोप कर सताया है तो मानसिक प्रताडना से आप भी बच नहीं सकेंगे। और जब - जब सोचा मनोकामना को अब नहीं सह सकेंगे तब - तब वह अजब आग्रही दृष्टि से उन्हें ताकने लगती थी। उसकी चितवन का सूनापन उन के भीतर उतर जाता। उन्हें लगता वे खुद को मजबूत कर लें तो स्थिति को चुनौती मान कर स्वीकार कर सकते हैं।

उन्हें मां का आचरण कपट भरा लगता था। मनोकामना के परिजन तमाम साधनों - सौगातों से उसे पतिगृह में स्थापित करने हेतु मानो प्रतिबध्द थे। वे तीज त्योहारों में उपहार, मौसम के अनुसार अन्न, अचार, बडी - पापड भेजते रहते थे। मां को इन सौगातों की बडी साध रहती किन्तु बहू की मंद गतिविधि उदास करती थी। वे कोहनी तक हाथ जोड क़र प्रणाम की मुद्रा बना कर कहतीं, “जय हो पूरी विदुषी है। न काम का सहूर है, न सीखना चाहती है। सदा इसे कुछ सभ्यता सिखाओ।”

“तुम क्यों नहीं सिखातीं? बहू तुम्हारे पसन्द की है।”

“तुम क्यों नहीं सिखाओगे? तुम्हें उस से कोई परेशानी नहीं है?”

“नहीं सब ठीक है।”वे मां को दुविधा में डाल कर कमरे में चले जाते। पीछे - पीछे मां का स्वर आता,

“सुन्दरता में बूड(ड़ूब) गया लडक़ा। दुलहिन गुणी न हुई वरना हम लोगों को पूछता तक नहीं। वे मनोकामना को देखते कि मां की मृदुवाणी सुन कैसा महसूस कर रही है। लेकिन वह प्रतिक्रियाविहीन दिखती। वह न परिस्थिति पर विचार करती थी न प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी।

“ये जो मां की बातें सुन रही हो, तुम्हें बुरी लगती हैं?”

“नहीं, आपको बुरी लगती हैं?”वह अकसर पूछे गये प्रश्न को दोहरा देती थी और अपनी अबोधता में कई बार स्थिति को सरल बना देती थी।

फिर मनोकामना के चाचा का महाप्रसाद उन्हें मजिस्ट्रेट पद के रूप में मिला। वे कभी सोच नहीं पाए थे उन जैसा औसत छात्र अधिकारी बनेगा। मां और पिताजी ने जो कार्यक्रम बनाया था वह खूब सफल रहा।पिताजी से कहते मां हुलस रहीं थीं, “मैं न कहती थी सदाव्रत की बेरोजग़ारी की चिन्ता हम से अधिक मनोकामना के चाचा कर रहे होंगे।देवव्रत और देशव्रत भी एल एल बी कर लें तो वे भी जज्जी पा जायेंगे।”

“जैसे बहू के चाचाजी जीवन भर कानून मंत्री बने रहेंगे।”

“न बने रहें पर उनका इतना प्रभाव तो रहेगा ही कि उनकी सिफारिश चलती रहे।”

मां की उम्मीदें खाली नहीं गईं। बाद में देवव्रत और देशव्रत मजिस्ट्रेट बने और यह परिवार न्यायधीशों का परिवार कहा जाने लगा।

पहली पोस्टिंग पर सुदूर निमाड ज़ाते हुए वे मनोकामना को साथ ले गये।

मां ने निषेध किया, “सदाव्रत, यह नहीं जायेगी। न गृहस्थी संभाल सकती है न तुम्हारी देखभाल कर सकती है। यह परदेस में तुम्हारे लिये मुसीबत बनेगी।”

“मां यह सब तुम तब सोचतीं जब तुमने इसे मेरे लिये चुना था। अब तो इसके कारण जो भी नफा - नुकसान होगा मुझे सहना है। तुम्हीं कहो इसे किसके भरोसे छोड ज़ाऊं? तुम्हें इसके मायके से आने वाले पदार्थ ही प्यारे हैं। बाकि तुम इसका जैसा मजाक बनाती हो वह मैं जानताहूँ।”

मां रचना रचने लगी थी, “तुम इल्जाम लगाओ पर सदा हमने तुम्हारा भला देखा। जज बन गये वरना खाली बैठे रहते।

“तो सुनो मां, इसीलिये मैं इसे उपेक्षित नहीं छोड सकता।”

वे परेशान थे, अल्पशिक्षित मां सामाजिक तर्कों से किस तरह आशय बदल देती हैं। मनुष्य सदैव अपना ही बचाव क्यों करना चाहता है? उन्हें मालूम था मनोकामना के साथ अकेले रहते हुए अडचनों का सामना करना पडेग़ा पर इसके पहले उन्होंने यह सोचा नौकरी बडे मौके पर मिली है।अब भी खाली बैठे रहते तो न जाने क्या होता। और यह पुख्ता आधार था अडचनों को आजमाते जाने का।

जाने से पहले मनोकामना के माता - पिता मिलने आये थे। सदाव्रत को दिलाया गया पद मानो मनोकामना को इस घर से जोडे रखने की प्रतिश्रुति था। मनोकामना की मां उनके कमरे में आकर उन से कहने लगी थी,

“मनोकामना बहुत सीधी - सरल लडक़ी है। कह लो इसे जमाने की हवा नहीं लगी। चतुराई नहीं जानती। हमें संतोष है इसे सीधा - सरल घर - परिवार मिला। यह तुम से कभी कुछ न मांगेगी, बस इसे डांटना - फटकारना मत। गलती करे तो इसे प्रेम से समझा देना। तुमसे मेरी अरज है बेटा इसका ख्याल रखना।”कहते हुए मनोकामना की मां रोने लगी थीं।

मां को रोते देख मनोकामना भी रोने लगी थी। दोनों को रोते देख उनकी त्वचा में चुनचुनाहट होने लगी थी। मन में यही प्रश्न उठे थे जो वादी ने उनके सामने रखे थे - जिस मंदबुध्दि लडक़ी का दायित्व आप न उठाएं,आप के लडक़े न उठाएं उसका दायित्व पाणिग्रहण के मंत्रों के दबाव में आकर मैं उठाउंगा ही यह विश्वास आपको क्यों है? और मैं न उठाऊं तब क्या यह आपकी ही जिम्मेदारी नहीं हो जायेगी? लडक़ी की शादी इतनी जरूरी क्यों होती है कि फिर वह छोडी हुई स्त्री के रूप में भले ही मायके में शरण पा जाये पर एक बार तो उसे ब्याहना ही होता है। क्या इसीलिये कि शायद धुप्पल में काम बन जाये ? कुछ नहीं कह सके थे।वे वादी की तरह साहसी कभी नहीं रहे। उन का अनुशीलन उनकी शिष्टता ही उनकी सबसे बडी दुर्बलता बन जाती थी।

“मां मैं बुरी हूँ? बेवकूफ?”मनोकामना ने सहसा अपनी मां से पूछा था।

“बिलकुल नहीं। तुम तो भली लडक़ी हो। छल - कपट नहीं जानती। तुम तो लक्ष्मी हो तभी तो सदाव्रत को इतना अच्छा पद मिला है।”

यह बात इन्होंने अनायास कह दी या सायास? तो क्या ये आभास दिलाने आई हैं कि सदाव्रत तुम्हारा बढ ग़या रुतबा मनोकामना के कारण है? तो अब उन्हें उपकार लाद कर ही जीना होगा? वे एकाएक अशिष्ट की तरह कमरे से बाहर निकल गये थे।

ह्नउस अपेक्षाकृत छोटी और अविकसित तहसील में वे मनोकामना के साथ रहने का उद्यम करने लगे। मनोकामना कभी आक्रान्त चुप्पी में जडीभूत - सी पडी रहती, जैसे कोई बेआवाज ड़र उसे घेर रहा है। कभी धीमे स्वर में खुद से बातें करती। कभी महरी के साथ खुल कर हंसती।डपटने पर सहम कर अपराधबोध से सर झुकाा लेती। पैसे का हिसाब वह भूल जाती फलत: वे पैसे अपने पास रखते और सारे भुगतान स्वयं करते। किसी भी स्थिति पर पूरी तीक्ष्णता और आवेग से न सोचते हुए वह दबाव मुक्त रहती थी। शायद इसीलिये आज जब समय के दबाव,दुष्प्रभाव से जूजते हुए उनके माथे पर महीन रेखाएं और आंखों के आस - पास सिकुडन दिखने लगती है। मनोकामना के चेहरे में आज भी सच्चाई और मासूमियत नजर आती है।

मनोकामना को सख्त आदेश देकर किसी आगन्तुक के लिये द्वार न खोले वे कचहरी चले जाते थे। जानते थे उन के आदेश का पालन करते हुए मनोकामना द्वार बन्द कर खुद से ही बातें करते हुए सो गई होगी या आंगन में कुर्सी डालकर बैठी हुई शीशम के पेड क़ी ऊंचाई को ताक रही होगी, या विविध भारती में फिल्मी गीत सुन रही होगी फिर भी उन्हें लगता था आज शाम जब घर पहुंचेंगे वहां कुछ न कुछ होगा। वे मस्तिष्क में दबाव महसूस करते और सोचते, जल्दी ही वे भी मनोकामना की श्रेणी में पहुंच जायेंगे।

उस छोटी जगह में अफसरों की खबरें तेजी से फैलती - पसरती थीं।

- बाई जी का दिमाग ठीक नहीं।

- जज साहब पाई - पाई का हिसाब रखते हैं।

- पत्नी शादी के पहले ऐसी थी या बाद में हुई?

- जज साहब खूब निभा रहे हैं, और कोई होता तो छोड देता।

बातों के अलक्षित आभास और प्रतिध्वनियों को वे भांप लेते। पर किसी से कुछ न कहते। किसी से कुछ न कहना पडे ऌसलिये लोगों से मिलना - जुलना टालते रहे। और जब कभी न टाल सके तब कहा, “हां,मनोकामना कुछ सुस्त है, पर एक इसी कारण हम उसे समाज से,परिवार से बेदखल नहीं कर सकते। सच कहूँ तो मैं इस दुनिया के किसी एक पीडित को सहयोग कर पा रहा हूँ सोच कर शांति मिलती है।”यह कह कर वे खुद को साबित नहीं करना चाहते थे बल्कि किसी के सामनेकमजोर नहीं पडना चाहते थे।

आज सोचते हैं तो पाते हैं परिस्थितियां जब घेरती हैं और जहां से छूट भागना आसान नहीं होता मनुष्य उस घेराव में भी कुछ न कुछ अपने पक्ष का पा लेता है। उनकी न्याय के प्रति पकड, ईमानदारी, निष्ठा इसलिये बनी कि उन्होंने अन्याय सहा है। अपनी बेचैनी के बावजूद वे सचेष्ट रहते हैं कि उनकी कलम से त्रुटिपूर्ण फैसला न हो। स्थितियों की निर्ममता आखिर कितनी हो सकती है जांचते हुए उन्होंने वह असाधारण ताकत पा ली जब कुछ भी उन्हें थकाता नहीं था।

उनकी चिन्ता तब अवश्य बढ ग़ई जब मनोकामना गर्भवती हुई। यह कोई गलती न कर बैठे कि गर्भस्थ शिशु को क्षति पहुंचे। संतान के रूप में उन्हें उनके उनके हिस्से का सुख मिलने जा रहा है। वे किसी भी माध्यम से थोडा सा सुख, आराम, निश्चिन्तता पाना चाहते हैं। उत्सवों,ॠतुओं, मौसमों को महसूस करना चाहते हैं। वे सुरक्षा कारणों से मनोकामना को उसकी मां के पास छोड अाये।

“यह समझदार होती तो अपना ध्यान रख पाती।”

“सदाव्रत तुम ने इसे मां के पास छोडा है। निश्चिन्त रहो।”मनोकामना की मां उन्हें आश्वस्त करते हुए खुद आश्वस्त हो रही थीं। वे लौट रहे थे तब मनोकामना द्वार छेक कर खडी हो गयी थी, “फिर कब आयेंगे?मुझे छोड तो नहीं देंगे?”

वही चितवन थी - जो उसे दोषमुक्त साबित करती थी। तो यह कुछ ऐसे आशय, संदर्भ सुनती - गुनती रही है। व्यापता रहा है अनजाना भय।

“नहीं। तुम अच्छी हो, अपना ध्यान रखना। मैं जल्दी आऊंगा।”

मनोकामना ने बच्ची को जन्म दिया था। वे छुट्टी लेकर आए थे।चिकित्सक से पूछा था, “बच्ची मानसिक रूप से स्वस्थ होगी?”

“हां, हां। परेशान क्यों हैं?”

“कुछ नहीं।”

वे बच्ची को देख कर लौट गये थे। जब बच्ची छह माह की हो गई तब उसे और मनोकामना को साथ लेकर मां के पास एक - दो दिन रहने कै औपचारिकता कर अपने घर लौट गये थे। वापसी पर मनोकामना की मां भेंट - उपहार सजाने लगी थीं।

वे अड ग़ये, “यह नहीं। कुछ भी नहीं। न मां के पास कुछ भेजें न मेरे पास। आप कुछ देकर मुझे संकोच में डालेंगी बल्कि मुझे बुरा लगेगा देखिये मैं नाराज नहीं हूँ, मुझे यह अच्छा नहीं लगता।”

बहू को खाली हाथ आया देख मां को निराशा हुई।

“तो सदाव्रत तुम ने बहू को जचगी के लिये वहां रखा। हमसे अधिक भरोसा तुम्हें अपनी ससुराल वालों पर है।”

“मां तुम भी।”

“देश - दुनिया देख कर दुलहिन में कुछ चेत आया? भगवान ने बच्चा भी दे दिया कैसे पालेगी?”

“मैं पालूंगा। अब न मैं जिम्मेदारी से डरता हूँ, न सोचता हूँ आगे क्या होगा। मुझे प््रात्येक आने वाले दिन पर भरोसा नहीं है फिर भी मैं पता नहीं किस भरोसे पर रातों को गहरी नींद सोता हूँ और दिन भर दुरुस्त बना रहता हूँ।”

“देख रही हूँ, दुलहिन खाली हाथ आई है। अब उनकी दुलारी यहां नहीं रहती तो यहां कुछ क्यों भेजें? वहीं भेजते होंगे। दामाद प्रसन्न रहे,पगलिया का आदर किये रहे बस।”मां के संताप पर उन्हें विद्रूप किस्म का आनन्द मिल रहा था, “वे तो बहुत दे रहे थे, मैं ही नहीं लाया।”

“हे प्रभु! ”

उनका संदेह सही निकला। बच्ची का मानसिक विकास मन्द था। यह उन की अब तक की सबसे बडी हार थी। उनका किसी भी संभावना से विश्वास उठने लगा था। उनकी जिद थी परिस्थितियों को पीठ नहीं दिखाएंगे न ही खुद को कमजोर साबित होने देंगे पर अन्तत: वे मनुष्य थे, “मनोकामना सब तुम्हारे कारण।”

“क्या हुआ?”

“स्तुति बेवकूफ है। तुम्हारी तरह ।”उन्होंने शायद पूरा बल लगा कर विकराला भाव से कहा था।

मनोकामना कांप कर तेज स्वर में रोने लगी।

“चुप रहो वरना”वे हिन्स्त्र भाव से उसका गला दबाने लगे थे।”तुम्हारा मर जाना बेहतर। इस घर में कोई कैजुअल्टी क्यों नहीं हो जाती।”

मनोकामना की चीख पुकार सुनकर आस - पास के बंगलों से लोग जुहा गये। बाहर से आता शोर सुन उनकी नृशंस पकड ढ़ीली पड ग़ई। ओह ओह क्या अपराधियों के चेहरे देखते, बयान सुनते हुए उनमें भी आपराधिक वृत्ति आ गयी है? इस क्षण क्या हो जाता? इस क्षण के बाद क्या - क्या होता? उनकी पकड से मुक्त हो मनोकामना घिसटती - लडख़डाती हुई गैलरी में जा कर धसक कर बैठ गई और तेज स्वर में रोती रही। उन्होंने बरामदे के बन्द द्वार से कहा था, “जाइये आप लोग,यहां तमाशा नहीं हो रहा है ! ”

उफान अपनी हद पर पहुंच कर बैठने लगता है और यह शायद उनके उफान की हद थी। तूफान के तीव्रतम होकर फिर मंद पडते हुए थम जाने की यह स्वाभाविक प्रक्रिया थी। उस क्षण उन के भीतर का विद्रोह,विलोम, विक्षोभ एकबारगी बाहर आ गया। वे तूफान गुजर जाने के बाद की शांति महसूस करते हुए अपने आप को हल्का, भारहीन, मुक्त पाने लगे। अनायास सोचने लगे वे मनोकामना के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार न कर सकें तो विवेकपूर्ण व्यवहार तो कर सकते हैं। लोगों को किस्से गढने का मौका देना मूर्खता ही होगी। हाँ, यह बोधिसत्व उन्हें अपनी उस दिन की नृशंसता और लज्जा से मिला। वह अपनी बढ ग़ई जिम्मेदारियों को सम्पादित करने में लग गये। मनोकामना, स्तुति की देखभाल करती थी पर सही अर्थों में उसकी देखभाल उन्होंने की। रातों को मनोकामना बेसुध सोई रहती तब वे स्तुति को कंधे से चिपका कर थपकते हुए टहलते,दूध गरम करके पिलाते, वे प्रत्येक काम के अभ्यासी होते गये और उन्हें काम में आनन्द आने लगा।

वे पूरी ईमानदारी बरतते रहे - परिवार के प्रति, न्यायालय के प्रति।ईमानदारी का फलादेश उन्हें याचित पुत्र सत्यव्रत के रूप में मिला, उन्हें लगा था सत्यव्रत ठीक समय पर उनके जीवन में आया है वरना वे धैर्य खो देते, मनोकामना उन्हें पहली बार पूरे रूप में अच्छी लगी थी। यह जैसी भी है, पर पूर्णत: स्वस्थ, सुन्दर, तंदुरुस्त बच्चा इसी ने दिया है।

“मनोकामना, तुम अच्छी हो।”

“आप अच्छे हैं।”उन्हें प्रसन्न देख कर वह पुलकित हो उठती थी।

स्तुति स्कूल जाती थी, कक्षा भी पास करती रही। शिक्षकों पर उनके पद का प्रभाव पडता था। वे उसका उपचार भी कराते रहे पर यह दबाव निरंतर बना रहता कि स्तुति का क्या होगा। वे अवसाद से घिर जाते।स्तुति को जिस चिकित्सक को दिखाते थे उससे पूछा था, “मेरी अकारण मौन बैठे रहने की इच्छा क्यों होने लगी है?”

चिकित्सक ने उन्हें वही दवाइयां लिख दी थीं जो स्तुति को लिखते थे,तो क्या वे भी - वे अचकचा कर उठ खडे हुए थे। मस्तिष्क पर पडने वाले दबाव को रोकना होगा, कुछ अच्छी बातें सोचनी होंगी। उन्हें कुछ हो गया तो क्या होगा इन सब का? सत्यव््रात को इस माहौल से दूर रखना होगा। वे उसे ग्वालियर के सिंधिया स्कूल में डाल आये।

आज जब वे लम्बी पारी खेल चुके हैं तब सोचते हैं उन्होंने परिस्थितियों को जितना कठिन समझा वह उससे कहीं अधिक कठिन थीं। उन्हें अचरज होता है वे मां और बाप दोनों की साझा भूमिका को कैसे पूर्ण कर पाए। अब उन्हें एक ही चिन्ता है - स्तुति का क्या होगा? इसका विवाह कैसे होगा? कोई विकल्प कोई सद्गति बच गई है इसके लिए?होगा कोई उसके माता - पिता जैसा लोभी? होगा कहीं कोई लडक़ा जो परिस्थिति को उनकी तरह मिशनरी भाव से ले ले?

पर तब से अब लम्बा समय गुजर गया है। तीस वर्ष का लम्बा समय।आज की युवा पीढी क़ो तो सब कुछ अच्छा और मोहक चाहिये -परिकथाओं की तरह ऌनके जीवन में कमतर - कमजोर के लिये जगह नहीं है। वे सत्यव्रत को आज के समय के युवाओं का प्रतिनिधि मान पूछने लगे -

“सत्य, तुम शादी करते समय लडक़ी में क्या देखोगे?”

पिता से मैत्री सम्बन्ध होने से सत्यव्रत आह्लादित होते हुए बोला, “पापा, मुझे तो टॉप क्लास लडक़ी चाहिये, पांच फुट पांच इंच, सुन्दर,मीठी आवाज, वेल क्वालिफाईड हो, जॉब करती हो तो बेहतर होगा।पापा जब आप का क्रायटेरिया दहेज नहीं है तब मुझ जैसे परफेक्ट लडक़े को परफेक्ट लडक़ी तो मिलनी चाहिये न।”

तो आज के युवाओं की परिकल्पना यह है। तब स्तुति को कौन अपनाएगा?

“बेटा तुम्हारी बातें मुझे डराती हैं। आज के लडक़ों के सपने बहुत बडे हैं। मुझे स्तुति की चिन्ता होती है।”

“पापा फ्रेंकली कहूं तो कोई लायक लडक़ा स्तुति को नहीं अपनाएगा और हम उसे किसी ऐरे - गैरे के साथ बांध नहीं देंगे। पापा आप ही कहें अब आप जैसा इन्सान कहां मिलेगा जो आय मीनआप और मैं कोशिश करेंगे स्तुति के लिये कुछ अच्छा कर सकें । कोई प्रस्ताव जमेगा तो ठीक वरना क्या लडक़ी की शादी इतनी जरूरी होती है? बार बार आता रहा यह प्रश्न उनके सामने।

“पापा मैं हूँ न। मुझ पर भरोसा कीजिये। मैं स्तुति का ध्यान रखूंगा,ठीक वैसे ही जैसे आप रखते हैं।”

वे जानते हैं कि सत्यव््रात ईमानदार है। वह अपनी मां और बहन को लेकर हीनता या तनाव से ग्रस्त नहीं है। उन्हें उस पर भरोसा है पर वे पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाते। एक दिन सत्यव्रत का विवाह होगा।आने वाली का घर में साम्राज्य हो जायेगा। जरूरी नहीं वह स्तुति को वैलिड माने। तब तब क्या आजमाने के लिये स्तुति का विवाह करना चाहिये? शायद धुप्पल में काम बन जाये और न बने तो? तो?

वे बेचैन हो जाते हैं। अदालत में इन दिनों चल रहे प्रकरण ने उनकी बेचैनी बढा दी है। उन्होंने मेल - मिलाप की बहुत कोशिश की पर वादी उनकी तरह सहिष्णु नहीं है। वे वादी - प्रतिवादिनी दोनों के साथ न्याय करना चाहते हैं। एक असंभव स्थिति। एक के प्रति किया गया न्याय स्वत: दूसरे के प्रति अन्याय हो जायेगा। और इस कुर्सी पर पीठासीन होने की बाध्यता यह फैसला देना ही होगा। और यह पहली बार होगा जब वे अपनी कलम के विलोम होंगे। कलम वादी के प्रति न्याय करते हुए फैसला देगी और उनकी इच्छा है प्रतिवादिनी की जीत हो।