विवशता / सुशांत सुप्रिय

Gadya Kosh से
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यदि आप की पीठ में कहीं असह्य खुजली हो रही हो तो आप को तब तक आराम नहीं मिलेगा जब तक आप उस जगह को किसी-न-किसी तरह खुजला नहीं लेंगे। लेकिन यदि आपकी स्मृति में कहीं खुजली हो रही हो तो आप क्या करेंगे? कुछ घटनाएँ ऐसी-ही होती हैं। जब तक आप उन्हें बता या सुना न लें, आप की स्मृति की खुजली नहीं मिटती। यह घटना भी ऐसी ही है। लेकिन स्मृति के पटल पर बरसों की धूल जमी हुई है। अब जब कि मुझे आपको यह वाक़या सुनाना ही है तो क्यों न समय की धूल झाड़कर इसे एक व्यवस्थित ढंग से सुनाया जाए।

यह कई बरस पहले के एक रविवार की बात रही होगी। ग़ालिबन मार्च का महीना रहा होगा। और मैं इंडिया गेट पर एक रैली की तस्वीरें खींचने आया हुआ हूँगा। मैं एक फ़ोटोग्राफ़र हूँ। उन दिनों किसी अंग्रेज़ी अख़बार के लिए काम करता था। जंतर-मंतर से शुरू हो कर यह रैली इंडिया गेट पहुँची थी। यहाँ आ कर यह रैली एक आम सभा में बदल गई थी। नेताओं के भाषण शुरू हो गए थे।

अब मैं स्मृति की आँख से खुद को देखता हूँ: अलग-अलग कोणों से वक्ताओं की फ़ोटो खींचते हुए। उन दिनों एक अच्छी फ़ोटो खींचना बड़ी मेहनत का काम होता था। सही कोण, अपलक आँख और सधे हुए हाथ। बेहद सजग और सतर्क रहना होता था। आजकल जैसी विकसित तकनीक नहीं होती थी तब के कैमरों में।

ढलती हुई धूप-छाँह में हम सब जैसे समय की नदी में बहे जा रहे थे। इंडिया गेट की बुलंद ऊँचाई ने जैसे स्वयं को आकाश में तैरते नीचे झुक आए बादलों को अर्पित कर दिया था। किसी कोण से एक वक़्ता की फ़ोटो खींचते हुए ही शायद मैंने उस तीखे नैन-नक़्श वाली गोरी युवती को पहली बार नोट किया था। हालाँकि उसके चेहरे पर एक अजीब तरह की घबराहट का भाव था जो उसे भीड़ में होते हुए भी भीड़ से अलग-थलग कर रहा था। मैंने कैमरे का फ़ोकस बदल कर फिर से फ़ोटो खींची। इस बार वह युवती फ़्रेम से बाहर थी।

कैमरे का शटर बंद करके मैंने उस युवती की दिशा में देखा। इस बार एक दाढ़ी वाला पुरुष भी उसके साथ दिखा। पुरुष के चेहरे पर एक व्यस्त दृढ़-निश्चय का भाव था। गोया वह किसी' मिशन' पर निकला हो। वह दाढ़ीवाला पुरुष उस युवती के कान में लगातार कुछ कह रहा था। युवती उद्विग्न लग रही थी। न जाने क्यों मेरे मन में उत्सुकता-सी हुई कि मैं उनकी बातें सुनूँ। मैं भीड़ में ही थोड़ा-सा उनकी ओर सरक लिया। किंतु विपरीत दिशा में बहने वाली हवा उनके शब्दों को मुझसे दूर उड़ाए लिए जा रही थी।

मैं उस युवती के चेहरे पर भय और घबराहट की मिली-जुली रेखाएँ साफ़ पढ़ सकता था। उस युवती की घबराहट जितनी ज़्यादा बढ़ रही थी, वह दाढ़ी वाला शख़्स उसके उतने ही क़रीब रह कर उसके कानों में कोई मंत्र फूँकता जा रहा था।तभी मेरी आँखें उस युवती की आँखों से मिलीं — उनमें बेचारगी और विवशता का भाव था।

क्या वह आदमी उस युवती को ज़बरदस्ती घर से भगा कर लाया था? क्या वह दाढ़ी वाला व्यक्ति उस युवती को किसी काम के लिए विवश कर रहा था?

मैं अख़बार के लिए रैली में शामिल मुख्य वक्ताओं की तस्वीरें खींच-चुका था। अब मेरा ज़हन युवती और उस दाढ़ी वाले शख़्स के बीच के सम्बन्ध की गुत्थी सुलझाने की क़वायद में लगा हुआ था। न जाने क्यों मैं जानना चाहता था कि इस समय वे दोनो क्या सोच रहे होंगे।

अचानक धाँय-धाँय की आवाज़ सुनाई दी। जैसे पास ही कहीं गोलियाँ चली हों। भीड़ में भगदड़ मच गई। लोग इधर-उधर भागने लगे। मैं सकते में था। दो मिनट बाद पता चला कि रैली की सुरक्षा के लिए तैनात किसी पुलिसकर्मी की राइफ़ल से ग़लती से गोलियाँ चल गई थीं। शुक्र यह था कि गोलियाँ किसी को लगी नहीं थीं और कोई नुक़सान नहीं हुआ था। रैली के आयोजनकर्ताओं ने माइक पर सही स्थिति की घोषणा की। तब जा कर लोगों की दहशत दूर हुई।

मैंने अपने चारो ओर निगाहें दौड़ाईं। लेकिन वह युवती और दाढ़ी वाला व्यक्ति अब मुझे कहीं नहीं दिखे। वे समूचे दृश्य से साफ़ ग़ायब हो चुके थे। भीड़ दोबारा जुट आई थी और वक्ताओं के भाषण फिर से शुरू हो गए थे। पर मैं वहाँ से निकल आया। काफ़ी देर तक मेरी आँखें उस युवती को ही ढूँढ़ती रहीं।

घर पहुँच कर मैं अपने कमरे में गया। वहाँ कम्प्यूटर के सामने बैठकर मैं कैमरे से खींची गई रैली की तस्वीरें अख़बार की साइट पर अपलोड करने लगा। और एक फ़ोटो में वे दोनो भी नज़र आ गए — वह युवती और वही दाढ़ी वाला शख़्स। फ़ोटो खिंचते समय वे दोनो कैमरे की ओर ही देख रहे थे। उस दाढ़ी वाले व्यक्ति की आँखें किसी बाज़ की आँखों-सी पैनी और नुकीली लग रही थीं, जबकि उस युवती की आँखों में घबराहट और विवशता झलक रही थी। कुछ देर तक मैं उन्हीं दोनो के बारे में सोचता रहा।

थकान की वजह से उस रात मुझे गहरी नींद आई। अगली सुबह देर से आँख-खुली। चाय बना कर पीते हुए मैंने सुबह के अख़बार पर निगाह डाली... और मेरा माथा घूम गया। मुख-पृष्ठ पर हाइवे पुलिस द्वारा कल रात नौ बजे एक मुठभेड़ में एक आतंकवादी को मार गिराने की ख़बर छपी हुई थी। मृतक की जगह उसी दाढ़ीवाले व्यक्ति की फ़ोटो थी। अख़बार में एक महिला आतंकवादी के भाग निकलने की ख़बर भी छपी थी। पुलिस सरगर्मी से उसकी तलाश कर रही थी। बताया गया था कि मृत आतंकवादी के पास-से कुछ हथियार और गोला-बारूद भी बरामद हुआ था।

मेरा सिर चकरा रहा था, लेकिन मेरा दिल अब भी यही कह रहा था कि वह युवती आतंकवादी नहीं थी। बल्कि उसके बच जाने की ख़बर से मैं थोड़ी राहत ही महसूस कर रहा था।

इत्तिफ़ाक़ से मुठभेड़ वाली जगह मेरे घर से केवल दो किलोमीटर दूर थी। नाश्ता करके मैं वहाँ पहुँचा। मीडिया में होने की वजह से मैं वहाँ मौजूद पुलिसवालों से मुठभेड़ के बारे में जानकारी हासिल करने लगा। लेकिन उस युवती के बारे में कुछ भी विशेष पता नहीं चला। फिर मैं काम के सिलसिले में अपने अख़बार के दफ़्तर चला गया। शाम के समय मैं थका हुआ घर लौटा। खा-पी कर सोने की तैयारी करने लगा। तभी दरवाज़े की घंटी अपरिचित अंदाज़ में बज उठी। रात के नौ बज रहे थे। मैंने दरवाज़ा खोला। अरे! आप यक़ीन नहीं करेंगे कि बाहर कौन खड़ा था! परेशान-सी हालत में वही रैली वाली युवती मेरे ठीक सामने खड़ी थी। शायद वह भी मुझे पहचान गई थी। इससे पहले कि वह कुछ कह पाती, उसकी परेशानी भाँप कर मैंने उसे अंदर बुला लिया। कुछ झिझकते हुए वह अंदर आ गई। पहले मैं खाने के लिए कुछ ले कर आया। कुछ सकुचाते हुए उसने चुपचाप कुछ खाया। खाना खाने के बाद मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि के जवाब में वह बोली, "आपकी बड़ी मेहरबानी, भाई साहब। मैं वह नहीं हूँ जो आप मुझे समझ रहे होंगे। मैं ख़ुद हालात के हाथों मजबूर हूँ। मैं आपको भी किसी परेशानी में नहीं डालना चाहती। आज रात के लिए मुझे पनाह दे दीजिए। कल सुबह मैं ख़ुद ही यहाँ से चली जाऊँगी।"

"अगर आप अपने बारे में कुछ बताना चाहें तो बता सकती हैं। यहाँ आप महफ़ूज़ हैं।" मैंने कहा। ज़बान और शक्ल-सूरत से वह कश्मीर की जान पड़ती थी।

जब वह सिर झुकाए बैठी रही तो मैंने उस पर ज़्यादा दबाव डालना ठीक नहीं समझा। उसे रात के लिए मेहमान के कमरे में भेज कर मैं अपने कमरे में आ गया। थका हुआ तो था ही। जल्दी ही मैं नींद के आगोश में चला गया।

सुबह आदतन देर से आँख-खुली। मैं सीधा मेहमान वाले कमरे की ओर भागा। लेकिन तब तक देर हो गई थी। कमरा ख़ाली पड़ा था। वह जा चुकी थी। कई सवालों की गुत्थी अनसुलझी छोड़ कर। वह जिस रहस्य के चादर में लिपटी हुई आई थी, उसी में लिपटी हुई न जाने कहाँ लौट गई थी। मेज़ पर एक रुक्क़ा पड़ा था जिस पर अंग्रेज़ी में लिखा था: "थैंक्यू, सर।" उसके बारे में और कुछ जानने की मेरी इच्छा मन में ही रह गई थी।

इस वाक़ये के दो-तीन माह बाद मेरे अख़बार ने मुझे एक कॉन्फ़्रेंस के सिलसिले में श्रीनगर, कश्मीर भेजा। कश्मीर में उन दिनों हालात तनावपूर्ण थे। लेकिन मैं वहाँ जाने के मौक़े से वंचित नहीं होना चाहता था।

कॉन्फ़्रेंस के अंतिम दिन शाम के समय मैं लाल चौक-के इलाक़े में घूम रहा था। अचानक वहाँ आतंकवादियों ने एक सुरक्षा चौकी पर कुछ ग्रेनेड फेंके। फिर दोनो ओर से गोलियाँ चलने लगीं। चारो ओर भगदड़ मच गई। दुकानों के शटर फटाफट नीचे गिरने लगे। देखते-ही-देखते सड़क वीरान हो गई। मैं भाग कर नज़दीक-की एक' ड्राइ-फ़्रूट्स' की दुकान में घुस गया। दुकान एक कश्मीरी युवक की थी। लेकिन आप फिर यक़ीन नहीं करेंगे। मैं हैरान रह गया जब वह रैली वाली युवती भी मुझे उस दुकान में दिख गई। हम दोनो ही एक-दूसरे को पहचान गए। युवती ने युवक से कश्मीरी भाषा में कुछ कहा। हममें परस्पर' आदाब' हुआ। युवती ने बताया कि वह युवक उसका भाई है। युवक ने दिल्ली में उसकी बहन की मदद करने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया।

मुठभेड़ ख़त्म होने के आधे घंटे बाद लाल चौक पर सब कुछ पहले जैसा हो गया। दुकानें फिर खुल गईं। रौनक़ फिर लौट आई। मैंने यह सब देखकर हैरानी प्रकट की। इस पर युवती ने कहा —" यहाँ यह सब तक़रीबन रोज़ ही होता है। हमें इस सब के साथ ही जीने की आदत पड़ गई है।"

युवती का नाम रुख़साना था। उसके भाई का नाम-मंसूर था। जब मैं चलने लगा तो उन दोनो ने ज़िद की कि मैं उनके साथ उनके घर चलूँ। मैंने उनकी मेहमाननवाज़ी क़बूल कर ली। उनका घर डाउनटाउन श्रीनगर के हब्बाक़दाल इलाक़े में था। वहाँ मैं उनकी अम्मी से भी मिला। भेड़ का लज़ीज़ गोश्त मैंने पहली बार वहीं चखा। वहीं मैंने कहवा का लुत्फ़ भी उठाया।

खाने के दस्तरख़ान पर मैंने रुख़साना से वह बात भी पूछ ली जो मेरे लिए अब तक एक रहस्य बनी हुई थी: यदि वह मिलिटैंट नहीं थी तो वह उस दाढ़ी वाले शख़्स के साथ दिल्ली में क्या कर रही थी?

"भाई जान, उन्होंने मेरे अब्बू को मार डाला था और मेरे भाई मंसूर को अगवा कर लिया था। उन्हें अपने मिशन को अंजाम देने के लिए एक ख़ातून की ज़रूरत थी। और वह बदकिस्मत ख़ातून मुझे बनना पड़ा था। अगर मैं उनका कहा नहीं मानती तो वे मंसूर को भी मार डालते...।" रुख़साना की आँखों में आँसू थे।

"आपके अब्बू के साथ जो हुआ, मुझे उसका अफ़सोस है।" उसके ग़म-में शरीक होते हुए मैंने कहा, "लेकिन क्या आप जानती हैं, जब मैंने पहली दफ़ा आपको इंडिया गेट की रैली में देखा था, मैं तभी समझ गया था कि आप वहाँ किसी मजबूरी के तहत हैं। अख़बार में भी जब उस दाढ़ी वाले शख़्स के मारे जाने और आपके भाग निकलने की ख़बर छपी थी, तब भी मेरे दिल ने यही कहा था कि आप मिलिटैंट नहीं हो सकतीं।"

"उस रात मुझे पनाह देने के लिए शुक्रिया, भाईजान।" जज़्बाती होते हुए उसने कहा।

मैं' यह तो मेरा फ़र्ज़ था' जैसा कोई डायलॉग बोल सकता था। लेकिन मैंने केवल इतना कहा, "मैं आप की विवशता, मेरा मतलब मजबूरी पर एक कहानी लिखना चाहता हूँ। क्या आपकी इजाज़त है?"

"ठीक है, भाईजान। पर नाम वग़ैरह बदल दीजिएगा।" मुस्कराते हुए वह बोली।