विवाद-संवाद /अशोक भाटिया
बच्चे बाप के बाप होते हैं, यह मैंने उस दिन जाना। मैंने छुटकी को कहानी सुनानी शुरू की, तो बड़की भी आकर बैठ गई, कहानी आप भी सुनिए।
‘सीता के स्वयंवर में, राम ने शिव-धनुष तोड़ दिया, तो सीता के पिता राजा जनक बहुत खुश हुए। राम से पहले बहुत-से राजा उस धनुष को हिला भी न पाये थे।
लेकिन उसी समय परशुराम यहाँ पहुँचे, तो रंग में भंग पड़ गया। टूटे हुए शिव-धनुष को देखते ही परशुराम आपे से बाहर हो गये...हालाँकि लक्ष्मण ने कहा कि पुराने धनुष को तोड़ने में क्या हानि, पर परशुराम बोले कि तुम मुझे नहीं जानते, मैं विश्व-विख्यात क्षत्रिय-कुल का शत्रु अपनी भुजाओं के बल से, अनेक बार पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं से रहित कर चुका हूँ...
छुटकी बड़े चाव से कहानी सुन रही थी, पर बड़की ने बैठे-बैठे मुँह फेर लिया। वह बोली- ‘पहले बताओ, परशुराम को विष्णु का एक अवतार माना जाता है न?
“हाँ- हाँ!” मैंने कहा
“‘तो अगर अवतार भी, जाति-वर्ण की बात करे, तो वह कैसा अवतार ?”
“...पर वह तो विश्व-प्रसिद्ध वीर था।”
“तो क्या वीरता भी जाति पर आधारित होती है?” बड़की ने तर्क किया
“नहीं, ऐसी बात नहीं।”
“आपने ही एक बार बताया था कि परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन किया था।‘‘
“हाँ लेकिन...”
“लेकिन परशुराम को इस पृथ्वी पर रावण जैसा दुष्ट क्यों नहीं दिखाई दिया ?”
“यह कोई सवाल नहीं है, बेटी !”
“सवाल है। अगर जाति को छोड़कर, हमारे पूर्वजों ने अन्याय का एकमत से विरोध किया होता, तो आज देश की हालत यह नहीं होती!‘‘ कहकर वह उठ खड़ी हुई। पीछे मेरे-आपके लिये यह यक्ष – प्रश्न छोड़ गई।