विविध भावों की सुमधुर अभिव्यक्ति: भोर के अधर / सुरंगमा यादव

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भोर के अधर जब खुलते हैं, तो नभ में उसके कोमल अधरों की लाली छा जाती है। पक्षी चहचहाने लगते हैं। पक्षियों के कलरव के मिस प्रकाश के पदचाप सुनकर अंधकार क्षितिज पटी पर स्थान ढूँढने लगता है, वहाँ भी ठौर न मिलने पर तिरोहित हो जाता है अथवा चाँद- सितारों की तरह प्रकाश का आवरण ओढ़कर प्रकाशमय हो जाता है। अधूरे स्वप्नों को पूरा करने के लिए जगतीतल पर जागरण- ध्वनि गूँजने लगती है। इसी प्रकार जब कविता ‘भोर के अधर’ के रूप में प्रकट होती है तो मन- भाव विहंग कूजने लगते हैं और विकीर्ण होने लगती हैं कोरे पन्नों पर शब्दों की किरणें जो अंतस में उजाला भर देती हैं।

मैं बात कर रही हूँ श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के सद्यःप्रकाशित काव्य संग्रह ‘भोर के अधर’ की। इस संग्रह में कवि की फरवरी 1971 से अगस्त 2022 तक की रचनाएँ संगृहीत हैं। संग्रह में गीत, नवगीत तथा मुक्त छंद की 80 कविताएँ समाहित हैं। अलग- अलग मूड की इन कविताओं में सुख -दुख, हर्ष -विषाद,प्रेम- पीड़ा,आशा- निराशा,प्राकृतिक सौंदर्य,सामाजिक चेतना आदि का प्रभावशाली चित्रण देखने को मिलता है।

कवि का प्रेमी मन प्रकृति के विभिन्न उपादानों में प्रिय दर्शन करता है । फूलों की सुगंध, चाँद का उज्ज्वल हास, वसंत का मादक यौवन, वर्षा की जलधारा में कवि अपने प्रिय का रूप निहारता है। वह अपने निस्सीम हृदयाकाश में प्रिय का स्नेह संचित कर लेना चाहता है-

फूलों में थी महक तुम्हारी /और चाँद में था उजियारा।

मिला वसंत को यौवन तुमसे /पावस को उज्ज्वल जलधारा

स्नेह फुहार से भीग न जाए जब तक तन- मन

हृदय के निस्सीम गगन से मत जाना।

संग्रह में अनेक कविताएँ प्रेम- भावना का सुन्दर निरूपण हैं। दूसरे द्वार जा नहीं सकता, दो आँसू, कुछ हो जाता है, तुम्हें पाने को, तुम्हारा आना, सूनी सेज, अनुबंध लिखो, इसी श्रेणी की कविताएँ हैं। दुनिया के रंग -ढंग देखकर कवि को निराशा होती है; इसीलिए वे कहीं दूर जाने की कामना करते हैं। जहाँ सुख -दुख, अभिमान, तर्क -वितर्क कुछ भी न हो। संसार में कोई किसी का सच्चा साथी नहीं है। मंजिल की चाह में चलते-चलते खुद अपने ही पाँव थकने लगते हैं। फिर भी कवि को किसी से कोई शिकायत नहीं है। वह बेगानों का साथ भी नहीं छोड़ना चाहते हैं-

अपनेपन से दूर कहीं हम इक नीड़ बसा लें/बेगानों की उसमें भी फिर इक भीड़ लगा लें

बिना सहारे अब तक मैंने दुःख सब झेला है /आकर देख चाँद का जीवन घोर अकेला है।

नीड़ बसा लें, ले चल, पाँव थक गए, मोम -सा मन, मैं चलता रहा, मैं नहीं आशा किसी की आदि कविताओं में नैराश्य भाव प्रकट हुआ है, परंतु ये नैराश्य भाव क्षणिक है। कवि की दृष्टि पूर्णतया आशावादी है। कंटकाकीर्ण पथ कवि को रोक नहीं पाते, जैसे पत्थरों से टकराकर भी नदी की धारा रुकती नहीं है, हजारों चरण भी अपने पदाघात से पर्वत को झुका नहीं पाते और कोई ऐसी रात्रि नहीं होती जो भोर को आने से रोक सके-

कंकड़- पत्थर / खाकर बहता जल/

कब है रुक पाया / कुचल गए जो चरण हजारों,/

क्या पर्वत झुक पाया ! / मिल नहीं सका जिसे सवेरा, ऐसी रात नहीं।

इसीलिए वे जीवन में सदैव बढ़ते रहने का आह्वान करते हैं, परिस्थितियाँ चाहे जो हों-

रास्ते में हैं अँधेरे / या कुछ उजले सवेरे।

सोचना बिल्कुल नहीं / नदी तुम बहती चलो।

आज राजनीति में विचारधारा और आदर्शों पर स्वार्थ का आधिपत्य है। जनता को लुभाने के लिये तरह- तरह के जुमले उछाले जाते हैं। इनकी भाषा कुछ और भाव कुछ और होता है। कवि ने इन अवसरवादियों की तुच्छ मानसिकता का सटीक चित्रण किया है। अवसरवादिता, चाँद पे थूके, पर्दा, जुग-जुग जियो समाजवाद, गिरगिट ऐसी ही रचनाएँ हैं-

चाँद पे थूके, थूकके चाटे / जिसको चाटे, उसको काटे

श्वान नहीं ये, सर्प आज के! /मिले जो निगले, जहर ही उगले

हड़क पदों की, नस्ल गधों की/इन पर अपना देश टिका है।

आज के तथाकथित आधुनिक लोग भौतिकता में ही सुख तलाशते हैं। बड़ा घर, बड़ा बैंक बैलेंस, लेन- देन पर टिके रिश्ते -नातों में अपनापन तलाशने वाले लोग एक झूठी खुशफहमी का शिकार हैं। सुविधाओं की भरमार होते हुए भी व्यक्ति कुंठाग्रस्त हो रहा है। ‘तलाश’ जैसी कविताएँ ऐसी ही मानसिकता की अभिव्यक्ति हैं।

‘भोर के अधर’ काव्य- संग्रह की कविताएँ विभिन्न विषय और भावों को अपने में समेटे हुए हैं। कहीं इन पर छायावाद की झलक है तो कहीं प्रगतिवाद की। कुछ कविताएँ निर्वेद की मन:स्थिति में लिखी गई हैं। प्रेम- कविताओं में गहनता और भावों की सघनता है। संग्रह की कविताएँ पाठकों को निश्चय ही रससिक्त करेंगी।

भोर के अधर (काव्य- संग्रह); रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, आईएसबी एन:978-93-94221-45-1, मूल्य- ₹300, पृष्ठ:120, प्रकाशन वर्ष- 2022, प्रकाशक - अयन प्रकाशन, जे- 19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059