विशाखा / प्रतिभा सक्सेना
किसी किसी के साथ ऐसा क्यों होता है कि सारा जीवन वंचनाओं में बीत जाता है। सबको जो सहज रूप से उपलब्ध है उनके लिये वर्जित रह जाता है। विषम परिस्थितियाँ रगड़-रगड़ कर, इतना माँजती हैं कि चढ़ती उम्र की सारी चमक-दमक फीकी पड़ जाती है और रह जाता है रंगहीन नीरस जीवन !
मेरी सबसे घनिष्ठ मित्र विशाखा, और उसकी छोटी बहिन ललिता !आज दोनो ही इस दुनिया में नहीं है इसलिये सब- कुछ कह पा रही हूँ। जब तक कहानी चलती है मन उसी के अनुभावन में डूबा हुआ घटनाक्रम तक सीमित रहता है, सोच-विचार का नंबर इसके बाद आता है. विशाखा की जीवन-कथा समाप्त हो गई है, अपने को अकेले अनुभव करती हुई, मैं अलग खड़ी रह गई हूँ। बहुत दिनों तक सोचती रही कैसे क्या करूँ ! इतनी घनिष्ठता थी कि आत्मस्थ और तटस्थ होने में काफ़ी समय लग गया।
सारा जीवन असामान्य स्थितियों के बीच उसने कैसे जीवन बिताया होगा, सोचती ही रह जाती हूं। सीलन भरी कुठरिया में चटाई पर ढिबरी की रोशनी में आधी-आधी रात तक पढना पडता था। बहुत दुबली थी वह। बिल्कुल विश्राम नहीं, पाँवों में सूजन आ जाती थी। बाद में सूजन स्थाई हो गई थी - कभी कम, कभी ज्यादा। खड़े होने और चलने में उसे कष्ट होता था। रीढ़ की हड्डी भी परेशान किये थी। मुझसे 3-4 वर्ष बड़ी थी विशाखा और ललिता उससे कुछ वर्ष छोटी। 1934-35 में जन्मी होगी, या इससे कुछ पहले क्योंकि तब जन्मदिन याद रखना किसी को ज़रूरी नहीं लगता था -जो व्यक्ति स्कूल में नाम लिखाने जाता था उसे जो ध्यान आया लिखवा देता था। उस समय के बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिनकी ठीक-ठीक जन्मतिथि लिखी गई हो, फिर विशाखा-ललिता तो लड़कियाँ ठहरीं।
पिता ठेकेदार थे, घर में सिर्फ दो पुत्रियाँ, खूब लाड़- प्यार लेकिन कितने दिन !अति उत्साही माता पिता ने नौ वर्ष की होते- होते विशाखा और उससे छोटी ललिता दोनों का विवाह रचा दिया !गौना कई-कई वर्षों बाद दिया जाना था। ठेकेदारी अच्छी चलती थी, पैसे की कमी नहीं थी कई मकान थे उनके। अक्सर ही ऐसे में रिश्तेदारों को अपनों की समृद्धि सहन नहीं होती.विशाखा के पिता की अकाल मृत्यु होगई या हत्या कर दी गई.किंकर्तव्यवमूढ अपढ़ पत्नी अपने दुःख और हताशाओं में डूबी किसी निश्चय पर पहुँचने में समर्थ नहीं हो पाई। सच बताता भी कौन !जिन लोगों से घिरी थी, उनके अपने स्वार्थ थे,जितना वसूल कर सकते हो कर लो यही मौका है.किससे कितना लेन-देन बाकी है किसी को पता नहीं. लोगों ने उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाकर सब कुछ हड़प लिया।
दोनों पुत्रियों के ससुरालवालों को लगा कोई भाई तो है नहीं, मकान हमें मिलना चाहिये.एक मकान में किरायेदार थे, जो खाली करने के बजाय हथियाने पर उतारू थे। दूसरे मकान में वे खुद रह रहीं थीं। उन लोगों को लगा कि ये लोग बहाने बना रहे हैं। वे भी लड़ाई -झगड़े पर उतारू हो गये। विपन्न विधवा ने लोगों के घर खाना बनाने का काम किया, एक कमरे में सिमट कर बाकी भाग किराये पर उठाया तब पेट भरने का जुगाड़ कर पाई। कैसे उन दोनो बहनों ने दो-तीन सूती साड़ियों में साल- साल भर निकाला, कैसे मिट्टी के तेल की ढिबरी जला कर पढाई की और किसी तरह आठवीं पास कर नौकरी का जुगाड़ किया। फिर ट्यूशन और प्राइमरी स्कूल के अल्प वेतन से माँ और बहिन के साथ गुज़ारा करते हुये उसने दसवीं पास की। ससुरालवालों ने कैसे-कैसे हथकंडे अपनाये और परेशानियाँ पैदा करते रहे यह सब वही जान सकता है जो उन स्थितियों से गुज़रा हो।
तब उसे मध्य-भारत कहा जाता था जिसे अब मध्य-प्रदेश कहा जाता है !मालवे की साँवली धरती का एक छोटा सा शहर- शाजापुर -लड़कियों का एक हाई स्कूल और लड़कों के लिये जनता इन्टर कॉलेज, मुझसे बड़े भाई कुछ वर्षों तक यहाँ के प्रिन्सिपल रहे थे। बी.ए मैंने पास किया तभी लडकियों के स्कूल की हेडमिस्ट्रेस ने भाई साहब से कहा कि वे मुझे स्कूल में नियुक्त करना चाहती हैं। उस समय मध्यभारत में लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था, बहुत कम बी.ए. पास लड़कियाँ मिलती थीं। यह बताने पर भी कि अभी 18 वर्ष की होने में 6 महीने बाकी हैं उन्होंने मुझे ज्वाइन कराया और विशेष अनुमति दिलवाई। मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया, अंतिम दर्शन नहीं कर पाई।
पिता का न होना पुत्री के लिये क्या होता है यह विशाखा ने और मैंने पूरी तीव्रता के साथ अनुभव किया था। इस अनुभव तक कोई भुक्तभोगी ही पहुँच सकता है। जीवन की बहुत सी समस्यायें विशाखा ने और मैंने एक दूसरी से बाँटी हैं.उस उम्र में घर से पहली बार बाहर के जीवन में बहुत प्रकार के लोगों के बीच, बहुत बातें समझ में नहीं आतीं थीं. कभी-कभी बड़ा अजीब लगता था, तब विशाखा से मुझे संबल मिलता था। ऑल इंडिया रेडिओ पर जब कविता-पाठ करने का कार्यक्रम होता था तो विशाखा ही मेरे साथ जाती थी।
'बीती ताहि बिसारिये' की बात हर जगह लागू नहीं होती अक्सर बीत कर भी कुछ ऐसा होता है जो बीतता नहीं और आगे के रास्ते के बीच बाधा बन बन कर खड़ा हो जाता है. आगे की सुध लेने के बजाय भीतर की चुभन को झेलते -सहलाते सारी ताकत चुक जाती है। किसी के भीतर कितने और कैसे-कैसे अभाव भरे हैं,विचलित मन किन किन स्थितियों से गुज़रा और कैसे उसे सँभाला इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता। जीवन की गहराइयों में जो छिपा पड़ा है उसका कुछ आभास भले ही परखनेवालों को हो जाय पर उसे जानना -समझना सभी के बस की बात नहीं। यह भी अच्छा ही है नहीं तो जाने कितनी गलतफ़हमियाँ खड़ी हो जायें।
हम सब अपना विस्तार करते हैं परिवार के भीतर और बाहर भी.एक स्त्री के लिये घर के बाहर की सारी सीमायें सील करने की साजिश क्यों रची जाती है? पति के अलावा और किसी से मतलब न रहे, घर में सीमित रह कर जीवन गुज़ार दे, कहीं कोई अपना कहने को न रह जाय कही कोई नहीं। पता नहीं क्यों दुनिया-भर की जवाबदेही औरत के पल्ले बँध जाती है।
विशाखा की माँ को जब घर के गहन सुरक्षा-कवच से बाहर निकल कर छाँह रहित धरती पर चारों ओर मुँह बाये समस्याओं से जूझना पड़ा,तो सारी सुकुमारता हवा हो गई और वे एक रसहीन ठूँठ- सी रह गईं। विशाखा से क्या-कुछ नहीं कहा गया और क्या-क्या आलोचनाये नहीं की गईं। पढ़े-लिखे प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोगों ने, उसे अपना साथी कहने का दम भरने वालों ने भी, पीठ पीछे तोहमत लगाने से बख़्शा नहीं।
बचपन से ही उसके परिवार की अपने निकट रहनेवाले शर्मा परिवार से बहुत घनिष्ठता थी.मालवे में संबंध कोरे कहने भर के नहीं होते, वास्तव में माना और निभाया जाता था। तब से 48 वर्ष बीत चुके हैं, दुनिया बहुत बदल गई है. अब, जब अपने ही अपनों से तटस्थ रहना पसन्द करते हैं वहां कैसा क्या होगा कह नहीं सकती।
हाँ, तो उन दोनों घरों में बहुत अपनापा था। उस घर का बड़ा बेटा बाबू-देवी दयाल और विशाखा का बचपन से एक दूसरे के साथ रहे थे, दोनों में गहरी मैत्री रही थी। विपन्नता के दिनों में भी उन लोगों ने मुँह नहीं मोड़ा था। बाहर के कामों के लिये बाबू और उसका छोटा भाई, शिव हमेशा तत्पर रहते थे। रोज हाल-चाल पता करना और कोई काम हो तो कर देना उनकी दिनचर्या में आ गया था। उस घर की बेटी का विवाह हो गया, बाबू और शिव की नौकरी लग गई। शिव दूसरे शहर चला गया, और बाबू अपने माता-पिता के साथ शाजापुर में ही रहा।
बाबू के विवाह की बातं चल रहीं थीं। विशाखा के परिवार पर आ पड़े दुःख में वह सहायक बना रहना चाहता था। बचपन से वह विशाखा का मित्र रहा था। वह उस समय शादी करने को तैयार नहीं था टालता जा रहा था। विशाखा ने समझाया कि ऐसा न करे, इससे तो बेकार उसकी बदनामी होगी कि उसके कारण विवाह नहीं कर रहा है। विवाह हो गया। उसकी पत्नी इस घर की बेटियों को ननद मानने लगी। लेकिन कान भरनवालों को चैन कहाँ !रोज एक बार विशाखा के घर आने के नियम पर उसे आपत्ति होने लगी। बाबू ने कहा तू भी मेरे साथ चल हम दोनों चलेंगे, उनके घर कोई मर्द नहीं है, हम लोग जाते रहेंगे तो उन्हें सहारा रहेगा, बाहर के लोग भी सोचेंगे कि इनके लिये कोई खड़ा है. किसी की हिम्मत नहीं पड़ेगी कि उन्हें परेशान करे। उसका कहना था कि हमने उनका ठेका ले रखा है क्या !बाबू की माँ ने भी बहू को समझाने की कोशिश की पर उसने समझना नहीं चाहा।
उसकी पत्नी एक साधारण महिला, विशेष पढ़ी-लिखी नहीं, और पढ़-लिख कर भी महिलायें कौन बड़ी उदार हो जाती हैं.दूसरी महिला की बात आते ही उनकी कसौटी बदल जाती है। और जब पति उनका हो कर सहायता करना चाहे बचपन की मैत्री के नाते ही, तो उनके मन में कितने ही वहम पैदा होने लगते हैं। वहम न भी हों तो यह उन्हें उचित नहीं लगता कि औरों के प्रति उनका पति इतना संवेदनशील क्यों है!
सोचती रह जाती हूँ, दुनिया में कितने दुःख हैं कि दूसरे पर क्या-क्या गुज़रा है और उसके जीवन की गहराइयों में क्या-क्या समाया है इसकी थाह पाना भी संभव नहीं। किसी के बारे में कितना कम जानते हैं हम, और फिर भी आलोचना करते समय अपने को सर्वज्ञ समझने का दम भरते हैं। लोग मुझसे भी विशाखा के बारे में काफ़ी कुछ कहते थे और मैं उसका पक्ष स्पष्ट करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाती थी। कहनवाले की ज़ुबान तो पकड़ी नहीं जा सकती। मैं विशाखा से भी नही कह पाती थी। कभी -कभी हम दोनों देर तक एक दूसरे के पास चुप बैठे रहते थे।
बाबू ने मित्रता पूरी तरह निभाई, विशाखा की माँ थीं तब भी और उनकी मृत्यु के बाद भी। दिन में एक वह जरूर हाल-चाल लेने आता रहा,किसी के कहने सुनने की परवाह उसने नहीं की। उसके बच्चे विशाखा -ललिता को बुआ कह कर सम्मान दते रहे, परिवारों का संबंध बना रहा बाबू की पत्नी भी आती जाती रही, बुलाती रही कभी कभी थोड़ी बेरुखी दिखा देती थी।
1958 में मेरा विवाह हो गया मैं बहुत दूर उत्तर प्रदेश में नैनीताल के पास चली गई.कुछ वर्ष नये जीवन में व्यवस्थित होने में लगे,पर विशाखा से संबंध बना रहा। बच्चे कुछ बड़े हो गये तो मैं फिर शाजापुर जाने लगी। वर्ष में एक बार, एक सप्ताह विशाखा के पास रह कर मुझे लगता था कि आगे एक वर्ष के लिये चार्ज हो गई हूँ। मध्यभारत के खुले वातारण से आ कर उ.प्र में रहना बड़ा मुश्किल और घुटन भरा लगता था। घर से बाहर अपने आप कुछ करने का उस समय सोचा भी नहीं जा सकता था। इस बीच उसका कुछ जगह ट्रान्सफ़र हुआ और फिर वह शाजापुर आ गई, जहाँ अंत तक रही।
शाजापुर का वह घर मुझे याद आता है, अब मैं कभी वहाँ नहीं जा सकती। वह घर किसी और का हो चुका है, वह छोटा सा अपना शहर अब मेरे लिये पराया हो गया है।
ललिता के ससुरालवालों ने बहुत परेशान किया था। उसे बुला कर मारा-पीटा, सिर पर धारदार हथियार से वार किया था, ललिता कई महीने विक्षिप्त सी रही। फिर विशाखा ने किसी तरह आठवीं पास करवा कर उसकी भी नौकरी एक प्राइमरी स्कूल में लगवा दी। विशाखा के ससुरालवालों ने उसके सारे जेवर हड़पने के बाद कभी उससे संबंध नहीं रखा। बहुत बाद में उसने तलाक लिया था। तब भी लोगों ने बहुत बातें उछालीं कि उसे तलाक लेने की क्या जरूरत आ पड़ी। चर्चा होने लगी कि अब वह बाबू से शादी करना चाहती है। एक बहुत प्रबुद्ध माने जानेवाले व्यक्ति ने मुझसे पूछा था वह तलाक ले रही है, इसका मतलब शादी करेगी। मैने उत्तर दि याथा -वह शादी के लिये तलाक नहीं ले रही है। शंकालु स्वर में वे फिर बोले -तो फिर बाबू का आना जाना बंद क्यों नहीं कर देती?मैंने समझाने की कोशिश की थी पर जब कोई समझना ही न चाहे तो तब क्या किया जा सकता है। विशाखा ने मुझसे कहा था अगर बाबू से शादी करनी होती तो मैं पीछे पड़- पड़ कर उसकी शादी क्यों करवाती?मैंने इसलिये तलाक लिया है कि कभी वे लोग मेरी कमाई और मुझ पर हक जमाने न आ जाय़ँ। सच है दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है
विशाखा आर्टिस्ट थी, चित्रकला की शिक्षिका भी। मेरे साथ नैनीताल घूमने के बाद मेरी पुत्री के विवाह में आई थी। 1995 में काफ़ी दिन कैंसर से पीड़ित रहने के बाद उसे इस दुनिया से छुटकारा मिल गया। दो महीनेबाद ललिता का भी देहावसान हो गया। बहुत सुन्दर थी वह, लंबी, गोरी, बड़े-बड़े नेत्र, जिन्हें पलकें छाये रहतीं थीं, तीखे नाक-नक्श और खूव घने, खूब लंबे बाल। मिडिल स्कूल में शिक्षिका से प्रणय-निवेदन करने में शायद कुछ विशेष विचार न करना पड़ता हो (ग्रेज्युयेशन तो उसने बहुत बाद में कर पाया था.)। विशाखा से कई लोगों ने प्रणय-निवेदन किये थे। उनमें से कई को मैं जानती हूँ। घर-परिवारवाले दरिया- दिल लोग - एक अदद फ़्री मेल की प्रेमिका रखने में जिन्हें गहरी आत्मतृप्ति मिलती और समाज में शान और बढ जाती। पर वह बहुत दृढ़ चरित्र की थी, किसी को जरा सी छूट देना भी उसे गवारा नहीं था।
बाबू उसका बचपन का सखा था। मैंने एक बार उससे पूछा था, 'विशाखा, तुम बाबू से कितनी अंतरंग हो?' उसने उत्तर दिया, 'जब माँ थीं तो एक बार उसने होली पर मेरे गालों पर गुलाल लगा दिया था.। ..पर फिर कई दिनों तक मेरी उसके सामने होने की हिम्मत नहीं पड़ी, वह भी माँ और ललिता से मिलकर बाहर ही बाहर चला जाता रहा। बस एक ही बार !'
मुझे श्री कृष्ण और द्रौपदी की मित्रता याद आ गई। वे तो अपना राज-पाट और भरा-पुरा रनिवास छोड़ कर उसकी विपदा की हर परिस्थिति में वन-पर्वत लाँघ कर उसका साथ देते और मान बचाते रहे थे। अपनी बुआ कुन्ती के कहने पर कि मेरे पुत्र क्षात्र-धर्म से विमुख होते जा रहे हैं और द्रौपदी के कारण ही उन्होंने महाभारत युद्ध की भूमिका रची। कृष्ण सारी विसंगतियों को जानतो थे। जहाँ पिता वानप्रस्थ की अवस्था में अपने पुत्र का यौवन लेकर अपनी लालसाओं को तृप्त करे, जहाँ स्वयंवर की अधिकारी कन्याओं का जबरन हरण कर उन्हे नपुंसक की ब्याहता बना कर अरुचिकर पुरुष से नियोग करने को बाध्य किया जाय,तो कैसी संतान होगी और कैसा समाज !जहाँ स्त्री अस्मिता से रहित, आरोपित मर्यादाओं में बँधी, पुरुषों की इच्छानुसार चलनेवाली कठपुतली बन गई हो- मन और आत्मा से रहित ! कृष्ण ने पहले गोकुल में रह कर गोपियों को संसार में रहते हुये मुक्ति का आस्वाद कराया। यांत्रिक जीवन का एक पुर्ज़ा मात्र न रह जायँ इसलिये मानवी धरातल प्रतिष्ठित कर मानस को चेतना की अनुभूति कराई. कहीं जीवन का रस सूख न जाये, इसलिये उन्हें वर्जनाओं के घेरे से छुटकारा दिलाया। जीवन आनन्द का नाम है, अपने सीमित घेरे से बाहर आकर उसका रसास्वादन करो। कलायें और भावनायें उच्चस्तर पर ले जाने और मानस को समृद्ध करने लिये हैं उनसे निरपेक्ष हो जीवन को एक बेगार की तरह मत काट दो -यही संदेश उन्होने गोपयों को दिया था. उनका यदुवंश भी पतन के किस कगार पर जा पहुँचा था वे समझ रहे थे। उसका नाश निश्चित है यह भी वे जानते थे। अपनी कामना तृप्ति के लिये नहीं वञ्चनाओं से बचाने के लिये रनिवासों में बंदी विवश नारियों को अपना कर गौरवमय जीवन प्रदान किया। ऐसे कृष्ण को सिर्फ़ रसिया कहनेवाले, अगर विशाखा पर आरोप लगायें तो कोई क्या कर लेगा! अरे, मैं विषय से भटकी जा रही हूँ !
विशाखा के साथ मैंने जो दिन बिताये वे भूल नहीं सकती। शाम को अक्सर ही हम दोनों टहलने निकल जाते थे। रोडेश्वरी देवी के मंदिर की सीढ़ियों पर बैठना, परिक्रमा-पथ पर पीछे के वन-प्रदेश का आनन्द लेना। कभी-कभी पानी बरसते में भीगते हुये आना और घर पर हरी मिर्चवाले भजिये खाना। कितना स्वाद होता था उन दिनों सब चीज़ों में। अब वे स्वाद खो गये हैं, अब तो रोटी में भी वह बात नहीं रही। खाद दे-दे कर बहुतायत से उगाई गई चीजों में से स्वाद का तत्व उड़ जाता है। अब न वह हवा है, न वह पानी, न वे लोग न वह व्यवहार। बस सब कुछ चल रहा है चले जा रहा है। सच में तो अब वह मन ही नहीं रहा है.
मालवे के वन-भोजन याद आते हैं। दो-तीन परिवार इकट्ठे होकर आवश्यक सामान सहित कभी नदी के किनारे वन में निकल जाते थे। वहीं लकड़ी-कंडे बीन कर दाल, बाटी,चूरमा बना कर ढाक के पत्तों के दोने पत्तलों पर कर भोजन होता था और पेड़ों की छाँह में मनोरंजन -संगीत, ताश, अंताक्षरी आदि। शरद्पूर्णिमा की रात छत पर खीर पकने चढ़ी रहती थी और चाँदनी में श्वेत चादरों पर कविता, संगीत का दिव्य वातावरण। अब ऐसा कुछ कहीं नहीं होता।
विशाखा चली गई। वृद्ध हो गई थी वह, निर्बल और असहाय ! बाबू का स्वर्गवास पहले ही हो गया था। इस दुनिया से उसे मिला ही क्या अभाव, संताप और तीखी आलोचनाओं के सिवा? जीवन की कटुतायें झेलते -झेलते थक गई थी। जाने कैसी तपस्या थी सारा जीवन कष्ट उठाते, कठिन साधना में बीता था। अब यहाँ करना भी क्या था। पीछे पीछे ललिता भी चली गई।
मैं सोच में थी कि पता नहीं उसे उस पारस्परिक वचन की याद है या नहीं कि जो पहले इस संसार से जाय उसे कम से कम एक बार दूसरी से मिलने आना है। वह आई। स्वप्न नहीं था वह. मैं सोचने- समझने की स्थिति में थी। वह सच में आई थी। बस एक बार। वह स्वस्थ थी, अपनी संतोषपूर्ण स्थिति में जैसी लगा करती थी वैसी लग रही थ। हम लोगों ने बहुत देर तक बातें कीं। फिर वह चली गई, उसे जाना था। उससे काफ़ी बातें कर लीं। फिर मैंने नहीं चाहा कि वह यहाँ आए. कष्ट होता होगा वहाँ से यहाँ आने में। वह शान्ति से रहे!
मुझे विश्वास है उससे फिर कभी, कहीँ, मिलूँगी ज़रूर!