विश्राम ─ बुलंदशहर में / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
'लोक संग्रह'और प्रेसकार्यी जी को सौंप कर मैं विश्राम के लिए सुलतानपुर (शाहाबाद) चला गया। फिर सोचा कि पास में रहने से बराबर लोग आते ही जाते रहेंगे। इसलिए वहाँ से भी राँची चला गया और सर गणेश के डेरे में महीनों पड़ा रहा। फिर वहाँ से लौटकर सिमरी रहा। सर गणेश के यहाँ जाने की बात आगे विस्तार से लिखी है। उसका सिलसिला आगे की बातों से मिलेगा। यहाँ एक प्रासंगिक बात लिख देता हूँ। मैं सन 1929 की गर्मियों में बुलंदशहर जिले के तौली ग्राम में जो अनूपशहर से 6-7 मील पश्चिम है, चला गया। बरसात के दो महीने वहीं कटे। मेरे एक चिर परिचित दंडी जी हैं स्वामी सोमतीर्थ जी। वे पहले योगाभ्यास करते थे। उसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली। मगर उसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि गर्मियों में उन्हें कष्ट ज्यादा रहता है। क्योंकि शरीर में गर्मी का असर उस अभ्यास के करते ज्यादा हो गया। फिर भी बड़े ही शांत और एकांतवासी है। ईधर कुछ दिनों से पता नहीं उनकी क्या हालत है?उसी अभ्यास के चलते रोगी तो होई गए है। हाँ, तो इस बार हम और वह दोनों ही एक ही साथ तौली गए और वहीं रहे। वहाँ के रईस चौधरी रघुवीर सिंह वगैरह असौढ़े के चौधरी रघुवीरनारायण सिंह के नातेदार पड़ते हैं। इसलिए उन लोगों से पहले ही परिचय था। उनसे आग्रह किया कि उन्हीं के गाँव पर कुछ समय रहा जाए। इसी से वहाँ गए। सचमुच ही वह निरी एकांत जगह मिली। स्टेशन से बीसियों मील दूर! बुलंदशहर से ही वहाँ जाना पड़ता है। सड़क तो पक्की है। पर, उन दिनों बहुत ही खराब थी। सिर्फ, ताँगे से ही वहाँ जाना पड़ा।
वहाँ दो चीजें देखने में आईं। एक तो जिनके यहाँ हम लोग गाँव से अलग हटकर एक बगीचे में ठहरे थे,उनके ही यहाँ नील की खेती देखी। पहले तो बिहार में और दूसरी जगह भी नील की खेती खूब होती थी। इससे रंग तैयार होता था। मगर पीछे जब विलायती रंग चला तो वह चीज जाती रही। फलत: हमें उसका दर्शन वहीं मिला। उन लोगों ने उसकी खेती जारी रखी थी। उससे कुछ नील का रंग भी तैयार करते थे। मगर उन्होंने जो नील की खेती का असली लाभ बताया उससे मैं बहुत आकृष्ट हुआ। बात आज भी ताजी ही हैं। वे लोग खूब ज्यादा खेती करते हैं। खेतों में खाद देने का सबसे उत्तम साधन नील की खेती समझ उन्होंने उसे नहीं छोड़ा। पारी-पारी से सभी खेतों में नील बोते हैं। उसकी जड़ें जमीन में सड़ कर अलग खाद का काम देती है और खेत में गिरी हुई पत्तियाँ जुदाही खेत की पैदावार बढ़ाती है। ये दोनों बातें अनिवार्य है अगर नील बोया जाए। पत्तियाँ गिरेंगी ही और जड़ें सड़ेंगी ही।
फिर जब नील काट कर हौज में सड़ाते और उसके बाद सड़ा हुआ पानी छानकर बहा देते हैं तो वह भी जमीन को सोना बना देता है। मैं उस पानी की बात तो पहले सुन चुका था। लेकिन जड़ों और पत्तियों की नहीं। यों तो सन की खेती करके थोड़ा बढ़ने पर ही यदि खेत जोत दें जिससे सन का पौधा मिट्टी के नीचे पड़ के सड़ जाए तो अच्छी खाद होती है। इसे ही हरी खाद (green manure) कहते हैं। मगर नील तो उससे कहीं अच्छी हरी खाद का काम देताहै। अफसोस कि किसान नील और सन की खाद भूलकर विलायती खादें पैसे से खरीद कर देने लगे हैं।
वहाँ मैंने दूसरी चीज देखी गुड़ और भूरा बनाने का चूल्हा। बिहार और यू. पी. के दूसरे जिलों में मैंने मामूली चूल्हे देखे हैं। इनमें ईंधन ज्यादा लगता है। आँच खराब भी जाती है। मगर वहाँ तो निराला चूल्हा देखा जिसमें ईंधन कम लगता, आँच कहीं तेज होती और वह नुकसान भी नहीं होती। एक चूल्हे के पीछे थोड़ी आँच निकलने के लिए एक जरूरी सूराख होता है। उससे जो आँच निकलती है वह जाया ही होती है। इसलिए वहाँ वह सूराख न बना कर पहले चूल्हे के पीछे थोड़ी ऊँचाई पर दूसरा चूल्हा,उसके पीछे इसी तरह तीसरा, फिर चौथा, पाँचवाँ आदि सात चूल्हे बने थे। भीतर-ही-भीतर एक से दूसरे का संबंध था। फलत: ईंधन पहले में देने से ही आँच भीतरी संबंध से दूसरे में, वहाँ से तीसरे में इस प्रकार सभी चूल्हों में जाती थी। पहले चूल्हे पर कड़ाही में ऊख का रस देते थे। थोड़ा गर्म होते ही ऊपरवाले चूल्हे की कड़ाही में उसे बदलकर पहली में नया रस देते थे। फिर दूसरावाला तीसरी में, चौथी में। इस तरह बदलते-बदलते आखिर में जाकर गुड़ या रवा (राब) की चासनी तैयार हो जाती थी। तब उसे निकालकर नीचे से क्रमश: दूसरा, तीसरा रस लाते रहते थे। इस प्रकार आँच जरा भी जाया होती न थी। वह तेज तो इतनी होती थी कि ऊख की पत्तियों को जलाने पर उन्हीं की राख की झामा बना मैंने वहीं देखा! सभी किसानों को इस प्रकार के चूल्हे का ही प्रयोग करना चाहिए।
मैं वहाँ एक और चीज देखकर मुग्ध हुआ। पुराने ढंग के चरखे वहाँ बराबर चलते पाए। देहाती हाटों में बहुत ज्यादा सूत ला-लाकर औरतें बेचा करती थीं। उन्हीं की बनी शुद्ध खादी भी बहुत ही सस्ती वहाँ मिलती थी। कपास तो उधर बहुत ही काफी होती हैं। चरखे भी बंद हुए न थे। इसलिए खादी के लिए वहाँ नए उद्योग की जरूरत ही न थी। सिर्फ सूत खरीदने का काम था। फिर तो जितना चाहिए कता-कताया पाइएगा। तब तक तो गाँधी आश्रम और चरखा संघवालों का वहाँ दर्शन न हुआ। शायद पीछे पहुँचे हों। वहाँ का बहुत ही सस्ता सूत और सस्ती खादी काम की चीज थी। यह ठीक है कि मोटी खादी ही बनती थी। महीन सूत नहीं कतता था। यह भी मालूम हुआ कि लिहाफ या रजाई में एक-दो साल तक रूई रख के उसे निकाल लेते और उसमें नई रूई देते थे। उसी निकली रूई को धुलाकर धुन लेते और सूत कातते थे। इससे सूत भी सस्ता पड़ता था और रूई का अच्छा आर्थिक उपयोग भी होता था। वह जरा भी खराब या नष्ट होने न पाती थी। किसानों को ऐसी समझ हो ताकि अपनी हरेक चीज का खूब ही उपयोग करें तो कितना अच्छा हो।
एक साधु की कहानी है कि वह कपड़े की पहले धोती बनाता। धोती फटने पर उसके गमछे। गमछे फटें तो लँगोटियाँ। लँगोटियाँ फटीं तो उन्हें बाटकर रस्सी और रस्सी टूटने पर उसे जलाकर भस्म बनाता और सिर तथा देह में उस भस्म को लगा लेता था। यह कितनी सुंदर बात है। वहाँ कि किसान थोड़ा-बहुत ऐसा ही करते थे। अस्तु, वर्ष के बाद मैं वहाँ से पुन: बिहार लौट आया।